Wednesday, February 27, 2019

एक आदमी ने बदल डाली देश की छवि


यह कहावत तो आपने ज़रूर सुनी होगी कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, लेकिन यह बात शायद आपके लिए नई हो कि हमारी इसी दुनिया में इस कहावत को मिथ्या साबित करने वाले लोग भी मौज़ूद हैं. आज ऐसे ही एक बहादुर नौजवानसे आपकी मुलाकात करवा रहा हूं. आप उनकी उम्र पर न जाएं. वे मात्र इक्यासी साल के हैं लेकिन जवानी उनमें कूट कूट कर भरी है. बुंगाकू वाटानाबे नामक  इस जापानी युवा ने इकतालीस बरस पहले जापान एक्शन फॉर नॉन स्मोकर्स राइट्स नामक एक संस्था की स्थापना कर जो अभियान चलाया अब उसके परिणाम स्पष्ट नज़र आने लगे हैं. बरस 1966 में जब जापान में धूम्रपान का शौक अपने चरमोत्कर्ष पर था तबके आंकड़ों के अनुसार वहां की जनसंख्या का 49.4 प्रतिशत और पुरुष आबादी का 83.7 प्रतिशत धूम्रपान करता था. लेकिन सन 2018 के आंकड़े बताते हैं कि अब जापान में धूम्रपान करने वालों की संख्या घटकर मात्र 17.9 प्रतिशत रह गई है. लेकिन इस बदलाव के लिए बुंगाकू वाटानाबे ने अपनी ज़िंदगी के बेशकीमती चार दशक खपाये हैं. एक समय था जब जापान को धूम्रपान करने वालों का स्वर्ग कहा जाता था. कहना ग़ैर ज़रूरी है कि इन धूम्रपान करने वालों की वजह से धूम्रपान नहीं करने वालों को  नारकीय जीवन जीना पड़ता था. बुंगाकू के संघर्ष की वजह से अब समाज और सरकार ने धूम्रपान न करने वालों  की फ़िक्र करना शुरु किया है और अधिकांश सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान निषिद्ध हुआ है.

चालीस बरस पहले ऐसा  नहीं था. धूम्रपान करने की तलब कहीं भी पूरी जा सकती थी - रेल्वे स्टेशनों पर, अस्पतालों के प्रतीक्षालयों में, थिएटरों में, बेसबॉल स्टेडियमों में और करीब-करीब सभी बारों और रेस्तराओं में. हालत यह थी कि जब किसी स्टेशन से कोई ट्रेन छूटती उसके बाद रेल की पटरियां पी जा चुकीं सिगरेटों के टुड्डों यानि बचे खुचे टुकड़ों के कारण एकदम  सफेद दिखाई दिया करती थीं. लोग धूम्रपान के ख़तरों से अनजान थे. खुद बुग़ाकू वाटानाबे जमकर  धूम्रपान करते थे. एक दिन में साठ सिगरेटें  तो वे फूंक ही डालते थे. लेकिन 6 मई 1977 को उन्होंने सिगरेट  को अलविदा कह दिया. और इसके कुछ ही समय बाद अपनी संस्था, जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है, बनाकर देश को धूम्रपान मुक्त करने के अभियान में जुट गए. लेकिन उनका काम आसान नहीं था. इसलिए आसान नहीं था कि जापान की स्थितियां भिन्न थीं. जापान दुनिया के उन बहुत थोड़े देशों में था जहां तम्बाकू और सिगरेट के कारोबार पर सरकार का करीब-करीब एकाधिकार था. सन 2013 तक तो वहां तम्बाकू उद्योग में सरकार की आधी भागीदारी हुआ करती थी. बुंगाकू वाटानाबे बताते हैं कि “फ्रांसिसी सरकार के पास रेनों (एक कार निर्माता कम्पनी) के मात्र 15 प्रतिशत शेयर हैं, लेकिन जापान में सरकार के पास तम्बाकू कम्पनी के एक तिहाई शेयर हैं. यहां वित्त विभाग तम्बाकू को नियंत्रित करता है. किसी भी अन्य देश में ऐसा नहीं है. दूसरे देशों में तम्बाकू पर जन स्वास्थ्य विभाग  का नियंत्रण होता है.” इस व्यवस्था के कारण खुद सरकार तम्बाकू और धूम्रपान पर नियंत्रण करने में उदासीनता बरतती रही है. राजनेता भी तम्बाकू की ख़िलाफत को अपना खुला समर्थन नहीं देते हैं. यहीं यह जानना भी दिलचस्प होगा कि जापान में सिगरेट  की कीमत दुनिया के अन्य देशों की तुलना में बहुत कम रही  है. 1989 में वहां एक लोकप्रिय ब्राण्ड की बीस सिगरेटों की डिब्बी की कीमत बीस येन थी, जो अब बढ़कर चार सौ अस्सी येन हो गई है. फिर भी यह कीमत अन्य देशों की तुलना में काफी कम है. अगर जापानी मुद्रा में तुलना करें तो वही सिगरेट ब्रिटेन में एक हज़ार चार सौ पंद्रह येन में और ऑस्ट्रेलिया में दो हज़ार दो सौ पैंतालीस येन में मिलेगी.

बुंगाकू वाटानाबे को धूम्रपान के खिलाफ अपने संघर्ष में मीडिया का काफी सहयोग मिला है. लोग अब इसके खतरों के प्रति सजग हुए हैं. सन 2003 में जापान ने भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रम पर हस्ताक्षर कर तम्बाकू के हर तरह के विज्ञापनों पर रोक लगाने के लिए अपनी सहमति दे दी. लेकिन वहां के तम्बाकू व्यवसायी एक गली निकालकर धूम्रपान शिष्टाचार के विज्ञापन देकर परोक्ष रूप से अपने उत्पादों का विज्ञापन कर ही लेते हैं. ठीक उसी तरह जैसे हमारे यहां के एक निषिद्ध उत्पाद  के निर्माता-व्यापारी सोड़ा या कांच के गिलास जैसे सम्बद्ध उत्पादों का विज्ञापन करके करते हैं. बुग़ाकू वाटानाबे अपने संघर्ष  की अब तक की प्रगति से संतुष्ट तो हैं लेकिन वे चाहते हैं कि उनका देश भी न्यूज़ीलैण्ड, फिनलैण्ड या भूटान जैसा हो जाए जहां धूम्रपान लगभग ख़त्म हो चुका है.  “हमारा लक्ष्य तो यह है कि धूम्रपान एकदम ही ख़त्म हो जाए. फिर हमारे संघर्ष की भी कोई ज़रूरत नहीं रह जाएगी. हमारा लक्ष्य एक धूम्रपान मुक्त समाज है.”
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 26 फरवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

Tuesday, February 19, 2019

जनसंख्या की कमी से जूझते एक देश की दास्तान


मध्य यूरोप का एक छोटा-सा देश हंगरी इन दिनों एक अजीबो-गरीब संकट से जूझ रहा है. जब मैं अजीबो-गरीब संकट की बात कर रहा हूं तो मेरे मन में अपने देश के हालात भी साथ-साथ चहलकदमी कर रहे हैं. ऑस्ट्रिया, स्लोवेनिया, क्रोएशिया, रोमानिया, सर्बिया और स्लोवाकिया जैसे देशों से चारों तरफ घिरा हुआ यह देश अपने सुदीर्घ इतिहास, उच्च आय वाली मौज़ूदा अर्थ व्यवस्था और बेहद मज़बूत पर्यटन उद्योग के लिए जाना जाता है. हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट की गणना यूरोप के सबसे खूबसूरत शहरों में होती है  और हर बरस कोई 44 लाख लोग यह शहर घूमने आते हैं. इस वजह से इसे यूरोप के छठे सर्वाधिक लोकप्रिय शहर का दर्ज़ा हासिल है.  देश के लोग खूब सुखी हैं. यहां की उन्नत व्यवस्थाओं की वजह से लोगों को बहुत आसानी से स्वच्छ पेयजल सुलभ है और वर्ल्ड हैप्पीनेस  रिपोर्ट में इस देश को 69 वां स्थान प्राप्त है.

आप भी सोच रहे होंगे कि जब सब कुछ इतना अच्छा है तो फिर संकट क्या है? संकट है जनसंख्या का. और इसीलिए मुझे अपना भारत याद आ रहा है. हंगरी का संकट हमसे एकदम उलट है. सन सत्तर से ही यहां की जनसंख्या लगातार घटती जा रही है. कभी इस देश की जनसंख्या एक करोड़ दस लाख थी, वह अब घटकर अट्ठानवे लाख चार हज़ार रह गई है. और यह बात हंगरी की सरकार को बेहद परेशान किए हुए है. प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ने तो यहां तक कह दिया है कि अगले पांच बरसों तक उनकी सरकार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य ही इस जनसंख्या की गिरावट को रोकने का रहेगा. असल में हंगरी की सरकार की चिंता केवल घटती जनसंख्या को लेकर ही नहीं है. समस्या यह भी है कि वहां युवाओं की तुलना में वृद्धों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. हंगरी में आयु सम्भाव्यता खासी ऊंची यानि 76.1 वर्ष है. विशेषज्ञों का अनुमान है कि बहुत जल्दी यह बढ़कर 86.7 वर्ष तक जा पहुंचेगी. इसकी वजह से सन 1990 में जहां इस देश में प्रति एक हज़ार  शिशु (0-14 वर्ष) चौंसठ साल की उम्र वाले पैंसठ लोग हुआ करते थे, अब उनकी संख्या बढ़कर एक सौ अट्ठाइस तक जा पहुंची है. इसके विपरीत हाल के बरसों में चौदह वर्ष तक के बच्चों की संख्या में बहुत ज़्यादा कमी आई है. ज़ाहिर है इन बदलावों का असर यहां की उत्पादकता पर पड़ रहा है. मेहनत करने वाले युवा घटते जा रहे हैं और बहुत कम काम कर सकने वाले वृद्ध बढ़ते जा रहे हैं.

हाल में संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व जनसंख्या सम्भावनाओं के संशोधित अनुमान की जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसमें भी इन बदलावों पर चिंता ज़ाहिर करते हुए यह भयावह आशंका व्यक्त की गई है कि अगर कोई बड़ा चमत्कार न हुआ तो इस शताब्दी के आखिर तक केंद्रीय और  मध्य यूरोप की पूरी जनसंख्या ही विलुप्त हो जाएगी. इसी रिपोर्ट में यह डर भी व्यक्त किया गया है कि सन 2100 तक हंगरी की जनसंख्या घटकर मात्र साठ लाख रह जाएगी. और ऐसा तब होगा जब इस शताब्दी के अंत तक धरती की जनसंख्या  बढ़कर 11.2 बिलियन हो जाएगी. इस रिपोर्ट का यह आकलन हमारे लिए विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि सन 2017 से 2050 तक दुनिया की जनसंख्या की कुल वृद्धि सिर्फ नौ देशों में सिमट कर रह जाएगी. ये नौ देश हैं: भारत, नाइजीरिया, कॉंगो गणराज्य, पाकिस्तान, इथोपिया, तंजानिया गणतंत्र, अमरीका, युगाण्डा और इण्डोनेशिया.

हंगरी की जनसंख्या समस्या का एक आयाम यह भी है कि वहां की सरकार इस बात को अधिक पसंद नहीं करती है कि अन्य देशों के लोग वहां आकर बसें. इसलिए फिलहाल तो हंगरी के वैज्ञानिक  जहां इस जुगत में हैं कि कैसे बढ़ी उम्र में भी लोगों की कार्यक्षमता को बनाए रखा जाए, वहां की सरकार अपने विभिन्न प्रयासों के माध्यम से लोगों को अधिक संतानोत्पत्ति के लिए प्रेरित करने में जुटी हुई है. इस बात पर विमर्श ज़ारी है कि क्यों नहीं तीन से अधिक संतानों को जन्म देने वाली माताओं को आजन्म आयकर से मुक्ति प्रदान कर दी जाए. इस बात पर भी विचार चल रहा है कि माताओं को तो मातृत्व अवकाश मिलता ही है, अब  पिताओं को भी पैतृक अवकाश दिया जाने लगे. हंगरी में एक व्यवस्था यह भी है कि सरकार  नियमित रूप से जनता से विचार  विमर्श कर भावी नीतियां तै करती है. इस विमर्श में भी जनसंख्या की कमी से निबटने के विभिन्न उपायों पर चर्चाएं होती रहती हैं और उम्मीद की जा रही है कि अगले विमर्श से जो सुझाव आएंगे वे देश की जनसंख्या विषयक नीतियां निर्धारित करने में प्रयुक्त किए जाएंगे. हो सकता है हंगरी और भारत की स्थितियों की तुलना करते हुए आपको भी निदा फाज़ली साहब का यह शेर याद आ जाए: 
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 19 फरवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

Tuesday, February 5, 2019

उन्हें अपनी शेष ज़िंदगी जेल में गुज़ारना रास आ रहा है!


आम तौर पर जापान को कानून का पालन करने वालों का देश माना जाता है लेकिन इधर वहां कुछ अजीब ही घटित हो रहा है. आंकड़े बताते हैं कि पिछले बीस बरसों से वहां अपराध करने वाले बुज़ुर्गों की संख्या बढ़ती जा रही है. 1997 में जहां पैंसठ पार के अपराधी बीस में से एक हुआ करते थे,  अब वे बीस में से चार होने लगे हैं. ग़ौर तलब है वहां बुज़ुर्गों की संख्या इसी अनुपात में नहीं बढ़ी है. यही नहीं, ये बुज़ुर्ग बार-बार अपराध करने लगे हैं. सन 2016 में पैंसठ पार के जिन ढाई हज़ार बुज़ुर्गों को सज़ा हुई उनमें से कम से कम एक तिहाई ऐसे थे जो पांच  बार पहले भी सज़ा पा चुके थे.

इस चौंकाने वाली हक़ीक़त के पीछे का सच यह है कि जापान में बुज़ुर्गों को जो पेंशन मिलती है उसे वे अपने जीवन यापन के लिए अपर्याप्त पाते हैं  और दूसरी तरफ जापानी कानून व्यवस्था इतनी मज़बूत है कि छोटे-से छोटे अपराध के लिए भी काफी सज़ा देती है. तीसरी बात यह कि जापानी जेलों में कैदियों को न केवल मुफ्त रहने-खाने की सुविधा मिलती है, वहां की सरकार इस बात का भी बराबर ध्यान रखती है कि जेलों में किसी को भी, जिसमें बुज़ुर्ग भी शामिल हैं, कोई असुविधा न हो. ऐसे में अपर्याप्त आर्थिक साधनों वाले बुज़ुर्गों को भूखे मरने की बजाय जेल में जाकर ज़िंदगी बिताना रास आने लगा है. उनसठ वर्षीय तोशियो तकाता का कहना है कि जैसे ही उसके पास के पैसे ख़त्म हुए, उसने सड़क पर पड़ी किसी की साइकिल उठाई और उसे लेकर पुलिस स्टेशन जा पहुंचा. वहां जाकर उसने कहा कि मैंने यह साइकिल  चुराई है. कानूनी कार्यवाही  के बाद उसे एक साल की कैद की सज़ा सुना दी गई. एक साल बाद जब वह जेल से छूटा तो फिर भूख उसके सामने खड़ी थी. इस बार उसने एक चाकू उठाया और एक पार्क में बैठी कुछ महिलाओं के सामने जाकर उसे लहरा दिया. किसी को नुकसान  पहुंचाने का उसका कोई इरादा नहीं था. एक स्त्री उसे देखकर डर गई, उसने पुलिस को बुला लिया और तोशियो तकाता का मनचाहा हो गया. उसे फिर जेल भेज दिया गया. एक मज़े की बात यह और है कि जापान में कोई जेल चला जाए तो भी उसकी पेंशन ज़ारी रहती है और उसके खाते में जमा होती रहती है. पिछले आठ में से चार बरस इस तरह जेल में बिताकर अब तोशियो कुछ समय के लिए आर्थिक चिंताओं से मुक्त हो गया है.

यहीं यह जानना भी रोचक होगा कि जापान अपने देश को अपराध मुक्त रखने के बारे में इतना अधिक सजग है कि छोटे से छोटे अपराध के लिए पर्याप्त से अधिक सज़ा देता है, भले ही इससे सरकार  पर कितना ही अधिक आर्थिक भार क्यों न पड़े. एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है. वहां अगर कोई दो सौ येन (भारतीय मुद्रा में करीब एक सौ तीस रुपये) का सेण्डविच चुराए तो उसे दो साल की जेल होती है और इस पर सरकार लगभग साढे चौपन लाख रुपये का खर्च करती है. जापानी समाज में इस बात पर भी गहन चर्चा होने लगी है कि क्यों न पेंशन राशि को बढ़ाकर इस अपराध वृत्ति और इस पर होने वाले व्यय पर नियंत्रण पाया जाए.

लेकिन इन बुज़ुर्गों के अपराध की राह पर चल निकलने के पीछे केवल आर्थिक कारण ही नहीं हैं. एक अन्य बड़ा कारण वहां की सामाजिक व्यवस्था में आ रहे बदलाव के कारण बुज़ुर्गों का बढ़ता जा रहा अकेलापन भी है. अनेक कारणों से नई पीढ़ी अपने मां-बाप को अपने साथ नहीं रख पा रही है और अगर ढलती  उम्र में कोई बुज़ुर्ग अपने जीवन साथी को भी खो बैठे तो अकेलेपन का त्रास उसके लिए असहनीय हो उठता है. समाज में अन्यथा भी एकाकीपन बढ़ता जा रहा है. सामाजिक सम्बल व्यवस्था लगातार छीजती  जा रही  है. किसी को किसी से कोई मतलब नहीं रह गया है. ऐसे में कई बुज़ुर्गों को जेल में मिलने वाला साहचर्य भी ललचाता है. सुखद बात यह है कि जापान की सरकार जेल व्यवस्था में लगातार सुधार कर और अधिक कर्मचारियों की भर्ती कर यह सुनिश्चित करती जा रही है कि वहां इन बुज़ुर्गों को कोई कष्ट न हो. ये प्रयास भी बहुत ज़ोर शोर से किये जा रहे हैं कि बुज़ुर्ग बग़ैर अपराध की राह पर गए अपने समाज में ही बाकी ज़िंदगी गुज़ारने के बारे में  सोचें.  लेकिन इसके बावज़ूद बहुत सारे बुज़ुर्ग जीवन के कष्टों से हार मान कर आत्महत्या तक कर लेते हैं.

जापान की ये स्थितियां हमें भी बहुत कुछ सोचने को मज़बूर करती हैं. इसलिए कि कमोबेश हमारे यहां भी बुज़ुर्गों की हालत ऐसी ही है. ऊपर से यह बात और कि हमारे पास वैसी मानवीय और संवेदनशील जेल व्यवस्था भी नहीं है!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक स्तम्भ कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 05 फरवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.