Wednesday, April 19, 2017

भले लोगों से खाली नहीं है हमारी दुनिया!

दुनिया के बहुत सारे देशों में, जिनमें हमारा भारत भी एक  है सेवाओं की सराहना स्वरूप टिप देना आम बात है. इधर अपने देश में तो कई रेस्तराओं ने बिल में ही बाकायदा सर्विस चार्ज के नाम पर टिप वसूल करना  शुरु कर दिया है. यह जानना रोचक होगा कि दुनिया के कुछ देश ऐसे भी हैं जिनमें टिप देने का प्रचलन नहीं है, और जापान में तो अगर आप किसी को टिप दें तो वह अपमानित महसूस करेगा. अमरीका में हाल में खुले एक जापानी रेस्तरां ने तो बाकायदा अपने बिलों पर यह छपवा रखा है कि हमारे स्टाफ को उनकी सेवाओं के बदले पर्याप्त वेतन दिया जाता है, इसलिए आपकी ओर से दी जाने वाली कृतज्ञता राशि स्वीकार नहीं की जाएगी.

लेकिन इसी टिप ने हाल में एक यादगार प्रसंग भी रच डाला. आज उसी की चर्चा. अपनी पढ़ाई ज़ारी रखने के इरादे से कैलिफोर्निया से हवाई आई इक्कीस वर्षीया कायला ने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा. सोचा था कि यहां रहकर स्कूली पढ़ाई ज़ारी रखना आसान होगा, लेकिन महंगी शिक्षा और और जीवन निर्वहन के बहुत ज़्यादा खर्चे ने उसके सपनों को तार-तार कर दिया. घर किस मुंह से लौटतीहवाई में रहकर ही एक चीज़केक फैक्ट्री में नौकरी और एक रेस्तरां में वेटर का काम करने लगी ताकि कुछ पैसा जुट जाए और वो पढ़ाई पूरी करने के अपने सपने की तरफ फिर से लौट सके. और तभी यह अकल्पनीय बात हुई! एक दिन उसके रेस्तरां में तीन ऑस्ट्रेलियाई मेहमान आए. दस बरस की एक लड़की और उसके साथ एक स्त्री-पुरुष जिन्होंने बताया कि वे आजन्म  मित्र हैं. अनायास कायला और उनके बीच बातचीत होने लगी. उन्होंने कायला के बारे में जानना चाहा तो उसने अपनी रामकहानी सुना  दी. ज़ाहिर है कि पढ़ाई पूरी करने के उसके अधूरे रह गए सपने का भी ज़िक्र हुआ. कायला ने सोचा कि मेहमानों ने सामान्य शिष्टाचार का निर्वहन करते हुए उससे सारी बातचीत की है. शायद हुआ भी यही था. लेकिन मात्र यही नहीं. कुछ और भी. मेहमानों के जाने के बाद बारी कायला के चौंक जाने की थी. उसने पाया कि वे लोग दो सौ डॉलर के बिल का भुगतान करने के साथ उसके लिए बिल की राशि से दुगुनी राशि की टिप भी छोड़ गए हैं. कायला ने बाद में एक समाचार चैनल को बताया कि उसके पास अपने भावों को व्यक्त करने के लिए समुचित शब्द नहीं थे, लेकिन वो चाहती थी कि उन लोगों को बांहों में भर ले.

संयोग यह हुआ कि बातचीत के दौरान उन लोगों ने यह भी बता दिया था कि वे किस होटल में रुके हुए हैं. कायला को यह ज़रूरी लगा कि वो एक बार प्रयास करके देखे और अगर वे उदार मेहमान उसे मिल जाएं तो उनके प्रति कृतज्ञता ज़रूर व्यक्त कर  दे. वो तुरंत एक थैंक यू कार्ड और पुष्पगुच्छ लेकर उस होटल जा पहुंची. यह जानकर कि  वे लोग अभी भी वहीं हैं, उसने रिसेप्शन पर ये दोनों चीज़ें उनके लिए छोड़ीं और लौट आई. उसने अपना फर्ज़ अदा कर दिया था. बात यही ख़त्म हो जानी चाहिए थी. लेकिन हुई नहीं. असल करिश्मा तो इसके बाद हुआ. अगले दिन वे तीनों फिर उसी रेस्तरां में आए और उन्होंने कायला से कहा कि वे उसे दस हज़ार डॉलर देना चाहते हैं ताकि वो अपनी पढ़ाई ज़ारी रख सके.

ऐसा होगा, यह तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था. क्या बोलती वह? कुछ देर बाद उसने कहा कि वह उन अजनबियों से इतनी बड़ी राशि कैसे ले सकती है? और इसके जवाब में उन्होंने इसरार किया कि उनकी खुशी के वास्ते उसे यह सहायता स्वीकार कर लेनी चाहिए. उन्होंने यह भी आग्रह किया कि कायला उनकी पहचान उजागर न करे, वे अनाम ही रहना चाहते  हैं. कायला विवश होगई उनके आग्रह के आगे, उसने उनकी दी सहायता स्वीकार कर ली, लेकिन उसके मन में यह भाव फिर भी मौज़ूद था कि वो उनके इस एहसान का बदला कैसे चुकाएगी? और इसके जवाब में उन लोगों ने जो कहा वह अदभुत है. उन्होंने कहा कि अगर वो अपना सपना ठीक से साकार कर लेगी, इसके बाद और बड़ा सपना देखने लगेगी और एक बेहतर इंसान बन जाएगी तो उनका एहसान पूरी तरह चुक जाएगा. वह उऋण हो जाएगी.

कायला का कहना है कि उन लोगों ने वाकई उसके जीवन को बदल दिया है. सिर्फ उसकी आर्थिक स्थिति को ही नहीं, बल्कि चीज़ों को देखने का उसका नज़रिया भी उन्होंने बदल दिया है. कायला ने उचित ही यह उम्मीद भी ज़ाहिर की है कि उनकी उदारता का यह वृत्तांत सब को यह बात याद दिलाता रहेगा कि दुनिया अभी भी भले लोगों से खाली नहीं हुई है. उसका यह भी कहना है कि आप निष्ठा से अपना काम करते रहें, उसका फल ज़रूर मिलेगा.


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 18 अप्रैल, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, April 11, 2017

कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना!

उन प्रसाधन कक्षों में, जिनका रख-रखाव सलीके से किया गया हो, दर्पण का होना सामान्य और स्वाभाविक बात है. अपने देश में सरकारी भवनों की बात अगर छोड़ दें तो मॉल्स वगैरह के साफ-सुथरे और बेहतर तरीके से संधारित टॉयलेट्स में दर्पण अनिवार्यत: होते हैं. और दर्पणों की जितनी ज़रूरत सार्वजनिक स्थलों के प्रसाधन कक्षों में होती है, उतनी ही स्कूलों के प्रसाधन कक्षों में भी होती है. अगर थोड़ा हास्य स्वीकार्य हो तो यह और जोड़ दूं कि दर्पण की ज़रूरत छात्रों के प्रसाधन कक्षों से भी अधिक छात्राओं के प्रसाधन कक्षों में होती है. इस प्रसाधन कक्ष में दर्पणविषयक चर्चा से भारत के सरकारी स्कूलों को अलग कर लेना बेहतर होगा. ख़ास तौर पर लड़कियों के स्कूलों को, क्योंकि उनमें दर्पण का सवाल तो तब उठेगा जब प्रसाधन कक्ष होंगे. लेकिन सब जगह तो ऐसे हालात नहीं हैं. ख़ास तौर पर अमरीका जैसे देश में, जहां सर्वत्र साफ सुथरे प्रसाधन कक्ष अपवाद नहीं नियम की तरह मौज़ूद हैं. तो आज चर्चा  इसी अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में स्थित एक हाई स्कूल की. पिछले महीने वहां के लागुना हिल्स हाई स्कूल में जो  बदलाव हुआ, जिसकी चर्चा आज सर्वत्र हो रही है.

इस स्कूल की  छात्राओं के प्रसाधन कक्ष से दर्पण हटा दिये गए. उनकी जगह छोटी-छोटी पट्टिकाएं लटका दी गईं, जिनपर कुछ खूबसूरत जुमले लिखे हुए थे. मसलन: “आप खूबसूरत हैं. आप मुकम्मल हैं. आप महत्वपूर्ण हैं. आप बहुत अच्छी हैं. आप सबसे अलहदा हैं. आप स्मार्ट हैं. आप विलक्षण हैं. आप अकेली नहीं हैं” वगैरह. कहना अनावश्यक है कि ये सारे जुमले सकारात्मक हैं और जो इन्हें पढ़ेगी उनमें  आशा, उल्लास  और ऊर्जा का संचार होगा. इस मंज़र की कल्पना कीजिए कि आप दर्पण देखने को आगे बढ़ते हैं, उम्मीद करते हैं कि उसमें अपना चेहरा देखेंगे लेकिन वहां आपके चेहरे की बजाय आपको यह संदेश मिलता है कि आप खूबसूरत हैं! कैसा लगेगा आपको? जो जवाब आपकी ज़ुबां पर आएगा, कदाचित वही भाव इस स्कूल की छात्रा सब्रीना के मन में उस वक़्त रहा होगा, जब उसने  अपने स्कूल के छात्रा प्रसाधन कक्ष में यह बदलाव लाने के बारे में सोचा होगा. यह सत्रह वर्षीय लड़की अपने स्कूल में काइण्डनेस क्लब नामक एक गतिविधि का संचालन करती है और इसी गतिविधि के अंतर्गत उसने स्कूल में एक सप्ताह मनाया, जिसका शीर्षक था: व्हाट इफ...    यानि क्या हो अगर ऐसा हो. और योजना बनाई कि इस सप्ताह के हर दिन वो अपने सहपाठियों को एक संदेश देगी. जैसे, एक दिन उसने यह संदेश दिया कि क्या हो अगर हम अधिक प्रेम से रहें!और यह सप्ताह मनाने के लिए इस तरह के संदेश तैयार करते हुए उसने सोचा कि क्यों न इन संदेशों को प्रसाधन कक्ष में लगा दिया जाए? अपने स्कूल प्रशासन से भी उसे सहमति और सहयोग हासिल हुए और जैसा बाद में स्कूल की गतिविधियों की डाइरेक्टर  चेल्सिया मैक्सेल ने कहा, सबरीना ने उस सेमेस्टर के लिए इस बात को अपना लक्ष्य ही बना लिया कि वो पूरे स्कूल परिसर में सकारात्मक संदेशों का प्रसार करेगी. और इस तरह जो गतिविधि सिर्फ एक सप्ताह के लिए शुरु की गई थी, उसके स्वागत से प्रफुल्लित होकर स्कूल प्रशासन ने तै किया है कि वे इसे ज़ारी रहने देंगे. इस बारे में खुद सबरीना ने जो कहा है वो ग़ौर तलब है. उसने कहा है कि “मैंने यह कभी नहीं सोचा है कि मैं ऐसा कुछ कर रही हूं जिससे औरों की ज़िंदगी प्रभावित हो. मैं तो बस यह जानती हूं कि मेरे इस काम से उनका एक दिन थोड़ा ज़्यादा उजला हो सकता है या उनका मनोबल थोड़ा बढ़ सकता है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस काम का कोई बहुत बड़ा असर  होगा.” लेकिन सबरीना ने इससे आगे जो कहा है वो बहुत महत्वपूर्ण है. उसने कहा है कि “हमारे इन संदेशों ने लोगों को यह याद रखने में मदद की है कि हम में से हरेक खूबसूरत है, हरेक महत्वपूर्ण है, हरेक बेहद अच्छा है और हरेक के साथ समानता का बर्ताव किया जाना चाहिए. मैंने ऐसा  इस कारण किया है कि मैं इस बात को लेकर बेहद जुनूनी हूं कि हरेक महत्वपूर्ण है और हरेक का खयाल रखा जाना चाहिए.”

लेकिन खूब सराहे गए इस प्रयास को सभी ने स्वीकार नहीं किया है. कुछ लोगों का कहना है कि भले ही यह काम नेक इरादों से किया गया हो, दर्पण को हटाकर हम यथार्थ की अनदेखी करने का ग़लत काम कर रहे हैं. ऐसे लोग चाहते हैं कि सकारात्मकता और यथार्थ से आंख मिलाने से कतराने को अलग-अलग करके देखा जाए. और भी कुछ बातें कही गई हैं. यह सब पढ़ते हुए हो सकता है, आपको वो गाना याद आ जाए: कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना!    


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 11 अप्रेल, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, April 4, 2017

इतनी भी आसान नहीं है एमबीए की डगर

व्यवसाय की दुनिया में अपने लिए जगह बनाने के इच्छुक अधिकांश युवाओं  का सपना  होता है कि वे किसी प्रतितिष्ठित बिज़नेस स्कूल से एमबीए कर लें.  माना जाता है कि इस पाठ्यक्रम का हिस्सा बनकर आप वो सब सीख लेते हैं जो किसी भी कामयाब कम्पनी के लीडर को आना चाहिए. यही वजह है कि दुनिया के  चुनिंदा बिज़नेस स्कूल्स में एमबीए  पाठ्यक्रमों में प्रवेश पाना बहुत आसान नहीं होता है. लेकिन जितनी यह बात सच है उतनी ही सच यह बात भी है कि पिछले कुछ बरसों में पूरी दुनिया में एमबीए पढ़ाने वाले शिक्षण संस्थानों की संख्या में बहुत तेज़ वृद्धि हुई है और एमबीए उपाधिधारी युवाओं की ऐसी बाढ़ आई है कि उनके लिए ठीक-ठाक सी नौकरी प्राप्त करना भी कठिन हो गया है. ये दोनों बातें परस्पर विरोधाभासी भले ही लगें,  हैं सच. पारम्परिक पाठ्यक्रम को पढ़कर एमबीए करने वालों की इस स्थिति  को देखते हुए अब दुनिया के बहुत सारे देशों के विश्वविद्यालय अपने एमबीए पाठ्यक्रमों  का रुख विशेषज्ञता के अब तक अनछुए इलाकों की तरफ मोड़ रहे हैं. ऐसे ऐसे नए विषयों के पाठ्यक्रम सुनने को मिल रहे हैं कि ताज्जुब होता है.

उदाहरण के लिए ब्रिटेन की लिवरपूल यूनिवर्सिटी ने पिछले दो बरसों से  घुड़दौड (होर्सरेसिंग) में एमबीए का दो-साला पाठ्यक्रम चला रखा है. ज़ाहिर है कि यह पाठ्यक्रम उन युवाओं के लिए है जो इस खेल उद्योग में किसी वरिष्ठ प्रशासनिक या अग्रणी दायित्व का निर्वहन करने का ख़्वाब देखते हैं. इस कोर्स में मार्केटिंग,  स्पॉन्सरशिप  जैसी पारम्परिक बातों के अलावा खेल  विषयक नियम कानून, घोड़ों की देखभाल और उनकी  सेहत विषयक ज्ञान भी दिया जाता है. व्यावहारिक अनुभव प्रदान करने के लिए विद्यार्थियों को रेस दिखाने के लिए ले जाया जाता है और अश्व प्रजनन केंद्रों की पूरी कार्य प्रणाली का अवलोकन भी कराया जाता है. महत्वपूर्ण बात यह है कि यह पाठ्यक्रम शुरु करने का सुझाव खुद ब्रिटिश  होर्सरेसिंग प्राधिकरण और इसी तरह की अन्य संस्थाओं की तरफ से आया था. इन संस्थाओं ने महसूस किया कि अगर उन्हें इस व्यवसाय विशेष के लिए विशेष रूप से विधिवत प्रशिक्षित प्रबंधक मिल जाएं तो वे अपना काम और बेहतर तरीके से कर सकेंगी.   

इसी लिवरपूल  विश्वविद्यालय ने कोई बीसेक बरस पहले फुटबॉल में एमबीए का एक विशेषीकृत पाठ्यक्रम शुरु किया था जो अभी भी खासा लोकप्रिय है. इसकी लोकप्रियता इस तथ्य से भी समझी जा सकती है कि जहां होर्सरेसिंग कोर्स की दो बरस की पढ़ाई की कुल लागत साढे साथ हज़ार ब्रिटिश  पाउण्ड प्रति वर्ष है वहीं फुटबॉल वाले कोर्स की एक बरस की पढ़ाई की लागत पंद्रह हज़ार ब्रिटिश पाउण्ड है और अगर कोई विदेशी इसे पढ़ना चाहे तो उसे साढे इक्कीस हज़ार पाउण्ड खर्च करने होते हैं. 

विश्वविद्यालयों का सोच यह है कि अगर सभी अपने यहां एमबीए का पाठ्यक्रम चला रहे हैं तो हमें बाज़ार में टिके रहने के लिए कुछ अलग करना होगा. इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी समझ लिया है कि किसी खास क्षेत्र में अपनी जगह बनाने के लिए बहुत ज़रूरी है कि कुछ अलहदा और ख़ास किया जाए. यही अलग करने का भाव इन अजीब लगने वाले पाठ्यक्रमों में देखा जा सकता है. विश्वविद्यालय ही नहीं, विद्यार्थी भी इस बात को समझ रहे हैं. एक तियालीस वर्षीया फ्रांसिसी महिला का कहना है कि इण्टरनेशनल बिज़नेस और मार्केटिंग  में मास्टर्स डिग्री धारी होने के बावज़ूद उन्हें असंतोषप्रद नौकरियां ही मिलीं और इस वजह से वे बार-बार नौकरियां बदलने को मज़बूर हुईं, लेकिन आखिर में अपना घर बेच कर उन्होंने तैंतीस हज़ार पाउण्ड खर्च कर जब फ्लोरिडा विश्वविद्यालय से एविएशन (उड्डयन) मैनेजमेंट में डिग्री हासिल की तो उन्हें उनकी मनपसंद नौकरी भी मिल गई.

लेकिन ऐसा नहीं है कि इस अति विशेषीकृत शिक्षा को सब पसंद ही कर रहे हैं. प्रबंधन के बहुत सारे विशेषज्ञों का कहना है इस प्रकार के पाठ्यक्रमों में चुने हुए विषय पर इतना अधिक ध्यान और समय दिया जाता है कि बिज़नेस की आधारभूत बातों को बताने-पढ़ाने के लिए बहुत कम गुंजाइश बच रहती है, और इस तरह मूल प्रबंधन विषय उपेक्षित रह जाता है. कुछ जानकारों का यह भी कहना है इन  विशेषीकृत  विषयों को अभी बाज़ार में पूरी तरह स्वीकृति नहीं मिल पाई है इसलिए इन्हें पढ़ने वालों की राह बहुत सुगम नहीं है. यह भी कहा जाने लगा है कि किसी ख़ास  विषय में एमबीए करने वालों के लिए नौकरी चुनने के मौके बहुत सीमित हो जाते हैं. इस बारे में सबसे मज़ेदार टिप्पणी तो एक अंतर्राष्ट्रीय एडमिशन काउंसिलिंग कम्पनी के सीईओ ने की है. उनका कहना है  कि बहुत सम्भव है कि किसी स्पेशलाइज़्ड विषय में एमबीए करने वाले को किसी (जनरल)  एमबीए के अधीन काम करना पड़ जाए!


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ उधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 अप्रैल, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.