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Tuesday, January 13, 2015

कला को कला ही रहने दो

सारी दुनिया में हंसने-हंसाने की और उसे लिपिबद्ध  कर बाद की पीढ़ियों के लिए सुलभ करा देने की  एक लम्बी  परम्परा रही है. बहुत पीछे न भी जाएं तो मुल्ला नसरुद्दीन और अकबर बीरबल के किस्सों को याद किया जा सकता है. अपने समय के एक मशहूर अंग्रेज़ी लेखक ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी, कि अगर आप लोगों को सच बताना चाहते हैं तो उन्हें हंसाओ, वर्ना वे तुम्हें मार देंगे! पता नहीं, वे ऑस्कर वाइल्ड अगर आज होते तो इसी बात को फिर से कहते या नहीं! बड़ी अजब दुनिया है. कार्टून जिसे हास्य और कला का ही एक रूप माना-बताया जाता है एकाधिक बार दुनिया में नृशंस  कृत्यों के कारण  बने हैं. पिछले दिनों फ्रांस में जो हुआ, और जिसकी पुरज़ोर निंदा सारी दुनिया में हो रही है उसके मूल में भी वहां की एक कार्टून पत्रिका शार्ली एब्डो में छपे कार्टून ही हैं. कहा गया कि फ्रांस का यह काण्ड इस लिए हुआ कि इस पत्रिका में छपे कुछ कार्टूनों से कुछ लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई थीं.

अभी हाल ही में गुलाबी नगरी में एक भव्य आयोजन सम्पन्न हुआ, नाम था जयपुर लाफ्टर फेस्टिवल. देश भर के कॉमेडियन एकत्रित हुए और उन्होंने अपने लतीफों से, अपनी मिमिक्री से, और भी कई तरह से उपस्थित भारी जन समूह को खूब गुदगुदाया-हंसाया. जैसा कि   हम सब जानते हैं, मंच पर हास्य प्रस्तुत करने वालों के कुछ प्रिय विषय होते हैं और उनके अधिकतर प्रसंग इन्हीं के इर्द गिर्द बुने हुए होते हैं. इन प्रसंगों में पत्नी से सम्बद्ध प्रसंग शायद सबसे ज़्यादा होते हैं जिनका सार यह होता है कि पत्नियां दुनिया की सबसे क्रूर प्राणी होती हैं और दुनिया का हर पति उनसे  त्रस्त होता है. इसी तरह मारवाड़ियों, बनियों, पंजाबियों, बिहारियों, मद्रासियों (हमारे लिए तो हर दक्षिण भारतीय मद्रासी ही होता है ना!)  को लेकर खूब लतीफे सुनाए जाते हैं. लोगों की शारीरिक अक्षमताओं को, जैसे किसी के हकलाने को लेकर या किसी के एक नेत्र वाला होने पर या किसी के आंखे मिचमिचाने पर खूब चुटकियां ली जाती हैं. और नेताओं की तो बात ही मत कीजिए. कल्पना कीजिए कि अगर किसी तरह नेताओं को लेकर हंसी मज़ाक करने पर रोक लगा दी जाए तो शायद हमारे अधिकांश हास्य कलाकार बेरोज़गार हो जाएं. स्वाभाविक ही है कि जयपुर लाफ्टर फेस्टिवल में भी दो दिनों तक इन कलाकारों ने इन सब को जम कर उड़ाया. लेकिन मज़ाल है कि किसी की भावनाएं आहत हुई हों! यहां तक कि पत्नियों के बारे में किए गए हंसी मज़ाक का पत्नियों ने भी उतना ही आनंद लिया जितना उनसे पीड़ित बताए गए पतियों ने लिया.


तो, सोचने की बात यह है कि  एक तरफ ये सब हैं जो सर्व शक्तिमान भगवान की तुलना में बहुत कमज़ोर हैं, लेकिन ये अपने बारे में की गई मज़ाक से, जिसमें कई बार आलोचना भी शामिल होती है, आहत नहीं होते हैं. इनके समर्थक भी आहत नहीं होते हैं. लेकिन सर्व शक्तिमान भगवान के बन्दे उनके बारे में की गई टिप्पणी, उनके चित्रण, उनसे असहमति अदि से इतने क्रुद्ध हो जाते हैं कि वे अकल्पनीय और अस्वीकार्य हरकत तक कर बैठते हैं. ऐसा क्यों होता है? और जब-जब ऐसा होता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुदा ज़रूर उठता है. कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा, क्योंकि सृजन प्राय: कलाकार का ही होता है.

मुझे लगता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर मोटे तौर पर दो राय हैं. एक उन लोगों की राय है जो निर्बाध और शर्त विहीन स्वतंत्रता के पक्षधर हैं. वे मानते  हैं कि कलाकार जैसा चाहे वैसा रचने के लिए स्वतंत्र है. अगर उसका रचा किसी को पसन्द न हो तो वह उसे अनदेखा कर दे. दुनिया के अनेक समाज या देश  जिनमें से अधिकांश पश्चिमी प्रबोधन (एनलाइटमेंट) का हिस्सा रहे हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शायद ही कोई पाबंदी लगाते हैं, अगर लगाते भी हैं तो बहुत ही मामूली. फ्रांसीसी क्रांति के दौरान 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के अधिकार को 'मनुष्य के अधिकारों की घोषणा' के 'सबसे महत्वपूर्ण अधिकारों' में एक माना गया था. यह माना जा सकता है कि फ्रांस की हाल की घटना  का जो लोग मुखर विरोध कर रहे हैं उनका सोच भी यही है. और इनके बरक्स भारत जैसे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निर्बाध और निरपेक्ष नहीं माना जाता है. यही वजह है कि हमारे यहां समय समय पर बहुत सारी पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं.

मेरा मानना है कि अगर कोई आपकी आलोचना करता है तो भी आपको यह अधिकार तो नहीं है कि आप उसको मार ही डालें, लेकिन कला को भी कला तो रहना ही होगा, और अगर वो कला रहेगी तो वो किसी को ठेस पहुंचा ही नहीं सकती है. ठेस पहुंचाने का काम तो हथियार करते हैं.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय  अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 जनवरी, 2015 को कला को कला ही रहने दो, मारो मत शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.