Tuesday, March 29, 2016

बन्द करनी पड़ रही हैं जेलें क्योंकि घट रहे हैं अपराध!

एक तरफ जहां दुनिया के ज़्यादातर देश इस बात से त्रस्त हैं उनकी जेलों में जगह कम पड़ती जा रही है वहां एक देश ऐसा भी है जिसका संकट भिन्न और कम से कम हमारे लिए तो कल्पनातीत है. लगभग 170 लाख की आबादी वाला देश नीदरलैण्ड इस बात से परेशान है कि उसकी जेलों में जितने लोगों के लिए स्थान है उससे बहुत कम लोग उनमें बन्द हैं, और इस कारण सरकार को बेवजह जेलों का व्यय भार वहन करना पड़ रहा है. नीदरलैण्ड  की जेलों में कुल चौदह हज़ार कैदियों  के लिए जगह है जबकि वहां कैदियों  की संख्या ग्यारह हज़ार छह सौ ही  है. और यह स्थिति आज ही नहीं पैदा हुई है.  कम कैदियों की वजह से वहां  खाली  पड़ी  जेलों को बन्द करने का सिलसिला 2004 से ही जारी है.  2009 में वहां आठ जेलों को बन्द किया गया और फिर 2013 में उन्नीस और जेलों को बन्द करना पड़ा था. अब पाँच और जेलों को बन्द किए जाने की चर्चा ज़ोरों पर है.  लेकिन जेलों को बन्द करने से एक अन्य समस्या पैदा हो जाती है. बन्द की गई जेलों के कर्मचारियों को कहां समायोजित किया जाए? अभी वहां जितनी जेलें खाली पड़ी हैं अगर उन सबको  बन्द कर दिया  जाए तो करीब दो हज़ार लोग बेकार हो जाएंगे.  ऐसे में नीदरलैण्ड  सरकार ने एक दिलचस्प क़दम उठाया है. कदम है अपनी जेल सुविधाओं की आउटसोर्सिंग. अभी कुछ ही समय पहले  नॉर्वे ने अपने एक हज़ार से ज़्यादा कैदी नीदरलैण्ड  की जेलों में भेजने का फैसला किया है क्योंकि वहां उनके लिए जगह की कमी पड़ रही थी. ये जेलें नॉर्वे के नियमों के अनुसार संचालित की  जाएंगी  लेकिन इनके कर्मचारी  नीदरलैण्ड के होंगे. इससे पहले 550 बेल्जियन अपराधी  नीदरलैण्ड  की जेलों में रह रहे हैं.   

यह जानना रोचक और ज्ञानवर्धक होगा कि नीदरलैण्ड  में न सिर्फ अपराध दर में लगातार कमी आ रही है, वहां के जज लोग सजाएं देने में भी कंजूसी बरतने लगे हैं जिसके परिणामस्वरूप  अपराधियों को जेलों में औसतन कम समय बिताना पड़ रहा है. दुनिया के अन्य देशों की तुलना में नीदरलैण्ड के ड्रग कानून ज्यादा  उदार  माने जाते हैं, फलत: इस कारण जेल जाने वालों की संख्या कम हो जाती है. लेकिन ऐसा नहीं है कि नीदरलैण्ड में अपराध के आंकड़ों को कम करके  बताने के लिए लोगों को सज़ा नहीं दी जाती है. वहां वाकई गम्भीर  अपराधों में भी लगातार कमी आती जा रही है. नीदरलैण्ड में  अपराधियों को सज़ा देने की बजाय उनके  सुधार और पुनर्वास करने को तथा अपराधों को घटित होने से रोकने या उन्हें कम करने के प्रयासों को वरीयता दी जाती है और ऐसे प्रयास किये जाते हैं जिनके कारण लोग समाज की मुख्यधारा में रहते हुए और समाज के लिए उपयोगी बने रहते हुए अपने किए की सज़ा भुगतते हैं. इसके लिए वहां एक एंकल (टखना) मॉनिटरिंग की इलेक्ट्रॉनिक व्यवस्था भी चलन में है जिसके चलते राज्य को अपराधी की हलचल की जानकारी तो रहती है लेकिन उसे जेल में बन्द नहीं रखा जाता है. इस व्यवस्था का एक लाभ यह और होता है कि राज्य को किसी व्यक्ति को जेल में रखने पर जो खर्चा करना होता है वह बच जाता है. अनुमानत: एक व्यक्ति को जेल में रखने पर पचास हज़ार डॉलर प्रति वर्ष खर्च आता है. इस तरह अगर सरकार एक साल में एक हज़ार लोगों को जेल में नहीं रखती है तो वह हर साल पाँच सौ लाख डॉलर बचा लेती है जिनका बेहतर इस्तेमाल हो सकता है. सरकार के इन प्रगतिशील और उन्नत तौर तरीकों का परिणाम यह हुआ है कि नीदरलैण्ड  में प्रति एक लाख नागरिक मात्र 69 कैदी हैं. इस दर की तुलना अमरीका की दर से करने पर दो भिन्न व्यवस्थाओं का अंतर स्पष्ट हो जाता है. अमरीका में प्रति एक लाख नागरिक सात सौ सोलह कैदी हैं और यह दर दुनिया में सर्वाधिक है. अमरीका की जेलें खचाखच भरी हुई हैं और वहां की सरकार को अपने कैदियों को निजी और कॉर्पोरेट स्वामित्व वाली जेलों तक में भेजने को मज़बूर होना पड़ता है. वैसे इस तरह की निजी  जेलों में उन्हीं अपराधियों को भेजा जाता है जिनके अपराध  छोटे और इस तरह के होते हैं जिनसे कोई और प्रभावित नहीं हुआ होता है. इस तरह के अपराधों में किसी के पास थोड़ी मात्रा में ड्रग पाये जाने जैसे अपराध शामिल होते हैं.   असल में दुनिया  के ज़्यादातर देशों में अपराध के लिए दंड का प्रावधान तो है लेकिन जेल से आए हुए व्यक्ति के सुधार और पुनर्वास की समुचित व्यवस्था न होने का दुष्परिणाम यह होता है कि जेल से बाहर आया व्यक्ति फिर से जेल चला जाने को विवश हो जाता है. इस तरह अपराध का आंकड़ा लगातार बढ़ता जाता है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 29 मार्च, 2016 को नीदरलैण्ड में अपराध कम तो जेलों पर मण्डराया ख़तरा शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, March 15, 2016

मेक्सिको पुलिस का एक अनूठा प्रयोग

जब भी पुलिस शब्द कानों में पड़ता है एक ख़ास किस्म की दृढ़ता भरी, रौब-दाब वाली छवि जेह्न में उभर आती है. पुलिस का काम ही कुछ ऐसा है कि उसकी छवि इससे इतर हो ही नहीं सकती. उसे कानून  व्यवस्था  कायम करनी होती है, अपराध पर नियंत्रण पाना होता है, नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करनी होती है, वगैरह. और यह सब दृढ़ता के बिना मुमकिन नहीं हो सकता. लेकिन अगर कुछ समय पहले आप मेक्सिको गए होते तो आप मेरी बात से ज़रूर असहमत  होते. असल में वहां सन 2013 में एक रिटायर्ड जनरल रोनाल्डो यूजीनियो हिडाल्गो एडी ने एक ख़ास किस्म की ब्रिगेड का गठन किया था. और  जब  मेक्सिको के 57 वें राष्ट्रपति एनरिक पेना निएटो ने इस ब्रिगेड के सदस्यों के साथ खिंचाई हुई अपनी एक फोटो प्रकाशित करवाई तब से यह ब्रिगेड  चर्चाओं में आई.

असल में मेक्सिको के अकापुल्को इलाके के पुलिस चीफ ने वहां की नगरपालिका पुलिस के विस्तार के रूप में एक टूरिस्ट असिस्टेंस ब्रिगेड का गठन किया था जिसमें 18 से 28 वर्ष की वय वाली कुल 42 युवतियां शामिल थीं. इस ब्रिगेड का मुख्य दायित्व था वहां के पर्यटकों की संतुष्टि सुनिश्चित  करना. इसके लिए उन्हें वहां के समुद्र तटों की निगरानी करनी होती थी, पैदल चलने वालों की सुविधा के लिए ट्रैफिक को  नियंत्रित करना होता था और जब तक पुलिस उन्हें गिरफ्तार न कर ले तब तक अपराधियों को हथकड़ी लगाकर रखना होता और इसी तरह के अन्य दायित्वों का निर्वहन करना होता था. ये सारे काम करने  के लिए इस ब्रिगेड की सदस्याओं को आत्म रक्षा, जीवन रक्षा और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए   मेक्सिकन फेडेरल सेना की तरफ से तीन महीने का  प्रशिक्षण दिया जाता था. इन्हें हर माह करीब साढ़े चार सौ डॉलर का वेतन दिया जाता था.

और अब ख़ास बात. इस ब्रिगेड में युवतियों को उनके शारीरिक आकर्षण के आधार पर भर्ती किया जाता था और उन्हें टाइट फिटिंग वाली यूनीफॉर्म पहननी होती  थी, जिसमें भूरे रंग के बरमूडा शॉर्ट्स, हल्के नीले रंग के पोलो शर्ट्स, गुलाबी लिपस्टिक और सनग्लासेस शामिल थे. इन्हें  4.7 इंच की हील पहननी होती थी. इस ब्रिगेड की शिफ्ट सुबह सात बजे से शुरु होती थी और सबसे पहले तीस मिनिट तक इन्हें मेक अप करना होता था, जिसके बाद म्युनिसिपल फोर्स के वरिष्ठ अधिकारी इनका  मुआयना करते.  उसके  बाद ही ये अपनी ड्यूटी पर जा सकती थीं. इस ब्रिगेड को दुनिया की सबसे ज़्यादा सेक्सी पुलिस टुकड़ी कहा और  माना जाता था. यह सुनकर भी अगर आप चौंक नहीं रहे हैं तो फिर यह और जान लीजिए कि अधिकारी गण को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी कि यह पुलिस टुकड़ी पर्यटकों के साथ फ्लर्ट करे, क्योंकि वे चाहते थे कि पर्यटक वहां की सुहानी यादें अपने साथ लेकर जाएं.

अब ज़रा इस सबकी पृष्ठभूमि भी जान लीजिए. दर असल मेक्सिको के इस हिस्से की अर्थव्यवस्था का अस्सी प्रतिशत पर्यटन पर आधारित है लेकिन जब से वहां ड्रग माफिया के आपसी टकरावों ने गैंग वार्स की शक्ल अख्तियार की, वहां का पर्यटन बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुआ. तब वहां के प्रशासन को लगा कि पर्यटकों का भरोसा और उनका दिल जीतना ज़रूरी है. उन्हें यह भी लगा कि ऐसी नवाचारी पुलिस उनमें ज़िम्मेदारी और विश्वास का भाव जगा सकेगी, और महिलाओं की यह टुकड़ी शायद भ्रष्ट तौर तरीकों से भी दूरी बरतेगी. और न केवल पर्यटकों ने बल्कि खुद इन पुलिस कर्मियों ने भी इस प्रयोग की सराहना की. एक पुलिस कर्मी ने अपना अनुभव  साझा करते हुए कहा कि आप अनुमान भी नहीं लगा सकते कि कोई बेहद खतरनाक ड्राइवर भी उस वक्त कितना शालीन बन जाता है जब कोई सेक्सी लड़की उसके खिलाफ़ कार्यवाही करती है.

लेकिन मेक्सिको के उस राज्य में पुलिस की कमान जैसे ही एक नए  चीफ ने सम्हाली, यह प्रयोग बीते ज़माने की बात बना दिया गया. इस नए चीफ एडुआर्डो बाहेना ने इस  टुकड़ी की 13 कार्मिकों की तो छुट्टी ही कर दी और शेष को हुक्म दिया कि वो पुलिस की आम वर्दी पहनना शुरु कर दें. कुछ कार्मिकों ने इस बदलाव का भी स्वागत किया है. मसलन उनमें से एक, रोसा का कहना है कि जब वे उस सेक्सी यूनीफॉर्म में होती थीं तो लोग ताज्जुब करते हुए उनके पास आते थे, क्योंकि मैं  असल पुलिस वाली लगती ही नहीं थीं. अब जब मैं पुलिस की वर्दी और पुलिस के जूते पहनती हूं तो मुझे गर्व महसूस होता है. गर्व तो मुझे पहले भी था लेकिन अब वह बढ़ गया है.

होली दूर नहीं है. इसलिए अब ज़रा यह कल्पना करने का कष्ट कीजिए कि अगर कभी हमारे देश में भी ऐसा प्रयोग किया गया तो हमें  कैसी छवियां देखने को मिलेंगी?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 15 मार्च, 2016 को मैक्सिको में सुन्दरता से अपराध पर काबू पाने का हुआ प्रयास शीर्षक से प्रकाशित  आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, March 8, 2016

महज़ धूल का एक कण नहीं हूं मैं

संयुक्त राज्य अमरीका के उत्तर पश्चिमी  राज्य साउथ कैरोलिना के एक हाई स्कूल में हाल में घटी घटना का वर्णन हमें काफी कुछ सोचने को विवश कर रहा  है. घटना यह है कि एक कक्षा खत्म होने और दूसरी शुरु होने के बीच के लगभग चार मिनिट के अंतराल में एक तैंतीस वर्षीय शिक्षिका अपना मोबाइल कक्षा में ही छोड़ कर किसी और काम से बाहर चली जाती है. तभी एक सोलह वर्षीय विद्यार्थी उनका मोबाइल उठाता है, उसकी सामग्री को खंगालता है और उसमें से उस अध्यापिका की चार कम वस्त्रों वाली या निर्वसन तस्वीरों को अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर लेता है. तभी वो शिक्षिका लौट आती है. विद्यार्थी उससे कहता है कि आपके फैसले का दिन आन पहुंचा है. शिक्षिका इस बात को बहुत गम्भीरता से नहीं लेती है. लेकिन  इसके बाद वो विद्यार्थी उन चार तस्वीरों के रंगीन प्रिण्ट बनवा कर अपनी मैं’म के मेल बॉक्स में पहुंचाता है, इन तस्वीरों में से एक के पीछे वो उन्हें और उनके बेटे को धमकी का एक सन्देश भी लिख भेजता है. इसी के साथ वो विद्यार्थी उन तस्वीरों में से एक को सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से अपने सहपाठियों के साथ साझा भी करता है. शिक्षिका बाद में बताती हैं कि उन्होंने ये सेल्फियां वैलेण्टाइन दिवस पर अपने पति को भेजने के लिए ली थीं, और उनके मोबाइल में कोई पास-कोड नहीं था.

इतना वृत्तांत बहुत आम किस्म का है. जिन लोगों का शिक्षण संस्थाओं से ज़रा भी ताल्लुक है वे जानते हैं कि विद्यार्थी इससे भी गम्भीर ‘शरारतें’ करते रहते हैं और शिक्षकगण अपनी तरह से उनका सामना भी करते रहते हैं. लेकिन यहां घटनाक्रम कुछ अलग मोड़ लेता है. वो शिक्षिका जब अपने प्रिंसिपल से इस घटना की शिकायत करती है तो उसे सलाह दी जाती है कि वो इसकी अनदेखी कर दे. लेकिन उससे अगले ही दिन उसे बुला कर कहा जाता है कि ज़िला अधीक्षक ने उसका इस्तीफा मांगा है! वो अधीक्षक से बात करके इसकी वजह जानना चाहती है तो उसे कहा जाता है  कि इस्तीफा इसलिए मांगा जा रहा है कि एक तो उसके फोन में आपत्तिजनक सामग्री थी, और दूसरे यह कि उसने यह सामग्री अपने विद्यार्थियों को सहज  सुलभ करवाई! ये अधीक्षक महोदय बाद में अपने एक बयान में कहते हैं कि सबूतों और बयानों से अनुमान होता है कि जब यह घटना घटी तब वो शिक्षिका उस जगह पर नहीं थी जहां पर उसे होना चाहिए था. इस वजह से एक विद्यार्थी ने उनके मोबाइल फोन से अनुपयुक्त सामग्री  चुरा कर उसे औरों के साथ साझा कर ली. यानि अगर वो शिक्षिका  अपने विद्यार्थियों की ठीक से निगरानी करती तो एक बहुत गम्भीर समस्या को घटित  होने से रोक सकती थी. उन्होंने यह भी कहा कि इस घटना का विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.

इसके फौरन बाद, घटनाक्रम से क्षुब्ध होकर इस शिक्षिका ने अपना इस्तीफा दे दिया. उसकी पीड़ा यह भी थी कि स्कूल ने उस विद्यार्थी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की. लेकिन इस्तीफा देने के अगले ही दिन उसने  यह कहते हुए इसे वापस लेने की पेशकश कर डाली कि तब मैं अपने  कैरियर के बारे में फैसला करने की सही मन:स्थिति में नहीं थी. लेकिन उसके  अनुरोध को अनसुना  किया गया.

इसके बाद जो होता है वह ग़ौर तलब है. उस इलाके के कोई ग्यारह हज़ार नागरिक एक ऑनलाइन याचिका पर दस्तखत कर प्रशासन से मांग करते हैं कि उस शिक्षिका को फिर से काम  पर लिया जाए. “जिन हालात में उन्हें बाहर किया गया है वे पूरी तरह अस्वीकार्य हैं.”  इससे उत्साहित उस शिक्षिका ने भी कहा कि “मैं जानती हूं कि मैंने कोई कानून  नहीं तोड़ा है. हम सबके मोबाइल फोनों में अनुपयुक्त तस्वीरें होती हैं. अपने पति के साथ अंतरंग रिश्ते रखना अनुचित बात नहीं है. यह भी कि वो विद्यार्थी सही और गलत का फर्क जानता है. मेरे मोबाइल से तस्वीरें निकालने और उन्हें बाहर भेजने का आखिरी  फैसला तो उसी का था.”

इससे भी अहम बात यह कि वहां के विद्यार्थियों ने भी एक ऑनलाइन याचिका  दायर की है जिसमें कहा गया है कि “यह शिक्षिका उसकी निजता पर भीषण प्रहार की शिकार है. एक विद्यार्थी ने उनकी निजी तस्वीरों को गैर कानूनी रूप से  चुराया और अपने स्कूल के दूसरे विद्यार्थियों को भेजा.” खुद उस शिक्षिका ने भी एक  बहुत महत्वपूर्ण बयान में कहा कि “अपने लिए खुद मुझी को खड़ा  होना पड़ेगा. अगर मैं इस बात को भुला दूं तो मुझे लगेगा कि मैं महज़ धूल का एक कण हूं और तब मैं अपने ज़िला कार्यालय को इस बात की इजाजत दे रही होऊंगी कि वो मुझे रौंद  डाले.”

क्या इन बातों में आपको भी एक परिपक्व और विकसित प्रजातंत्र की झलक मिलती है?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, दिनांक 08 मार्च, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, March 1, 2016

बुलेट ट्रेन के साथ चला आया एक सपना!

बुलेट ट्रेन का  सपना  साकार होने का  इंतज़ार करते और रेल मंत्री जी के बजट भाषण में सन 2020 तक हर आकांक्षी को कन्फर्म्ड सीट मुहैया करवाने के आश्वासन से मुदित मेरे मन में  एक और सपना देखने की तमन्ना अंगड़ाई लेने लगी है. ख़ास बात यह कि मेरा यह सपना महज़ रेल तक सीमित नहीं है, हालांकि शुरुआत इसकी रेल से सम्बद्ध एक ख़बर को पढ़कर ही हुई है. यह खबर उसी जापान से आई है जिसके साथ भारत ने बुलेट ट्रेन के लिए एक करार पर दस्तखत किए हैं. रोचक बात यह है कि बहुत तेज़ी से घटती जा रही जन्म दर, बढ़ती जा रही वृद्ध आबादी और सन 2060 तक अपनी एक तिहाई आबादी के कम हो जाने के आसन्न संकटों ने जापान के सामने जो बहुत सारी चुनौतियां खड़ी कर रखी हैं  उनके चलते वहां खाली घरों की तादाद निरंतर बढ़ती जा रही है, कामगार घटते जा रहे  हैं और इस तरह की बातों का असर  जिन पर पड़ रहा है उनमें से एक जापान की रेल व्यवस्था भी है. बल्कि कड़वी सचाई तो यह है कि इन कारणों और जापान की बहुत कुशल तीव्र गति की रेलों के फैलाव की वजह से ग्रामीण जापान की रेल व्यवस्था बुरी तरह से चरमराने लगी है. बहुत सारे स्टेशन ऐसे हैं जहां यात्री भार इतना कम हो चुका है कि उन्हें बन्द कर देने के सिवा और कोई विकल्प ही नहीं बचा है.

जापान  के सुदूर उत्तर में एक द्वीप है होक्काइडो, जिसके निकट एंगारु नामक एक कस्बा है. पिछले कुछ बरसों में यहां से गुज़रने वाली कम से कम बीस रेलें बन्द की जा चुकी हैं.  इसी एंगारु कस्बे के नज़दीक के एक रेल्वे स्टेशन कामी-शिराताकी को भी बन्द करने की प्रक्रिया तीन बरस पहले शुरु कर दी गई थी. लेकिन इसी प्रक्रिया के दौरान जापानी रेल  अधिकारियों का ध्यान इस बात की तरफ़ गया कि  पिछले कुछ समय से एक यात्री लगभग नियमित रूप से इस स्टेशन से रेल में चढ़ता और वहीं उतरता है. अधिक पड़ताल की गई तो पता चला कि वह इकलौता यात्री और  कोई नहीं एक स्कूली छात्रा है जो इस स्टेशन से रेल में बैठकर अपने स्कूल जाती है और इसी रेल  से शाम को लौट आती है. जब जापानी रेल अधिकारियों को यह बात पता चली तो उन्होंने क्या किया? उन्होंने इस स्टेशन और इस रेल को बन्द करने के अपने निर्णय को स्थगित कर दिया. इसलिए स्थगित कर दिया ताकि वो छात्रा  निर्बाध रूप से स्कूल जा सके. जापानी रेल अधिकारियों ने फैसला किया कि यह रेल मार्च 2016 में वित्तीय वर्ष की समाप्ति तक चलती रहेगी. 2016 को इसलिए चुना गया ताकि तब तक वो लड़की  अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी कर लेगी.  

और जैसे इतना ही पर्याप्त न हो, जापान के रेल अधिकारियों ने एक और बात की. इस रेल का टाइमटेबल उस छात्रा के स्कूल के टाइमटेबल  के अनुरूप बनाया जाता है. अगर उसका स्कूल किसी दिन बन्द है तो उस दिन रेल नहीं चलती है और अगर किसी दिन जल्दी छुट्टी होती है तो उस दिन रेल भी जल्दी आती है. इसे कहते हैं प्रशासन की संवेदनशीलता. वैसे तो अपने देश में भी प्रभावशाली जन के लिए इस तरह की ‘संवेदनशीलता’ की ख़बरें समाचार माध्यमों में आती ही रहती हैं, लेकिन एक अनाम-सी स्कूली छात्रा  के लिए इस तरह का निर्णय करने की यह अनूठी घटना हम सबके मन में एक सपना तो जगाती ही है. शायद इसी तरह के सपने की बात राष्ट्रपिता बापू ने भी हर आँख का आंसू पोंछने की तमन्ना ज़ाहिर करते हुए की थी.

जापान के रेल विभाग के इस प्रशंसनीय फैसले को उचित ही पूरी दुनिया में सराहा गया है. एक चीनी आधिकारिक प्रसारक की फेसबुक पोस्ट में जब यह बात सामने आई तो तुरंत ही इसे 5700 बार साझा किया गया और बाईस हज़ार लोगों ने इसकी सराहना की. हरेक ने  इस बात की खुले मन से सराहना की ही. एक व्यक्ति ने वहां जो लिखा, वह बहुत महत्वपूर्ण है. उसके शब्द हैं: “भला कौन होगा जो ऐसे देश के लिए जहां की सरकार एक अकेले  के लिए इतना करने को तैयार हो, अपने प्राण तक न्यौच्छावर  नहीं कर देना चाहेगा? सुशासन का असल रूप यही तो है कि वो सीधे ग्रासरूट्स  तक पहुंचे. उसके लिए हर नागरिक का महत्व होना  चाहिए. कोई बच्चा तक पीछे नहीं छूटना चाहिए!” 

हम जापान से बुलेट ट्रेन ले रहे हैं, तो उम्मीद करनी चाहिए कि उसके साथ जापानी  रेल प्रशासन की सुशासन की यह भावना भी स्वत: चली आएगी.  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर  कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 01 मार्च, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.