प्रदेश में नई सरकार बन गई है और उसने जोर-शोर से काम शुरु कर दिया
है. आम तौर पर सरकारें या तो शुरु में सक्रिय होती हैं या उस वक़्त जब उनके
अस्तित्व पर कोई संकट आता है, वरना तो वे
सरक-सरक कर ही चलती हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि राजस्थान की नई सरकार इस धारणा
को मिथ्या साबित करेगी और जन आकांक्षाओं पर खरी उतरेगी. बहरहाल, मुझे आज याद आ रहा है 1975 का इमर्जेंसी
का वो दौर जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए तमाम
प्रजातांत्रिक नागरिक अधिकारों को स्थगित
कर दिया.
उन दिनों प्रधानमंत्री का बीस
सूत्री कार्यक्रम बहुत उत्साह से प्रचारित किया जा रहा था. जनता को बताया जा रहा था कि यह कार्यक्रम उसकी हालत बदल देगा. सरकारी
संस्थाओं पर यह अनकहा दबाव था कि वे जी-जान से इसके प्रचार-प्रसार में जुट जाएं.
कुछ दबाव और इससे भी अधिक सरकारी अमले की वफ़ादारी. हर तरफ बीस-बीस का ही शोर
था. मैं उन दिनों राज्य के एक छोटे कस्बे
के एक महाविद्यालय में हिन्दी पढ़ाया करता था. मेरे महाविद्यालय के प्राचार्य जी को
भी अपनी वफ़ादारी दिखाने का जोश चढ़ा और उन्होंने आनन-फानन में बीस सूत्री कार्यक्रम
से होने वाले फायदों पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन
करने की घोषणा कर डाली. उस छोटे कस्बे के छोटे महाविद्यालय में कोई सभा भवन
तो था नहीं. एक बड़े कमरे में वह गोष्ठी आयोजित की गई. हर संस्थान में, और ख़ास तौर
पर शिक्षण संस्थानों में ऐसे कुछ लोग
अवश्य ही होते हैं जो किसी भी विषय पर अपने अमूल्य विचार प्रस्तुत करने को सदा सुलभ
रहते हैं. हक़ीक़त तो यह है कि ऐसे वीर पुरुषों के दम पर ही इस किस्म के आयोजन सम्पन्न किए जाते हैं. संस्था प्रधान भी
यही चाहता है कि कुछ लोग प्रस्ताव के पक्ष में कुछ सुन्दर-सुन्दर विचार व्यक्त कर
दें और सुख शांति पूर्वक रस्म अदायगी हो जाए! और यही उस गोष्ठी में भी हुआ. विद्वान
प्राध्यापकों ने बताया कि बीस सूत्री कार्यक्रम के आते ही देश की तक़दीर बदलने की
शुरुआत हो चुकी है और बस कुछ ही समय में सब कुछ फर्स्ट क्लास हो जाने वाला है. ‘मौका
भी है, दस्तूर भी’ का निर्वहन करते हुए एक से बढ़कर एक अच्छी-अच्छी बातें की गईं.
गोष्ठी समापन की तरफ़ बढ़ रही थी, तभी एक विद्यार्थी ने संयोजक से
अनुरोध किया कि वह भी अपने विचार व्यक्त करना चाहता है. छोटा महाविद्यालय था, सभी
सबको जानते थे. किसी तरह के ख़तरे की कोई आशंका नहीं थी. वो विद्यार्थी वैसे भी
अच्छा वक्ता और लोकप्रिय डिबेटर था. अत: संयोजक
ने सहर्ष उसे बोलने की अनुमति दे दी. उस विद्यार्थी ने अन्य बातों के अलावा यह भी
कहा कि प्रधानमंत्री जी ने बीती रात अपने बीस सूत्री कार्यक्रम में पाँच सूत्र और जोड़े हैं और अब यह पच्चीस सूत्री
कार्यक्रम हो गया है. उसने यह बात इतने आत्मविश्वास से कही कि बाद वाले किसी भी
वक्ता ने न केवल उसकी बात का खण्डन नहीं
किया, पच्चीस सूत्री कार्यक्रम की ही आरती गाई. बाद में तो संयोजक ने भी उस गोष्ठी
को प्रधानमंत्री के पच्चीस सूत्री कार्यक्रम के नाम कर दिया और प्राचार्य जी ने भी
पच्चीस सूत्री कार्यक्रम की शान में ही कसीदे पढ़े. आज की बात होती तो जब वह विद्यार्थी बोल रहा था
तभी किसी ने अपने मोबाइल पर गूगल करके उसके कथन की सत्यता को जांच भी लिया होता.
लेकिन याद रखें, वो ज़माना, इण्टरनेट का तो दूर, टीवी का भी नहीं था. ख़बरों का एक मात्र माध्यम
था सरकारी रेडियो या फिर 24 घण्टों में एक बार आने वाला अख़बार. यानि विद्यार्थी
के कथन को तत्काल जांचने का कोई तरीका उपलब्ध ही नहीं था.
गोष्ठी बहुत बढ़िया तरह से सम्पन्न हो गई. लेकिन कुछेक लोगों के मन में
यह बात ज़रूर खटकती रही कि प्रधानमंत्री जी ने अपने बीस सूत्री कार्यक्रम को बढ़ाकर
पच्चीस सूत्री कर दिया, और उन्हें ख़बर तक नहीं हुई! ऐसा कैसे हो गया? घर जाकर
रेडियो सुना, तो पाया कि वहां तो बीस सूत्री कार्यक्रम का ही कीर्तन जारी था. किसी
भी बुलेटिन में पच्चीस सूत्र नहीं थे. अगले दिन स्टाफ रूम में यही चर्चा थी. हरेक
यही ताज्जुब कर रहा था कि जिन पच्चीस सूत्रों की बात उस विद्यार्थी ने कल की थी, वे
तो कहीं थे ही नहीं.
ज़ाहिर है कि उस विद्यार्थी ने हम सबको मामू बना दिया था. आज भी वो
घटना याद आती है तो उस विद्यार्थी के आत्मविश्वास भरे कौतुक और हम सबके अपनी
जानकारी पर भरोसे की कमी को याद करते हुए एक मुस्कान उभर आती है.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 24 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.