Tuesday, February 23, 2016

जाओ, पहले अपने पवित्र होने का प्रमाण पत्र लेकर आओ!

अपने देश में जारी होने वाले कुछ अजीबो गरीब फतवों और खापों के फरमानों से अगर आप पर्याप्त दुःखी न हो चुके हों तो ज़रा दूर देश के इस फैसले के बारे में भी जान लीजिए. आज मैं बात कर रहा हूं सुदूर दक्षिण अफ्रीका की जहां के क्वाज़ुलु नैटाल इलाके के एक ज़िले उथुकेले की मेयर दुदु माज़िबुको ने एक ऐसा आदेश ज़ारी किया है जो आपको सोचने को मज़बूर करेगा कि अभी इक्कीसवीं सदी चल रही है या दसवीं-बारहवीं सदी. जिस नगरपालिका की ये मेयर हैं उसने इस साल से अपने यहां के युवाओं को उच्च शिक्षा के लिए वार्षिक छात्रवृत्तियां प्रदान करने की घोषणा की थी. बताया गया कि वैसे तो यह नगरपालिका अपने इलाके के सौ से ज़्यादा विद्यार्थियों को उच्च अध्ययन के लिए यह छात्रवृत्ति प्रदान करती है लेकिन इस बरस इसमें एक और प्रावधान जोड़ कर  इसे केवल उन छात्राओं तक सीमित कर दिया गया  है जो इस आशय का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करेंगी कि वे उस तिथि विशेष तक कुंवारी (वर्जिन) हैं. और क्योंकि इस योजना का लाभ छात्रा के शिक्षण संस्थान में अध्ययन के तमाम वर्षों तक देय है, इसे प्राप्त करने की इच्छुक  छात्रा को अपनी छात्रवृत्ति का नवीनीकरण कराने के लिए हर बरस इस आशय का  प्रमाण पत्र देना होगा.  बताया गया है कि इस बरस सोलह छात्राओं ने इस आशय का प्रमाण पत्र देकर यह छात्रवृत्ति प्राप्त कर ली है.

बहुत स्वाभाविक है कि इस आदेश पर तीव्र प्रतिक्रियाएं हुई हैं. मानव अधिकार समूहों और लैंगिक समानता के पक्षधरों ने उचित ही यह सवाल उठाया है कि कौमार्य की जांच की शर्त केवल युवतियों पर ही क्यों लागू  की जा रही है?  उन्होंने इसे व्यक्ति की निजता का हनन भी माना है. एक एक्टिविस्ट जेसिका थॉर्प ने इस भेदभाव  को भी रेखांकित किया है कि छात्रों को तो उनके कौमार्य या उसकी  अनुपस्थिति के लिए पुरस्कृत या दंडित नहीं किया जाता है जबकि छात्राओं पर यह मापदण्ड लागू किया जा रहा है. वहां के अनेक जाने-माने शिक्षाविदों ने खुलकर यह बात कही है कि सेक्सुअली  सक्रिय होने का शिक्षा ग्रहण करने से कोई सम्बन्ध नहीं है और इस कारण सेक्स को शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों के साथ जोड़ना अनुपयुक्त है. मेयर महोदया ने अपने निर्णय को उचित ठहराते हुए कहा था  कि कौमार्य का प्रमाण देने का यह प्रावधान लड़कियों को पवित्र और सेक्सुअल गतिविधियों से दूर रखकर उन्हें अपनी पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने में मददगार साबित होगा. एक स्थानीय रेडियो स्टेशन से अपने प्रसारण में उन्होंने फरमाया, “हमारे वास्ते तो यह एक तरीका है आपको इस बात के लिए धन्यवाद देने का कि आपने अभी तक अपने आप को खुद के लिए बचाए रखा है और तब तक बचाए रखेंगी जब तक कि  आप डिग्री या प्रमाण पत्र प्राप्त नहीं कर लेतीं.”

जब मेयर महोदया के इस फैसले की ज़्यादा ही आलोचना  हुई तो उन्होंने कहा कि यह योजना तो उस इलाके में एच आई वी, एड्स और अवांछित गर्भधारण के मामलों को नियंत्रित  करने के लिए लाई गई है. वैसे, यह बात सही है कि दुनिया में एच आई वी का फैलाव दक्षिण अफ्रीका में बहुत ज़्यादा है. 2013 के आंकड़ों  के अनुसार उस देश में 63 लाख लोग इससे ग्रस्त थे. वहां के अपराध के आंकड़े बताते हैं कि साल 2014-2015 के मध्य सेक्सुअल अपराधों के 53, 617  मामले  दर्ज़  हुए थे, हालांकि जानकारों का कहना है कि असली तस्वीर तो इससे भी बुरी है.

लेकिन इन  आंकड़ों  के बावज़ूद इस बात से कोई सहमत नहीं हो पा रहा है कि मेयर महोदया का यह फरमान उचित है और इससे हालात सुधर जाएंगे.   देश के जेण्डर समानता के अध्यक्ष तक ने कह दिया है कि भले ही मेयर के इरादे नेक हों,  हम कौमार्य के आधार  पर छात्रवृत्ति देने के उनके निर्णय  से सहमत नहीं हैं. यह तो गर्भधारण और कौमार्य के आधार पर लैंगिक भेदभाव का मामला है और लड़कों के भी खिलाफ़ है.” यहीं यह बात भी ग़ौर तलब है कि दक्षिण अफ्रीका में सहमति से यौन सम्बध कायम करने की उम्र 16 बरस है और कुछ अपवादों में इसे घटाकर 12 से 16 बरस तक भी लाया जा सकता है. बल्कि इस जानकारी के सन्दर्भ में तो छात्रवृत्ति के लिए कौमार्य परीक्षण की शर्त और अधिक असंगत प्रतीत होने लगती है. यह शर्त और अधिक  हास्यास्पद इस जानकारी से भी लगने लगती है कि कौमार्य परीक्षण जुलु परम्पराओं के आधार पर किए जाने की बात कही गई है. जुलु परम्परा में यह परीक्षण वृद्धाएं करती हैं जो आम तौर पर किसी लड़की की आंखों और  उसके चलने के ढंग को देखकर ही फैसला सुना देती हैं कि वो कुमारी है या नहीं.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगल्वार, 23 फरवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Wednesday, February 17, 2016

धीरे-धीरे बोल, कोई सुन ना ले!

बहुत लम्बे अर्से तक मानवीय यौनिक (सेक्सुअल)  व्यवहार के बारे में कोई भी चर्चा किन्से रिपोर्ट्स के ज़िक्र के बग़ैर अधूरी रही है. अल्फ्रेड किन्से इण्डियाना विश्वविद्यालय में प्राणीशास्त्र के प्रोफेसर थे और इन्होंने किन्से  इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन सेक्स, जेण्डर एण्ड रिप्रोडक्शन की स्थापना की थी. जिन्हें किन्से रिपोर्ट्स के नाम से जाना जाता है वे दरअसल पुरुषों और स्त्रियों के यौनिक व्यवहारों का विश्लेषण करने वाली क्रमश: 1948 तथा 1953 में प्रकाशित दो अलग-अलग किताबें हैं. अपने ज़माने में किन्से की ये रिपोर्ट्स खासी विवादास्पद मानी गई थीं क्योंकि इनमें तब तक वर्जित माने जाने वाले बहुत सारे मुद्दों पर खुलकर चर्चा की गई थी.  लेकिन इन रिपोर्ट्स के छह दशक बाद पूरी दुनिया इतनी अधिक बदल चुकी है कि हर मुद्दे पर बहुत खुलकर बातें होने लगी हैं और उन बातों से आहत होना तो दूर की बात है, कोई चौंकता भी नहीं है.

किन्से ने लगभग 6000 स्त्रियों से व्यक्तिगत साक्षात्कार करने के बाद उनके यौनिक व्यवहार और इस विषयक उनकी पसन्द नापसन्द का विश्लेषण करते हुए पुरुषों और स्त्रियों की यौनिक  गतिविधियों का तुलनात्मक खाका प्रस्तुत किया था. इसे याद करते हुए हाल ही  में आए एक हज़ार से ज़्यादा स्त्रियों पर किए गए ग्लैमर सर्वे को देखें तो जहां हम यह पाते हैं कि आज का  यह सर्वे भी किन्से की इस बात से सहमति  ज़ाहिर करता है कि मानवीय यौनिक व्यवहार में एक निरंतरता होती  है लेकिन हर व्यक्ति की यौनिक पसन्द नापसन्द परिवर्तनशील होती है, वहीं इस सर्वे में भाग लेने वाली स्त्रियों में से कम से कम 63 प्रतिशत ऐसी हैं जो अपनी यौनिक पहचान को किसी एक लेबल तक सीमित नहीं रखना  चाहती हैं. इस बात को अगर थोड़ा खोलकर कहना हो तो यों कहा जा सकता है कि ये स्त्रियां केवल पुरुषों की तरफ ही नहीं, स्त्रियों की तरफ भी आकृष्ट हो सकती हैं और उनसे रिश्ते रख सकती हैं. इतना ही नहीं, इनमें से 47 प्रतिशत स्त्रियों ने तो खुलकर इस बात को स्वीकार भी किया है वे अन्य स्त्रियों की तरफ आकर्षित हुई हैं. 31 प्रतिशत ने और भी आगे बढ़ते हुए अन्य स्त्रियों के साथ यौनिक अनुभव साझा करने की बात भी स्वीकार की है. लेकिन एक मज़ेदार विरोधाभास यह भी सामने आया कि इस सर्वे  में भाग लेने वाली स्त्रियों में से 63 प्रतिशत ने यह कहा  कि वे ऐसे किसी पुरुष को डेट नहीं करेंगी जिसने किसी अन्य पुरुष के साथ दैहिक रिश्ते कायम किये हों. 

अगर आप यह सोचते हों कि यह सब तो उस पश्चिम की बातें हैं जो बहुत उदार, खुला या जो भी आप  समझते हों वो है, तो मैं बहुत विनम्रतापूर्वक  आपसे  निवेदन करना चाहूंगा कि कृपया पोर्नहब डॉट कॉम द्वारा हाल ही में जारी की गई वार्षिक रिपोर्ट पर भी एक नज़र डाल लें.  पोर्नहब दरअसल एक एडल्ट वीडियो वेबसाइट है लेकिन  हाल ही में इसने एक रिकॉर्ड लेबल लॉंच किया है, इसकी अपनी एक वस्त्र श्रंखला है, हाल ही में इसने एक स्कॉलरशिप फण्ड निर्मित किया है और एक नया अभियान बॉडी पॉजिटिव भी इसने शुरु किया है. तो इस पोर्नहब ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर भारतीय महिलाओं को लेकर कुछ  बड़े खुलासे  किये हैं, जो काफी चौंकाने वाले हैं. पोर्नहब के अनुसार भारत की महिलाएं दुनिया में सर्वाधिक पोर्न देखने वाली महिलाओं में तीसरे स्थान पर हैं. पहले और दूसरे स्थान पर क्रमश: अमरीका और यू.के. की महिलाएं हैं. ज़ाहिर है कि कनाडा, जर्मनी फ्रांस वगैरह  सब देशों की स्त्रियां पीछे हैं. दूसरी बात यह कि औसतन दुनिया भर के पुरुषों की तुलना में भारतीय स्त्रियां पोर्न देखने में थोड़ा-सा ज़्यादा समय बिताती हैं. तीसरी और और भी अधिक चौंकाने वाली बात पोर्नहब के अपने दर्शकों के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर यह है कि जहां दुनिया भर की स्त्रियां औसतन 35.3 वर्ष की उम्र में इस एडल्ट वेबसाइट पर आती हैं, भारतीय स्त्रियां 22 वर्ष की उम्र में ही आने लगती हैं. पोर्नहब ने अपने दर्शकों का लैंगिक आधार पर विश्लेषण करते हुए यह भी बताया है कि जहां पूरी दुनिया में औसतन 24% महिलाएं इस वेबसाइट को देखती हैं वहीं, भारत में यह प्रतिशत 30 है. वैसे अगर खुश होना चाहें तो यह याद कर सकते हैं कि जमैका और निकारागुआ में यह प्रतिशत क्रमश: 40 और  39 है.

किन्से रिपोर्ट और फिर ग्लैमर के सर्वे के सन्दर्भ में पोर्नहब के वार्षिक प्रतिवेदन के इन आंकड़ों की चर्चा से इतना तो स्पष्ट है कि जीवन के अंतरंग क्रियाकलापों को लेकर खुलेपन की बयार केवल कुख्यात पश्चिम में ही नहीं अपने पारम्परिक भारत में भी बहने लगी है. बेशक, यह बयार खुशी का नहीं फिक्र का ही पैगाम ला रही है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 16 फरवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, February 9, 2016

न उनकी रस्म नई है न अपनी रीत नई!

राजनेताओं के खिलाफ़ धरने प्रदर्शन वगैरह  कोई नई बात नहीं है. उनके काम काज और फैसलों से अनगिनत लोगों की ज़िन्दगियां प्रभावित होती हैं और यह बात कभी भी सम्भव नहीं हो सकती है कि सब पर अनुकूल प्रभाव ही पड़ें. जिन्हें उनके फैसलों से लाभ होता है वे अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए उनकी शान में जब तक सूरज चाँद रहेगा नुमा कसीदे पढ़ते हैं. लेकिन जो उनके फैसलों से प्रतिकूलत: प्रभावित होते हैं वे लिखते हैं, प्रदर्शन करते हैं, सियाही, जूता फेंकते हैं, नारे लगाते हैं..वगैरह. और सत्ता तंत्र इन तमाम विरोध प्रदर्शनों को यथासम्भव बाधित करने का प्रयास करता है. लेकिन सरकारी अमले की सारी कोशिशों के बावज़ूद अगर कोई किसी भी तरह अपना विरोध प्रदर्शन करने में कामयाब हो जाए तो पहले तो नेता जी के समर्थक उस पर अपनी ताकत का प्रयोग करते हैं और फिर सरकारी तंत्र अपनी तरह से उसे ‘देखता’  है.  यह तो कहा ही जाता है कि विरोध प्रदर्शन का यह तरीका ‘ग़ैर कानूनी’ है.

और कमोबेश जो अपने देश में होता है शायद वही दुनिया के अन्य देशों में भी होता है. यह समझ पाना मुश्क़िल है कि आखिर क्यों सरकारी तंत्र सरकार के रहनुमाओं के खिलाफ किसी भी तरह की आवाज़ को उठने नहीं देना चाहता. क्या वाकई हम सब निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय वाले समय से बहुत दूर निकल आए हैं? शायद ऐसा भी नहीं है. अगर ऐसा होता तो फैज़ अहमद फैज़ ने अपनी  नज़्म निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन में  यह नहीं लिखा होता:

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है,     न अपनी रीत नई

ये सारी बातें मेरे जेह्न में आई सुदूर न्यूज़ीलैण्ड  की एक घटना की  खबर पढ़ते हुए. हाल ही में पूरे पाँच साल चली वार्ताओं के बाद ऑकलैण्ड में एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए. अमरीका की अगुआई में किए गए इस ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप समझौते में अमरीका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, मेक्सिको, वियतनाम, मलेशिया, न्यूज़ीलैण्ड, ब्रुनेई, सिंगापुर, पेरु और चिली ये बारह देश शामिल हैं और माना  जा रहा है कि यह विश्व के सबसे बड़े व्यापारिक समझौतों में से एक है. समूह में शामिल इन बारह देशों की कुल जनसंख्या करीब 80 करोड़ है और इन देशों का दुनिया की अर्थव्यवस्था में योगदान 40 प्रतिशत आंका गया है. इस प्रशांत तटीय भागीदारी समझौते का लक्ष्य सदस्य देशों के बीच व्यापार व निवेश की सभी बाधाओं को दूर करना बताया गया है.

लेकिन जिस जगह इस समझौते पर हस्ताक्षर किये गए वहां की तमाम  सड़कें हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने जाम कर रखी थी. उनका कहना था कि इस समझौते से लोग न सिर्फ अपनी नौकरियां गंवा बैठेंगे, इन देशों की सम्प्रभुता भी खतरे में पड़ेगी. बात यहीं तक सीमित रहती तो मैं इसके बारे में लिखता भी नहीं. हुआ यह कि नॉर्थ आइलैण्ड के एक शहर वैतांगी  में  न्यूज़ीलैण्ड के आर्थिक विकास मंत्री  स्टीवन जॉयस पत्रकारों से बात करते हुए जब इस समझौते के फायदे गिना रहे थे, तभी अचानक जोसी बटलर नामक एक महिला ने गुलाबी रंग का एक डिल्डो (कृत्रिम लिंग) मंत्री  की तरफ फेंका और उस महिला का  निशाना इतना सच्चा था कि वह सीधा मंत्री महोदय के होठों से जा टकराया. उसके बाद तो जो अपने देश में होता है वही  वहां भी हुआ. पुलिस ने उस महिला को पूरी अशिष्टता से धर दबोचा, और ज़ाहिर है कि उसके बाद कानून ने अपना काम किया ही होगा. 

लेकिन तब तक मीडिया भी बीच में आ चुका था. एक साक्षात्कार में जोसी बटलर  ने कहा कि मैं यहां एक नर्स की हैसियत से हूं और मुझे रोगियों के अधिकारों  की चिंता है,  क्योंकि मुझे लगता है कि इस समझौते के बाद दवाइयां और उपचार बहुत महंगे हो जाएंगे और ज़्यादा लोग मौत की तरफ धकेले जाएंगे. इसलिए मुझे बहुत बुरा लग रहा है. एक और बयान में उसने और भी कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि यह समझौता हमारी सम्प्रभुता के साथ बलात्कार जैसा है, यह हमारे देश के साथ बलात्कार है क्योंकि इस समझौते के द्वारा हम अपने अधिकार और अपनी आज़ादी का सौदा कर रहे हैं.

इस सारे प्रकरण में मुझे मज़ेदार लगा उन मंत्री जी का बयान. इस घटना के फौरन बाद उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे नहीं लगता कि ऐसी घटनाएं रोज़-रोज़ घटित होती हैं. कुल मिलाकर तो मुझे यह खासा मज़ाकिया लगा है. राजनीति में हर रोज़ नए अनुभव  होते हैं. जनता की सेवा का यही तो सबसे बड़ा सुफल है!” 

आप नहीं कहेंगे- थ्री चीयर्स फॉर मंत्री जी!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में मंगलवार, 09 फरवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, February 2, 2016

क्यों बदल रही है सात समन्दर पार की गुड़िया बार्बी?

1967 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘तक़दीर’  में एक गाना था जो बहुत लोकप्रिय हुआ था:
सात समन्दर पार से  
गुड़ियों के बाज़ार से
अच्छी-सी गुड़िया लाना
गुड़िया चाहे ना लाना
पप्पा  जल्दी आ जाना!
और आज हम बात  कर रहे हैं सात समन्दर पार वाली लोकप्रिय गुड़िया बार्बी की!

छप्पन बरसों से पूरी दुनिया के गुड़िया साम्राज्य पर करीब-करीब एक छत्र राज करने वाली इस गुड़िया के रंग-रूप कद-काठी वगैरह में बहुत  बड़े बदलाव किए जा रहे हैं. इसकी निर्माता कम्पनी ने घोषणा की है कि इसी साल यानि 2016 में सात अलग-अलग रंगों की त्वचा वाली, तीस भिन्न-भिन्न  रंगों और चौबीस शैलियों की केश सज्जाओं वाली, नीली, हरी और भूरी आंखों  वाली और तीन अलग-अलग देहाकार वाली बार्बी गुड़ियाएं बाज़ार में आ जाएंगी.

कहना ग़ैर ज़रूरी है कि बार्बी की जानी-पहचानी छवि में यह बदलाव बाज़ार के दबाव में आकर  किया जा रहा है.  बावज़ूद इस बात के कि पूरी दुनिया के करीब एक सौ पचास देशों में बार्बी की दस खरब गुड़ियाएं बेची जा चुकी हैं और अब भी प्रति सैकण्ड तीन गुड़ियाएं बिकती हैं, पिछले कुछ समय से इसकी बिक्री में गिरावट देखी जा रही थी. पिछले एक दशक में पहली दफा सन 2014 में इस उत्पाद को लड़कियों के सबसे ज़्यादा बिकने वाले खिलौने के अपने गौरवपूर्ण स्थान से हाथ धोना पड़ा था. यही नहीं इस अक्टोबर माह में पूरी दुनिया में बार्बी  की बिक्री में चौदह प्रतिशत की गिरावट देखी गई.  बिक्री के अलावा, वैचारिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी इस उत्पाद  की काफी आलोचनाएं हो रही थीं. मुस्लिम देशों में जहां इसके अल्प वस्त्रों को लेकर नाराज़गी थी वहीं विचारवान लोग इसे प्लास्टिक प्रिंसेस ऑफ कैपिटलज़्म कहकर गरियाते थे. लेकिन इसकी सबसे मुखर और तीखी आलोचना तो इसकी अयथार्थवादी देह को लेकर होती थी. साढे ग्यारह  इंच वाली मानक बार्बी डॉल को 1/6 के पैमाने पर 5 फिट 9 इंच की आंकते हुए इसे 36-18-33 के आकार की माना गया और इसकी शेष देह की तुलना में इसकी 18 इंच की कमर को अपर्याप्त माना गया. इसी आलोचना के फलस्वरूप 1997 में इसकी कमर पर कुछ और चर्बी चढ़ाई गई.

लेकिन बार्बी को असल खतरा तो हुआ 21 वीं सदी की मम्मियों की तरफ़ से. बार्बी बनाने  वाली कम्पनी  की एक उच्चाधिकारी ने स्वीकार किया कि इस सदी की ये विचारवान माताएं सामाजिक न्याय से प्रेरित  हैं और इन्हें वे उत्पाद अधिक पसन्द आते हैं जिनके पीछे कोई उद्देश्य और मूल्य हों. तानिया मिसाद नामक इस अधिकारी ने बेबाकी से स्वीकार किया कि ये मम्मियां बार्बी को इस श्रेणी में नहीं गिनती हैं. और शायद यही स्वीकारोक्ति है इस बड़े बदलाव के मूल में.

वैसे इस गुड़िया के निर्माण की कथा को जान लेना भी कम रोचक नहीं होगा. बार्बी का निर्माण करने वाली कम्पनी की स्थापना 1945 में एलियट और रुथ हैण्डलर नामक दम्पती ने अपने कैलिफोर्निया स्थित घर के गैराज में की थी. हुआ यह कि रुथ ने अपनी बेटी बार्बरा और उसकी सहेलियों को कागज़ की बनी गुड़ियाओं  से खेलते देखा. ये लड़कियां इन गुड़ियाओं के साथ डॉक्टर-नर्स, चीयरलीडर और व्यापार करने वाली स्त्रियों के बड़ी उम्र वालों के रोल प्ले करवा रही थीं. याद दिलाता चलूं कि उस ज़माने में बाज़ार में सिर्फ दुधमुंही या प्राम में घुमाई जा सकने वाली उम्र की गुड़ियाएं मिलती थीं. तो हैण्डलर ने गुड़ियाओं से खेलने वाली बच्चियों की इस  ज़रूरत को समझा कि वे अपनी तमन्नाओं को मूर्त रूप देने के लिए गुड़ियाओं का प्रयोग  करना चाहती हैं. और तब उन्होंने इस विचार के इर्द गिर्द कि स्त्री के पास भी अपने विकल्प होते हैं, अपनी गुड़िया बार्बी का निर्माण किया. यहीं एक और मज़े की बात बताता चलूं  और वह यह कि हैण्डलर दम्पती ने अपनी बार्बी का निर्माण एक जर्मन गुड़िया बाइल्ड लिली के आधार पर किया था, और भरी-पूरी देह वाली यह गुड़िया बच्चों के लिए नहीं बड़ों के लिए निर्मित थी.

क्या पता इस सबके मूल में एक बात यह भी रही हो कि बार्बी डॉल अपने समय के फैशन को इतनी बारीकी से अंगीकार करती रही है कि आज भी आप तीस-चालीस बरस पहले की बार्बी को देखकर उसकी सज्जा के आधार पर यह बता सकते हैं कि उसका निर्माण किस दशक में हुआ होगा. लेकिन इधर खुद बार्बी के देश अमरीका में और शेष दुनिया में भी स्त्री देह, सौन्दर्य और उन के प्रति नज़रियों  में तेज़ी से जो बदलाव आ रहे हैं उन्होंने बार्बी के निर्माताओं को भी इस बड़े  बदलाव के लिए मज़बूर किया है. अब यह देखना है कि क्या यह बदलाव बार्बी की बिक्री के गिरते हुए हुए ग्राफ़ को थाम पाने में कामयाब होते हैं? इससे भी महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि विचारवान लोग इन बदलावों पर क्या कहते हैं! 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 फरवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.