साल के आखिरी माह में सारी दुनिया बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करती है
कि लोकप्रिय पत्रिका टाइम किसे अपना पर्सन ऑफ द ईयर घोषित करती है. इस
पत्रिका ने 1927
से इस सिलसिले को शुरु किया था. विचार यह था कि हर बरस किसी ऐसे
व्यक्ति नामांकित किया जाए जिसने बीते बरस में सकारात्मक या नकारात्मक किसी भी तरह
से ख़बरों को प्रभावित किया हो. शुरुआती बरसों में ये लोग मैन ऑफ द ईयर घोषित करते
थे लेकिन 1999 से इस सम्मान का नाम बदल कर पर्सन ऑफ द ईयर कर दिया गया. ज़ाहिर है
कि यह बदलाव सारी दुनिया में लैंगिक समानता की बढ़ती जा रही स्वीकृति की परिणति था.
इस बरस एक लम्बी प्रक्रिया के बाद किसी व्यक्ति को नहीं अपितु एक समूह को यह
सम्मान प्रदान किया गया है. यहीं यह भी स्मरण कर लेना उपयुक्त होगा कि इस
पत्रिका ने अतीत में भी व्यक्ति की बजाय समूह का चयन किया है. लेकिन इसकी
विस्तृत चर्चा थोड़ी देर बाद. अभी तो यह कि टाइम पत्रिका ने यौन उत्पीड़न और
दुर्व्यवहार के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली महिलाओं और पुरुषों को साल 2017 के लिए
पर्सन ऑफ द ईयर चुना है. टाइम पत्रिका ने इन्हें एक नया नाम दिया है: ‘द साइलेंस ब्रेकर्स’ यानि चुप्पी तोड़ने वाले. पर्सन ऑफ द ईयर की इस
दौड़ में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प दूसरे नम्बर पर रहे हैं.
अक्टोबर माह में न्यूयॉर्क
टाइम्स और द न्यूयॉर्कर में एक खोजपरक
रिपोर्ट छपी थी जिसमें कई मशहूर अभिनेत्रियों ने हॉलीवुड के प्रख्यात निर्माता निर्देशक
हार्वी वाइन्सटाइन पर यौन उत्पीड़न के गम्भीर आरोप लगाए थे. इस रिपोर्ट के बाद तो जैसे अपनी व्यथा-कथा सुनाने वालों की
बाढ़ ही आ गई. सारी दुनिया से स्त्रियों ने (और कुछ पुरुषों ने भी) अपने साथ हुए
यौन उत्पीड़न की घटनाएं उजागर कीं. टाइम पत्रिका के प्रधान सम्पादक
एडवर्ड फेलसेनथाल ने ठीक कहा है कि “यह बहुत तेज़ी से होता हुआ सामाजिक बदलाव है
जिसे हमने दशकों में देखा है. इसकी शुरुआत सैंकड़ों महिलाओं और कुछ पुरुषों के
व्यक्तिगत साहस से हुई जिन्होंने आगे बढ़कर अपनी कहानियां बयां कीं.” इस सामाजिक बदलाव को लाने में सोशल मीडिया ने
बहुत बड़ी भूमिका अदा की. वहां प्रयुक्त हैशटैग #मी टू दुनिया के 85 देशों
में अनगिनत बार इस्तेमाल किया जा चुका है. कुछ लोगों के वैयक्तिक साहस से शुरु हुआ
यह अभियान अब जागरण का एक बहुत बड़ा आंदोलन बन चुका है और यह खिताब इस आदोलन की बड़ी
स्वीकृति का परिचायक है. लेकिन टाइम की तरफ से यह भी सही कहा गया है कि अभी यह कहना बहुत कठिन है
कि इस आंदोलन का कुल जमा हासिल क्या है. इसका कितना असर हुआ है और कितना और होगा? यह
तो आने वाला समय ही बताएगा कि कुछ लोगों के अपना सच अनावृत करने से शुरु हुए इस
आंदोलन ने लोगों के जीवन यथार्थ को बदलने में कितनी सफलता पाई है. लेकिन आम तौर पर
इस चयन का बहुत गर्मजोशी से स्वागत हुआ है. एक सामान कामकाजी अमरीकी महिला डाना
लुइस ने कहा कि “मैं अपनी ग्यारह वर्षीया बेटी को दिखाना चाहती हूं कि खुद के लिए
भी खड़ा होना चाहिए, भले ही तुम्हें लगे कि पूरी दुनिया
तुम्हारे खिलाफ़ है. अगर तुम लड़ती रहोगी तो
एक दिन तुम्हें कामयाबी भी ज़रूर हासिल होगी.”
इस चयन की घोषणा के बाद
यही बात बरसों पहले मी टू अभिव्यक्ति का
सृजन करने वाली तराना बर्क और हाल में इसे प्रोत्साहित करने वाली अभिनेत्री एलिसा
मिलानो ने भी अपने अपने साक्षात्कारों में कही है. तराना बर्क ने कहा कि “मैं तो शुरु से ही यह कह
रही हूं कि यह महज़ एक क्षण नहीं, एक आंदोलन है. मेरा खयाल है कि हमारा काम तो अब
शुरु हो रहा है. यह हैशटैग एक घोषणा है. लेकिन अब हमें वाकई उठ खड़ा होना और काम करने लगना है.” मिलानो ने उनकी हे एबात को जैसे आगे बढ़ाते हुए
अपनी रूप्रेखा सामने रखी और कहा, “मैं चाहती हूं कि
कम्पनियां अब एक आचार संहिता अपनाएं, कम्पनियां और ज़्यादा
औरतों को नौकरियां दें. मैं चाहती हूं कि हम अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दें.
हमें इन सब कामों को गति देना है और बतौर स्त्री हम हम सबको एक दूसरी का समर्थन
करना है और कहना है कि बहुत हुआ यह सब, अब और नहीं सहेंगी
हम.”
अब यह भी जान लें कि टाइम
पत्रिका ने सन 1950 में पहली दफा किसी
व्यक्ति की बजाय समूह को यह सम्मान प्रदान किया था. तब यह सम्मान ‘द अमरीकन
फाइटिंग मैन’ को
दिया गया था. इसके बाद 1966 में ‘अमरीकन्स अण्डर 25’ को, 1975 में ‘अमरीकन वुमन’
नाम से चुनिंदा बारह अमरीकी महिलाओं को, 2002 में ‘द व्हिसलब्लोअर्स’ को और 2006 में ‘यू’ यानि हम सबको सामूहिक रूप से यह सम्मान दिया जा चुका है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 12 दिसम्बर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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