एक ज़माना था जब तमाम नेता, छोटे हों या बड़े, कुछ नितान्त औपचारिक अवसरों को छोड़कर, मौलिक भाषण दिया करते थे. वे भाषण न केवल उनके व्यक्तित्व और उनके सोच के परिचायक
होते थे, उनसे लोग प्रेरणा भी लेते थे और यथासमय उन्हें उद्धृत भी करते थे. महात्मा गांधी, जवाहर
लाल नेहरु, राममनोहर लोहिया, जे. बी कृपलानी उन नेताओं में से हैं जिनके भाषण बहुत
ग़ौर से सुने जाते थे. लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता स्थितियां बदलीं और हम लोग इस बात के
गवाह हैं कि हमारे माननीय नेताओं ने अब यह यह काम आउटसोर्स कर दिया है. अब स्थिति
यह है लगभग सारे के सारे भाषण औरों के द्वारा तैयार किये हुए होते हैं और भाषण देने वालों की स्थिति प्लेबैक
सिंगर्स जैसी होकर रह गई है. अब भाषण देने वाले का मूल्यांकन भी भाषण में निहित विचारों के आधार पर कम, उसकी भाषण देने की कला
के आधार पर अधिक होने लगा है. तब और अब के इस अंतर को देखता हूं तो बरबस अपने साथ
घटी एक घटना याद आ जाती है. घटना का ताल्लुक संक्रमण काल से है, यानि जब मौलिक
भाषण भी दिए जाते थे और (औरों के द्वारा) लिखित भाषण भी पढ़े जाते थे.
राजस्थान साहित्य अकादमी का कोई साहित्यिक आयोजन था जो माउण्ट आबू के
राजभवन में हो रहा था. महामहिम उसका
उद्घाटन भाषण पढ़ रहे थे. यह सर्व विदित है कि राज्यपाल ऐसे मौकों पर लिखित भाषण ही
पढ़ते हैं. लेकिन उनका वो भाषण कुछ ज़्यादा ही लम्बा था. ख़त्म ही नहीं हो रहा था. श्रोताओं की असहजता
बढ़ती जा रही थी. अगर कोई और जगह होती या बात सामान्य साहित्यिक गोष्ठी की होती तो लोग
अनेक प्रकार से अपनी ऊब व्यक्त कर सकते थे. और कुछ नहीं तो उठकर बाहर तो जा ही
सकते थे. लेकिन यह राजभवन का मामला था. प्रोटोकोल का अनकहा दबाव सब पर था.
मेरे पास ही बैठे थे हिन्दी के एक बड़े आलोचक, और उससे भी पहले मेरे
गुरु. उन्होंने मुझसे कान में पूछा – “यह कचरा इन्हें दिया किसने?” मैंने बहुत
शालीनता से उनके कान में जवाब दिया- “आप ही के इस शिष्य ने!” कहना अनावश्यक है कि
अगर राजभवन की शालीनता की चादर हमारे ऊपर न फैली होती तो हम दोनों ने एक छत-फाड़ू
ठहाका ज़रूर लगाया होता!
अब ज़रा बात साफ़ कर दूं.
वे राजस्थान में साहित्यिक सक्रियता के उजले दिन थे. राजस्थान साहित्य
अकादमी का स्वर्ण काल. पूरे प्रांत में, हर छोटे-बड़े कस्बे में साहित्यिक आयोजनों
की धूम मची हुई थी. कहीं आंचलिक
साहित्यकार सम्मेलन हो रहे थे, तो कहीं सृजन साक्षात्कार. कहीं पाठक मंच की
गोष्ठी हो रही थी तो कहीं कोई उपनिषद. इसी क्रम में राजस्थान के इकलौते हिल स्टेशन माउण्ट आबू पर भी एक साहित्यिक संगोष्ठी का आयोजन किया गया था.
राजस्थान के राज्यपाल के ग्रीष्मकालीन आबू प्रवास का लाभ उठाते हुए उन्हें इस
आयोजन का उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया गया और उन्होंने भी सहर्ष अपनी
स्वीकृति प्रदान कर दी. उद्घाटन सत्र राजभवन के सभा कक्ष में ही रखा गया.
मैं उन दिनों राजकीय महाविद्यालय सिरोही में हिंदी पढ़ाता था. यहीं यह
याद दिलाता चलूं कि माउण्ट आबू सिरोही जिले में ही स्थित है. शायद ऐसी कोई प्रक्रिया होती होगी, तभी सिरोही
के कलक्टर महोदय के यहां से मेरे महाविद्यालय के प्राचार्य जी के पास इस आशय का
अनुरोध आया कि वे महामहिम के भाषण के लिए अमुक विषय पर कुछ नोट्स उपलब्ध कराएं. जैसी
सरकारी रिवायत है, प्राचार्य जी ने वह अनुरोध मुझ तक सरका दिया. और मैंने भी तुरंत
कोई चालीस-पचास पन्नों की सामग्री उनके माध्यम से कलक्टर महोदय के पास भिजवा दी.
इस सामग्री में राजस्थान के हिन्दी साहित्य पर लिखा मेरा अन्यत्र प्रकाशित तीसेक
पन्नों का एक सर्वेक्षणपरक आलेख भी था. इस सूचनाप्रद आलेख में नामोल्लेख अधिक था. मेरा खयाल था कि महामहिम के लिए भाषण तैयार करने
वाले इस सामग्री में से अपने काम की चीज़ें निकाल
लेंगे और कुछ अपनी तरफ से जोड़कर उनके लिए एक अवसरोचित भाषण तैयार कर देंगे.
आखिर उन्होंने नोट्स ही तो मांगे थे. अब मैं तो इसे राजभवन के सम्बद्ध अधिकारी की
ज़र्रानवाज़ी ही कहूंगा कि उन्हें मेरा वह सर्वेक्षणपरक लेख इतना भाया कि उसे ज्यों
का त्यों महामहिम से पढ़वा लेने के लिए प्रस्तुत कर दिया. हां, मेरे गुरुजी को ज़रूर
वो कचरा लगा. और उन्होंने वैसा ही कह दिया. अगर उन्हें भी यह पता होता कि उसका मूल लेखक कौन है तो वे भी शायद
ऐसा न कहते. बहरहाल! तब जो बात अपवाद थी,
अब आम हो चुकी है.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक 'न्यूज़ टुडै' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' के अंतर्गत दिनांक 21 जनवरी, 2014 को 'महामहिम से बंचवा दिया पुराना आलेख' शीर्षक से प्रकाशित संस्मरण का मूल आलेख!