Tuesday, December 26, 2017

एक बिल्ली जिसका नाम है जॉय फॉर ऑल!

अमरीका की एक प्रसिद्ध खिलौना कम्पनी की बनाई हुई एक बिल्ली, जिसका नाम जॉय फॉर ऑल है, पिछले दो बरसों से बाज़ार में है. यह बिल्ली गुर्राती है, म्याऊं म्याऊं करती है, अपने पंजे  को चाटती है और कभी-कभी उलटी होकर लेट भी जाती है ताकि आप इसका पेट सहला सकें. इस बिल्ली का निर्माण वरिष्ठ जन के लिए एक साथी की ज़रूरत को ध्यान में रखकर किया गया था. यहां याद कर लेना उचित होगा कि पश्चिमी देशों में बढ़ती उम्र का अकेलापन बहुत बड़ी सामाजिक समस्या है. यह बिल्ली अकेलेपन से जूझ रहे बूढों को कम्पनी देती है और बूढों को इसका मल मूत्र भी साफ नहीं करना पड़ता है. यानि यह बग़ैर उनकी ज़िम्मेदारी बढ़ाए उन्हें साहचर्य प्रदान करती है. लेकिन अच्छी ख़बर  इसके बाद है.

अमरीका की  नेशनल साइंस फाउण्डेशन ने तीन बरस के लिए एक लाख मिलियन डॉलर का अनुदान दिया है जिसकी मदद से यह खिलौना कम्पनी और ब्राउन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक मिलकर इस इस रोबोटिक बिल्ली को कृत्रिम बुद्धि से भी युक्त  कर देंगे. आशा की जाती है कि यह कृत्रिम बुद्धि सम्पन्न  बिल्ली वृद्धजन को उनके रोज़मर्रा के सामान्य काम निबटाने में मददगार साबित होगी. फिलहाल ब्राउन विश्वविद्यालय के ह्युमैनिटी सेण्टर्ड रोबोटिक्स इनिशिएटिव के शोधकर्ता इस बात की पड़ताल में जुटे हैं कि इस बिल्ली को ऐसे कौन कौन-से कामों के लिए तैयार करना उपयुक्त होगा जो घर में अकेले रहने वाले वृद्धजन के लिए उपयोगी हों. इस बात के लिए ये लोग शोधकर्ताओं की टीम की मदद से यह पड़ताल कर रहे हैं कि वृद्धजन की रोज़मर्रा की ज़िंदगी कैसी होती है और उनकी ज़रूरतें क्या  होती हैं. वे यह भी सुनिश्चित कर रहे हैं कि उन्नत बिल्ली नए काम किस तरह करेगी. विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर ने मज़ाक के लहज़े में कहा कि हमारी यह बिल्ली न तो कपड़े प्रेस करेगी और न बर्तन मांजेगी. उससे कोई यह भी उम्मीद नहीं करता है कि वो गपशप करेगी, और न ही यह आस लगाता है कि वो जाकर अखबार उठा लाएगी. उनके मन में यह बात बहुत साफ़ है कि बोलने वाली बिल्ली की ज़रूरत किसी को  नहीं है. इस प्रोफ़ेसर ने यथार्थपरक लहज़े में कहा कि हम अपनी इस बिल्ली की कार्यक्षमता के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर कोई दावा नहीं करना चाहते. हम तो बस एक ऐसी बिल्ली तैयार करना चाहते हैं जो रोज़मर्रा के बहुत सामान्य काम कर सके, जैसे कि वो अपने साथी वृद्ध को उनकी खोई चीज़ें तलाश करने में मदद कर दे या उन्हें डॉक्टर के अपाइण्टमेण्ट की याद दिला दे या ज़रूरत पड़ने पर यह सुझा दे कि वे किसे फोन करें! और हां, उनकी कोशिश यह भी है कि यह बिल्ली बहुत  महंगी न हो, हर कोई इसे खरीद सके. अभी जो बिल्ली बाज़ार में उपलब्ध है उसकी कीमत एक सौ डॉलर है और इनकी कोशिश है कि यह नई कृत्रिम बुद्धि वाली बिल्ली इससे थोड़ी ही ज़्यादा कीमती  हो. यही वजह है कि इन लोगों ने अपनी इस परियोजना को नाम दिया है: अफोर्डेबल रोबोटिक इण्टेलीजेंस फॉर एल्डरली सपोर्ट- संक्षेप में एरीज़ (ARIES).

पश्चिमी दुनिया की सामाजिक परिस्थितियों में कृत्रिम बुद्धि सम्पन्न बिल्ली का यह विचार बहुत पसंद किया जा रहा है. एक कामकाज़ी महिला ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि उनकी 93 वर्षीया मां उनके साथ रहती हैं और उम्र के साथ वे बहुत सारी बातें भूलने लगी हैं. लेकिन उन्होंने  अपनी मां को जो जॉय फॉर ऑल बिल्ली खरीद कर दी वह उनके लिए बहुत मददगार साबित हुई है और जब वे काम पर चली जाती हैं तो बिल्ली उनकी मां की बहुत उम्दा साथिन साबित होती है, उनकी मां भी उससे  असली बिल्ली जैसा  ही बर्ताव करती हैं, हालांकि वे यह जानती है कि यह बिल्ली बैट्री चालित है. वे सोचती हैं कि जब यह बिल्ली कृत्रिम बुद्धि से युक्त हो जाएगी तो उनकी मां के लिए इसकी उपादेयता कई गुना बढ़ जाएगी. अभी मां काफी कुछ भूल जाती है, बिल्ली उन्हें ज़रूरी बातें याद दिला दिया करेगी.

इस परियोजना पर काम कर रहे विशेषज्ञों को उम्मीद है कि निकट भविष्य में विकसित की जाने वाली यह कृत्रिम बुद्धि युक्त बिल्ली मनुष्यों के साथ एक ऐसा पारस्परिक रिश्ता  कायम कर सकेगी जिसकी उन्हें बहुत ज़्यादा ज़रूरत है. वे यह भी उम्मीद कर रहे हैं कि उनके द्वारा विकसित की जाने वाली यह बिल्ली वृद्धजन को एकाकीपन, चिंता और अवसाद से काफी हद तक निज़ात दिला सकने में कामयाब होगी. कामना  करनी चाहिए कि वर्तमान सुख-सुविधाओं और अमीरी की तरफ बुरी तरह  भागते-दौड़ते और व्यक्ति केंद्रित समाज ने जो समस्याएं पैदा कर दी हैं उनसे एक हद तक मुक्ति दिलाने में और कोई नहीं तो यह यांत्रिक प्राणी तो सफल हो ही जाएगा.

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 जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 26 दिसम्बर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.            

Tuesday, December 19, 2017

आभासी दुनिया में भी मनुष्य तो मनुष्य ही होता है!

आम चर्चाओं में अक्सर आभासी दुनिया की गतिविधियों  को यह कहकर नकारा जाता है कि इनका ज़मीनी हक़ीक़त से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता है लेकिन हाल में अमरीका के पूर्वी हार्लेम के 22 वर्षीय रैप गायक सह प्रोड्यूसर स्पेंसर स्लेयॉन और फ्लोरिडा की रिटायरमेण्ट कम्युनिटी में रहने वाली 81 वर्षीया रोज़ालिन गुटमैन की दोस्ती का किस्सा सामने आया तो इस नकार पर पुनर्विचार की ज़रूरत महसूस होने लगी. हुआ यह कि स्पेंसर को अपने मोबाइल पर वर्ड्स विथ फ्रैण्ड्स नामक एक खेल खेलने का चस्का लगा. स्क्रैबल से मिलते-जुलते इस खेल को किसी अजनबी लेकिन वास्तविक साथी के साथ खेलना होता है. अजनबी साथी का चयन खेल स्वत: कर देता है. खेल  के आनंद और रोमांच को और बढ़ाने के लिए दोनों खिलाड़ी परस्पर चैट भी कर सकते हैं. तो स्पेंसर को इस खेल के लिए साथी मिलीं रोज़ालिन और उन दोनों ने  सैंकड़ों गेम खेल डाले. लेकिन रहे वे खेल तक ही सीमित. कभी उन्होंने चैट नहीं की. खेल का चस्का दोनों को ऐसा लगा कि वे हर रोज़ खेलने लगे, और इसी क्रम में आहिस्ता-आहिस्ता चैट भी करने लगे. चैट की शुरुआत तो खेल विषयक मुद्दों से ही हुई लेकिन फिर वे अपने निजी जीवन को लेकर भी गपशप करने लगे, और इसी इलसिले में एक दिन स्पेंसर ने रोज़ालिन को यह भी बता दिया कि वो संगीत की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए न्यूयॉर्क चला जाना चाहता है. बात आगे बढ़ती इससे पहले कुछ ऐसी व्यस्तताएं आड़े आईं कि स्पेंसर ने खेल खेलना बंद कर दिया और अपने मोबाइल से इस खेल के एप को भी डिलीट करने का इरादा कर लिया. लेकिन तब तक उसकी दोस्ती रोज़ालिन से इतनी गहरी हो चुकी थी कि उसे यह ज़रूरी लगा कि यह करने से पहले वो उन्हें अलविदा कह दे.  चैट करते हुए उसने उनसे पूछा कि वे उसे क्या सलाह देना चाहेंगी? और रोज़ालिन का जवाब था, ‘तुम अपनी ज़िंदगी से जो भी चाहते हो, हाथ बढ़ाओ और उसे अपनी मुट्ठी में कर  लो!और वो न्यूयॉर्क चला गया.

वहां जाकर और अपने सपने को पूरा करने के लिए जद्दोज़हद करते हुए यकायक एक दिन उसे फिर इस खेल की याद आई और उसने इसे अपने मोबाइल में फिर से इंस्टॉल कर डाला. रोज़ालिन से भी उसका फिर सम्पर्क कायम हो गया. इसी बीच एक दिन जब वह किसी से गपशप कर रहा था तो उसने अपनी इस ऑनलाइन मित्र की सराहना भरी चर्चा की. संयोग से इस चर्चा को उसके एक स्थानीय मित्र की मां एमी बटलर ने सुन लिया. एमी वहां के एक चर्च में धर्मोपदेशक थीं और उन्हें लगा कि दो दोस्तों की यह कथा तो उन्हें अपने किसी प्रवचन में भी सुनानी चाहिए. लेकिन  कहानी में हक़ीक़त के और रंग भरने के लिए उन्हें रोज़ालिन से मिलना ज़रूरी लगा. उन्होंने फोन पर बात की तो यह महसूस किया कि अगर वे रोज़ालिन से प्रत्यक्ष मुलाकात करें तो और भी अच्छा रहेगा. और एमी बटलर स्पेंसर स्लेयॉन को साथ लेकर पहुंच गईं रोज़ालिन के पास उनके शहर फ्लोरिडा में. स्पेंसर और रोज़ालिन की पहली प्रत्यक्ष मुलाक़ात का अपना अनुभव साझा करते हुए एमी ने बाद में बताया कि उनका यह मिलन मेरी कल्पना से कहीं ज़्यादा खूबसूरत था. उनके हाव-भाव में तनिक भी असहजता नहीं थी और दोनों में एक दूसरे के प्रति चुम्बकीय आकर्षण था.

ज़्यादा वक़्त तीनों में से किसी के भी पास नहीं था. लेकिन एमी ने इस मुलाक़ात की जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा कीं उनमें कुछ ऐसा जादू था कि उन्होंने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा. बाद में स्पेंसर ने कहा कि उनके देश में जिस तरह का नस्लीय माहौल है उसके संदर्भ में एक अश्वेत पुरुष और श्वेत स्त्री की इस मैत्री का ऐसा स्वागत समय की एक बड़ी ज़रूरत को पूरा करने  वाली बात है. रोज़ालिन ने हालांकि पत्रकारों से कोई बात नहीं की, एमी से अपनी बातचीत में ज़रूर उन्होंने ताज़्ज़ुब किया कि इस मुलाकात में ऐसा विलक्षण क्या है? क्या तमाम लोगों को आपस में ऐसा ही व्यवहार नहीं करना चाहिए! रोज़ालिन का यह कथन अनायास ही हमें अपने समय के बड़े कथाकार स्वयंप्रकाश की कहानी  उस तरफ की याद दिला देता है जिसमें एक पत्रकार जैसलमेर के एक गांव में लगी भीषण आग में से बारह बच्चों को जीवित बचा ले आने वाले एक बेहद मामूली  आदमी नखतसिंह से इण्टरव्यू  करने जाता है और नखतसिंह उसी से सवाल करने लगता है कि जो कुछ उसने किया उसमें असाधारण क्या थ! स्पेंसर और रोज़ालिन की मैत्री कथा ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि मनुष्य तो मनुष्य ही होता है, चाहे वह यथार्थ दुनिया में हो या आभासी दुनिया में!


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 19 दिसम्बर, 2017 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Wednesday, December 13, 2017

चुप्पी तोड़ने वाले बने टाइम के पर्सन ऑफ द ईयर

साल के आखिरी माह  में सारी दुनिया बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करती है कि लोकप्रिय पत्रिका टाइम किसे अपना पर्सन ऑफ द ईयर घोषित करती है. इस पत्रिका ने 1927 से इस सिलसिले को शुरु किया था. विचार यह था कि हर बरस किसी ऐसे व्यक्ति नामांकित किया जाए जिसने बीते बरस में सकारात्मक या नकारात्मक किसी भी तरह से ख़बरों को प्रभावित किया हो. शुरुआती बरसों में ये लोग मैन ऑफ द ईयर घोषित करते थे लेकिन 1999 से इस सम्मान का नाम बदल कर पर्सन ऑफ द ईयर कर दिया गया. ज़ाहिर है कि यह बदलाव सारी दुनिया में लैंगिक समानता की बढ़ती जा रही स्वीकृति की परिणति था. इस बरस एक लम्बी प्रक्रिया के बाद किसी व्यक्ति को नहीं अपितु एक समूह को यह सम्मान प्रदान किया गया है. यहीं यह भी स्मरण कर लेना उपयुक्त होगा  कि इस  पत्रिका ने अतीत में भी व्यक्ति की बजाय समूह का चयन किया है. लेकिन इसकी विस्तृत चर्चा थोड़ी देर बाद. अभी तो यह कि टाइम पत्रिका ने यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली महिलाओं और पुरुषों को साल 2017 के लिए पर्सन ऑफ द ईयर चुना है. टाइम पत्रिका ने इन्हें एक नया नाम दिया है: द साइलेंस ब्रेकर्स यानि चुप्पी तोड़ने वाले. पर्सन ऑफ द ईयर की इस दौड़ में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प दूसरे नम्बर पर रहे हैं.

अक्टोबर माह में न्यूयॉर्क टाइम्स और द न्यूयॉर्कर में एक खोजपरक  रिपोर्ट छपी थी जिसमें कई मशहूर अभिनेत्रियों  ने हॉलीवुड के प्रख्यात निर्माता निर्देशक हार्वी वाइन्सटाइन पर यौन उत्पीड़न के गम्भीर आरोप लगाए थे. इस रिपोर्ट  के बाद तो जैसे अपनी व्यथा-कथा सुनाने वालों की बाढ़ ही आ गई. सारी दुनिया से स्त्रियों ने (और कुछ पुरुषों ने भी) अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न  की घटनाएं उजागर  कीं. टाइम पत्रिका के प्रधान सम्पादक एडवर्ड फेलसेनथाल ने ठीक कहा है कि “यह बहुत तेज़ी से होता हुआ सामाजिक बदलाव है जिसे हमने दशकों में देखा है. इसकी शुरुआत सैंकड़ों महिलाओं और कुछ पुरुषों के व्यक्तिगत साहस से हुई जिन्होंने आगे बढ़कर अपनी कहानियां बयां कीं.”  इस सामाजिक बदलाव को लाने में सोशल मीडिया ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की. वहां प्रयुक्त हैशटैग #मी टू दुनिया के 85 देशों में अनगिनत बार इस्तेमाल किया जा चुका है. कुछ लोगों के वैयक्तिक साहस से शुरु हुआ यह अभियान अब जागरण का एक बहुत बड़ा आंदोलन बन चुका है और यह खिताब इस आदोलन की बड़ी स्वीकृति का परिचायक है. लेकिन टाइम की तरफ से यह  भी सही कहा गया है कि अभी यह कहना बहुत कठिन है कि इस आंदोलन का कुल जमा हासिल क्या है. इसका कितना असर  हुआ है और कितना और होगा? यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि कुछ लोगों के अपना सच अनावृत करने से शुरु हुए इस आंदोलन ने लोगों के जीवन यथार्थ को बदलने में कितनी सफलता पाई है. लेकिन आम तौर पर इस चयन का बहुत गर्मजोशी से स्वागत हुआ है. एक सामान कामकाजी अमरीकी महिला डाना लुइस ने कहा कि “मैं अपनी ग्यारह वर्षीया बेटी को दिखाना चाहती हूं कि खुद के लिए भी खड़ा होना चाहिए, भले ही तुम्हें लगे कि पूरी दुनिया तुम्हारे खिलाफ़ है. अगर तुम लड़ती  रहोगी तो एक दिन तुम्हें कामयाबी भी ज़रूर हासिल होगी.”  

इस चयन की घोषणा के बाद यही बात बरसों पहले मी टू अभिव्यक्ति  का सृजन करने वाली तराना बर्क और हाल में इसे प्रोत्साहित करने वाली अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने भी अपने अपने साक्षात्कारों में कही है.  तराना बर्क ने कहा कि “मैं तो शुरु से ही यह कह रही हूं कि यह महज़ एक क्षण नहीं, एक आंदोलन है. मेरा खयाल है कि हमारा काम तो अब शुरु हो रहा है. यह हैशटैग एक घोषणा है. लेकिन अब हमें वाकई  उठ खड़ा होना और काम करने लगना है.”  मिलानो ने उनकी हे एबात को जैसे आगे बढ़ाते हुए अपनी रूप्रेखा सामने रखी और कहा, “मैं चाहती हूं कि कम्पनियां अब एक आचार संहिता अपनाएं, कम्पनियां और ज़्यादा औरतों को नौकरियां दें. मैं चाहती हूं कि हम अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दें. हमें इन सब कामों को गति देना है और बतौर स्त्री हम हम सबको एक दूसरी का समर्थन करना है और कहना है कि बहुत हुआ यह सब, अब और नहीं सहेंगी हम.”

अब यह भी जान लें कि टाइम पत्रिका ने सन 1950 में  पहली दफा किसी व्यक्ति की बजाय समूह को यह सम्मान प्रदान किया था. तब यह सम्मान द अमरीकन फाइटिंग मैन  को दिया गया था. इसके बाद 1966 में अमरीकन्स अण्डर 25को, 1975 में अमरीकन वुमननाम से चुनिंदा बारह अमरीकी महिलाओं को,  2002 में द व्हिसलब्लोअर्सको और  2006 में यूयानि हम सबको सामूहिक रूप से यह सम्मान दिया जा चुका है. 

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 12 दिसम्बर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 5, 2017

क्या तकनीक दुनिया की ग़ैर बराबरी को और बढ़ा रही है?

इस बात से शायद ही किसी को असहमति  हो कि आज का समय तकनीक का समय है. जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक का न सिर्फ दख़ल है, वो निरंतर बढ़ता भी जा रहा है. इस बात को भी आम तौर पर स्वीकार किया जाता है कि तकनीक ने हमारे जीवन को बेहतर बनाया है. हमारे शारीरिक श्रम में बहुत कमी आई है, हमारी सेहत बेहतर और उम्र लम्बी हुई है और जीवन के लिए सुख सुविधाओं में कल्पनातीत वृद्धि हुई है. हमारे मनोरंजन के साधन बढ़े हैं और ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हुई और बढ़ी हैं कि हम इन साधनों का अधिक लाभ उठा पा रहे हैं. लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि सभी लोग ऐसा ही मानते हों. जहां आम लोग तकनीक के फायदों को स्वीकार करते हैं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भविष्य में ज़रा ज़्यादा दूर तक देख पा रहे हैं और हमें आगाह कर रहे हैं कि तकनीक पर हमारी बढ़ती जा रही निर्भरता मानवता के लिए घातक भी साबित हो सकती है.

जो लोग इस तरह की चेतावनियां दे रहे हैं उनके संदेश भी निराधार नहीं हैं. ऐसे ही लोगों में से एक हैं येरूशलम की हीब्रू यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के प्रोफेसर युवल हरारी. युवल हरारी की दो किताबें, ‘सैपियंस: अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमनकाइण्ड और होमो डिअस: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टुमारो इधर  बेहद चर्चित हैं. युवल हरारी इतिहास के माध्यम से भविष्य को समझने आंकने का प्रयास करते हैं. अपने ऐतिहासिक अध्ययन का सहारा लेकर वे इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि तकनीकी विकास न सिर्फ दुनिया को, पूरी मानव जाति को बदल देगा, लेकिन इसी के साथ वे यह चेतावनी देना भी नहीं भूलते हैं कि इसी तकनीकी विकास की वजह से  मनुष्य मनुष्य के बीच असमानता  की खाई भी चौड़ी होगी. कुछ लोग तकनीक की मदद से बहुत आगे निकल जाएंगे तो कुछ बहुत पीछे  छूट जाएंगे. और यहीं अपनी चेतावनी को वे ऐतिहासिक आधार देते हैं. वे कहते हैं कि मानवता का इतिहास ही असमानता का इतिहास है. हज़ारों बरस पहले भी असमानता थी, आज भी है और आगे भी रहेगी. इतिहास की बात करते हुए वे एक दौर यानि औद्योगिक क्रांति को ज़रूर अपेक्षाकृत समानता के दौर के रूप में याद करते हैं लेकिन भविष्य को लेकर वे बहुत आशंकित हैं.

युवल हरारी जब उदाहरण देकर यह बात बताते हैं कि आज मशीनों पर हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है और हमारे बहुत सारे काम मशीनों ने हथिया लिये हैं तो उसी स्वर में वे हमारा ध्यान इस बात की तरफ भी खींचते हैं कि जब बहुत सारे कामों के लिए मनुष्यों की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी तो सरकारों की निगाह में भी तो वे अनुपयोगी हो जाएंगे. सरकारें  भला उनकी परवाह क्यों करेंगी? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि इंसानों की एक ऐसी जमात खड़ी हो जाए जिसकी ज़रूरत न समाज को हो और न देश को हो. अगर ऐसा हुआ तो इस जमात की आवाज़ भी कोई क्यों सुनेगा? इसकी पढ़ाई-लिखाई की, इसकी सेहत की, इसके लिए जीवनोपयोगी सुविधाएं जुटाने की फिक्र भला कोई भी सरकार क्यों करेगी? और यह बात तो हम आज भी देखते हैं कि बहुत सारी जगहों पर सरकार उन पॉकेट्स में ज़्यादा सक्रिय रहती है जहां उसके वोटर्स होते हैं. वे बहुत सारे पॉकेट्स जहां मतदान  के प्रति उदासीन लोग रहते हैं, सरकार की अनदेखी झेलते हैं.

इतिहास का सहारा लेकर हरारी एक और बात कहते हैं जो बहुत भयावह है. वो कहते हैं कि पहले बीमारी और मौत की निगाह में सब लोग बराबर होते थे. लेकिन अब जिसकी जेब में पैसा  है वो तो बीमारी से लड़ कर उसे हरा भी देता है, जिसके पास पैसा नहीं है वो बीमारी के आगे हथियार डालने को मज़बूर है. हरारी एक सर्वे का ज़िक्र करते हैं जिसके मुताबिक अमरीका की बहुत रईस एक फीसदी आबादी की औसत उम्र बाकी अमरीकियों की तुलना में पंद्रह  बरस अधिक है. इसी बात का विस्तार करते हुए वे कहते हैं कि भविष्य में यह भी तो सम्भव है कि पैसों के दम पर कुछ लोग अपनी उम्र और बहुत लम्बी कर लें. सेहमतमंद बने रहना आपकी जेब पर ही निर्भर होता जाएगा. और बात यहीं खत्म नहीं होती है. हरारी चेताते हैं कि यह भी तो सम्भव है कि जिनके पास पैसे हों वे सुपरमैन, सुपरह्यूमन या परामानव बन जाएं. पैसों ने आज शरीर को ताकतवर बनाया है, कल वो मन को भी ताकतवर बना सकता है. सवाल यह है कि अगर यही सिलसिला चला तो क्या सारी  दुनिया दो गैर बराबर  हिस्सों में नहीं बंट जाएगी? ऐसा होना मानवता के लिए ख़तरनाक नहीं होगा? हरारी की बातें चौंकाने वाली लग सकती हैं लेकिन उन पर ग़ौर किया जाना हमारे ही हित में होगा.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न  दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 05 दिसम्बर, 2017 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.