Wednesday, November 7, 2007

दिवाली की मंगल कामनाएं

हर साल दिवाली पर बहुत सारे बधाई कार्ड आते हैं. आजकल कार्डों के अलावा ई मेल और एस एम एस भी खूब आते हैं. ई मेल और एस एम एस तो खैर वैसे ही क्षण-भंगुर होते हैं, कार्ड भी कुछ दिनों के बाद इधर-उधर हो जाते हैं, चाहे कितने ही आकर्षक और अर्थ व्यंजक क्यों न हों! शायद सबके साथ ऐसा ही होता हो. हम लिखने-पढ़ने के व्यसनी लोगों के पास तो वैसे भी डाक खूब आती है. आखिर कोई कब तक और कितना सम्हाल कर रख सकता है? मैं तो अपनी नौकरी के अंतिम कुछ वर्षों में कई बार ‘तबा-दलित’ भी हुआ, अत: स्वाभाविक ही था कि ‘पत्रं पुष्पं’ का बोझ ज़रा कम ही रखता. एक और बात भी, जब चयन का अवसर आता है तो हम सब सार्वजनिक की तुलना में वैयक्तिक को पहले बचाये रखना चाहते हैं. ऐसे में मुद्रित कार्डों की बजाय हस्त-लिखित या व्यक्तिगत पत्र अधिक सुरक्षित रखे जाते हैं.

इधर सारे ही पर्व त्यौहारों की तरह दिवाली का भी घोर व्यावसायिकीकरण हुआ है. अन्य बहुत सारी बातों के अतिरिक्त, शुभकामनाएं देना-लेना भी सम्पर्क बनाने-बढाने का, वो जिसे आधुनिक शब्दावलि में पी आर (PR) कहते हैं उसका, माध्यम बन गया है. परिणाम यह कि कोई सामान्य-से सम्पर्क वाला व्यक्ति भी दिवाली पर सौ-डेढ़ सौ कार्ड तो भेजता ही है. और इतने कार्ड, स्वाभाविक ही है कि मुद्रित ही होंगे. कमोबेश इतने ही कार्ड आते भी हैं. जब मैं नौकरी में था हर साल ढ़ाई तीन सौ कार्ड आते थे, अब इससे आधे आते हैं. यह स्वाभाविक है. ऐसे कार्ड, जैसा मैं ने पहले ही कहा, कितने ही आकर्षक, कलात्मक और उम्दा सन्देश वाले क्यों न हों, कुल मिलाकर यह सन्देश देने के बाद कि अमुक जी ने हमें स्मरण रखा है, अपनी अर्थवत्ता खो देते हैं, और इसलिए बहुत लम्बे समय तक उन्हें सम्हाल कर नहीं रखा जा सकता.

लेकिन यह सब कहने के बाद अगर मैं यह कहूं कि एक व्यक्ति ऐसा है जो हर तरह से इस सबका अपवाद है, तो आपको आश्चर्य होगा न? हम दोनों के बीच उम्र का, कद और पद का इतना अंतर है कि मैं उन्हें 'मित्र' तो नहीं कह सकता. उम्र में मुझसे लगभग 15 वर्ष बड़े, एक राज्य के विधायक, मंत्री और फिर राज्य सभा के सदस्य रहे, कवि सम्मेलनों के अत्यधिक लोकप्रिय कवि.. बहुत उम्दा लेखक! यह उनका ही बड़प्पन है कि वे मुझे अपना मानते हैं. सातवें दशक के मध्य उनसे सम्पर्क हुआ था. तब वे लालकिले में अपनी कविताओं से धूम मच चुके थे, और मैं, कॉलेज का एक विद्यार्थी, उनकी कविताओं का प्रशंसक! पत्र व्यवहार प्रारम्भ हुआ. कुछेक अवसर मिलने के मिले. कभी कभार पत्राचार भी हो जाता. फिर वे अपनी दुनिया में और मैं अपनी दुनिया में व्यस्त होते गए. लेकिन इस सबके बीच भी शायद ही कोई ऐसा साल बीता हो जब दिवाली पर मैं ने उन्हें कार्ड न भेजा हो, और दिवाली पर उनका कार्ड न आया हो! चालीस साल कम नहीं होते. और अपने सारे तबादलों, सारी अस्त व्यस्तता के बावज़ूद उनके अधिकांश कार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं.

मैं अभी तो यह कह रहा था कि कोई कब तक इतने सारे कागज़ों का बोझ सम्हाले, और अभी यह कह रहा हूं कि उनके अधिकांश कार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं. क्या खास है उनके कार्डों में?

लेकिन इससे भी पहले यह कि 'वे' हैं कौन ?

जी, मैं बात बालकवि बैरागी की कर रहा हूं. परिचय तो उनका दे ही चुका हूं.
बैरागी जी दिवाली पर पोस्टकार्ड भेजते हैं. पहले पूरा पोस्टकार्ड हस्तलिखित हुआ करता था, अब उस पर उनका पता मुद्रित होता है. सन्देश पहले भी वे हाथ से लिखते थे, अब भी हाथ से ही लिखते हैं. इतने वर्षों में न उनकी यह आदत बदली है, न हस्तलिपि. अत्यधिक सधे अक्षर, जैसे किसी ने मोतियों की लड़ी सजा दी हो. और सन्देश? उसका तो कहना ही क्या? मैं ने कहा न कि बैरागी जी कवि हैं. उनका दिवाली सन्देश सदा एक छन्द के रूप में होता है. लेकिन ऐसा छन्द जिसे आप अपने जीवन का मूल मंत्र बना लेना चाहें.

जैसा मैंने पहले कहा, बैरागी जी विधायक, मंत्री, सांसद सब कुछ रह चुके हैं. अब भी हम लोगों से तो वे अधिक ही व्यस्त होंगे. सम्पर्क तो खैर उनके हैं ही. राजनीति में भी, साहित्य में भी. इसके बावज़ूद उन्होंने दीपों के इस पर्व को 'निजी' और आत्मीय बनाये रखा है, यांत्रिक और निर्वैयक्तिक नहीं बन जाने दिया है, यह बात मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगती है.




इस दिवाली पर अपने सारे पाठकों, सहयोगियों और शुभ चिंतकों को 'इंद्रधनुष' परिवार की ओर से दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हुए मैं उपहार स्वरूप अपने 'दादा' बैरागी जी के कुछ छन्द सादर भेंट कर रहा हूं :





सूरज से कह दो बेशक अपने घर आराम करे
चांद सितारे जी भर सोयें नहीं किसी का काम करें
आंख मूंद लो दीपक ! तुम भी, दियासलाई! जलो नहीं
अपना सोना अपनी चांदी गला-गला कर मलो नहीं
अगर अमावस से लड़ने की ज़िद कोई कर लेता है
तो, एक ज़रा-सा जुगनू सारा अंधकार हर लेता है!
(1991)
*

रोम रोम करके हवन देना अमल उजास
कुछ भी तो रखना नहीं, अपना अपने पास
जलते रहना उम्र भर,अरुणिम रखना गात
सहना अपने शील पर तम का हर उत्पात
सोचो तो इस बात के होते कितने अर्थ
बाती का बलिदान यह चला न जाये व्यर्थ!
(1992)
*

एक दीपक लड़ रहा है अनवरत अंधियार से
लड़ रहा है कालिमा के क्रूरतम परिवार से
सूर्य की पहिली किरन तक युद्ध यह चलता रहे
इसलिए अनिवार्य है कि दीप यह जलता रहे
आपकी आशीष का सम्बल इसे दे दीजिये
प्रार्थना-शुभकामना इस दीप की ले लीजिये!!
(1993)
*




आज मैंने सूर्य से बस ज़रा-सा यूं कहा
"आपके साम्राज्य में इतना अंधेरा क्यूं रहा?"
तमतमा कर वह दहाड़ा - "मैं अकेला क्या करूं?
तुम निकम्मों के लिए मैं भला कब तक मरूं ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लड़ूं कुछ तुम लड़ो !"
(1994)
*

सूर्य की अनुपस्थिति में आयु भर मैं ही जला
टल गये दिग्पाल लेकिन मं नहीं व्रत से टला
सोचता था - तुम सबेरे शुक्रिया मेरा करोगे
फूल की एकाध पंखुरी, देह पर मेरी धरोगे
किंतु होते ही सवेरा छीन ली मेरी कमाई
इस कृपा (?) का शुक्रिया, खूब ! दीवाली मनाई !
(1997)
*
देखता हूं दीप को और खुद में झांकता हूं
छूट पड़ता है पसीना और बेहद कांपता हूं
एक तो जलते रहो और फिर अविचल रहो
क्या विकट संग्राम है यह युद्धरत प्रतिपल रहो
काश! मैं भी दीप होता, जूझता अंधियार से
धन्य कर देता धरा को ज्योति के उपहार से !
(1998)
*
दीप से बोला अंधेरा - "ठान मत मुझ से लड़ाई
व्यर्थ ही मर जाएगा - सोच कुछ अपनी भलाई
स्वार्थ वश कोई जलाए और तू जलने लगे
सर्वथा अनजान पथ पर उम्र भर चलने लगे"
दीप बोला - "बंधु! अच्छी राह पर सच्ची बधाई
(पर) फिक़्र मेरी छोड़ करके सोच तू अपनी भलाई!"
(1999)
*


मैं तुम्हारी देहरी का दीप हूँ, दिनमान हूं
घोर तम से मानवी संग्राम का प्रतिमान हूं
उम्र भर लड़ता रहा, मुंह की कभी खाई नहीं
आज तक तो हूं विजेता पीठ दिखलाई नहीं
दीनता औ' दम्भ से रिश्ता कभी पाला नहीं
आपका आदेश मैंने आज तक टाला नहीं !
(2000)
*


आप मुझको स्नेह देकर चैन से सो जाईये
स्वप्न के संसार में आराम से खो जाईये
आपकी खातिर लड़ूंगा मैं घने अंधियार से
रंच भर विचलित न हूंगा मौसमों की मार से
जानता हूं तुम सवेरे मांग ऊषा की भरोए
जान मेरी जायेगी पर ऋण अदा उसका करोगे !
(2003)
*

कर्तव्य मेरा है यही, मैं रात भर जलता रहूं
कालिमा के गाल पर लालिमा मलता रहूं
दांव पर सब कुछ लगे जब दीप के दिव्यार्थ का
तब कर्म यह छोटा नहीं जब पर्व हो पुरुषार्थ का
ज्योति का जयगीत हूं - आरोह का अलाप हूं
निर्माण आखिर आपका हूं इसलिए चुपचाप हूँ!
(2003)
*

लडकी क्यों लडकों-सी नहीं होती?

स्त्रियां पुरुषों की तुलना में ज़्यादा बातूनी क्यों होती हैं? क्यों औरतें उन विवादों को तफसील से याद रख लेती हैं जिन्हें मर्द क़तई याद नहीं रख पाते? क्या कारण है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपनी दोस्तों से ज़्यादा घनिष्ठता से जुडती हैं? इन और ऐसे अनेक सवालों का जवाब देती है न्यूरो साइकियाट्रिस्ट लुआन ब्रिजेण्डिन की नई किताब ‘द फीमेल ब्रेन’. कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में कार्यरत लुआन, जो चिकित्सा विज्ञान का प्रयोग अपनी महिला रोगियों के सशक्तिकरण के लिए करती हैं, की यह किताब मानवीय व्यवहार की जीव वैज्ञानिक पडताल की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है.

येल में एक मेडिकल छात्रा के रूप में शोध करते हुए और फिर हारवर्ड में रेजिडेण्ट और फैकल्टी मेम्बर के रूप में काम करते हुए लुआन का ध्यान इस बात की तरफ गया कि न्यूरोलॉजी, मनोविज्ञान और न्यूरो-बायोलॉजीमें करीब-करीब सारा क्लिनिकल डाटा पुरुषों कर ही आधारित है. इस असंतुलन को दुरुस्त करने के लिए उन्होंने अमरीका का पहला ऐसा क्लिनिक स्थापित किया जो स्त्री मस्तिष्क का अध्ययन करता है. इस किताब में वहां किए गए अध्ययन, शोध और नवीनतम सूचनाओं को इस तरह संजोया गया है कि इसे पढने के बाद स्त्रियां तो अपने खास मस्तिष्क, शरीर और व्यवहार को बेहतर तरीके से समझ ही पाती हैं, पुरुषों को भी सिगमण्ड फ्रायड के उस मशहूर सवाल का एक हद तक जवाब मिल जाता है कि आखिर स्त्रियां चाहती क्या है! किताब यह भी बताती है कि स्त्री और पुरुष की मानसिक बनावट में क्या फर्क़ है!
ब्रिजेण्डिन ने जन्म से लेकर रजो-निवृत्ति तक स्त्री मस्तिष्क की जीवन यात्रा की पडताल की है. वे बताती हैं कि एक कन्या शिशु जिस तरह लगाव अनुभव करती है, विपरीत लिंगी शिशु उस तरह नहीं करता. इसी तरह मातृत्व स्त्री की मस्तिष्क संरचना में आमूल चूल और अपरिवर्तनीय परिवर्तन करता है. ब्रिजेण्डिन यह भी बताती हैं कि स्त्री-पुरुष मस्तिष्कों की केमिस्ट्रियां ताकतवर हारमोन्स से इस तरह संचालित होती हैं कि हर जेण्डर की यथार्थ की अवधारणा ही अलग तरह से निर्मित हो जाती है. लेकिन वे आगाह करना नहीं भूलतीं कि इस भेद का योग्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है.
ब्रिजेण्डिन बताती हैं कि आम धारणा यह है कि लडके-लडकियों का व्यवहार अलग-अलग होता है. हम घरों में, खेल के मैदानों में, कक्षाओं में, सभी जगह उनके व्यवहार की भिन्नता देखते हैं. यह भी माना जाता है कि व्यवहार की यह भिन्नता उनके पालन-पोषण की भिन्नता की वजह से होती है. लेखिका इस धारणा का, कि हमारी जेण्डर की अवधारणा हमारे पालन-पोषण से निर्मित होती है, खण्डन करते हुए बताती हैं कि इस भेद का कारण मस्तिष्क की बनावट का अलग होना है. वे एक दिलचस्प उदाहरण देती हैं. उनकी एक मरीज़ ने अपनी साढे तीन साल की बेटी को कई यूनीसेक्स खिलौने दिए. उनमें एक लाल रंग की दमकल गाडी भी थी. एक दिन वह मरीज़ अपनी बेटी के कमरे में जाने पर पाती हैं कि बिटिया उस गाडी को एक छोटे-से कम्बल में लपेटकर झुला रही है और कह रही है, “चिंता मत करो मेरी गाडी, जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा!” लेखिका समझाती है कि उस नन्हीं बच्ची का यह बर्ताव उसके सामाजिकरण की वजह से न होकर उसके स्त्री मस्तिष्क की वजह से है. हमारा मस्तिष्क ही यह तै करता है कि हम कैसे देखते, सुनते, सूंघते, चखते हैं. वस्तुत: हमारी महसूस करने वाली इन्द्रियां सीधे मस्तिष्क से जुडी होती हैं. हमारे अनुभवों की व्याख्या मस्तिष्क ही करता है. मस्तिष्क का यह लिंग भेद जन्मजात होता है. लगभग आठ सप्ताह के गर्भ के मस्तिष्क का लिंग निर्धारित हो चुकता है.
ब्रिजेण्डिन एक रोचक बात यह भी बताती हैं कि मादा मस्तिष्क शिशु को सबसे पहले चेहरों का अध्ययन करने का निर्देश देता है. इसके विपरीत नर मस्तिष्क चेहरों से अलग अन्य चीज़ों जैसे रोशनी, वस्तुओं वगैरह में रुचि लेता है. वे यह भी बताती हैं कि अपने अस्तित्व के पहले तीन महीनों में मादा शिशु की चेहरों को ताकने और दृष्टि सम्पर्क (आई कॉंटेक्ट) की क्षमता में 400 गुना वृद्धि होती है. मज़े की बात कि इसी अवधि में नर-शिशु में यह क्षमता ज़रा भी नहीं बढती. एक बहुत महत्वपूर्ण बात वे यह बताती हैं कि मादा शिशु को भावहीन चेहरे ज़रा भी अच्छे नहीं लगते. कारण, ऐसे चेहरे उन्हें यह संकेत देते हैं कि वे कुछ गलत कर रही हैं. किताब एक महत्वपूर्ण बात यह भी बताती है कि आदमी लगभग सात हज़ार शब्द प्रतिदिन इस्तेमाल करता है, जबकि औरत हर रोज़ बीस हज़ार शब्द इस्तेमाल करती है.
एक उपन्यास की मानिंद दिलचस्प यह किताब हमें इस विषय में और गहरे उतरने के लिए प्रेरित करती है, यही इसकी सबसे बडी खासियत है.

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Discussed Book:
The Female Brain
By Louann Md Brizendine
Paperback: 304 pages
Published by Broadway
US $ 14.95

यह आलेख राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' में 06 नवम्बर 2007 को प्रकाशित हुआ.