Tuesday, September 18, 2007

बदलता चेहरा लक्ज़री का

बदलता चेहरा लक्ज़री का
डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल


एक वक़्त था जब लक्ज़री उत्पाद केवल चुनिन्दा, अभिजात, पुश्तैनी अमीरों और शाही खानदान के लोगों को ही मयस्सर हो पाते थे. तब ये उत्पाद एक विशिष्ठ जीवन शैली के भी परिचायक हुआ करते थे. इनकी गुणवत्ता उत्कृष्टतम होती थी और इन्हें खरीदना एक अनुपम अनुभव हुआ करता था. जिन लोगों ने ऐसे लक्ज़री उत्पादों का सिलसिला शुरू किया उनके लिए आज के इस तरह के उत्पादों के बाज़ार को पहचान पाना भी शायद मुमकिन न हो. खानदानी निर्माताओं-उत्पादकों, निष्ठा और गुणवत्ता का युग बीत चुका है. आज अरबों-खरबों डॉलर के लक्ज़री उत्पादों का उद्योग उन वैश्विक निगमों के हाथों में है जिनकी नज़रें उत्पादन वृद्धि, ब्रैण्ड अवेयरनेस, विज्ञापन और सबसे ज़्यादा तो मुनाफे पर टिकी है. हाथ से बने लक्ज़री उत्पाद करीब-करीब लुप्त हो चले हैं. कीमतें कम करने और अपना मुनाफा बढाने के लिए घटिया कच्चे माल का प्रयोग किया जाने लगा है. विलासिता पूर्ण उत्पादों का अधिकांश निर्माण चीन जैसे दूरस्थ देशों में स्थित बडे कारखानों को आउट सोर्स कर दिया गया है,और वहां बने उत्पादों को पश्चिमी यूरोप में निर्मित कह कर बेचा जाता है.
बारह साल तक पेरिस में न्यूज़वीक की संस्कृति और फैशन विषयों की लेखिका रही डाना थॉमस ने अपनी नई किताब ‘डीलक्स : हाऊ लक्ज़री लॉस्ट इट्स लस्टर’ में लक्ज़री और फैशन की दुनिया का ऐसा सामाजिक वृत्तांत लिखा है जो मनोरंजक होने के साथ साथ सूचनाप्रद और विचारोत्तेजक भी है. यह किताब लिखने के लिए डाना ने फ्रेंच परफ्यूम लेबोरेट्रीज़ और लास वेगस के शॉपिंग मॉल्स से लगाकर चीन में चल रही असेम्बली लाइन फैक्ट्रियों तक की यात्रा कर लक्ज़री उद्योग के ऐसे अनेक अन्धेरे कोनों और रहस्यों को उजागर किया है जिन्हें प्राडा, गुच्ची और बरबरी जैसे मशहूर ब्राण्ड कभी सामने नहीं आने देते. डाना थॉमस 1994 से न्यूयॉर्क टाइम्स मैगज़ीन में स्टाइल पर लिखती रही हैं, पेरिस की अमरीकन यूनिवर्सिटी में तीन साल पढा चुकी हैं और अनेक उच्च-भ्रू पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन कर कई बार पुरस्कृत हो चुकी हैं.
डाना ने इस किताब में उच्च वर्गीय शॉपिंग अनुभव की गहन पडताल करते हुए कई महत्वपूर्ण सवालों के जवाब भी तलाशने की कोशिश की है, जैसे लक्ज़री की नई परिभाषा क्या है, खास तौर पर इस सन्दर्भ में कि विज्ञापनों के ज़रिये लाइफ स्टाइल को मास मार्केट तक ले जाया जाने लगा है. इसी तरह यह सवाल भी कि हम उस लक्ज़री कहे जाने वाले उत्पाद के लिए महंगी कीमत क्यों चुकाते हैं जो गुणवत्ता को पीछे छोड चुका है? और अंत में यह भी कि क्या इतना होने के बाद भी अपने पैसे को लक्ज़री में झोंकना अक्लमन्दी की बात है?
पारम्परिक लक्ज़री को परिभाषित करती हुई डाना बताती है कि यह न केवल फैशन के मामले में हमारी सुरुचि सम्पन्नता की परिचायक होती है, इससे हमारे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर तथा हमारी अस्मिता का भी परिचय मिलता है. अमरीका में सुरुचि और स्टाइल के मौज़ूदा मानदण्ड नव-धनिक उद्योगपतियों जैसे वेण्डरबिल्ट्स, कार्नेगीज़, मोरगन्स, रॉकफेलर्स आदि द्वारा कायम किए गए थे. डाना के अनुसार, प्रारम्भ में लक्ज़री महज़ एक प्रॉडक्ट नहीं हुआ करती थी. इसके पीछे परम्परा, उच्चतम क्वालिटी और अक्सर एक लाड भरा खरीददारी अनुभव भी रहा करता था. उस वक़्त लक्ज़री, जैसे सही क्लब की सदस्यता या सही उपनाम का होना, उच्च वर्गीय जीवन का एक स्वाभाविक और प्रत्याशित तत्व हुआ करती था. लक्ज़री उत्पाद बहुत सीमित मात्रा में, प्राय: ऑर्डर पर, वास्तव में एलीट ग्राहकों के लिए बनाए जाते थे.
लेकिन यह सब अब अतीत बन चुका है. डाना थॉमस आज के 35 अग्रणी लक्ज़री ब्राण्ड्स को, जिन्होंने वैश्विक बाज़ार के 60 प्रतिशत से अधिक पर कब्ज़ा जमा रखा है, इस क्षेत्र का खलनायक मानती हैं. इस सूची में शामिल हैं प्राडा, गुच्ची, ज्योर्जिओ आरमानी, शनेल और इन सबसे बडे लुई व्हीटन जिसके समूह में डिओर, फेण्डी और बरलूटी जैसे लेबल आते हैं. इन बडे और लोकप्रिय लेबल्स ने लक्ज़री उद्योग का चेहरा ही बदल डाला है. इनके कारण हुआ यह है कि पहले जो प्रोडक्ट चुनिन्दा और खासमखास का विशेषाधिकार था अब वह हर खासो-आम के लिए सुलभ हो गया है. ऐसा होने से उत्कृष्ट कलात्मकता को सबसे अधिक नुकसान हुआ है. इस बदलाव की चर्चा व व्याख्या करते हुए डाना ने लक्ज़री के प्रजातांत्रिकरण से उत्पन्न अनेक प्रभावों-दुष्प्रभावों की गहरी पडताल की है. उन्होंने आंकडे देकर बताया है कि सारे लक्ज़री उत्पादों का चालीस प्रतिशत जापान में बिकता है, सत्रह प्रतिशत अमरीका में और सोलह प्रतिशत यूरोप के देशों में. यहां तक कि भारत जैसे विकास शील देश में भी लक्ज़री उत्पादों के पचास लाख ग्राहक हैं. चालीस प्रतिशत जापानी किसी न किसी व्हीटन प्रॉडक्ट का प्रयोग करते हैं. लास वेगस के बहुत महंगे मॉल सीज़र्स पैलेस में जाने वालों की तादाद डिज़्नी लैण्ड जाने वालों की तादाद को पीछे छोड चुकी है. बकौल लेखिका औद्योगिकृत देशों में खर्च करने योग्य आय के बढने और क्रेडिट कार्ड संस्कृति के फैलाव से मध्य वर्ग भी लक्ज़री उत्पादकों के निशाने पर आ गया है और वे बडे विज्ञापन अभियानों, फिल्मी सितारों और सेलिब्रिटीज़ के माध्यम से इस वर्ग को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं. इस सब का एक परिणाम यह हुआ है कि जो लक्ज़री पहले चुनिन्दा अभिजात वर्ग तक सीमित थी अब वह आम आदमी की पहुंच के भीतर आ गई है. पहले फैशन के मठ पैरिस और न्यूयॉर्क ही थे, अब तो मास्को तक में क्रॉकस सिटी नाम से 690,000 वर्ग फीट का एक लक्ज़री मॉल बन गया है जिसमें दुनिया के तमाम बडे फैशन हाउसेज़ के 180 बूटीक हैं. चीन के थियानमेन स्क्वेयर में इसी साल के अंत तक ऐसा ही एक मॉल आ रहा है.

लक्ज़री और फैशन की दुनिया में एक बडा बदलाव यह भी आया है कि पहले जहां उत्पादों के लेबल बहुत छोटे हुआ करते थे अब वे लोगो (Logo) के रूप में दिखावे की चीज़ बन चुके हैं. यह भी अभिजात जीवन मूल्य में आया एक बडा बदलाव है. सटल(Subtle) की जगह लाउड ने ले ली है. इस तरह फैशन क्रांति अमीरी और आभिजात्य को नए सिरे से पारिभाषित कर रही है. लक्ज़री उत्पादों की यह कथा वैश्वीकरण, पूंजीकरण, वर्ग और संस्कृति की कथा भी है. किताब को पढते हुए उग्र आक्रामक उपभोक्तावाद की अनेक परतें खुलती हैं और हम बहुत कुछ सोचने को मज़बूर होते हैं.

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कहीं यह जंगल राज तो नहीं

अपने शहर की कुछेक घटनाओं से बहुत व्यथित हूं. ये घटनाएं तो मेरे शहर की हैं लेकिन जानता हूं कि देश के हर शहर में ऐसा ही होता रहता है. इसीलिए अपनी चिंता में आप सबको शरीक कर रहा हूं.
कल राजस्थान विश्वविद्यालय के एक कॉलेज ने एक सांसद वृंदा करात के अपने यहां परमाणु संधि पर व्याख्यान के लिए बुलाया था. वे अपना व्याख्यान दे पातीं इससे पहले ही एक दल विशेष के युवा वहां घुस आए और उनकी कोशिश थी कि वृंदा अपना व्याख्यान न दे. उनका तर्क था कि वृंदा उस विचारधारा से ताल्लुक रखती हैं जो राम को नहीं मानती, वृंदा ने पहले बाबा रामदेव का विरोध किया था, वगैरह.
कुछ दिन पहले मेरे इसी शहर में, और तमाम देश में राम सेतु के समर्थन में तीन घण्टे का बन्द रखा गया. इससे पहले गुर्जरों के समर्थन में, कभी ब्राह्मणों के समर्थन में ऐसा होता ही रहा है.
मैं मानता हूं कि जनतंत्र में सबको अपनी बात कहने का, अपने विचार रखने का, औरों से सहमत और असहमत होने का समान अधिकार होता है. सिद्धांत रूप में तो सब यही कहेंगे. लेकिन व्यवहार में क्या हो रहा है?
क्या वृंदा को अपनी बात कहने का कोई हक़ नहीं है? और आगे चलें तो क्या यह ज़रूरी है कि हर व्यक्ति राम और राम सेतु के बारे में वही विचार रखे जो आपके हैं? आपसे भिन्न सोच भी तो किसी की हो सकती है? जिसकी सोच भिन्न हो वह देशद्रोही होगा, यह तै करने वाले आप कौन हैं?
और इसी तरह, मामला चाहे आरक्षण का हो या कोई और, जो इन मुद्दों के समर्थन में होते हैं, उनसे भिन्न मत भी तो किसी का हो सकता है! अगर आप आरक्षण मांगते हैं तो मैं उसके विरोध में भी तो हो सकता हूं. आप अगर अपनी मांग के समर्थन में मुझे भी शामिल करते हैं तो यह तो ज़बर्दस्ती है, यह तो प्रजातंत्र नहीं है.
होना यह चाहिये कि हम अपनी बात कहें, लेकिन दूसरों को भी अपनी बात कहने का हक़ दें. हम विरोध प्रदर्शन करें लेकिन दूसरों को भी यह हक़ दें कि अगर वे न चाहें तो उस प्रदर्शन से अलग रह जाएं.
एक कॉलेज में कुछ विद्यार्थी किसी मुद्दे को लेकर हडताल करते हैं और अपनी हडताल के लिए यह ज़रूरी मानते हैं कि सारे ही विद्यार्थी उसमें शरीक हों. उनके लिहाज़ से यह ठीक हो सकता है, लेकिन जिन्हें अनचाहे उस हडताल में भागीदारी निबाहनी पड रही है, उनके लिहाज़ से भी तो सोचिये? क्या उनका कोई हक़ नहीं है? या हक़ तो सिर्फ ताकतवर का ही होता है?
क्या इसी को जंगल राज नहीं कहा जाएगा?
दुर्गाप्रसाद