Tuesday, August 4, 2020

प्राचार्य कैसे-कैसे-2

मैंने जुलाई 1967 में राजस्थान कॉलेज शिक्षा सेवा में प्रवेश किया और नवम्बर 2003 में इस सेवा से निवृत्त हुआ. लगभग 36 वर्षों के इस कार्यकाल में अंतिम 32 माह को छोड़कर, जब मैं निदेशालय कॉलेज शिक्षा में संयुक्त निदेशक पद पर कार्यरत रहा, सारा समय विभिन्न महाविद्यालयों में कार्यरत रहा. इस दौरान मुझे लगभग बीस प्राचार्यों के साथ काम करने का अवसर मिला और उनमें से हरेक से मैंने कुछ न कुछ सीखा. आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो उन बीस में से एक स्वर्गीय महेश कुमार भार्गव मुझे कुछ ज़्यादा ही याद आते हैं. वे 1978 से 1981 तक राजकीय महाविद्यालय, सिरोही में मेरे प्राचार्य रहे. उनके व्यक्तित्व और कार्य शैली का मुझ पर इतना भारी प्रभाव रहा कि जब मार्च 2000 में मैं राजकीय महाविद्यालय सिरोही का प्राचार्य बना तो एक क्षण को मैं उस कुर्सी पर बैठते हुए झिझका जिस पर कभी एम. के. भार्गव जैसे प्राचार्य बैठ चुके थे, और फिर दूसरे ही क्षण मुझे यह गर्व भरी प्रतीति हुई कि मैं इतनी महान परम्परा की एक कड़ी बनने जा रहा हूं. भार्गव साहब से जुड़ा एक संस्मरण कुछ दिन पहले मैं साझा कर चुका हूं (देखें: प्राचार्य कैसे-कैसे).  आज उसी क्रम को आगे बढ़ा रहा हूं:

एक छोटी-सी, बल्कि कहें उनकी बहुत बड़ी बात आज मेरे जेह्न पर दस्तक दे रही है. यह बात उस व्यक्ति की मानसिक निर्मिति को दर्शाती है. प्राचार्य भार्गव साहब की बेटी मंजरी भार्गव भी हमारे ही कॉलेज में इतिहास की प्राध्यापिका थीं. शायद कुछ लोगों को याद हो कि ये मंजरी भार्गव तैराकी की अर्जुन पुरस्कार विजेता भी थीं. लेकिन विमला और मेरे लिए वे न प्रोफ़ेसर थीं, न अर्जुन पुरस्कार विजेता. हमारे लिए वे केवल मंजु जी थीं. हुआ यह कि एक दिन हम कुछ परिवारजन भार्गव साहब के बंगले पर बैठे गपशप कर रहे थे (बाद में वही बंगला कुछ समय के लिए हमारा भी आशियाना बना!). मंजरी ने कोई लेख लिखा था और उस पर वे मेरी सलाह चाह रही थीं. उन्होंने बड़े सहज भाव से कहा “अग्रवाल साहब, आप इस काम के लिए कब आ सकेंगे?” यह कोई ख़ास बात नहीं थी. भार्गव साहब कॉलेज में प्राचार्य थे लेकिन उनसे हमारी बहुत गहरी पारिवारिकता थी. इतनी ज़्यादा कि जब भी उनके यहां कढ़ी बनती, वे कॉलेज में ही चपरासी को भेजकर मुझे अपने चेम्बर में बुलाते और हौले-से कहते, “डीपी, आज घर पर कढ़ी बनी है. लंच में मेरे साथ चलना!” मेरा कढ़ी प्रेम विश्वविख्यात था और है. लेकिन जैसे ही मंजरी ने मुझसे अपने घर आने को कहा, भार्गव साहब ने फौरन उन्हें टोका. बोले, “मंजु, अग्रवाल साहब तुम्हारे घर क्यों आएंगे? ये तुमसे सीनियर हैं. तुम्हें पूछना चाहिए कि सर, मैं आपके यहां कब आ सकती हूं?” क्या आज कोई कल्पना भी कर सकता है कि एक प्राचार्य पिता अपनी प्राध्यापक बेटी को इस तरह टोक सकता है? लेकिन भार्गव साहब वाकई अदभुत थे. अद्भुत और अनुकरणीय. उनसे बहुत सीखा है मैंने.

और यह लिखते हुए मुझे उनका एक और प्रसंग याद आ रहा है, जिसे बताए बिना रहा नहीं जा रहा है. वह सर्दी की रात थी. शायद दिसम्बर का महीना रहा होगा. हम खाना खाकर रजाई में घुस चुके थे. कोई आठेक बजे घर की घण्टी बजी. रजाई में से निकल कर, ताला खोलकर बाहर आया तो देखा प्राचार्य भार्गव साहब खड़े हैं. वैसे हम लोगों का एक दूसरे के यहां खूब आना-जाना था, और जैसा मैंने पहले भी कहा है, भार्गव साहब हम लोगों से कुछ ज़्यादा ही स्नेह रखते थे, लेकिन उस समय उनका आना मुझे भी चौंका गया. मैं उनसे कुछ कहता-सुनता और उन्हें घर के भीतर आने को कहता, उससे पहले विमला, मेरी पत्नी भी बाहर आ गईं. भार्गव साहब बोले, “उमा (उनकी पत्नी) कार में हैं. वे यहां मिसेज़ अग्रवाल के पास रुकेंगी, और डीपी, तुम मेरे साथ चलो!” कोई भूमिका नहीं, कोई जानकारी नहीं. बस, साथ चलने का आदेश. मैंने बाहर जाने योग्य कपड़े पहन कर आने की इजाज़त ली और तब तक वे तथा श्रीमती भार्गव हमारे दरवाज़े पर ही खड़े रहे. मैं कपड़े बदल कर आया तो श्रीमती भार्गव कार से निकल कर मेरे घर में आ गईं और मैं कार में जा बैठा. तब तक भार्गव साहब ने नहीं बताया कि वे मुझे कहां ले जा रहे हैं. थोड़ी देर में कार जाकर रुकी हमारे कॉलेज के सामने. मेरे घर से कॉलेज बमुश्क़िल एक किलोमीटर दूर होगा. तो मुश्क़िल से तीन-चार मिनिट लगे होंगे. उन दिनों किसी मुद्दे पर छात्र हड़ताल पर थे और वे रात को भी कॉलेज के बाहर धरना दिये हुए थे. भार्गव साहब ने कार रोकी, मुझे बाहर निकलने का इशारा किया और हम दोनों सीधे कॉलेज के गेट पर जा पहुंचे जहां दस पंद्रह विद्यार्थी ठण्ड में सिकुड़ते हुए धरने पर जमे हुए थे. भार्गव साहब ने उनसे कहा कि तुम बेशक अपना धरना ज़ारी रखो, लेकिन मुझे यह फिक्र है कि कहीं ठण्ड के मारे बीमार न पड़ जाओ. मै यह देखने आया हूं कि तुम्हारे पास ओढ़ने बिछाने का पर्याप्त इंतज़ाम है या नहीं. अगर न हो तो मैं टेण्ट हाउस से अभी भिजवा देता हूं. और इतना कह कर वे वापस अपनी कार की तरफ मुड़े. पीछे-पीछे मैं. अब उनकी कार जाकर रुकी एक टेण्ट हाउस के सामने. उन्होंने आदेश दिया कि पंद्रह बीस गद्दे और रजाइयां तुरंत कॉलेज के बाहर पहुंचा दिये जाएं! यह सब देखकर मैं तो अवाक था. विद्यार्थी पूरे दिन प्राचार्य मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हैं और प्राचार्य है कि कड़कड़ाती ठण्ड में उनकी सेहत की फिक्र कर रहा है. रास्ते में वे मुझसे बोले, “डीपी, हैं तो ये अपने ही बच्चे! हम इनको बीमार पड़ता कैसे देख सकते हैं?” कहना अनावश्यक है कि अगली सुबह जब मैं कॉलेज पहुंचा तो पाया कि विद्यार्थी अपना धरना ख़त्म कर चुके थे. ऐसे बड़े मन वाले प्राचार्य को मैं कैसे भूल सकता हूं!

Sunday, August 2, 2020

मृत्यु भी एक उद्यम है!


लीजिए साहब, कैलिफोर्निया की एक स्टार्ट अप कम्पनी ने लोगों के  समग्र जीवनानंत  अनुभव को नया आकार  देने का बीड़ा उठाया है. बैटर प्लेस फॉरेस्ट्स नामक इस कम्पनी ने दावा किया है कि वह जीवन के अंत के सम्पूर्ण अनुभव को पूरी तरह बदल देगी. अभी तक तो होता यह रहा है कि जैसे ही कोई व्यक्ति आखिरी सांस  लेता है उसके परिजन पारम्परिक विधि से उसके अंतिम संस्कार की तैयारियों में जुट जाते हैं. विभिन्न समाजों में  इन अंतिम संस्कारों के रूप अलग-अलग हैं. मसलन कहीं देह को सुपुर्दे  ख़ाक किया जाता है तो कहीं उसे अग्नि को समर्पित किया जाता है. पश्चिम में जहां ईसाई धर्म के मानने वाले अधिक हैं, सामान्यत: शव को ताबूत में रखकर पृथ्वी को समर्पित कर दिया जाता है.

अमरीका जैसे हर चीज़ में व्यावसायिक सम्भावनाएं तलाश कर लेने वाले समाज में मृत्यु को भी एक बड़े उद्यम और व्यवसाय के रूप में स्थापित कर लिया गया है. और जब जीवन में सब कुछ पर महंगाई की मार पड़ रही है तो भला मौत पर उसका असर कैसे न हो! एक मोटे अनुमान के अनुसार हाल के बरसों में अमरीका में अंतिम संस्कार की लागत में दुगुनी वृद्धि हो चुकी है. ऐसा बताया जाता है कि अब अमरीका में एक शव के  अंतिम संस्कार की लागत सामान्यत: पंद्रह से बीस हज़ार डॉलर के आसपास होने लगी है. और जैसे इतना ही काफ़ी न हो, बढ़ते शहरीकरण के कारण कब्रस्तानों के लिए ज़मीन का टोटा भी होता जा रहा है. इन बातों का एक असर यह भी हुआ है कि अब बहुत सारे अमरीकी भी पारम्परिक अंतिम  संस्कार की बजाय दाह संस्कार का वरण करने लगे हैं. इस बदलाव के बावज़ूद अमरीका में अंतिम संस्कार का बाज़ार काफ़ी बड़ा है. लगभग 20 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष. इसी बड़े बाज़ार और घटती ज़मीन ने बैटर प्लेस फॉरेस्ट्स जैसे स्टार्ट अप को इस नवाचार के लिए प्रेरित किया है.

बैटर प्लेस फॉरेस्ट्स वाले अलग-अलग जगहों पर खूब सारी ज़मीन खरीद रहे हैं  और उस ज़मीन के छोटे-छोटे  हिस्से लोगों को इस आश्वासन के साथ बेच रहे हैं  कि उसे यथावत रखा जाएगा, उसका कोई विकास नहीं किया जाएगा. विकास से यहां आशय आधुनिक निर्माण आदि से है. हां, इस ज़मीन पर तरह तरह के पेड़ लगाए गए हैं और ऐसे हज़ारों पेड़ भावी मृतकों को बेचे जा चुके हैं. मौत के बाद के जीवन के लिए चिंतित लोग वहां जाते हैं, अपनी पसंद का पेड़ चुनते  हैं और उनके नाम की एक पट्टिका वहां लगा दी जाती है. बहुत सारे लोग पेड़ विहीन ज़मीन भी चुनते हैं. ऐसे लोगों में से जब किसी का निधन होता है तो उसकी राख व अस्थियां खाद आदि के साथ मिश्रित कर उस ज़मीन में या उस पेड़ की जड़ों में डाल दी जाती है. कम्पनी का वादा है कि अगर कभी ऐसा कोई पेड़ मर गया तो उसकी जगह उसी प्रजाति का नया पेड़ लगा दिया जाएगा. कम्पनी का करोबार ठीक चल रहा है. अभी उसमें पैंतालीस लोग काम कर रहे हैं और अगर कम्पनी के दावों पर विश्वास करें तो हज़ारों लोगों ने वहां अपने अंतिम संस्कार के लिए पेड़ खरीद लिये हैं.

इस तरह अपने अंतिम संस्कार के लिए ज़मीन और पेड़ आरक्षित करने का न्यूनतम खर्च तीन हज़ार डॉलर है. इस राशि में किसी सामान्य प्रजाति का नया लगाया पौधा मिलता है, जबकि जो लोग तीस हज़ार डॉलर तक खर्च करने की हैसियत रखते हैं उन्हें दुर्लभ और महंगी  प्रजाति का  विकसित पेड़ मिल जाता है. और हां, जो लोग और भी कम खर्च करना चाहते हैं वे मात्र नौ सौ सत्तर डॉलर खर्च कर किसी सामुदायिक वृक्ष की जड़ों में अपना डेरा डालने का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं. कुछ लोग अपने लिए कोई अकेला खड़ा पेड़ चुनते हैं तो कोई मौत के बाद भी समूह में रहने की ललक के साथ समूह में लगाए गए पेड़ों में से एक का चुनाव कर लेते हैं. एक और बात. क्योंकि ज़माना तकनीक का है तो मौत के बाद भी तकनीक का दामन थामे रहा जा सकता है. जो लोग अपनी जेब थोड़ी और ढीली कर सकते हैं वे अपना एक डिजिटल मेमोरियल वीडियो भी बनवा सकते हैं ताकि जब कोई उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने आए तो वो बारह मिनिट का यह वीडियो देख उनकी यादों में डूब सके.

स्टार्ट अप की इस योजना की कामयाबी पर बहुतों को संशय भी है. उन्हें लगता है कि जब रात को चुपचाप जाकर किसी खाली पड़ी ज़मीन पर अपने प्रियजन के अंतिम अवशेष को निशुल्क विसर्जित किया जा सकता है तो भला इतनी बड़ी राशि कोई क्यों खर्च करेगा? यह देखना दिलचस्प  होगा कि मृत्यु के इस कारोबार की परिणति क्या होती है!

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यादें आबू रोड की

कल जब मैंने अपने आबू रोड के कार्यकाल का एक संस्मरण लिखा तो प्रसंगवश उसमें यह भी ज़िक्र आ गया था कि वहां की स्मृतियों में और काफी कुछ है जिन्हें लिखने में मुझे संकोच है. मेरे कुछ मित्रों ने पुरज़ोर आग्रह किया कि जो अनुभव हैं उन्हें लिख ही दूं. उनके आदेश को टाल नहीं पा रहा हूं. पढ़ें यह अंश:

पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि जुलाई 1998 से मार्च 2000 तक का करीब बीस माह का आबू रोड का कार्यकाल मेरे सेवा काल का सबसे कठिन कार्यकाल रहा. वैसे उचित यह होगा कि इन बीस माह में से करीब छह माह अलग कर दूं. इन छह माह की चर्चा कल कर ही चुका हूं. इसलिए सच तो यह है कि सिर्फ़ चौदह माह ही मुश्क़िल से बीते. और इसकी वजह सिर्फ यह कि आबू रोड कॉलेज सही मानों में एक बिगड़ा हुआ कॉलेज था. कॉलेज को बिगाड़ने में वहां की छात्र राजनीति की और वहां की सामाजिक संरचना की बहुत बड़ी भूमिका है. वहां के एक राजनेता, तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष विनोद परसरामपुरिया (अब स्व.) का एक दिन फोन आया. न कोई दुआ न कोई सलाम. सीधे बोले, “प्रिंसिपल साहब, आपको यहां रहना है या नहीं रहना है?” मैंने पूछा कि क्या बात है, तो बोले, “आपको इतना समय हो गया यहां आए, आप एक बार भी मुझसे मिलने नहीं आए!” मैंने अपने को काबू में रखते हुए जवाब दिया कि “न तो आपने कभी मुझे बुलाया और न मुझे कोई काम पड़ा. आता कैसे?” बोले, “आप जानते हैं, मैं आपका तबादला करा सकता हूं.” मैंने यह कहते हुए कि “अब तक तो नहीं मालूम था, अब आपने बता दिया है”, फोन रख दिया. उसके बाद उनसे कभी कोई संवाद नहीं हुआ.

आबू रोड सिरोही ज़िले में ही स्थित है लेकिन वहां की संस्कृति सिरोही से एकदम अलहदा है. आबू रोड की युवा पीढ़ी के लिए एक शब्द बहु प्रयुक्त है: चवन्ना. अर्थ बहुत स्पष्ट है. वैसे मुझे कभी भी यह बात नहीं रुचती है कि किसी पूरे के पूरे समूह को एक ही डण्डे से हांका जाए या उस पूरे समूह पर एक लेबल लगा दिया जाए. लेकिन लगभग दो बरस आबू रोड में रहकर मुझे लगा कि जिसने भी यह नामकरण किया होगा, अवश्य ही वह भुक्त भोगी रहा होगा. विद्यार्थी राजनीतिक दलों की युवा शाखाओं एन.एस.यू.आई. और ए.बी.वी.पी. में बुरी तरह विभक्त और हर वक़्त लड़ने-मरने और प्रशासन की नाक में दम करने को तैयार. व्यवहार में विनम्रता और शालीनता का दूर-दूर तक कोई ठिकाना नहीं. जाति की बात करना मेरे स्वभाव में नहीं, लेकिन वहां जाकर महसूस किया कि अगर किसी जाति के युवाओं को अशिष्टता के लिए पहला पुरस्कार देना हो तो वह जाति अग्रवाल होगी. हालत यह हो गई कि अगर कोई छात्र मेरे पास आता और अशिष्टता से पेश आता तो मैं उससे पहली बात यही पूछता कि “कहीं तुम अग्रवाल तो नहीं हो?” और उनका आभार कि उन्होंने मुझे एक बार भी ग़लत साबित नहीं किया. सबसे ज़्यादा मज़ा तो तब आया जब मैं, अपने आबू रोड पदस्थापन के करीब-करीब आखिरी दिनों में वहां की एक प्रख्यात मिठाई की दुकान पर खरीददारी के लिए गया. दुकानदार भी मुझे पहचानता था. उस दिन जाने क्या बात हुई, उसने बहुत झुककर, ज़रूरत से ज़्यादा ही झुककर मुझे नमन किया. मैंने जब इसकी वजह पूछी तो वह बोला कि “सर! मैं आपको नमन इसलिए कर रहा हूं कि हम तो अपने एक-दो बच्चों को भी नहीं झेल पाते हैं, आप पूरे कॉलेज को झेल रहे हैं!” हो सकता हो, उस दिन उसके सपूतों ने कुछ अधिक ही आबूरोडपना दिखा दिया हो.

लेकिन फिर भी वहां बीस माह गुज़ारने में मुझे अधिक पीड़ा नहीं हुई. इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि वहां के स्टाफ से मुझे बहुत सहयोग मिला. विशेष रूप से टीचिंग स्टाफ़ से. डॉ एसबी लाहिड़ी, अनिता गुप्ता, अंशु रानी सक्सेना, गोपाल कृष्ण सुखवाल, भगवान दास,सत्य भान यादव, हनुवंत सिंह चौहान, संस्कृत की एक मै’म, जिनका नाम याद नहीं आ रहा, आदि मेरे बहुत अच्छे सहयोगी रहे. मेरे उपाचार्य प्रो. सवाई राम ने हमेशा मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया. अलबत्ता दफ़्तर का हाल इतना अच्छा नहीं था. ज़्यादातर लोग न तो ख़ुद काम करना चाहते थे और न उन्हें यह बात सहन होती थी कि कोई दूसरा काम करे. मेरे शिक्षक सहकर्मियों ने मुझे जब उन्मुक्त सहयोग दिया तो कार्यालय के साथियों ने उन्हें यह कहते हुए कि यह जो काम आप कर रहे हैं, यह आपका है ही नहीं, भड़काने का हर सम्भव प्रयास किया. उन दिनों कम्प्यूटर नया नया आया था, और मेरे कुछ शिक्षक साथी कम्प्यूटर सीखने में खूब रुचि लेते थे. दफ़्तर वाले उन्हें बार-बार टोकते, मेरे पास भी शिकायत लेकर आते कि ये कम्प्यूटर को खराब कर देंगे, या ये तो उस पर गेम खेलते रहते हैं. ज़ाहिर है कि मैं इन बातों को तवज्जोह नहीं देता, और यह उन्हें और बुरा लगता. लेकिन वक़्त जैसे-तैसे कट ही गया. मैं हर माह अपने दोस्तों के साथ संध्याकालीन ‘बैठकी’ के लिए सिरोही आता, और उस बैठकी में जैसे महीने भर का तनाव बह जाता.

कॉलेज का एक प्रसंग साझा करने काबिल हैं. सिरोही में मैंने देखा-सीखा था सारा स्टाफ एक परिवार की तरह रहता है. यही प्रयास मैंने यहां भी किया. सत्र के अंतिम कार्य दिवस पर कॉलेज परिसर में स्टाफ की सपरिवार एक मिलन सांझ रखी. थोड़ा बहुत गाना बजाना और फिर प्रीतिभोज. यह कोई असामान्य बात नहीं थी. सारे कॉलेजों में सत्र के अंतिम कार्य दिवस पर ऐसा होता है. उस आयोजन में मेरी बेटी ने भी कोई कविता सुनाई. अगले दिन किसी स्थानीय पत्रकार का फोन आया कि “प्रिंसिपल साहब आपके होते कॉलेज में यह क्या हो रहा है? न जाने क्या-क्या खाया पीया जा रहा है और अश्लील नाच गाने हो रहे हैं!” मैंने जब उस पत्रकार से विस्तार में बात की तो पता चला कि कॉलेज के ही एक विद्यार्थी ने पास की किसी छत से कविता सुनाती हुई मेरी बेटी की फोटो लेकर न जाने क्या-क्या बताते हुए उस पत्रकार को उकसा दिया था. जब मैंने उसे कहा कि यह फोटो तो मेरी ही बेटी की है, तो उससे कुछ बोला नहीं गया. उसी ने मुझे अपनी जानकारी का स्रोत भी बताया. उस विद्यार्थी ने यह सारी बात कॉलेज शिक्षा निदेशालय को भी लिख भेजी थी. बाद में वहां से मुझसे इस पर टिप्पणी चाही गई जो मैंने भेज दी और मामला ख़त्म हो गया. लेकिन इस तरह की हरकतें वहां आम थी. यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि इन हरकतों को कॉलेज स्टाफ, विशेष रूप से कार्यालय स्टाफ का भी सहयोग मिलता था. लेकिन वक़्त बीत ही गया. शहर से भी मेरे ठीक-ठाक रिश्ते रहे. इनके मूल में एक बात यह भी थी कि सिरोही में इतना लम्बा समय बिताने की वजह से आबू रोड भी मुझे जानता-पहचानता था. अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि वहां भी मैंने खूब अनुभव अर्जित किये और बड़े मज़बूत रिश्ते भी बनाए, जो अब तक बने हुए हैं.

दो दशक पहले का 'कोरोना' काल!

आज शाम अपने भतीजे अरविंद  से बात कर रहा था. अरविंद उदयपुर में रहता है और उसका अच्छा ख़ासा और खूब फैला हुआ व्यवसाय है. बहुत व्यस्त रहता है. हमें गर्व होता है, बच्चों को इस तरह प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए देख कर. बहुत स्वाभाविक है कि बात इधर-उधर से होती हुए कोरोना पर आ टिकी. इसी क्रम में उसने एक मार्के की बात कही. बोला कि “चाचाजी, कोरोना के शुरुआती समय में करीब दो महीने कहीं जाना-आना नहीं हुआ, और यह समय मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत समयों में से है”. इस बात को समझ सकना मेरे लिए कठिन नहीं था. भाग दौड़ भरी ज़िंदगी में से अगर कुछ समय परिवार के साथ बिताने का मौका मिला तो उसे खूबसूरत और यादगार होना ही था. लेकिन जब अरविंद यह बात कर रहा था, तो उसकी बात सुनने के साथ ही मेरे मन में अपनी स्मृतियां भी तैर रही थीं. यह भी एक संयोग ही है कि अभी जिस स्मृति की बात कर रहा हूं उसका सीधा सम्बंध उससे भी है. आगे वाले वृत्तांत में मैंने अपने जिन भाई साहब के निधन पर उदयपुर जाने की चर्चा की है वे इस अरविंद के पिताजी ही थे.

असल में मैं इन दिनों अपने जो संस्मरण लिख रहा हूं उसमें अपनी नौकरी के बहुत सारे प्रसंग भी अंकित किये हैं. मैं प्राचार्य पद पर पदोन्नत होकर जुलाई 1998 में सिरोही ज़िले में स्थित आबू रोड पहुंचा था और करीब बीस माह वहां इस पद पर रहा. इसके बाद मेरी पदोन्नति स्नातकोत्तर प्राचार्य पद पर हो गई और मैं राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरोही में आ गया था. आबू रोड में अपने कार्यकाल के बारे में लिखने के लिए मेरे पास अधिक प्रीतिकर स्मृतियां नहीं हैं, हालांकि जो हैं उन्हें लिखा है. वहां के एक साथी भगवान दास  जी ने यह लिखा भी कि उन्हें मेरे इस कार्यकाल के संस्मरणों की प्रतीक्षा है, मैं उन्हें सार्वजनिक करने से बचता रहा हूं. लेकिन आज जब अरविंद से बात हुई तो लगा कि उस काल का एक संस्मरण तो साझा कर ही दूं. यह आबू रोड का मेरा दूसरा संस्मरण है. पता नहीं पहला संस्मरण कभी यहां सोशल मीडिया पर साझा करूंगा भी या नहीं! फिलहाल तो यह पढ़ें:

दूसरा प्रसंग बहुत मज़ेदार है. इसी कॉलेज के एक वरिष्ठ प्राध्यापक पूनमा राम खोड किसी अन्य कॉलेज में प्राचार्य पद पर कार्यरत थे और वे आबू रोड में आने के लिए प्रयत्नरत थे. यह स्वाभाविक भी है. मैं अपने भाई साहब के निधन के कारण उदयपुर गया हुआ था कि पीछे से इन खोड़ साहब का तबादला आबू रोड हो गया और मुझे भीनमाल स्थानांतरित कर दिया गया. अब क्योंकि खोड़ साहब आबू रोड आने को बहुत व्याकुल थे, वे शीघ्रातिशीघ्र आबू रोड आए और मेरी अनुपस्थिति में वहां के प्राचार्य का पद भार ग्रहण कर लिया. जब तीन चार दिन बाद मैं उदयपुर से लौटा तब तक किसी प्रशासनिक कारण से यह आदेश जारी हो गया कि अगले आदेश तक यथास्थिति बनाई रखी जाए. इसका अर्थ यह हुआ कि खोड़ साहब प्राचार्य हो गए, मैं अधर में लटक गया. यथास्थिति के चलते मैं भीनमाल जाकर भी जॉइन नहीं कर सकता था. अब, खोड़ साहब के मन में यह धुकधुकी कि जब मैं उदयपुर से लौटकर आऊंगा तब जाने क्या दंगा करूंगा? ख़ैर. मैं आया और दस बजे कॉलेज गया. खोड़ साहब कुर्सी पर बैठे हुए. मैंने उन्हें बधाई दी. वे तो धूम धड़ाके के लिए तैयार थे, जो हुआ नहीं. चाय आई. हमने चाय पी. न वे कुछ बोलें, न मैं. आखिर उन्होंने ही मौन तोड़ा. मुझसे पूछा “प्राचार्य कौन रहेगा?” मैंने जवाब दिया, “आप”. उन्होंने फिर पूछा, “इस चेम्बर में कौन बैठेगा?” मैंने कहा – “आप”. उनका अगला सवाल था, “आप कहां बैठेंगे?” मैंने उस कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए, जिस पर उस वक़्त मैं बैठा था, जवाब दिया- “यहां, या फिर स्टाफ रूम में जाकर बैठ जाऊंगा.” अब तो उनके पास पूछने को कुछ बचा ही नहीं था. तो मैंने ही कहा, “देखिये, मैं दस बजे कॉलेज आऊंगा, दस्तख़त करूंगा. जब तक मन होगा, यहां रुकूंगा. फिर घर चला जाऊंगा. मेरा फ़ोन नम्बर आपके पास है ही. कोई ख़ास बात हो तो मुझे सूचित कर सकते हैं.”

और इस तरह जो छह माह बीते वे मेरी नौकरी के सबसे ज़्यादा तनाव रहित छह माह थे. और उन्हीं छह महीनों को याद कर रहा था मैं अरविंद की बात सुनते हुए. इस दौरान मैंने खूब किताबें पढ़ीं, खूब फिल्में देखीं और खूब भ्रमण किया. कॉलेज से निकल कर घर जाता तो रास्ते में एक वीडियो लाइब्रेरी थी वहां से दो तीन सीडी किराये पर लेता और घर जाकर उनका आनंद लेता. हर रविवार सुबह नाश्ता करके हम दोनों घर से निकल जाते. पूरे छह माह हमारा यह क्रम रहा कि एक सप्ताह अम्बाजी जाना है तो दूसरे सप्ताह माउण्ट आबू. हमारे पास स्कूटर था. उसी पर ये यात्राएं कीं. उसी दौरान कॉलेज में एक बड़ी हड़ताल हुई. प्राचार्य मुर्दाबाद के नारों के बीच मैं विद्यार्थियों के भीड़ में से निकल कर कॉलेज जाता और बेहद तनावग्रस्त प्राचार्य के सामने एकदम निष्फिक्र भाव से कुछ देर बैठकर फिर उसी मस्त चाल से घर लौट आता. यह सुखद गत्यवरोध कोई छह माह चला.

Tuesday, July 28, 2020

अपने यहां प्रतिभाओं की कमी थोड़े ही है!

युवा मित्र यशवंत ने मुझे किन्हीं सज्जन का एक संदेश फॉरवर्ड किया है. इन सज्जन ने अपने परिचय में स्वयं को न्यूज़ प्रोड्यूसर एवम एडिटर इन चीफ़ बताया है. इन्होंने किसी संस्थान में लेखन विषयक किसी काम के लिए आवेदन करते हुए अपने परिचय में जो लिखा है उसका हिंदी अनुवाद यहां प्रस्तुत कर रहा हूं: “नमस्ते महोदय. मैंने हिंदी में सामग्री सर्जक (कण्टेण्ट क्रिएटर) के रूप में रेड एफएम, रेडियोसिटी, राजस्थान पत्रिका जैसे शीर्षस्थ मीडिया ब्राण्ड्स के साथ काम किया है. मैं एक महान लेखक हूं और हिंदी पर मेरा अधिकार मुंशी प्रेमचंद से भी बेहतर है. आप इस पद के लिए मेरे नाम पर विचार कर सकते हैं.” मुझे नहीं पता कि जिन्हें इन सज्जन ने यह संदेश भेजा है उन्होंने इनकी सेवाएं लेने का सौभाग्य प्राप्त किया या नहीं. लेकिन इनके इस संदेश को पढ़ते हुए मुझे अनायास अपनी नौकरी के दिनों के एक मित्र की याद आ गई. वे भी मेरी ही तरह कॉलेज व्याख्याता थे. उनके विषय का उल्लेख जान बूझकर नहीं कर रहा हूं. उनकी ‘रचनात्मकता’ उन दिनों उफान पर थी. महीने डेढ़ महीने में एक किताब वे लिख दिया करते थे. उनका प्रकाशक जिस विषय पर कहता उसी पर वे तीस-चालीस दिनों में चार पांच सौ पन्नों की किताब लिख कर पेश कर देते. जानकार साथीगण दबे स्वरों में उनकी किताबों को ‘छात्रोपयोगी’ कहा करते थे. यह भी सुनने को मिला था कि पुस्तक उत्पादन के इस काम को वे कुटीर उद्योग की तर्ज़ पर किया करते थे और उनकी पत्नी, बच्चे सभी इस उद्यम में सहयोग करते थे. करत-करत अभ्यास के वाली बात को चरितार्थ करते हुए उनकी पत्नी और बच्चे भी ‘लेखक’ बन गए.
मेरी उनसे दोस्ती थी. अब स्वीकार कर लेता हूं कि एक दिन मज़े लेने के लिए मैंने उनसे पूछा कि आप इतनी सारी ‘साहित्य सेवा’ कैसे कर लेते हैं? कहना अनावश्यक है कि यह सवाल पूछने से पहले मैंने उनकी रचनात्मकता की भूरि-भूरि सराहना की. शायद इस सराहना का ही प्रभाव था कि वे बहुत जल्दी खुल गए, और अपना एक ट्रेड सीक्रेट मुझे बता दिया. बोले, “आपकी हिंदी का कोई लेखक है, रामधारी सिंह दिनकर. उसकी किताब को मैंने अपनी इस किताब का आधार बनाया है.” मैंने बड़ी मासूमियत से पूछा, “आधार बनाकर फिर आपने क्या किया?” अब वे पूरी तरह खुल गए थे. बोले, “अरे डॉक्टर साहब. बस आधार पुस्तक मिल गई. इसके बाद तो कुछ ख़ास करना ही नहीं था. मैंने तो बस इस किताब की हिंदी थोड़ी ठीक कर दी. और मेरी यह किताब तैयार हो गई!” अब क्या यह भी बता ही दूं कि रामधारी सिंह दिनकर नामक लेखक की जिस किताब की हिंदी उन्होंने ठीक की थी, उस किताब का नाम क्या था? किताब का नाम था – 'संस्कृति के चार अध्याय!'
भले ही हिंदी पर प्रेमचंद से भी ज़्यादा अधिकार रखने वाले इस महान लेखक के दर्शनों का सौभाग्य मुझे नहीं मिला है, मैं इस बात पर तो गर्व कर ही सकता हूं कि रामधारी सिंह दिनकर की हिंदी ठीक करने की योग्यता रखने वाला एक व्यक्ति मेरा भी सहकर्मी और मित्र रहा है!
अपने यहां प्रतिभाओं की कमी थोड़े ही है!

Wednesday, July 22, 2020

प्राचार्य कैसे-कैसे!


सिरोही में मैंने कॉलेज में एक गतिविधि में बहुत ज़्यादा रुचि ली और वह गतिविधि थी फिल्म प्रदर्शन. कॉलेज के पास एक 16 मि. मि. फिल्म प्रोजेक्टर था. महेश कुमार भार्गव जैसे उत्साही और नवाचारी प्राचार्य का सम्बल मिला तो मैंने कॉलेज में खूब ही फिल्में दिखाईं. कुछ लोकप्रिय किस्म की हिंदी फिल्में, कुछ विषयों से जुड़ी शैक्षिक फ़िल्में और कुछ नई लहर की फिल्में, जैसे एम एस सथ्यु की गरम हवा’. इस गतिविधि में हालांकि मुझे वक़्त खूब देना पड़ा, मज़ा भी बहुत आया.
इस चर्चा को और आगे बढ़ाऊं उससे पहले प्राचार्य महेश कुमार भार्गव की संवेदनशीलता का एक प्रसंग काबिले-ज़िक्र लग रहा है. फ़िल्म प्रदर्शन के लिए हम कॉलेज के रसायन विज्ञान विभाग के प्रयोगशाला सहायक क़मरुद्दीन की सेवाएं लेते थे. क़मरुद्दीन अल्प वेतन भोगी कर्मचारी था और नौकरी के बाद के समय में रजाई गद्दे सिल कर कुछ अतिरिक्त कमाई कर लिया करता था. जब फ़िल्म शो ज़्यादा ही होने लगे तो एक दिन क़मरुद्दीन ने मुझसे कहा कि इस वजह से वह शाम को अतिरिक्त आय के लिए जो काम करता है उसे करना कठिन होता जा रहा है. मुझे भी उसकी यह व्यथा उचित लगी. मैंने भार्गव साहब से इस बात की चर्चा की. अब अगर उनकी बजाय कोई और प्राचार्य होता तो वह रौब से कहता कि सरकारी आदेश है इसलिए काम तो करना ही पड़ेगा. लेकिन भार्गव साहब अलग ही मिट्टी के बने थे. उन्होंने फौरन उस अल्प वेतनभोगी कर्मचारी की तक़लीफ़ को समझा और मुझे एक रास्ता बता कर उसकी मुश्क़िल को हल किया. रास्ता यह था कि जिस दिन फिल्म शो होता, मैं प्राचार्य जी को एक आवेदन लिखता कि आज शाम आयोज्य फिल्म शो में काम करने वाले कर्मचारियों के जलपान के लिए बीस रुपये तक व्यय करने की अनुमति प्रदान करें. प्राचार्य जी उस पर अनुमति प्रदान कर देते. मैं वह अनुमति पत्र क़मरुद्दीन को दे देता. वह उसके साथ चाय का बिल लगाकर कैशियर से भुगतान ले लेता. यह व्यवस्था जब तक भार्गव साहब प्राचार्य थे, चलती रही.
भार्गव साहब को एक और प्रसंग के कारण मैं कभी नहीं भूल सकता. कॉलेज में प्रदर्शन के लिए एम एस सथ्यु की बहु प्रशंसित फ़िल्म गरम हवाआई थी. स्टाफ के लिए और आम जन के लिए उसके प्रदर्शन हो चुके थे. उन दिनों हम कोई लोकप्रिय हिंदी फिल्म कॉलेज के लॉन पर दिखाते तो जैसे पूरा शहर ही उसे देखने उमड़ पड़ता. तभी सुमेरपुर से स्वयं प्रकाश मेरे यहां आए. जब उनसे इस फ़िल्म का ज़िक्र हुआ तो वे भी इसे देखने को लालायित हो उठे. मैंने बहुत संकोच से अपने प्राचार्य भार्गव साहब से यह कहते हुए कि प्रोजेक्टर खुद मैं ही चला लूंगा, स्टाफ रूम में स्वयं प्रकाश के लिए इस फ़िल्म का विशेष शो करने की अनुमति मांगी. भार्गव साहब एक दम गुस्से में आ गए. बोले, “आप प्रोजेक्टर क्यों चलाएंगे? क्या मुझे नज़र नहीं आता है कि आप अपना कितना समय इस गतिविधि को देते हैं? आप स्वयं प्रकाश जी को यह फ़िल्म ज़रूर दिखाइये. इसके लिए क़मरुद्दीन को बुला लीजिए.मेरी खुशनसीबी है कि मुझे इस तरह के समझदार, संवेदनशील और कद्रदां प्राचार्य मिले. उनसे मैंने बहुत सीखा, जो बाद में मेरे काम भी आया.
इस गतिविधि में मुझे तत्कालीन उपाचार्य डी.सी.कृष्णानी का जो सहयोग मिला, उसकी चर्चा अलग से करने की ज़रूरत है. तब मैंने ब्रिटिश काउंसिल से शेक्सपियर के बहुत सारे नाटकों के मंचीय प्रदर्शन की फिल्में एक-एक करके मंगवाई. अब होता यह कि जिस दिन ऐसी किसी फिल्म का प्रदर्शन होता उसके कई दिन पहले से हम तैयारी शुरु कर देते. हम लाइब्रेरी में उस नाटक की जितनी भी प्रतियां होतीं वे और अगर उस नाटक का हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध होता तो उसकी प्रतियां लाइब्रेरी के काउण्टर पर रखवा देते और विद्यार्थियों को यह सूचना दे देते ताकि रुचि हो तो वे फिल्म देखने से पहले उसे पढ़ भी लें. फिर कृष्णानी साहब हर क्लास में जाकर उस फिल्म के प्रदर्शन की भूमिका तैयार करते. वे शेक्सपियर के महत्त्व और उस नाटक की विषय वस्तु का परिचय देते. इसके बाद जिस दिन फिल्म का प्रदर्शन होता, खुद कृष्णानी साहब माइक हाथ में लेकर खड़े होते और जैसे जैसे फिल्म चलती, वे उसके संवादों को म्यूट करके हिंदी में संक्षिप्त जानकारी देकर उस फिल्म को बोधगम्य बनाते. फिल्मों के इस शौक ने मुझे शहर में सिरोही फिल्म सोसाइटी जैसी गतिविधि के संचालन के लिए भी प्रेरित किया. जोधपुर के प्रो (अब दिवंगत) मोहन स्वरूप माहेश्वरी से प्रेरणा व सहयोग लेकर हमने कई बरस सिरोही में यह गतिविधि चलाई और न्यू वेव और समांतर फिल्म आंदोलन की करीब-करीब सारी फिल्में सिरोही की जनता को दिखाई. स्वाभाविक है कि ऐसा करके खुद मेरी कलारुचि तृप्त हुई.
कई बरस यह गतिविधि चली और फिर अचानक एक प्रसंग ऐसा आया कि मेरा मन उससे उचट गया और सिरोही सोसाइटी बंद हो गई. हुआ यह कि एक दिन एक फिल्म का शो शहर में किसी सार्वजनिक नोहरे में आयोजित था. उन्हीं दिनों हमारे कॉलेज में एच. बी. सक्सेना प्राचार्य होकर आए थे. उन्हें किसी ने इस गतिविधि के बारे में बता दिया तो उन्होंने मुझे तलब किया और किंचित नाराज़गी से यह कहा कि मैं यह कर रहा हूं इसकी जानकारी मैंने उन्हें क्यों नहीं दी? ख़ैर, मैंने उन्हें शाम के शो के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने घुमा फिराकर यह इच्छा व्यक्त की कि कोई उन्हें लेने आए, और ऐसा करना मेरे लिए शो की तैयारियों में व्यस्त होने के कारण सम्भव नहीं था. मैंने उन्हें यह कह दिया कि कृपया ठीक समय पर आ जाएं क्योंकि हम अपना शो एकदम ठीक समय पर शुरु कर देते हैं, लेकिन उन्होंने घुमा फिराकर यह जता दिया कि अगर उनके पहुंचने से पहले हमने शो शुरु कर दिया तो ठीक नहीं होगा.उस दिन तो जैसे तैसे वह शो हुआ, लेकिन उसके बाद मुझे लगा कि बेहतर यही होगा कि मैं इस गतिविधि से खुद को अलग कर लूं.
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जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे


मैं सन 1968 से 1974 तक राजकीय महाविद्यालय, चितौड़गढ़ में हिंदी प्राध्यापक रहा. वहीं की एक स्मृति आज साझा कर रहा हूं. 

चित्तौड़ कॉलेज में हमारे साथियों में एक युगल भी था जिसकी चर्चा का संकेत मैंने ऊपर किया था. ये थे विक्रम सिंह और निर्मला कुमारी शक्तावत. विक्रम सिंह जी कदाचित सोशल स्टडीज़ के और निर्मला जी समाज  शास्त्र की व्याख्याता थीं. विक्रम सिंह जी चित्तौड़ के पास के ओछड़ी गांव के ठिकानेदार थे और बहुत बार हम लोगों को अपने फार्म पर ले जाकर दावतें किया करते थे. ऑमलेट का स्वाद मैंने उन्हीं के यहां चखा. एक दौर ऐसा आया जब विक्रम सिंह जी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने ज़ोर मारा और वे विधायक पद के लिए कॉंग्रेस का टिकिट पाने के लिए जी-जान से जुट गए. हुआ कुछ ऐसा कि उन्हें टिकिट नहीं मिला लेकिन महिला कोटे के नाम पर हमारी भाभीजी यानी निर्मला जी को टिकिट मिल गया. निर्मला जी शुद्ध  गृहस्थिन किस्म की महिला थीं और इस तरह का सार्वजनिक जीवन उनके स्वभाव के अनुरूप नहीं था, लेकिन अपने पति की महत्वाकांक्षा के दबाव में वे राजनीति में कूद पड़ीं. उनके शुरुआती दौर में मैंने न केवल उनके लिए बहुत सारे भाषण लिखे, उन्हें भाषण देने के तौर तरीके भी सिखाए. एक समय ऐसा था जब किसी सार्वजनिक सभा में जाने से पहले वे मेरा लिखा भाषण कई कई बार मुझे सुनातीं, और फिर यह चाहतीं कि जब वे वाकई भाषण दें  तो मैं वहां मौज़ूद रहूं और फिर घर आकर उस भाषण का ईमानदार विश्लेषण कर उन्हें आगे के लिए मार्ग दर्शन दूं. उनकी राजनीति के शुरुआती दौर में कई बार मैंने सहर्ष यह दायित्व निर्वहन किया भी. उन्होंने शायद अपना पहला भाषण चित्तौड़ के गांधी चौक में दिया था और उसे सुनकर घर लौटने पर मैंने उन्हें उस मेडन स्पीच की कमियों से अवगत कराया था. वो दौर इंदिरा गांधी की लहर का था और उस लहर में निर्मला जी विधायक चुन भी ली गईं. 


इससे आगे का किस्सा बड़ा रोचक है. उनके विधायक चुन लिये जाने के कुछ ही समय बाद मेरा तबादला चित्तौड़ से सिरोही हो गया. मैं चित्तौड़ में बड़ा सुखी और आश्वस्त था. तबादला मेरे लिए बहुत गहरा आघात था. स्वाभाविक रूप से इस तबादले से बचने के लिए मैं उन्हीं भाभीजी के पास गया. विक्रम सिंह जी और भाभीजी ने मुझे मदद का आश्वासन दिया, और साथ ही यह भी कहा कि अमुक दिन उनके यहां खेत सिंह जी (उस समय के एक प्रतापी मंत्री) खाने पर आने वाले हैं, तो मैं भी ‘सहयोग’ करने आ जाऊं. इसी बीच कॉलेज शिक्षा निदेशक उदयपुर से जयपुर जा रहे थे तो वडैहरा साहब मुझे उनसे मिलवाने (और मेरी सिफारिश करने) स्टेशन पर ले गए. वडैहरा साहब ने जब निदेशक जी से कहा कि स्थानीय विधायक भी इनके पक्ष में हैं,  तो वे बहुत ज़ोर से हंसे. बोले,  “ उनके कहने पर ही तो मैंने यह ट्रांसफर किया है.” तस्वीर साफ़ हो चुकी थी. अगले दिन मैंने कॉलेज से ही भाभीजी को फोन किया. कहा, “आपके अब तक के सहयोग और सद्भाव के लिए कृतज्ञ हूं. अनुरोध है कि आप मेरे ट्रांसफर को कैंसल करवाने के लिए कोई प्रयत्न न करें. मैं यहां से रिलीव हो रहा हूं.” वैसे उस समय तबादलों की एक लम्बी श्रंखला बनी थी और कदाचित सारे ही तबादले इसी तरह राजनीतिक दबाव में हुए थे. मेरी जगह नीम का थाना से हेतु भारद्वाज चित्तौड़ आए थे, और मैं जब सिरोही गया तो वहां से इसी तरह जीवन सिंह को अन्यत्र जाना पड़ा था. बाद में मेरे इस प्रसंग का मज़ा लेते हुए हेतु जी ने बारहा साक़िब लखनवी का यह शे’र गुनगुनाया: बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे/ जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे. 

आहिस्ता-आहिस्ता तस्वीर पर से धुंध भी हटी. हुआ यह था कि चित्तौड़ में मुझे एक बहुत अच्छा परिवार मिला – ब्रज रतन भार्गव और उनकी पत्नी लक्ष्मी भार्गव का. भार्गव साहब एस.बी.बी.जे के मैनेजर थे और तीन छोटे बच्चों की युवा मां लक्ष्मी भाभीजी कुछ नया और सार्थक करने को लालायित गृहिणी. बहुत जल्दी हम लोगों का तालमेल बैठा और हमने बहुत सारे नए और सार्थक काम वहां किये. मसलन, हमने एक मैगज़ीन क्लब शुरु किया जिसमें हम सदस्यों से नियमित मासिक शुल्क (उस समय पांच रुपया) लेते और हम उनके घर पत्रिकाओं का एक बड़ा बस्ता भेजते जिसमें से कोई दो पत्रिकाएं वे दो दिन के लिए ले सकते थे. दूसरे दिन फिर हमारा बंदा जाता और उनसे वे पत्रिकाएं लेकर उन्हें नई पत्रिकाएं दे आता. यह व्यवस्था खासी लोकप्रिय हुई और एक समय इसकी सदस्य संख्या सौ तक जा पहुंची. कई पत्रिकाओं की तो हम पांच-पांच प्रतियां मंगवाने लगे थे. कहना अनावश्यक है कि इस मैगज़ीन क्लब का केंद्रीय कार्यालय मेरा घर था. इसी तरह भार्गव भाभीजी के मन में विचार आया कि चित्तौड़ में कोई अच्छा प्री-स्कूल नहीं है, तो क्यों न हम शुरु कर दें? और इस तरह शुरु हुआ एक स्कूल बाल भारती. कुछ समय हमने इसे इधर उधर चलाया और फिर ज़िला प्रशासन के सहयोग के कारण हम इसे डिस्ट्रिक्ट क्लब के भवन में चलाने  लगे. इस स्कूल के लिए मुझे अपनी बहन इंदु (कोचर) का भी बड़ा सहयोग मिला. बल्कि वह इस स्कूल की सर्वाधिक लोकप्रिय शिक्षिका बनी रहीं. अब इस स्कूल की सफलता और लोकप्रियता के कारण जो थोड़ी बहुत प्रशंसा मेरी भी हुई वह विधायक भाभीजी और उनके पति देव को नागवार गुज़री, और इसी वजह से उन्होंने मेरे स्थानांतरण की सिफारिश कर दी. 

बहुत बरसों बाद एक दिन अचानक जयपुर के सर्किट हाउस में निर्मला भाभीजी (तब तक वे सांसद भी रह चुकी थीं) से मेरा आमना-सामना हो गया. मैं क्योंकि सिरोही में था, चित्तौड़ की हलचलों से पूरी तरह अनभिज्ञ था. यह सोचकर कि शायद निर्मला जी ने मुझे देखा नहीं है, मैंने पूर्ववत आत्मीयता से उन्हें कहा- “भाभीजी, नमस्कार.”  और जैसे एक विस्फोट हुआ. वे फट पड़ी. “कौन भाभीजी? किसकी भाभीजी? मैं आपकी भाभीजी नहीं हूं.” मैं तो हतप्रभ था. भाभीजी कहकर मैंने क्या ग़लती कर दी? तभी वे फूट फूटकर रोने लगीं. जैसे तैसे मैं उन्हें अपने कमरे में ले गया, बिठाया, पानी पिलाया. तब जाकर वे कुछ स्वस्थ हुईं. और तब कहीं जाकर मुझे उनके इस तरह फट पड़ने का रहस्य समझ में आया. असल में वे आहिस्ता-आहिस्ता राजनीति में व्यस्त होती गईं, और इसी बीच उनके पति देव अपनी एक युवा  भानजी के मोह पाश में ऐसे फंसे कि उसे अपनी पत्नी की हैसियत ही दे बैठे. यह बात चित्तौड़ के अखबारों में तो खूब उछली थी लेकिन मैं इससे एकदम अनजान था. भाभीजी का कहना यह था कि जिस व्यक्ति (विक्रम सिंह) के रिश्ते से आप मुझे भाभीजी कह कर सम्बोधित कर रहे हैं, जब उसने ही इस रिश्ते को तोड़ दिया तो मैं आपकी भाभीजी कैसे रही? अब तो ख़ैर  वे दोनों ही तस्वीरों और स्मृतियों में रह गए हैं.  
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Monday, June 8, 2020

लेखा जोखा-2019: राजस्थान में हिंदी लेखन


लेखकों और विशेष रूप से हिंदी लेखकों की यह शाश्वत शिकायत है कि लोगों में पढ़ने की आदत घटती जा रही है. यह शिकायत बीस-तीस बरस पहले भी की जाती थी, आज भी की जाती है. किताब खरीद कर पढ़ने के बारे में तो इस तरह की शिकायतें और भी ज़्यादा की जाती हैं. लेकिन इन शिकायतों के बरक्स यह भी एक यथार्थ है कि खूब लिखा जा रहा है, खूब लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं, लोग लेखकों को देख-सुन रहे हैं और पुस्तक मेलों में किताबें बिक भी रही हैं. सच बात यह है कि शिकायतें भी सही हैं और सकारात्मक बातें भी सही हैं. मुझे यह भी लगता है कि आज पहले से बहुत ज़्यादा किताबें छप रही हैं लेकिन उसी अनुपात में  किताबें खरीदने वालों की संख्या नहीं बढ़ रही है इसलिए हर लेखक को लगता है कि उसकी किताब कम बिक रही है. हिंदी में एक ख़ास प्रवृत्ति यह भी है कि हम चाहते हैं कि हमारी किताब बिके, लेकिन जिसकी बिकती है उसके अच्छा लेखक होने में संदेह करने में भी हम देर नहीं करते हैं. यह भी सही है कि गम्भीर किताबों पर चर्चा कम होती है, हल्की-फुल्की किताबों पर ज़्यादा चर्चाएं होती हैं. लेकिन ऐसा तो सभी क्षेत्रों में होता है. बढ़ते जा रहे लिटरेचर फेस्टिवल्स का अपना अर्थशास्त्र और अपना तौर तरीका है जहां बहुत गम्भीर लेखन के लिए जगह कम ही बन पाती है. इन तमाम बातों के बीच जब मैं राजस्थान के लेखकों की वर्ष 2019 में आई किताबों पर एक नज़र डालता हूं तो मुझे असंतुष्ट होने का कोई कारण नहीं मिलता. हर विधा में खूब लिखा गया है, बेहतरीन भी. नए लेखक भी दृश्य पटल पर खूब  आए हैं. उनमें भरपूर ऊर्जा और उत्साह है और यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भी अपने लेखन को निरंतर परिष्कृत करते हुए  बहुत जल्दी साहित्य जगत में अपने लिए स्थान बनाएंगे.
कविताएं
राजस्थान के लेखकों ने  भी कविता लिखने में अधिक उत्साह दिखाया है. यहां तक कि हेतु भारद्वाज जैसे वरिष्ठ गद्यकार और आलोचक का कविता संग्रह कविता भर एक उम्र और अप्रतिम गद्यकार सत्यनारायण का कविता संग्रह साठ पार भी इस बरस प्रकाशित हुए. पीयूष दईया के दो कविता संग्रह इसी बरस आए – मार्ग मादरजात और त(लाश). आदिवासी विमर्श के सुपरिचित विशेषज्ञ हरि राम मीणा का कविता संग्रह आदिवासी जलियांवाला एवम अन्य कविताएं, आलोचक राजाराम भादू की भिन्न स्वाद वाली कविताओं का संग्रह स्वयं के विरुद्ध (पुनर्मुद्रण), वरिष्ठ कवि प्रकाश परिमल का हैण्ड्स अप हिंदुस्तान भी इसी बरस प्रकाशित हुए. इस साल प्रकाशित कविता पुस्तकों में सबसे ज़्यादा चर्चा रही कृष्ण कल्पित की हिंदनामा की. माया मृग का मुझमें मीठा है तू, ओम नागर का तुरपाई, विनोद पदरज का  देस, कैलाश मनहर का अरे भानगढ़  और हेमंत शेष का अफ़सोस दर्पण भी चर्चा में रहे. अपेक्षाकृत नए रचनाकारों में सूर्यप्रकाश जीनगर के पहले कविता संग्रह रेत से हेत ने ध्यान आकर्षित किया. इस साल प्रकाशित अन्य महत्वपूर्ण कविता पुस्तकों में जंगलों के बीच (बृजेंद्र कौशिक), फिर कविता का रूप बदलता (मेघराज श्रीमाली), जो शब्दों के अलाव पर नंगे पांव चलता है (नरेंद्र चतुर्वेदी) इश्क़ नाखुदा दिल पतवार (कविता माथुर), भोरगंध (आभा सिंह), चेहरों की तनहाइयां (ओमवीर करन), 108 मनके (कुन्ना चौधरी), ओ मेरे मन (ममता शर्मा अंचल’), मन वल्लकी (रितु सिंह वर्मा), अनकहे शब्द (रेनु शर्मा शंद मुखर’), और जुदा होना पड़ा (पण्डित आईना उदयपुरी) प्रमुख हैं.
कहानी
कविता से थोड़ी ही कम सक्रियता कहानी की दुनिया में देखने को मिली. इस बरस अत्यंत वरिष्ठ लेखिका सावित्री चौधरी का कहानी संग्रह अब क्या करूं, सुदेश बत्रा का फिर कब आओगे, नंद भारद्वाज का आवाज़ों के आस पास, नीलिमा टिक्कू का इंसानियत डॉट कॉम, नरेंद्र चतुर्वेदी का शायद कोई वह, रजनी मोरवाल के दो कहानी संग्रह – नमकसार और हवाओं से आगे,  तस्नीम ख़ान का दास्तान-ए-हज़रत, एस. भाग्यम  शर्मा का एक बेटी का पत्र, रेखा लोढ़ा स्मितका मुट्ठी भर आकाश, जितेंद्र कुमार सोनी का एडियोस: ढाई आखर की कहानियां, पद्मजा शर्मा के दो संकलन –वक़्त भी हैरान रह जाए तथा अन्य कहानियां  और मोबाइल पिक और हॉस्टल तथा अन्य कहानियां, तराना परवीन का बहुत उम्मीदें जगाता पहला कहानी संग्रह एक सौ आठ, रमेश खत्री का इक्कीस कहानियां तो आए ही, ईश मधु तलवार का लाल बजरी की सड़क, चरण सिंह पथिक का मैं बीड़ी पीकर झूंठ नी बोलता भी आए और चर्चाओं में रहे. एस. भाग्यम शर्मा ने अनुवाद के रूप में हमें श्रेष्ठ तमिल कहानियां का उपहार दिया तो नीरज दइया ने एक सौ एक राजस्थानी कहानियां हमें सौंपी. नंद भारद्वाज की राजस्थानी कहानियों का उन्हीं द्वारा अनूदित संग्रह बदलती सरगम भी इसी बरस आया. स्वयंप्रकाश की कहानियों का एक महत्वपूर्ण संकलन चौथा हादसा भी इसी बरस प्रकाशित हुआ.
उपन्यास
साल के प्रारम्भ में आए मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास मल्लिका और साल के अंत में आए हरि राम मीणा के  डांग के बीच ईश मधु तलवार के रिनाला ख़ुर्द, श्याम जांगिड़ के उदास हथेलियां, क्षमा चतुर्वेदी के अपने हिस्से की धूप, वीना चौहान के नारी कभी ना हारी, हिमाद्री वर्मा डोइ के नया जन्म और अतुल कनक के महत्वाकांक्षी सृजन अंतिम तीर्थंकर ने आश्वस्त किया कि हमारे रचनाकार बड़े फलक के प्रति भी कम अनुराग नहीं रखते हैं. राजेंद्र मोहन शर्मा का विनायक सहस्र सिद्धै भी इसी साल प्रकाशित हुआ. एस. भाग्यम शर्मा ने तमिल लेखिका आर. चूड़ामणि के उपन्यास का दीप शिखा शीर्षक से अनुवाद हमें सौंपा. वरिष्ठ लेखक और सम्प्रेषण के सम्पादक चंद्रभानु भारद्वाज ने भटक्यो बहुत प्रकाश शीर्षक से एक अनूठी कृति हमें दी जिसमें  आत्मकथा और उपन्यास दोनों का बहुत सुंदर मेल है. उर्दू हास्य व्यंग्य के सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षरों में शुमार मूलत: टोंक निवासी मुश्ताक़ अहमद यूसुफी के दो बहु प्रशंसित और चर्चित उपन्यास खोया पानी और धन यात्रा, जो लम्बे समय से अनुपलब्ध थे, इसी साल राजपाल से पुन: प्रकाशित हो सुलभ हुए. 
हास्य व्यंग्य
मुझे यह बात बहुत दिलचस्प लगती है कि हमारे बहुत सारे रचनाकार अपने सुपरिचित इलाकों से बाहर निकल कर अप्रत्याशित रच रहे हैं. मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि विजय वर्मा जैसे गम्भीर अध्येता हास्य व्यंग्य भी रचेंगे. उन्होंने हमें एक नया राग दिया – राग पद्मश्री. उन्हीं की तरह एक अन्य गम्भीर रचनाकर अम्बिका दत्त ने भी हमें परम देश की अधम कथा सुना डाली. और जब ऐसे रचनाकार हास्य व्यंग्य की तरफ खिंचे चले आए तो इस विधा के सुपरिचित रचनाकार भला कैसे  पीछे रहते? डॉ यश गोयल का नामुमकिन नेता, अजय अनुरागी का एक गधे की उदासी, पूरन सरमा का श्री घोड़ीवाला का चुनाव अभियान और उन्हीं का कुर्सी मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है इस बरस हमें  गुदगुदाने और भीतर ही भीतर कसमसाने को विवश करने में कामयाब  रहे. यशवंत कोठारी के सारे व्यंग्य उपन्यासों का किंडल संस्करण समग्र उपन्यास शीर्षक से आया. उन्हीं की 101 चुनिंदा व्यंग्य रचनाओं का संकलन होना फ्रेक्चर हाथ में भी किंडल पर आया है.
कथेतर
इधर हिंदी में कथेतर में बहुत  अधिक और बेहतरीन काम हो रहा है. राजस्थान भी इसका अपवाद नहीं है. असल में कथेतर में मौलिक और सर्जनात्मक होने की अपरिमित सम्भावनाएं हैं और हमारे रचनाकार इन सम्भावनाओं का खूब उपयोग कर रहे हैं. हाल में हमसे जुदा हुए विलक्षण कथाकार स्वयंप्रकाश की धूप में  नंगे पांव  एक अद्भुत कृति है. इस किताब में स्वयंप्रकाश ने अपने जीवन के उन क्षणों और प्रसंगों को शब्दबद्ध किया है जो उनके कथा साहित्य में नहीं आ सके. यहां स्वयंप्रकाश की रचनाशीलता अपने चरम पर है. हेतु भारद्वाज ने बैठे ठाले की जुगालियां में अपने मस्त मौला और बिंदास अंदाज़ में अतीतावलोकन किया है. उषा गोयल ने भी जीवन के रंग सृजन के संग में अपनी जीवन यात्रा में हमें साझीदार बनाया है. डॉ श्रीगोपाल काबरा ने कहां आ गए हम में उस सुखद अतीत से हमें मिलवाया है जिसे हम तेज़ी से  भूलते जा रहे हैं. और इसी सिलसिले में याद आती है हेमंत शेष की कृति भूलने का विपक्ष जिसमें उन्होंने राजस्थान के कुछ महत्वपूर्ण किंतु भुला दिए गए रचनाकारों के साथ-साथ कुछ अन्य को भी बड़ी आत्मीयता  से स्मरणांजलि दी है. रामबक्ष जाट की अनूठी संस्मरण कृति मेरी चिताणी भी इसी साल हमारे हाथों में आई.  इसी बरस आई उमा की कृति क़िसागोई हमारे सुपरिचित रचनाकारों को एक नए आलोक में प्रस्तुत करने का यादगार उपक्रम है. यही काम कैलाश मनहर ने मेरे सहचर मेरे मित्र में अलग तरह से किया है. अपने समकालीनों को क़मर मेवाड़ी ने भी यादें में बहुत खूबसूरती और अपनेपन से स्मरण किया है. सब कुछ जीवन सत्यनारायण की उनकी सिग्नेचर विधा रिपोर्ताज की कृति है. इस बरस प्रकाशित पुस्तकों में सोशल एक्टिविस्ट भंवर मेघवंशी की मैं एक कार सेवक था भी अपनी ईमानदारी और प्रखरता के लिए बहु चर्चित रही है. इनके अलावा हरिशंकर शर्मा की तू हमको पुकारे हम नहीं, प्रभाशंकर उपाध्याय की यादों के दरीचे, आभा सिंह की स्वप्न दिशा की ओर भी इसी साल आईं. देशबंधु अंगिरा की किताब मानसरोवर यात्रा, कुमार अजय की डायरी मैं चाहूं तो मुस्करा सकता हूं, सत्यनारायण की डायरी दु:ख किस कांधे पर और हरिशंकर शर्मा की पण्डित राधेश्याम  कथावाचक की डायरी पर आधारित विश्लेषणात्मक कृति डायरी का व्याकरण भी इस बरस की उल्लेखनीय कृतियां हैं. प्रबोध कुमार गोविल सम्पादित हरे कक्ष में दिनभर  और हरिशंकर शर्मा की संवादहीनता के युग में में महत्वपूर्ण साक्षात्कार पढ़ने को मिले. इसी बरस संगीत पर केंद्रित श्रीलाल मोहता और ब्रजरतन जोशी सम्पादित संगीत: संस्कृति की प्रकृति  और हिंदी फिल्म संगीत पर केंद्रित नवल किशोर शर्मा की फिल्म संगीत: संस्कृति और समाज भी प्रकाशित हुईं. अनुकृति सम्पादक जयश्री शर्मा के सम्पादकीय लेखों का संग्रह सम्पादक कहिन, स्वयंप्रकाश की डाकिया डाक लाया, प्रगति गुप्ता की सुलझे अन सुलझे, राजेंद्र गर्ग की आत्महीनता और अन्य मनोविकार और मिश्री लाल माण्डोत की बोध कथाओं की किताब जिओ ऐसे ज़िंदगी को भी इसी साल प्रकाशित हुईं. मालचंद तिवाड़ी की स्त्री का मनुष्यत्व और  गोपाल शर्मा सहरकी लोहा हैं ये शब्द इस साल आई दो और महत्वपूर्ण किताबें है. कवि- आलोचक सत्यनारायण व्यास की आत्मकथा  क्या कहूँ आज  का प्रकाशन इस विधा की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला होगा. और ससंकोच यह भी कि इसी बरस सामयिक विषयों पर मेरे लेखन के भी दो संग्रह आए –समय की पंचायत और जो देश हम बना रहे हैं.
नाटक इस बरस बहुत कम प्रकाशित हुए. मेरी जानकारी मदन शर्मा के एक थी माधवी और प्रबोध कुमार गोविल के बता मेरा मौत नामा तक सीमित है.
आलोचना
मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य की बात  है कि इस साल आलोचना के क्षेत्र में हमारे प्रांत ने काफी कुछ महत्वपूर्ण दिया है. साल की शुरुआत साहित्य अकादेमी की भारतीय साहित्य के निर्माता शृंखला में विश्वम्भरनाथ उपाध्याय पर हेतु भारद्वाज के मोनोग़्राफ़ से हुई तो साल बीतते बीतते इसी श्रंखला में नंद चतुर्वेदी पर पल्लव का मोनोग्राफ़ हाथ में आया. और इनके बीच आईं डॉ नवलकिशोर की लम्बे समय से अनुपलब्ध दो किताबें –मानववाद और साहित्य औरमानवीय अर्थवत्ता और हिंदी उपन्यास. इनके साथ ही लगभग चालीस साल बाद उनकी नई किताब प्रेमचंद की प्रगतिशीलता भी आई. रामदेव आचार्य की लाक्षागृह और लेखन भी इसी बरस फिर से प्रकाशित हुई. प्रचार प्रसार से दूर रहते हुए चुपचाप अपना काम करने वाले मोहनकृष्ण बोहरा की भी दो महत्वपूर्ण  कृतियां समकालीन कहानीकार: नया वितान और रचनाकार का संकट इसी बरस प्रकाशित हुईं. मोहनकृष्ण बोहरा के अवदान पर एटा उत्तर प्रदेश से प्रकाशित चौपाल पत्रिका ने एक विशेषांक भी प्रकाशित किया. रवि श्रीवास्तव की दो किताबें राष्ट्र, राष्ट्रवाद और लोकतंत्र तथा जनजीवन और साहित्य भी इसी साल प्रकाशित हुईं. युवा कवि-चित्रकार और रंगकर्मी रविकुमार पर बनास जन का अंक भी यादगार रहा. माधव नागदा की किताब समकालीन हिंदी लघु कथा और आज का यथार्थ भी 2019 में ही प्रकाशित हुई. सदाशिव श्रोत्रिय की किताब कविता का पार्श्व इस कारण भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि यहां एक कवि ने अपनी ही कविताओं  पर बहुत बारीकी से लिखा है. माधव हाड़ा अपने शोध और आलोचना संबंधी लेखन के लिए व्यापक पहचान बना चुके हैं, यह उनकी निष्ठा ही है कि ब्रजरतन दास संपादित ऐतिहासिक संकलन मीरां माधुरी  का नया संस्कारण उनके प्रयासों से आया.  वहीं  मानस का हंस पर कालजयी कृति शृंखला में उनकी, कुरुक्षेत्र  पर रेणु व्यास और आवारा मसीहा पर पल्लव की किताबें आलोचना में उल्लेखनीय मानी जाएंगी.

तो यह था बरस 2019 में आईं राजस्थान के लेखकों की हिंदी कृतियों का संक्षिप्त लेखा-जोखा. मैंने अपनी तरफ से भरपूर कोशिश की है कि किसी महत्वपूर्ण किताब का ज़िक्र छूट न जाए, लेकिन हरेक की जानकारियों की सीमा होती है, मेरी भी है. बहुत मुमकिन है कि अनेक उल्लेखनीय कृतियों के प्रकाशन की मुझे जानकारी न मिल सकी हो. उन सभी के रचनाकारों से अग्रिम क्षमा याचना. यहीं यह ज़िक्र करना भी अप्रासंगिक नहीं लग रहा है कि बावज़ूद इतने विपुल और बेहतरीन सृजन के साहित्यिक परिदृश्य पर राजस्थान की लगभग अनुपस्थिति व्यथित करती है. राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में छपे वार्षिक लेखे-जोखे को देखें और तलाश करें कि उनमें राजस्थान के कितने लेखकों को जगह मिली है. आखिर क्यों हमारे लेखन पर औरों का ध्यान नहीं जाता है?  इस पर हम सबको मिलकर विचार करना चाहिए.
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मूलत: यह लेख जयपुर से प्रकाशित मासिकी 'जनतेवर' में प्रकाशित होने वाले मेरे स्तम्भ 'उजास' के लिए लिखा गया था. किन्हीं अपरिहार्य कारणों से 'जनतेवर' का प्रकाशन स्थगित है, अत: यह लेख यहां पोस्ट कर रहा हूं. 

स्वयंप्रकाश : वे मेरे लिए फ्रेण्ड, फिलोसॉफर और गाइड थे


अभी कुछ ही समय पहले स्वयं प्रकाश की किताब धूप में नंगे पांव आई थी. इस किताब में उन्होंने कुछेक प्रसंगों में मेरा भी  ज़िक्र किया है. उस ज़िक्र से, जिसमें एक मित्र की सहज आत्मीयता जन्य प्रशंसा थी,  मैं एक बार फिर उन अपनास भरे दिनों में लौट गया था जब हम इतना निकट थे कि जब चाहे मिल सकते थे. वे सुमेरपुर में थे और मैं सिरोही में था. दोनों कस्बों के बीच मात्र चालीस किलोमीटर का फासला, जो हम दोनों को  अपनी जवानी की वजह से कुछ भी नहीं लगता था. जब जी चाहता वे सिरोही चले आते और जब जी चाहता हम सुमेरपुर चले जाते. उन्हीं खूबसूरत और उजले दिनों को स्वयं प्रकाश ने इस किताब में भी याद किया है. जब यह किताब पढ़ रहा था तब नहीं पता था कि इस किताब पर कुछ लिखने का पल्लव का आग्रह पूरा करूंगा उससे पहले ही स्वयं प्रकाश के लिए एक स्मृति लेख लिखने की विवशता सामने आ खड़ी होगी. शायद एक महीना भी पूरा न लगा उन्हें गम्भीर रूप से बीमार होने, इलाज़ के लिए मुम्बई जाने और फिर हम सब को रोता-बिलखता छोड़ हमसे बहुत दूर चले जाने में. स्वयं प्रकाश के न रहने के हृदय विदारक समाचार ने मुझे अनायास शंकर के बांग्ला उपन्यास चौरंगी के उस कथन  की याद दिला दी जो अंग्रेज़ी के एक कम ख्यात कवि ए.सी. माफेन की पंक्तियों पर आधारित है. उपन्यास में एक चरित्र बोस भाई कहता है:  दुनिया की इस सराय में हमने कुछ क्षणों के लिए आश्रय लिया है. हम लोगों में से कुछ लोग ब्रेकफास्ट खाकर ही चले जाएंगे. कुछ लोग लंच ख़त्म करते ही चले जाएंगे. शाम का अंधेरा पार करके जब हम रात में डिनर-टेबुल पर इकट्ठे होंगे, तो कितने ही परिचित लोगों को गायब पाएंगे. इतने लोगों में से दो-चार व्यक्ति ही वहां मिल सकेंगे. मगर परवाह मत करो, दुख मत करो. जो जितना पहले चला जाएगा, उसे उतना की कम बिल चुकाना पड़ेगा.”   लेकिन यहां आकर मैं बोस भाई उर्फ शंकर से असहमत होता हूं. स्वयं प्रकाश को इस बात की खुशी तो नहीं होगी कि उन्हें कम बिल  चुकाना पड़ेगा. अलबत्ता, जैसी उनकी फितरत थी, वे दूसरे लोक में जाकर  भी कम धमाल नहीं मचा रहे होंगे.

20 जनवरी 1947 को इंदौर में जन्मे और मैकेनिकल इंजीनियरिंग (और बाद में हिंदी में एम. ए. और पी-एच.डी.)  की शिक्षा प्राप्त  स्वयं प्रकाश  ने आजीविका के लिए बहुत सारी नौकरियां कीं, बहुत सारे शहरों और कस्बों में रहे. उनका जन्म भले ही  मध्य प्रदेश में हुआ और हाल के बरसों में वे वहीं रह भी रहे थे, उनके जीवन का बड़ा भाग राजस्थान में ही बीता. यह उचित ही है कि हम राजस्थान वासी उन्हें अपने प्रांत का लेखक मानते हैं. इन सब कामों और जगहों से उन्होंने जो अनुभव अर्जित किये वे उनके दो दर्ज़न से ज़्यादा कहानी संग्रहों की कहानियों, पांच उपन्यासों, एक नाटक, और कथेतर की कई किताबों में रचनात्मक रूप से अभिव्यक्त हुए हैं. उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण किताबों के अनुवाद भी किये, कुछ पत्रिकाओं का सम्पादन किया – जिनमें चकमक और वसुधा विशेष रूप से स्मरणीय हैं, और बच्चों के लिए भी खूब लिखा.

हालांकि मेरा यह लेख उनके लेखन के बारे में नहीं है, फिर भी यह यह कहना ज़रूरी लग रहा है कि स्वयं प्रकाश  के लेखन की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि वे गम्भीर से गम्भीर बात कहते हुए भी सहज और सरल बने रहते हैं. उनके लेखन में से ऐसे अंश ढूंढ  पाना लगभग नामुमकिन होगा जहां वे बोझिल हुए हों. और इसी तरह उनके लेखन में शायद ही ऐसा कुछ हो जो सिर्फ मज़े के लिए हो. बात चाहे साम्प्रदायिकता की हो, स्त्री-पुरुष सम्बंधों की हो, पीढ़ियों के द्वंद्व की हो, समाज में ग़ैर बराबरी की हो, शोषण की हो, जाति प्रथा की हो, अपने खिलंदड़े लहज़े को बरक़रार रखते  हुए स्वयं प्रकाश  अपनी बात कहने की कला के उस्ताद साबित होते हैं. यह आकस्मिक नहीं है कि उनकी नीलकांत का सफर, चौथा हादसा, पार्टीशन, बड्डे, बलि, नैनसी का धूड़ा, क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी  देखा जैसी कहानियां समकालीन हिंदी की सबसे ज़्यादा पढ़ी और सराही गई कहानियों में शुमार हैं. अपने उपन्यासों में भी उन्होंने बड़े फ़लक पर यही किया है.  चाहे वो जलते जहाज पर हो, ज्योतिरथ के सारथी हो, उत्तर जीवन कथा हो, बीच में विनय हो या ईंधन हो – अपने हर उपन्यास में स्वयं प्रकाश अपने अनुभवों और विचार को इस कुशलता से गूंथते हैं कि आप चाह कर भी इनके बीच कोई फांक नहीं तलाश कर पाते हैं. और जब वे कथा से कथेतर के इलाके में आते हैं तब तो कहना ही क्या! खुलकर, बेलौस अंदाज़ में वे अपनी बात कहते हैं. लेकिन पाठक से नज़दीकी उनकी यहां भी कम नहीं होती. स्वान्त: सुखाय, दूसरा पहलू, रंगशाला में एक दोपहर, कहानीकार की नोटबुक और क्या आप साम्प्रदायिक हैं जैसी किताबों में उनका वैचारिक पक्ष बहुत खुलकर सामने आता है. इस लिहाज़ से धूप में नंगे पांव का अलग से ज़िक्र इसलिए ज़रूरी है कि यहां हमें व्यक्ति स्वयं प्रकाश से मिलने का मौका मिलता है. एक तरह से यह किताब उनके लेखक को समझने की चाबी है. एक लेखक किन स्थितियों में रहता और अनुभव अर्जित करता है जब आप इस किताब को पढ़ते हुए यह जानते-समझते हैं तब महसूस करते हैं कि एक बड़ा लेखक क्यों और कैसे बनता है.

जैसा मैंने अभी कहा, गम्भीरता का लबादा स्वयं प्रकाश के पास था ही नहीं. इस मामले में वे ज़्यादातर लेखकों-बुद्धिजीवियों से भिन्न थे. वे उत्साह से लबरेज़ थे. सक्रियता, उल्लास और जीवंतता के वे चलते-फिरते बिम्ब थे. मेरा पहला परिचय उनसे जब हुआ तब तक मैं एक लेखक के रूप में उनके नाम से परिचित हो चुका था. यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि सातवें दशक के अंत में उनकी वैसी ख्याति नहीं रही होगी, जैसी बाद के बरसों में हुई, लेकिन तब भी वे खूब लिख रहे थे, छप रहे थे और साहित्य प्रेमी उनके नाम से भली भांति परिचित  हो चुके थे. मेरे और उनके बीच पुल बने चित्तौड़ कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक और मेरे घनिष्ट मित्र सदाशिव श्रोत्रिय. अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो याद आता है कि कैसे हम अनायास मिले. मैं चित्तौड़ में कुम्भानगर में रहता था और उसी कॉलोनी में सदाशिव श्रोत्रिय भी रहते थे. एक दिन मेरे घर की घण्टी बजी, दरवाज़ा खोला तो पाया कि एक सुदर्शन युवक, जिसका चेहरा-मोहरा धर्मेंद्र से बहुत मिलता है, बाहर खड़ा है और सदाशिव श्रोत्रिय के घर का पता पूछ रहा है. कहना अनावश्यक है यह युवक स्वयं प्रकाश था, जिसके नाम और काम से मैं बज़रिये सदाशिव जी, परिचित हो चुका था. उसी शाम सदाशिव जी ने अपने घर एक महफिल सजाई और उस महफिल में पहली दफा स्वयं प्रकाश  से ठीक से मुलाकात हुई. थोड़ी गपशप और बहुत सारे गीत गज़ल. स्वयं प्रकाश का गला बहुत सुरीला था. मेहदी हसन, ग़ुलाम अली, जगजीत सिंह, किशोर कुमार, लता मंगेशकर  न जाने किन-किन के नग़्मे उन्होंने उस शाम सुनाए. उस शाम के असर की कल्पना इसी बात से की जा सकती है कि आज भी जब मैं लता मंगेशकर के एक गाने रात भी है कुछ भीगी-भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम मद्धमके बारे में सोचता हूं तो वह मुझे स्वयं प्रकाश की आवाज़ में ही सुनाई देता है. उस शाम गोपाल सिंह नेपाली का एक गीत भी उन्होंने सुनाया, दूर जाकर न कोई बिसारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे. इसी गीत का आखिरी बंद आज बेसाख़्ता याद आ रहा है: एक दिन क्या मिले मन उड़ा ले गए, मुफ़्त में उम्र भर की जलन दे गए / बात हमसे न कोई दुबारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।  और वाकई, उस एक दिन की अनायास हुई मुलाक़ात ने हमें रिश्तों की जिस मज़बूत डोरी से बांध दिया, स्वयं प्रकाश उसे इस तरह एक झटके से तोड़ कर चले जाएंगे, यह तो कभी सोचा भी न था.

स्वयं प्रकाश के न रहने की ख़बर ने, हालांकि उनकी गम्भीर बीमारी के मिलते समाचारों ने हमें इस अनहोनी के लिए मानसिक रूप से तैयार कर दिया था, मुझे इतना  अधिक  विचलित कर दिया है कि सिलसिले वार कुछ भी लिख पाना सम्भव नहीं हो रहा है. और यह स्वाभाविक भी है. लगभग साढे‌ चार दशकों की दोस्ती कोई मामूली दोस्ती तो होती नहीं. और फिर यह कोई रस्मी और दिखावे की दोस्ती तो थी नहीं. दिखावे की भी नहीं और आदान-प्रदान के धागों से बंधी भी नहीं. यह एक लेखक और उसके पाठक के बीच की दोस्ती भी नहीं थी. आलोचक तो मैं तब तक बना ही नहीं था, इसलिए वह रिश्ता तो था ही नहीं. मैं खुद बरसों यह सोचता रहा कि स्वयं प्रकाश और मेरे बीच इतनी सघन दोस्ती क्यों हुई? और जवाब मिला धूप में नंगे पांव में ही. स्वयं प्रकाश ने मेरे लिए लिखा है, “इस सब में जो प्रमुख चीज़ थी वह थी सुरुचि जो दुर्लभ नहीं तो बहुत ज़्यादा सुलभ भी नहीं होती.” यही बात मैं उनके लिए भी कहना चाहता हूं. असल में उनकी सुरुचि ने ही मुझे उनका मुरीद बनाया. बात चाहे खाने-पहनने की हो, रहन-सहन की हो,  चिट्ठी लिखने की हो, आपसी रिश्तों के निर्वहन की हो, स्वयं प्रकाश सुरुचि का पर्याय थे. कम में भी कैसे ज़िंदगी के रस को छक कर पिया जा सकता है, यह मैंने न केवल उनमें देखा, उनसे सीखा भी. सीखा तो और भी बहुत कुछ. चित्तौड़ की उस मुलाकात के बाद वास्तव में हम नज़दीक आए कोई पांचेक बरस के बाद. चित्तौड़ से मेरा तबादला सिरोही हो गया और संयोग ऐसा बना कि स्वयं प्रकाश भी स्थानांतरण पर सुमेरपुर टेलीफोन एक्सचेंज में आर एस ए होकर आ गए. बस, उसके बाद हमारे मिलने-जुलने का, संवाद का चिट्ठी-पत्री का और एक दूसरे के सुख दुख में साझीदार होने का जो सिलसिला शुरु हुआ वह अनवरत चलता रहा. सुमेरपुर-सिरोही के उन दिनों को स्वयंप्रकाश ने धूप में नंगे पांव में बहुत खूबसूरती से अंकित किया है. उनका सिर्फ़ एक वाक्य हमारी घनिष्टता को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है: धीरे-धीरे सिरोही मेरे लिए दूसरे घर जैसा बन गया और मैं लगभग हर साप्ताहिक अवकाश में किसी भी बस या ट्रक में चढ़कर वहां पहुंचने लगा. यहां सिरोही को दुर्गाप्रसाद का पर्याय समझा जा सकता है. कहना अनावश्यक है कि मेरे लिए सुमेरपुर स्वयं प्रकाश का पर्याय था. अब इस बात को निस्संकोच कह सकता हूं कि दोस्ती के उस दौर में स्वयं प्रकाश का शोषण भी मैंने खूब किया. मैंने भी और हमने भी. इस बात की गिनती करना कठिन होगा कि कितनी बार मैंने उन्हें अपने कॉलेज में बुलाया. कभी अपने विद्यार्थियों से बात करने, व्याख्यान देने, कभी कविताएं सुनाने, कभी पुरस्कार वितरण करने. और इसका मानदेय देना तो दूर, यात्रा व्यय भी शायद ही कभी दिया हो. इस बात की आज तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई बड़ा लेखक इस तरह आपके एक आवाज़ देने से चला आएगा. लेकिन स्वयं प्रकाश आते रहे. मेरे विद्यार्थी कहते कि सर, स्वयं प्रकाश जी को आए बहुत दिन हो गए और मैं वहीं कॉलेज से उन्हें फोन करता और वे चले आते. कभी बस से, और कभी ट्रक पर लिफ्ट लेकर. जैसे मैंने उनका भरपूर दुरुपयोग किया, वैसे ही मेरी पत्नी ने भी किया. वे आते और हम अपने दोस्तों पड़ोसियों को जुटा कर महफिल जमा लेते. कभी मेरे घर के छोटे से कमरे में तो कभी हमारे घर की छत पर. कोई ताम झाम नहीं, बस, वे होते और हम सब होते. और फिर तीन-चार घण्टे कैसे बीत जाते पता ही नहीं चलता. खूब कविताएं, खूब गाने, ग़ज़लें, लतीफ़े और भी बहुत कुछ. उन अनौपचारिक महफ़िलों में जाने कितनी बार हमने नीलकांत का सफ़र सुनी.

उसी दौर में स्वयं प्रकाश ने मेरे कॉलेज से स्वयं पाठी विद्यार्थी के रूप में हिंदी में एम ए किया और फिर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. इस बहाने उनसे और ज़्यादा मिलना-जुलना हुआ. इस सबका बहुत रोचक वर्णन उन्होंने अपनी इस किताब में किया है. इस वर्णन को पढ़ते हुए मैं उनकी याददाश्त का भी मुरीद होता रहा. जिन घटनाओं का मैं भी एक किरदार था और जिन्हें मैं भूल चुका था, वे उन्हें बरसों बाद ऐसे याद थीं जैसे अभी ही घट रही हों. इस वर्णन को पढ़ते हुए मेरा ध्यान  इस बात पर भी गए बग़ैर नहीं रहा कि जो घटनाएं हमारे लिए बहुत सामान्य होती हैं, एक रचनाकार का हल्का-सा स्पर्श पाते ही वे कितनी महत्वपूर्ण और रोचक बन जाती हैं. स्वयं प्रकाश का यह रचनात्मक स्पर्श उनके पत्रों में भी खूब होता था. उनका मेरा खूब पत्राचार हुआ. उन्हें पत्र लिखने का जैसे जुनून था और मैं भी एक हद तक उन जैसा ही था. यह बात अलग है कि मुझे उतने विस्तृत पत्र लिखने की आदत नहीं थी और वैसी रचनात्मकता तो ख़ैर शायद ही उनमें होती. मेरी संक्षेप में पत्र लिखने की आदत पर तो एक बार उन्होंने यह कहते हुए चुटकी भी ली थी कि दुर्गा बाबू, यह आपकी शैली है या कुटेव? वे अपने पत्रों में दुनिया-जहान की बातें लिखते. जहां होते वहां के हाल-चाल, साहित्य की नई से नई हलचलों पर चर्चा, नई पढ़ी किताबों पर उनकी राय, हाल में सुने गए संगीत का विवरण और न जाने  क्या-क्या! बहुत बार बड़े मौलिक लतीफ़े भी उनके पत्रों में होते. मुझे अपने जीवन में जिन चीज़ों का सबसे ज़्यादा अफ़सोस है उनमें से एक इस बात का भी है कि मैं उन पत्रों को सहेज कर नहीं रख सका. बार-बार के तबादलों में मेरी वो दौलत खुर्द बुर्द हो गई.

इस बात को स्वीकार करने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं है कि मेरी साहित्यिक रुचि के निर्माण में स्वयं प्रकाश की बहुत बड़ी भूमिका है. उनसे मुलाकात के पहले मैं हिंदी का एक औसत दर्ज़े का प्राध्यापक था. अपने पाठ्यक्रम को ठीक से पढ़ा लेता था और जो मिलता वह पढ़ लेता था. यों भी जब हम मिले तक तक मेरी नौकरी की उम्र छह साथ बरस की थी. स्वयं प्रकाश ने मुझे विचारधारा की समझ दी. मेरी बहुत सारी शंकाओं का समाधान किया, करते रहे. साहित्यिक विवेक मैंने उनसे पाया. और यह केवल उन संग साथ के दिनों की ही बात नहीं है. यह सिलसिला अनवरत चलता रहा. बाद में हमारा पत्राचार कम हुआ तो उसकी जगह दूरभाष संवाद ने ली. लेकिन तब भी हम लम्बी बातें करते और अपनी समझ को और धार देते. स्वयं प्रकाश के साथ बहुत सारे साहित्यिक आयोजनों में भी सहभागिता करने का अवसर मिला. वो समय राजस्थान में साहित्यिक सक्रियता के लिहाज़ से सबसे उम्दा समय था. खूब सारे आयोजन होते और हम लोग उनमें जाते. इस बहाने साथ रहने का और विचार विमर्श का भी ज़्यादा समय मिलता. स्वयं प्रकाश के साथ ही हम सिरोही से जयपुर प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में शिरकत करने आए और एक सामान्य-सी धर्मशाला –शायद इमिटेशन वालों की धर्मशाला- में भीष्म  साहनी जैसे दिग्गजों के साथ रुके. मेरे लिए साहित्य की दुनिया के चमकते सितारों को नज़दीक से देखने का वह पहला मौका था. उस आयोजन  में अमृत राय, कैफी आज़मी, गुलाम रब्बानी ताबां, अली सरदार ज़ाफरी, त्रिलोचन, नागार्जुन जैसी शख़्सियतों ने सहभागिता की थी.

स्वयं प्रकाश अपने लेखन और विचारधारा को लेकर जितने संज़ीदा और ईमानदार थे उतने ही संज़ीदा और ईमानदार अपने घर परिवार के प्रति भी थे. इतने बरसों की नज़दीकी में मैं यह बात ख़ास तौर पर देख सका कि वे परिवार और साहित्य दोनों के प्रति समान रूप से ईमानदार थे. इस मामले में वे उन साहित्यकारों से अलग ठहरते थे जो साहित्य  को ही ओढ़ते-बिछाते हैं और परिवार को अपने हाल पर छोड़ देते हैं. सच बात तो यह है कि वे रिश्तों में और चीज़ों में घालमेल से बचने के पक्षधर थे. यह बात मैंने एक और ख़ास संदर्भ में देखी, और सीखी भी. वे नौकरी और लेखन को अलग रखते थे. मुझे जावर माइंस में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनके ही तंत्र के और पास-पड़ोस के लोग इस बात से नावाक़िफ़ थे कि वे एक लेखक भी हैं. हालांकि तब तक वे अखिल भारतीय प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके थे. वैसे यह इस बात पर भी एक टिप्पणी है कि हमारा समाज अपने ही लेखकों से कितना ज़्यादा कटा हुआ है. अगर उनके दफ्तर के लोग भी थोड़ा  बहुत पढ़ने वाले रहे होते तो वे इस बात से अपरिचित नहीं हो सकते थे कि एक बड़ा लेखक उनके तंत्र में कार्यरत है. अपने कार्यालय समय में वे केवल एक दक्ष अधिकारी थे और बाद के समय में अफसर न होकर सिर्फ लेखक थे. इसी तरह जब वे परिवार के साथ होते तो एक पल को भी यह बात सामने नहीं आने देते कि वे एक लेखक हैं. मेरे बच्चों के साथ वे बच्चे बन जाते और उन्हीं के स्तर पर आकर उनसे बतियाते. आज उनकी जितनी कमी मैं महसूस कर रहा हूं उससे कम मेरी पत्नी और बच्चे नहीं कर रहे हैं. अगर वे चौबीसों घण्टे वाले लेखक होते तो ऐसा नहीं होता.

स्वयं प्रकाश को बहुत नज़दीक से देखकर मैं यह जान और अनुभव कर पाया कि जिन मूल्यों और आदर्शों को वे अपने लेखन में अभिव्यक्त करते थे उन्हें शब्दश: जीते भी थे. इस मामले में वे उन लोगों से एकदम अलग थे जो लिखते कुछ और हैं, जीते कुछ और. समानता, स्वतंत्रता, कर्म काण्ड और पाखण्ड का विरोध, असासाम्प्रदायिक होना, स्त्री का सम्मान, बेटे बेटी के बीच कोई भेद न रखना, सामाजिक स्तर पर बराबरी का भाव, श्रम के प्रति निष्ठा, शोषण का हर स्तर पर विरोध जैसी बातें जो उनके लेखन में बार-बार आती हैं उनके निजी जीवन में भी हर स्तर पर देखने को मिलीं. इन बातों के अनेक उदाहरण मुझे याद आ रहे हैं, लेकिन स्थानाभाव के कारण उन्हें अंकित नहीं कर रहा हूं.

स्वयं प्रकाश में स्वाभिमान का भाव कूट-कूट कर भरा था. लेकिन इस स्वाभिमान को अहंकार से अलग करके देखा जाना ज़रूरी है. वे बेहद शालीन, बहुत विनम्र थे, लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर, अपने रचनाकार को लेकर वे कोई समझौता करने को या किसी के भी आगे झुकने  को कभी तैयार नहीं पाए गए. उनके स्वाभिमान की ही एक अभिव्यक्ति इस रूप में भी होती थी कि बाद के बरसों में जब उनका स्वास्थ्य नरम रहने लगा था, हम जब भी फोन पर बतियाते और मैं उनसे उनकी सेहत के बारे में पूछता, वे बात को किसी और तरफ मोड़ देते. फिर मुझे समझ में आ गया कि वे अपने कमज़ोर स्वास्थ्य के बारे में बात नहीं करना चाहते हैं. 

यहां मैंने लेखक स्वयं प्रकाश की, उनके साहित्यिक अवदान की चर्चा नहीं की है. उस पर खूब चर्चा हुई है और आगे भी होगी. बेशक वे हमारे समय के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लेखकों में अग्रणी हैं. बावज़ूद इस बात के कि वे निरर्थक और दिल बहलाऊ लेखन के कभी हामी नहीं रहे. लेखन उनके लिए एक ज़िम्मेदारी भरा और मिशनरी काम था. बेशक वे मेरे भी प्रिय लेखकों की सूची में बहुत ऊपर हैं. लेकिन इससे भी अधिक वे मेरे फ्रेण्ड, फिलोसॉफर और गाइड थे. उनसे किसी भी विषय पर बात की जा सकती थी, किसी भी मुद्दे पर सलाह ली जा सकती थी और आंख मूंद कर उन पर भरोसा किया जा सकता था. जीवन में हर पल वे साथ रहे. बस! अब वे धोखा दे गए!
आप तो ऐसे न थे, प्रकाश भाई!
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राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका मधुमतीके जनवरी, 2020 अंक में प्रकाशित स्मृति लेख.