Friday, January 31, 2014

विज्ञापन की हद्द!

हमारा देश विविधता  में एकता का ही नहीं एकता में विविधता का भी देश है.  अगर आपको एकाधिक गांवों-कस्बों-शहरों में रहने का मौका मिला हो तो आपने देखा होगा कि एक-से लगने वाले रीति-रिवाज़ों के पालन और निर्वहन में भी कुछ न कुछ स्थानीय विविधता ज़रूर होती है. आपने देखा होगा कि मकर संक्रांति अलग-अलग शहरों में अलग–अलग तरह से मनाई जाती है, तो दशहरे के मौके पर अहमदाबाद में फाफड़ा जलेबी खाने की अलग ही परम्परा है. यह विविधता उत्सवों में ही नहीं शोक में भी देखने को मिलती है. उदयपुर में मैंने पाया कि ‘उठावना’ (यानि तीये की बैठक) के बाद एकत्रित सभी लोग निकटवर्ती किसी मंदिर में जाते हैं, जबकि जयपुर में इस बैठक का स्वरूप थोड़ा अलग होता  है. न केवल बैठक का स्वरूप अलग होता है, अलग-अलग रुचि के लोग उसमें भी और थोड़े बहुत बदलाव कर लेते हैं.

मसलन, कुछ समय पहले तक आम रिवाज़ यह था कि पण्डित जी गरुड़ पुराण के एक अंश  का वाचन किया करते थे. धीरे-धीरे जब कुछ लोगों  को यह अरुचिकर लगने लगा तो उन्होंने इसकी बजाय पण्डितजी के श्रीमुख से उपदेशात्मक या वैराग्य मूलक प्रवचन कराने शुरु कर दिए. कुछ और लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार प्रवचन की जगह संगीत को दे दी, और यथा सामर्थ्य एकल गायक  या पूरी टीम को वाद्यों के साथ भजन गायन के लिए बुलाया जाने लगा. इनमें भी लोगों ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भजन करवाने के प्रबन्ध  किए. कुछ ने सगुण  भजन चुने तो कुछ ने निर्गुण. हमारे एक सुरुचि सम्पन्न साहित्यकार मित्र के निधन पर आयोजित बैठक में कुमार गन्धर्व के निर्गुण भजन बजाए गए. 
   
जयपुर में तीये की बैठक में सबसे ख़ास बात मैंने समय की पाबन्दी की पाई. आम तौर पर एक घण्टे  की बैठक ठीक समय पर (मौसम के अनुसार) शाम चार या पाँच बजे शुरु होती है और ठीक एक घण्टा पूरा होते-होते उसके समापन की कार्यवाही शुरु हो जाती है. अगर न हो तो कोई न कोई समझदार बन्दा  ‘पण्डितजी, तुलसी पत्र वितरित करवाइये’ जैसा कोई वाक्य बोल कर पण्डितजी को चेता भी देता है. बहुत नज़दीक के लोग ही ठीक समय पर आते हैं और पूरे समय रहते हैं, जबकि अधिकांश लोग लगभग आधा घण्टा बीतने के बाद आते हैं और बार-बार घड़ी देख कर बैठक के विसर्जन का इंतज़ार करते रहते हैं.

सभा के अंत में पण्डितजी यह निर्देश देते हैं कि “अब दिवंगत की छवि पर पुष्प  अर्पित किए जाएंगे,  पहले घर के लोग और फिर अन्य लोग यह काम करें!”  उदयपुर में मैंने देखा कि व्यवसाय कुशल फोटोग्राफर अख़बार में शोक सन्देश देखकर फोटो तैयार कर यथासमय शोक वाले घर पहुंच जाते हैं और उस फोटो की अच्छी खासी राशि वसूल कर लेते हैं. उस शोक की घड़ी में भला मोल-भाव कौन कर सकता है? लेकिन जयपुर की एक तीये की बैठक का अनुभव मुझे भुलाये नहीं भूलता है. वही आज साझा कर रहा हूं.

पण्डितजी के प्रवचन और तुलसी पत्र के वितरण  के बाद जब स्वर्गीय की छवि पर पुष्पांजलि अर्पित करने की बारी आई तो लोग पण्डितजी के सामने से होकर दिवंगत को पुष्प अर्पित करने के लिए पंक्तिबद्ध होकर बढ़ रहे थे. अपने हारमोनियम के साथ बिराजे पण्डित जी उनमें से हरेक के हाथ में कुछ प्रदान करते जा रहे थे. यह तो नई बात थी. मैं जानने को व्याकुल हो उठा कि पण्डितजी क्या प्रदान  कर रहे हैं? जब मेरी बारी आई तो मैंने भी अपने आगे वालों के बर्ताव का अनुकरण करते हुए पण्डितजी के आगे अपना हाथ बढ़ा दिया! पण्डितजी ने एक सुमुद्रित कार्ड मेरे भी हाथ में थमा दिया. दिवंगत की तस्वीर पर पुष्प अर्पित करने के बाद मैंने उस कार्ड को ठीक से पढ़ा तो  समझ में आया कि वह पण्डितजी का बिज़नेस  कार्ड था, जिसका आशय था कि जब भी  आपको इस तरह की ज़रूरत पड़े, मैं सेवा के लिए सहर्ष प्रस्तुत हूं! अब अगर इस संदेश का अनुवाद करूं तो अर्थ यह होगा कि आपके घर-परिवार में मृत्य होने पर मैं अपनी सेवाएं देने को हाज़िर हूं! पता नहीं, यह अनुवाद पढ़कर  आपको कैसा लग रहा है, मुझे तो क़तई अच्छा नहीं लगा. व्यापार और विज्ञापन की भी कोई तो हद्द होती है! आप कैसे किसी को यह कह सकते हैं कि अपने अमंगल में मुझे याद कीजिए! मुझे नहीं मालूम कि पण्डितजी ने अपना कार्ड छपवाते और उसे बांटते हुए यह सब सोचा होगा या नहीं! शायद  नहीं ही सोचा होगा. अगर सोचा होता तो वे इस तरह अपना विज्ञापन नहीं करते!

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लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्र न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' के अंतर्गत 28 जनवरी, 2014 को 'तीये की बैठक में भी प्रचार कर रहे थे पण्डितजी' शीर्षक से प्रकाशित लेख का मूल! 

Tuesday, January 21, 2014

जब पूरा आलेख ही बांच दिया गया.....

एक ज़माना था जब तमाम नेता, छोटे हों या बड़े, कुछ नितान्त  औपचारिक अवसरों को छोड़कर, मौलिक भाषण दिया  करते थे. वे भाषण  न केवल उनके व्यक्तित्व और उनके सोच के परिचायक होते थे, उनसे लोग प्रेरणा भी लेते थे और यथासमय  उन्हें उद्धृत भी करते थे. महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, राममनोहर लोहिया, जे. बी कृपलानी उन नेताओं में से हैं जिनके भाषण बहुत ग़ौर से सुने जाते थे. लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता स्थितियां बदलीं और हम लोग इस बात के गवाह हैं कि हमारे माननीय नेताओं ने अब यह यह काम आउटसोर्स कर दिया है. अब स्थिति यह है लगभग सारे के सारे भाषण औरों के द्वारा तैयार किये हुए होते  हैं और भाषण देने वालों की स्थिति प्लेबैक सिंगर्स जैसी होकर रह गई है. अब भाषण देने वाले का मूल्यांकन भी भाषण में निहित  विचारों के आधार पर कम, उसकी भाषण देने की कला के आधार पर अधिक होने लगा है. तब और अब के इस अंतर को देखता हूं तो बरबस अपने साथ घटी एक घटना याद आ जाती है. घटना का ताल्लुक संक्रमण काल से है, यानि जब मौलिक भाषण भी दिए जाते थे और (औरों के द्वारा) लिखित भाषण  भी पढ़े जाते थे.

राजस्थान साहित्य अकादमी का कोई साहित्यिक आयोजन था जो माउण्ट आबू के राजभवन  में हो रहा था. महामहिम उसका उद्घाटन भाषण पढ़ रहे थे. यह सर्व विदित है कि राज्यपाल ऐसे मौकों पर लिखित भाषण ही पढ़ते हैं. लेकिन उनका वो भाषण कुछ ज़्यादा ही लम्बा था.  ख़त्म ही नहीं हो रहा था. श्रोताओं की असहजता बढ़ती जा रही थी. अगर कोई और जगह होती  या  बात सामान्य साहित्यिक गोष्ठी की होती तो लोग अनेक प्रकार से अपनी ऊब व्यक्त कर सकते थे. और कुछ नहीं तो उठकर बाहर तो जा ही सकते थे. लेकिन यह राजभवन का मामला था. प्रोटोकोल का अनकहा दबाव सब पर था.

मेरे पास ही बैठे थे हिन्दी के एक बड़े आलोचक, और उससे भी पहले मेरे गुरु. उन्होंने मुझसे कान में पूछा – “यह कचरा इन्हें दिया किसने?” मैंने बहुत शालीनता से उनके कान में जवाब दिया- “आप ही के इस शिष्य ने!” कहना अनावश्यक है कि अगर राजभवन की शालीनता की चादर हमारे ऊपर न फैली होती तो हम दोनों ने एक छत-फाड़ू ठहाका ज़रूर लगाया होता!
अब ज़रा बात साफ़ कर दूं.

वे राजस्थान में साहित्यिक सक्रियता के उजले दिन थे. राजस्थान साहित्य अकादमी का स्वर्ण काल. पूरे प्रांत में, हर छोटे-बड़े कस्बे में साहित्यिक आयोजनों की धूम मची हुई थी. कहीं आंचलिक  साहित्यकार सम्मेलन हो रहे थे, तो कहीं सृजन साक्षात्कार. कहीं पाठक मंच की गोष्ठी हो रही थी तो कहीं  कोई उपनिषद.  इसी  क्रम में राजस्थान के इकलौते हिल स्टेशन  माउण्ट आबू पर  भी एक साहित्यिक संगोष्ठी का आयोजन किया गया था. राजस्थान के राज्यपाल के ग्रीष्मकालीन आबू प्रवास का लाभ उठाते हुए उन्हें इस आयोजन का उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया गया और उन्होंने भी सहर्ष अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी. उद्घाटन सत्र राजभवन के सभा कक्ष में ही रखा गया.

मैं उन दिनों राजकीय महाविद्यालय सिरोही में हिंदी पढ़ाता था. यहीं यह याद दिलाता चलूं कि माउण्ट आबू सिरोही जिले में ही स्थित है.  शायद ऐसी कोई प्रक्रिया होती होगी, तभी सिरोही के कलक्टर महोदय के यहां से मेरे महाविद्यालय के प्राचार्य जी के पास इस आशय का अनुरोध आया कि वे महामहिम के भाषण के लिए अमुक विषय पर कुछ नोट्स उपलब्ध कराएं. जैसी सरकारी रिवायत है, प्राचार्य जी ने वह अनुरोध मुझ तक सरका दिया. और मैंने भी तुरंत कोई चालीस-पचास पन्नों की सामग्री उनके माध्यम से कलक्टर महोदय के पास भिजवा दी. इस सामग्री में राजस्थान के हिन्दी साहित्य पर लिखा मेरा अन्यत्र प्रकाशित तीसेक पन्नों का एक सर्वेक्षणपरक  आलेख  भी था. इस सूचनाप्रद आलेख  में नामोल्लेख अधिक था. मेरा  खयाल था कि महामहिम के लिए भाषण तैयार करने वाले इस सामग्री में से अपने काम की चीज़ें निकाल  लेंगे और कुछ अपनी तरफ से जोड़कर उनके लिए एक अवसरोचित भाषण तैयार कर देंगे. आखिर उन्होंने नोट्स ही तो मांगे थे. अब मैं तो इसे राजभवन के सम्बद्ध अधिकारी की ज़र्रानवाज़ी ही कहूंगा कि उन्हें मेरा वह सर्वेक्षणपरक लेख इतना भाया कि उसे ज्यों का त्यों महामहिम से पढ़वा लेने के लिए प्रस्तुत कर दिया. हां, मेरे गुरुजी को ज़रूर वो कचरा लगा. और उन्होंने वैसा ही कह दिया. अगर उन्हें भी यह  पता होता कि उसका मूल लेखक कौन है तो वे भी शायद ऐसा न कहते. बहरहाल! तब जो  बात अपवाद थी, अब आम हो चुकी है.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक 'न्यूज़ टुडै' में मेरे साप्ताहिक  कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' के अंतर्गत दिनांक 21 जनवरी, 2014 को 'महामहिम से बंचवा दिया पुराना आलेख' शीर्षक से प्रकाशित संस्मरण का मूल आलेख!   

Tuesday, January 7, 2014

बेवजह तारीफ़ कौन करता है?

दिल्ली में भी नई सरकार बन गई. राजस्थान में बन ही चुकी है. केन्द्र में भी बन जाएगी. जैसे ही कोई नई सल्तनत गद्दीनशीन  होती है, उसे मुबारक़बाद  देने वालों और उसकी शान में कसीदे पढ़ने वालों  की कतार  लग जाती है. यह स्वाभाविक भी है और एक हद तक उचित भी. आखिर किसी भी नए की सफलता की कामना की ही जानी चाहिए. लेकिन जो लोग कतारबद्ध   होकर मुबारक़बाद  पेश करते और गुणगान करते हैं, क्या वे वाकई  अपनी शुभकामना ही दे रहे होते हैं, या उनका कोई हिडन एजेण्डा भी होता है?

मुझे बरसों पहले अपने एक पुराने विद्यार्थी से हुए संवाद की याद आ  रही है. छात्र जीवन से ही साहित्य में उसकी रुचि थी. आहिस्ता-आहिस्ता स्थानीय अखबारों में और फिर छोटी-मोटी पत्रिकाओं में उसकी कविताएं नज़र आने लगी थीं. अब तो खैर उसका शुमार प्रांत के वरिष्ठ कवियों में होता है.

बात उस समय की है जब राजस्थान  साहित्य अकादमी ने अपनी मुख पत्रिका के लिए हर छह महीने में सम्पादक बदलने की एक विलक्षण योजना चलाई थी. मैंने लक्ष्य किया कि जैसे ही किसी नए सम्पादक के सम्पादन वाला पहला अंक आता, उससे अगले ही अंक में उस पर अनिवार्यत: एक प्रतिक्रिया मेरे इस सुयोग्य पूर्व शिष्य की भी ज़रूर छपती. प्रतिक्रिया यही होती कि आपने आते ही इस पत्रिका का कायाकल्प  कर दिया है. प्रतिक्रिया की ध्वनि यह होती कि इससे पहले जो पत्रिका रसातल तक जा पहुंची थी, आपने अपने सम्पादन के पहले ही अंक में उसे आसमान पर ले जाकर टाँग  दिया है. मज़े की बात यह कि हर संपादक खुशी-खुशी इस तरह के पत्र को प्रकाशित भी कर देता. 

लगातार तीन अंकों में एक-सी प्रतिक्रिया देखकर मैं थोड़ा आश्चर्यचकित था. और संयोग यह हुआ कि उन्हीं दिनों उस पूर्व शिष्य और तत्कालीन युवा कवि से मिलने का कोई अवसर भी आ गया. मैंने कुछ विनोद भाव से उसकी एक-सी प्रतिक्रिया के बारे में पूछ लिया. उसने बेहद ईमानदारी और सहज भाव से जो बताया, उसका सार यह है कि गुरुजी, मैं तो हर सम्पादक को यह लिखता हूं कि आप महान हैं, और आपने इस पत्रिका को अभूतपूर्व  ऊंचाइयों तक पहुंचाया है.  और यह लिखने के साथ ही यह भी लिख देता हूं कि मेरी कुछ कविताएं प्रकाशनार्थ संलग्न है. आम तौर पर तो सम्पादक जी मेरी उन कविताओं को तुरंत प्रकाशित कर देते हैं.... 

यहीं मैंने उसे टोका और पूछा  कि अगर कोई सम्पादक तुम्हारा पत्र तो प्रकाशित कर दे, कविताएं न करे  तो?  

उसने बहुत ईमानदारी से कहा, हां, कभी-कभी ऐसा भी होता है. तब  मैं प्रशंसा का ऐसा ही एक पत्र और लिखता  हूं. प्रशंसा की मात्रा थोड़ी और बढ़ा देता हूं, और लगे हाथों पिछले सम्पादक की थोड़ी आलोचना भी कर देता हूं. मेरा यह फॉर्मूला काम कर जाता है. कविताएं छप जाती हैं. 

अब उसकी बातों में मुझे मज़ा आने लगा था. मैंने पूछा, “कोई सम्पादक बहुत ही ढीठ हो और प्रशंसा  की हेवी डोज़ का भी उसपर कोई असर न हो तो फिर क्या करते हो?”  

मुझे यह जानकर बड़ा गर्व हुआ  कि मेरा वह शिष्य अब अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने की कला में पारंगत  हो चुका था. उसने कहा, गुरुजी, मेरे पास इसका भी इलाज है. मैंने पूछा, वह क्या है? तो उसने बताया, “फिर मैं सम्पादक को एक पत्र और लिखता हूं. और उसमें लिखता हूं कि जब से आपने इस पत्रिका का सम्पादन दायित्व  सम्हाला है, इसका स्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है. अगर आपने जल्दी ही कुछ कदम नहीं उठाए तो यह पत्रिका एकदम कूड़ा हो जाएगी, और कबाड़ी भी इसे लेने से मना कर देंगे. आपकी इस पत्रिका से मेरा पुराना रिश्ता रहा है इसलिए मैं इसके स्तर को लेकर बहुत चिंतित हूं. पत्रिका के गिरते स्तर को सम्हालने के लिए अपनी कुछ कविताएं आपकी भेज रहा हूं..... और मेरा यह नुस्खा अब तक तो नाकामयाब  नहीं रहा है.”  

मैं उसकी सूझ-बूझ का कायल हो चुका था. कविताएं वो भले ही कैसी भी लिखता हो, यह समझ उसमें पर्याप्त थी कि उन्हें छपवाया कैसे जाए!

आज जब नई बनी सरकारों के अपना  काम शुरु करने से पहले ही उनका प्रशस्तिगान करने वालों की आवाज़ें सुनता हूं तो मुझे अपने उस विद्यार्थी की याद आ जाती है.  हो सकता है  कि इन प्रशस्तिगायकों में से बहुत सारे ऐसे हों जिन्हें किसी सरकार से कोई स्वार्थ न साधना  हो और  महज़ सद्भावना के वशीभूत हो ही वे ऐसा कर रहे हों;  लेकिन यह भी बहुत पक्की बात है कि अधिकांश  कीर्तनकार मेरे उस विद्यार्थी की सोच से सहमति रखने वाले ही होंगे.


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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 07  जनवरी 2014 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.