Tuesday, March 11, 2014

अच्छे काम की तारीफ़ भी की जानी चाहिए!

कुछ विभागों के बारे में इतना ज़्यादा  नकारात्मक पढ़ने सुनने को मिल चुका होता है कि हम यह मानने को तैयार ही नहीं होते हैं कि ये विभाग कोई सही और  अच्छा काम भी करते हैं! ऐसे विभागों की अगर कोई सूची बनाई जाए तो पुलिस विभाग का नाम उसमें काफी ऊपर आएगा. लेकिन अगर कोई कहे कि पुलिस के बारे में जो बातें बार-बार कही-सुनी जाती हैं, वे पूरी तरह सच नहीं है, और पुलिस ईमानदारी से काम करती है, तो भला कौन विश्वास करेगा? मैं भी नहीं करता, अगर मुझे एक ख़ास अनुभव नहीं हुआ होता. और उस अनुभव ने पुलिस के बारे में मेरी धारणा को एकदम बदल दिया.

बात ज़्यादा पुरानी नहीं हुई है. हम लोग जयपुर में अपना घर बंद करके छह महीनों के लिए अमरीका गए थे. पड़ोसी बहुत अच्छे हैं, इसलिए किसी को घर पर सुलाया नहीं, उन्हीं को कह कर चले गए कि वे घर का ध्यान रखें! साढ़े चार महीने सकुशल निकल गए. अचानक एक दिन जयपुर से अमरीका फोन आया कि हमारे घर  में चोरी हो गई है और घर का कुण्डा ताला टूटा पड़ा है.  घबराहट स्वाभाविक थी. पहले तो अपने  एक  स्थानीय रिश्तेदार से कहा कि वो जाकर घर सम्हाले, टूटा कुण्डा ताला वगैरह  बदलवा दे, और फिर सूरत में रह रहे बेटे से कहा कि वो एक दफा जयपुर आ जाए और घर को सम्हाल कर पुलिस में रपट वगैरह  लिखवा दे. और ये सारे काम हो गए.

कोई पंद्रह बीस दिन बाद हमारे पड़ोसियों ने बेटे को फोन करके कहा कि वो पुलिस से सम्पर्क करे, और जब उसने पुलिस से सम्पर्क किया तो उसे बताया गया कि हमारे घर में चोरी करने वाले को पकड़ लिया गया है और उससे काफी सामान बरामद हुआ है. आगे जो हुआ उसे संक्षेप में कहूं तो मात्र इतना कि हमारा चोरी गया सामान करीब-करीब पूरा मिल गया, और वो भी यथा कार्यक्रम अपना अमरीका प्रवास पूरा करके हमारे भारत  लौटने  के बाद. तब तक वो सामान पुलिस के पास सुरक्षित पड़ा रहा, कोई अमानत में खयानत नहीं हुई. हां, अदालती औपचारिकताएं हमें पूरी करनी पड़ीं, और उनमें कुछ अलग तरह के अनुभव भी हुए,  लेकिन  उनकी चर्चा यहां अप्रासंगिक होगी. 

दिलचस्प और प्रशंसनीय बात यह है कि पुलिस ने हमारे यहां चोरी करने वाले उस चोर को पकड़ा कैसे? हुआ यह कि पुलिस की नियमित गतिविधि के तहत एक चोर पकड़ा गया और उसके पास से काफी सारा माल बरामद हुआ. पुलिस उस चोर से यह नहीं जान सकी कि उसने कहां-कहां चोरी की थी. पुलिस चाहती तो आसानी से उस माल को हजम कर सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. उसने उस माल के मालिक का पता लगाने की भरपूर  कोशिश की. जो माल पुलिस को उससे बरामद हुआ, उसमें एक टू-इन-वन यानि रेडियो कम कैसेट रिकॉर्डर भी था, जिस पर किसी रेडियो रिपेयरिंग शॉप का लेबल लगा था. पुलिस उस टू-इन-वन को लेकर उस शॉप पर पहुंची और वहां से पता लगा कि यह टू इन वन अमुक जगह रहने वाले किसी व्यक्ति का था. जब पुलिस उस व्यक्ति को  तलाश करती वहां पहुंची तो बताया गया कि वह व्यक्ति तो वहां से अमुक कॉलोनी में रहने चला गया है. उसी बरामद हुए सामान में एक कीमती कैमरा भी था जिसमें एक आधी काम में ली हुई फोटो फिल्म भी थी. पुलिस ने उस फिल्म को धुलवाया तो उसमें किसी बच्चे की बर्थ डे पार्टी की कुछ तस्वीरें मिलीं. पुलिस उन तस्वीरों को लेकर हमारे घर वाली कॉलोनी में आई और वो तस्वीरें जब हमारे पड़ोसियों को दिखाई गईं तो उन्होंने तुरंत बता दिया कि वे हमारे पोते के जन्म दिन की तस्वीरें हैं. तो इस तरह उस रेडियो रिपेयरिंग शॉप और कैमरे की फिल्म के माध्यम से पुलिस ने यह पता लगाया कि बरामद हुआ यह सामान हमारा   है.

यह पूरा वृत्तांत लिखने का मेरा मकसद यही बताना है कि जिस पुलिस को कोसने का कोई मौका हम नहीं छोड़ते हैं, वो भी काम करती है लेकिन उसके काम की कोई तारीफ़  नहीं करता. मुझे यह कहना भी ज़रूरी लग रहा है कि मेरे घर हुई इस चोरी के मामले में पुलिस ने जो भी किया वो अपनी पहल पर किया, न कि मेरे किसी दबाव या प्रभाव के कारण. एक नागरिक के रूप में मुझे लगता है कि जो लोग हमारी सेवा के लिए नियोजित हैं, उनके मूल्यांकन में बेवजह अनुदार और नकारात्मक होकर हम उन्हें हतोत्साहित ही करते हैं. अगर उनके प्रति हम अपना रुख सकारात्मक बनाएं तो निश्चय ही वे और अधिक उत्साह  के साथ हमारी सेवा करेंगे.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 11 मार्च 2014 को कभी-कभी पुलिस भी होती है तारीफ की हक़दार शीर्षक से प्रकाशित कड़ी का मूल पाठ.