Tuesday, April 24, 2018

सेहत के साथ-साथ पर्यावरण भी सुधारता है प्लॉगिंग!


हाल में दिल्ली के विख्यात लोधी गार्डन में सुबह की सैर कर रहे लोगों का ध्यान कुछ अन्य सैर करने वालों की एक अजीबो-गरीब हरक़त की तरफ आकृष्ट हुआ. रविवार का दिन था और अपनी सेहत के प्रति जागरूक नज़र आ रहे बीस-पच्चीस लोगों  का एक समूह जॉगिंग तो कर ही रहा था लेकिन उन्होंने अपने हाथों में दस्ताने भी पहन रखे थे और वे लोग जॉगिंग करते हुए वहां बिखरा  हुआ कचरा भी अपने हाथों में लिये हुए प्लास्टिक बैग्ज़ में इकट्ठा  जा रहे थे. वहां घूमने वाले अगर दुनिया के अन्य देशों में इन दिनों चल रहे एक आंदोलन से थोड़ा भी परिचित होते तो उन्हें इन लोगों की यह हरक़त अजीब नहीं लगती.

असल में स्वीडन में सन 2016 से एक नई गतिविधि शुरु हुई है जिसका नाम है प्लॉगिंग. यह प्लॉगिंग शब्द स्वीडिश भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है जिनका काम चलाऊ अंग्रेज़ी अनुवाद होगा पिकिंग और जॉगिंग, यानि (कचरा) बीनना और जॉगिंग करना. ऐसा माना जाता है कि सत्तावन वर्षीय स्वीडिश नागरिक एरिक एहल्स्ट्रोम इस गतिविधि के जनक हैं. वे उत्तरी स्वीडन  में रहते थे लेकिन जब वहां से स्टॉकहोम आए तो उन्हें यह देखकर बड़ा कष्ट हुआ कि स्टॉकहोम  की सड़कों पर पहले से ज़्यादा कचरा फैला हुआ है. और उन्होंने सोचा कि क्यों न जॉगिंग करते हुए कचरा भी बीन लिया जाए! बस, फिर क्या था! लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया. बहुत जल्दी इस गतिविधि के लिए लाइफसम नामक एक एप भी बन गया और इस एप ने लोगों को प्लॉगिंग के फायदों से भी परिचित करा दिया. अगर इस एप के आंकड़ों को सही मानें तो जहां सामान्य जॉगिंग करने से हम एक घण्टे में मात्र 235 कैलोरी खर्च कर पाते हैं, प्लॉगिंग करने से 288 कैलोरी खर्च कर देते हैं. और हां, अगर आप सिर्फ तेज़ तेज़ चलते हैं तो महज़ 120 कैलोरी ही खर्च कर पाते हैं.

अब प्लॉगिंग स्वीडन में तो बाकायदा एक आंदोलन का रूप ले चुका है. लोग महसूस करने लगे हैं कि यह कम केवल सेहत के लिए ही लाभप्रद नहीं है, पर्यावरण के भी हित में है. वहां सोशल मीडिया आदि के माध्यम से सूचनाएं प्रसारित कर प्लॉगिंग ईवेण्ट्स आयोजित किये जाते हैं जिनमें लोग एक दो घण्टा प्लॉगिंग करते हैं और फिर गपशप, कैंप फायर वगैरह कर घर लौट  आते हैं. ऐसे ही आयोजन नियमित रूप से करने वाली एक नर्स टेश का कहना है कि जब भी मैं अपने आस-पास कचरा बिखरा हुआ देखती हूं, मुझे एक साथ अफसोस और गुस्से का अनुभव होता है. इनसे निज़ात पाने के लिए प्लॉगिंग से बेहतर और कुछ नहीं हो सकता है. छत्तीस वर्षीय लिण्डबर्ग का कहना है कि उन्हें इस बात का अफसोस है कि वे इतने बरसों सिर्फ दौड़ती ही रही.  काश! यह सब पहले करने लग गई होतीं. अब वे जब भी जॉगिंग के लिए जाती हैं, सबसे पहले घूम-घूमकर यह जायज़ा  लेती हैं कि उन्हें कहां कहां से कचरा उठाना है और फिर जॉगिंग के साथ झुक झुक कर कचरा उठाती और अपने बैग्ज़ में इकट्ठा कर लेती हैं. उनका कहना है कि अपने आस-पास को देखकर दुखी होने से ज़्यादा अच्छा यह है कि हम खुद उसे बेहतर बनाने के लिए कुछ करें. स्वीडन की ही एक संगीतकार लेखिका का कहना है कि यह काम तो वह पहले से कर रही थी लेकिन अब उसके देश ने इसे एक नाम भी दे दिया है. उसे इस बात की खुशी है कि वह जो कर रही है उससे केवल उसकी सेहत को ही नहीं परिवेश को भी लाभ पहुंच रहा है. मज़ाक के लहज़े में वो कहती है कि पहले उसकी कमर में पैण्ट  फंसती थी, लेकिन अब बार-बार झुकने के कारण वही पैण्ट उसे ढीली लगने लगी है.

बहुत आह्लादक बात यह है कि स्वीडन से शुरु हुआ यह अभियान अब आहिस्ता-आहिस्ता पूरी दुनिया में फैलता जा रहा है. पहले यह यूरोप में लोकप्रिय हुआ और अब जर्मनी, फ्रांस, अमरीका, कनाडा, मलेशिया  और थाइलैण्ड में भी लोग जॉगिंग की बजाय प्लॉगिंग को महत्व देने लगे हैं. हाल में द गार्डियन अखबार ने लिखा  कि अब वक़्त आ गया है कि हम सब जॉगिंग करते समय कचरा बीनने के स्कैण्डिनेवियन मॉडल का अनुसरण करें. हर देश में प्लॉगिंग करने वालों के समूह बनने लगे हैं और लोग बढ़ चढ़कर उनमें हिस्सेदारी कर रहे हैं.

हमारे लिए तो यह बात और भी ज़्यादा खुशी की है कि सफाई के जुनून में अपने घर का कचरा पड़ोसी के घर के आगे खिसका देने में माहिर हम भारतीय भी इस प्लॉगिंग को अपनाने में दुनिया के और देशों से पीछे नहीं हैं. ज़रूरत इस बात की है कि हम सब मिलकर इस अभियान को और अधिक लोकप्रिय बनाएं ताकि हम भी स्वच्छ भारत के निवासी होने का सुख पा सकें!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 24 अप्रैल, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, April 17, 2018

खूब फल फूल रहा है हमारी निजता का कारोबार!


हमारे-आपके जीवन के बारे में न जाने कितनी जानकारियों, जिन्हें आजकल डाटा  कहा जाता है, के दम पर अनगिनत लोगों और कम्पनियों का धंधा फल फूल रहा है. इस तरह का अध्ययन कर रही एक कम्पनी प्राइवेसी इण्टरनेशनल के एक उच्च अधिकारी का कहना है कि आज हज़ारों कम्पनियां आपका डाटा बटोरने और आपके ऑनलाइन बर्ताव की पड़ताल करने के काम में लगी  हुई हैं. यह धंधा सारी दुनिया में फैला हुआ है.   

हाल में एक टैक्नोलॉजी  पत्रकार कश्मीर हिल ने एक अभिनव लेकिन दिलचस्प प्रयोग किया. उन्होंने अपने एक बेडरूम वाले अपार्टमेण्ट को स्मार्ट होम में तब्दील किया और उसके बाद विभिन्न साधनों  की मदद से यह पड़ताल की कि उनके घर में लगे विभिन्न उपकरणों के माध्यम से उनकी निर्माता कम्पनियों ने उनके बारे में कितना डाटा संग्रहित किया है. वे यह जानकर आशचर्यचकित रह गईं कि उनका स्मार्ट टूथ ब्रश अपनी निर्माता  कम्पनी को यह खबर दे रहा था कि उन्होंने कब ब्रश किया और कब नहीं किया, उनका स्मार्ट टीवी अपने निर्माता को हर पल यह बता रहा था कि वे कौन-सा प्रोग्राम देख रही हैं, और उनका स्मार्ट स्पीकर दुनिया के सबसे बड़े ऑनलाइन खुदरा व्यापारी को (जो कि उस स्पीकर का निर्माता भी है) हर तीसरे मिनिट उनके बारे में जानकारियां मुहैया करवा रहा था. पत्रकार कश्मीर हिल ने यह पड़ताल करने के लिए अपनी एक दोस्त सूर्या मट्टू की मदद ली जिन्होंने एक विशेष रूप से बनाए गए वाई फाई राउटर की मदद से इन जासूसों की जासूसी की. इन जानकारियों के बाद कश्मीर हिल यह सोचकर और ज़्यादा चिंतित हुईं कि अगर उनके यहां से भेजी जा रही ज्ञात जानकारियां इतनी ज़्यादा हैं तो वे जानकारियां कितनी अधिक होंगी जिनके बारे में उन्हें भी अभी पता नहीं चल सका है. उन्होंने बहुत व्यथित होकर कहा कि मुझे लगता है कि हम एक निहायत ही व्यावसायिक निज़ाम में रह रहे हैं जिसकी नज़र हमारे हर क्रियाकलाप पर है.

इसी संदर्भ में यह भी याद कर लिया जाना उपयुक्त होगा कि हाल में इस आशय की ख़बरों ने बड़ा हंगामा बरपा किया था कि फ़ेसबुक के लगभग पौने नौ करोड़ उपयोगकर्ताओं की प्रोफ़ाइल सूचनाएं बग़ैर उनकी जानकारी के एक मार्केटिंग कम्पनी कैम्ब्रिज एनेलिटिका तक पहुंचा दी गई हैं. हाल में फ़ेसबुक के सीईओ मार्क ज़ुकरबर्ग ने इस बात पर सार्वाजनिक क्षमा याचना भी की है. लेकिन यह कोई अपनी तरह का इकलौता मामला नहीं है. एक बरस पहले एक स्मार्ट टीवी निर्माता पर भी इस  आशय के आरोप लगे थे  कि उसने बग़ैर अपने ग्राहकों को सूचित किए या उनसे अनुमति लिए उनके टीवी सेट्स में ऐसा सॉफ्टवेयर लगा दिया था जो उनके टीवी देखने की आदतों के  बारे में जानकारियां एकत्रित कर रहा  था. ये जानकारियां विभिन्न कम्पनियों को उपलब्ध कराई जा रही थीं ताकि इनके आधार पर वे अपने विज्ञापन प्रसारित कर सकें. तब इस टीवी निर्माता कम्पनी ने  इस बारे में अमरीकी फेडरल ट्रेड कमीशन में चल रहे एक मुकदमे में भारी धनराशि चुका कर अदालत के बाहर समझौता किया था.

असल में होता यह है कि हममें से बहुत सारे लोग बिना पैसे खर्च किये बहुत सारी सुविधाओं का इस्तेमाल करने के लालच में न केवल अपने बारे में बहुत सारी जानकारियां खुद परोस देते हैं, उनके निर्बाध इस्तेमाल की अनुमति भी प्रदान कर देते हैं. जब भी हम कोई मुफ्त वाला सॉफ्टवेयर या एप डाउनलोड करते हैं, एक सहमति सूचक बटन –एग्री-  पर भी हमें क्लिक करना होता है और हममें से शायद ही किसी के पास इतना धैर्य  हो कि यह जानने की कोशिश करें कि हम किस बात के लिए अपनी सहमति दे रहे हैं. अमरीका की कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी के दो शोधकर्ताओं ने बताया है कि अगर आप हर एप की प्राइवेसी पॉलिसी को स्वीकार करने से पहले ठीक से पढ़ना चाहें तो आपको हर रोज़ आठ घण्टे लगाकर पूरे 76 दिन तक पढ़ते रहना होगा.  लेकिन मामला विस्तार का ही नहीं है. इस सहमति की आड़ में हमारी जानकारियों का जो सौदा होता है वह प्राय: विधि सम्मत नहीं होता है.

शायद यही वजह है कि अब दुनिया के कई देश इस बे‌ईमानी के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं. हाल में यूरोप में जो जनरल डाटा प्रोटेक्शन रेग्युलेशन (जीडीपीआर) लागू हुआ है वह वहां के उपभोक्ताओं को उनके डाटा पर अधिक नियंत्रण के लिए सक्षमता प्रदान  कर रहा है. लेकिन अमरीका इस मामले में अभी भी पीछे है. वहां के नागरिकों को यह जानने का भी हक़ नहीं है कि किस कम्पनी ने उनके बारे में कौन-सा डाटा संग्रहित किया है. इस बारे में अपने देश की तो बात ही क्या की जाए! आधार को लेकर जो आशंकाएं व्यक्त की गई हैं और जो छिट पुट चिंताजनक ख़बरें आई हैं उन्होंने भी कोई गम्भीर हलचल अपने यहां पैदा नहीं की है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै  में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 17 अप्रैल, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, April 10, 2018

एक चौंकाने वाला प्रयोग और उसमें से निकली नई सोच!


लीजिए, अब एक नई शोध ने जो बताया है उससे आप भी  यह सोचने लगेंगे कि बच्चों को स्कूल भेजा जाए या नहीं! हम सभी अपने बच्चों को उनके बहुमुखी विकास के लिए स्कूल भेजते हैं. लेकिन हाल में हुई एक शोध ने जो बताया है वह तो इसका उलट है. मैं आपके धैर्य की अधिक परीक्षा नहीं लेना चाहता इसलिए सारी बात सिलसिलेवार बता देता हूं.

हुआ यह कि नासा ने दो बहुत विख्यात विशेषज्ञों डॉ जॉर्ज लैण्ड और बेथ जार्मान को एक ऐसा  अत्यधिक विशेषीकृत टेस्ट विकसित करने का दायित्व सौंपा  जो नासा के रॉकेट वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की सर्जनात्मक संभावनाओं का समुचित आकलन कर सके. इन विशेषज्ञों ने एक  टेस्ट का निर्माण किया और नासा ने भी उसे अपने लिए बहुत उपयोगी पाया. बात यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए थी, लेकिन हुई नहीं. टेस्ट पूरा हो जाने के बाद ये दोनों विशेषज्ञ और इनके साथी एक और सवाल से जूझने  लगे. सवाल यह था कि आखिर सर्जनात्मकता का उद्गम क्या है? वो कहां से आती है?  क्या यह कुछ लोगों में जन्म  से ही होती है, या इसे शिक्षा से अर्जित किया जाता है? और या फिर इसे अनुभवों से हासिल  किया  जाता है!

और इस सवाल से जूझते हुए इन वैज्ञानिकों ने चार और पांच बरस की उम्र वाले सोलह सौ बच्चों को एक टेस्ट दिया. असल में इस टेस्ट में कुछ समस्याएं दी गई थीं और उनको हल करने के लिए बच्चों ने जो जवाब दिये थे उन्हें इस कसौटी पर गया कि समस्याओं को सुलझाने के बच्चों के तरीके  कितने अलहदा,  कितने नए और कितने मौलिक हैं. इस टेस्ट के परिणाम बेहद चौंकाने वाले थे. आप भी यह जानकर आश्चर्य से उछल पड़ेंगे कि चार से पांच बरस की उम्र वाले अट्ठानवे  प्रतिशत बच्चे उन वैज्ञानिकों की कसौटी पर जीनियस साबित हुए. अब शायद इन वैज्ञानिकों को भी अपनी शोध में मज़ा आने लगा था, सो इन्होंने  पांच बरस  बाद फिर से इन बच्चों को परखा. तब ये बच्चे दस बरस की उम्र के आसपास पहुंच गए थे. अब जो परिणाम आए वो और भी ज़्यादा चौंकाने वाले थे. अब इन्होंने पाया कि उन अट्ठानवे  प्रतिशत जीनियस बच्चों में से मात्र तीस  प्रतिशत बच्चे ही कल्पनाशीलता के स्तर पर जीनियस कहलाने के काबिल रह गए हैं. पांच बरस बाद फिर से इस प्रयोग को दुहराया गया और तब पाया गया कि पंद्रह बरस के हो चुके  इन बच्चों में मात्र बारह प्रतिशत बच्चे ही जीनियस कहलाने काबिल रहे हैं. और इसके बाद इन वैज्ञानिकों ने जो निष्कर्ष  दिया है वह तो हम सब को अपने मुंह छिपाने के लिए विवश कर देगा. उनका कहना है हम वयस्कों में तो मात्र दो प्रतिशत ही जीनियस कहलाने के हक़दार होते हैं!

यह कहना अनावश्यक है कि पांच, दस और पंद्रह बरस के जिन बच्चों पर यह टेस्ट किया गया वे सभी स्कूल जाने वाले बच्चे थे.  तो क्या यह समझा जा सकता है कि स्कूल, या कि हमारी शिक्षा व्यवस्था बच्चों की सर्जनात्मकता को प्रोत्साहित करने की बजाय उसे कुचलती है? इसका जवाब मिलता है जोहानिसबर्ग में पले बढ़े और अब अमरीका वासी एक चर्चित लेखक गाविन नासिमेण्टो  के इस कथन में: “जिस संस्था को हम ऐतिहासिक रूप से स्कूल के नाम  से जानते हैं, उसका तो निर्माण ही शासक वर्ग की -न कि आम लोगों  की-  सेवा के लिए हुआ है.” अपनी बात को और साफ़ करते हुए गाविन कहते हैं, “उन्होंने यह भली भांति समझ लिया है कि तथाकथित अभिजन की ठाठदार विलासिता वाली उस जीवन शैली के निर्वहन के लिए जिसमें वे बहुत कम देकर बहुत ज़्यादा का उपभोग करते हैं,  बच्चों को बेवक़ूफ बनाया जाना और कृत्रिम अभावों की लालची व्यवस्था, अंतहीन शोषण और अनवरत युद्धों के स्वीकार के लिए ही नहीं बल्कि इनकी सेवा के लिए भी उनके दिमागों का अनुकूलन ज़रूरी है.” मुझे नहीं लगता कि वर्तमान स्कूलों पर इससे कड़ी टिप्पणी कोई और हो सकती है!

चलिये, फिर डॉ लैण्ड की तरफ लौटते हैं. उनका कहना है कि हम सबमें यह क्षमता है कि अगर हम चाहें तो अट्ठानवे  प्रतिशत यानि जीनियसों में शुमार हो सकते हैं. इसके लिए करना बस इतना है कि हम अपने आप को पांच साल के बच्चे में तब्दील कर लें. इस डर से निजात पा लें कि अगर ऐसा करेंगे तो ऐसा हो जाएगा. मुक्त ढंग से सोचना और सपने देखना शुरु करें. वे एक उदाहरण देकर अपनी बात साफ़ करते हैं. अगर किसी छोटे बच्चे के सामने  एक फॉर्क (टेबल पर रखा जाने वाला कांटा) रखें तो वो उसे बेहतर बनाने के लिए फटाफट अनेक सुझाव दे देगा. बस! हम भी उस जैसे बिंदास  बन जाएं! ठीक है ना?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 10 अप्रैल, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, April 3, 2018

एक पत्रकार की हत्या ने छीन ली प्रधानमंत्री की कुर्सी


स्लोवाकिया यूरोप महाद्वीप का मात्र 55 लाख की आबादी वाला एक छोटा-सा देश है. उत्तर में पोलैण्ड, दक्षिण में हंगरी, पूर्व में यूक्रेन और पश्चिम में ऑस्ट्रिया तथा चेक गणराज्य यानि चारों तरफ ज़मीन से  घिरा यह देश पहले चेकोस्लोवाकिया का अंग था. अब स्लोवाकिया एक संसदीय गणतंत्र है और इसकी राष्ट्रीय परिषद में एक सौ पचास सदस्य होते हैं जिनको हर चौथे बरस आम जनता चुनती है. यहां राष्ट्रपति का चुनाव भी आम जनता के मतों से ही होता है लेकिन सरकार का प्रमुख प्रधानमंत्री होता है. सन 2012 से स्लोवाकिया के प्रधानमंत्री डाइरेक्शन-सोशल डेमोक्रेसी पार्टी के नेता 54 वर्षीय रॉबर्ट  फिको थे. लम्बे समय से देश की राजनीति में सक्रिय फिको 2006 से 2010 तक भी देश के प्रधानमंत्री रह चुके थे.

आजकल सारी दुनिया में सर्वशक्तिमान नेताओं का जो दौर चल रहा है फिको भी उसके अपवाद नहीं थे. एक शानदार हिलटॉप  अपार्टमेण्ट  में पूरी शान-ओ-शौकत से रहने वाले फिको पत्रकारों  के असुविधाजनक सवालों पर न केवल गुर्राया करते थे, उन्हें लकड़बग्घा (हायना) और प्रॉस्टीट्यूट तक कह दिया करते थे. अपने देश की तमाम मुसीबतों का ठीकरा वे मुस्लिम शरणार्थियों और एक यहूदी फाइनेंसर के माथे फोड़ देने के आदी थे. उनकी पार्टी स्लोवाक कुलीनों, रूसी ताकतवरों और इतालवी माफियाओं से गलबहियां करने के लिए विख्यात थी.

लेकिन अचानक वो घटित हो गया, जो कल्पनातीत था. 15 मार्च को इस सर्वशक्तिमान प्रधान मंत्री को अपना इस्तीफा देने के लिए मज़बूर होना पड़ा. इस इस्तीफे की वजह बहुत मामूली थी. एक साधारण पत्रकार और उसकी महिला मित्र की रहस्यमयी स्थितियों में मृत्यु. 26 फरवरी 2018 को एक युवा पत्रकार जेन कुसियाक और उनकी मित्र मार्टिना कुसनिरोवा को गोली मार दी गई. अनुमान यह लगाया गया कि इस हत्या के पीछे यह बात थी कि जेन एक अहम स्टोरी पर काम कर रहे थे जिसका ताल्लुक स्लोवाकिया  के बड़े बड़े नेताओं और इटली के माफिया गिरोहों के बीच के संदिग्ध रिश्तों से था. कुसियाक ने बताया था कि किस तरह इटली के अपराधी गिरोह स्थानीय नेताओं, ख़ास तौर पर सत्तारूढ़ दल के नेताओं की मदद से पूर्वी स्लोवाकिया  के निर्धन इलाकों में घुसपैठ करते हैं. कुसियाक ने यह बात भी उजागर की थी कि ये नेता यूरोपियन यूनियन के धन का दुरुपयोग करते हैं. वैसे स्लोवाकिया में भ्रष्टाचार की चर्चाएं इतनी आम हैं कि एक बार तो अमरीका की  सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मैडलिन अलब्राइट ने स्लोवाकिया को यूरोप का ब्लैक होल तक कह दिया था. हत्या के बाद कुसियाक की यह स्टोरी दुनिया भर में प्रकाशित हुई है. इस दोहरे हत्याकाण्ड ने स्लोवाकिया के जन मानस को इतना क्षुब्ध किया कि वहां एक सशक्त जन आंदोलन खड़ा हो गया. लोगों ने जेन और मार्टिना की तस्वीरें लेकर खूब प्रदर्शन किये. करीब दो सप्ताहों के प्रदर्शन और सजीव जन आंदोलन तथा तेज़ी से चले राजनीतिक घटना चक्र  की परिणति रॉबर्ट  फिको जैसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री  के त्यागपत्र में हुई. त्यागपत्र देते हुए भी रॉबर्ट फिको यह कहने से नहीं चूके कि जेन और मार्टिना की हत्या की बात करने वाले अपना निजी एजेंडा पूरा कर रहे हैं.

वैसे रॉबर्ट फिको ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके यह घोषणा की थी कि जेन और मार्टिना के हत्यारों को खोज निकालने वाले को करीब आठ करोड़ रुपयों का पुरस्कार दिया जाएगा, और  जिस समय वे यह घोषणा कर रहे थे तब उनके सामने की टेबल पर यह धनराशि भी प्रदर्शित की गई थी. उनके इस कृत्य पर  स्लोवाकिया वासियों ने यह कहकर खूब नाराज़गी व्यक्त की थी कि आखिर कोई प्रधानमंत्री इस तरह की अशिष्टता कैसे कर सकता है!

इस पूरे प्रकरण में एक और बात ग़ौर तलब है. जब राष्ट्रपति ने फिको का इस्तीफा स्वीकार किया तो उनकी जगह लेने के लिए उनके डेप्युटी पीटर पेलेग्रिनी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया. लेकिन राष्ट्रपति महोदय ने उनके दावे को नामंज़ूर कर दिया. वजह? वे इस बात से आश्वस्त नहीं थे कि पीटर पेलेग्रिनी की नई सरकार जेन और मार्टिना की हत्या की निष्पक्ष जांच करा सकेगी. इसके मूल में यह बात  थी कि जेन की आखिरी रिपोर्ट में सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार पर गम्भीर आरोप लगाए गए थे, और राष्ट्रपति महोदय का खयाल था कि जिस दल पर इस हत्या काण्ड में लिप्त होने का संदेह है भला उसी दल का कोई नेता इस काण्ड की निष्पक्ष जांच  कैसे करा  सकता है! स्लोवाकिया में रॉबर्ट फिको और पीटर पेलेग्रिनी की नज़दीकी सबको मालूम थी. राष्ट्रपति महोदय ने ज़ोर देकर कहा है कि नई सरकार को जनता का भरोसा जीतना होगा. उधर स्लोवाकिया की जनता की सबसे बड़ी मांग फिलहाल यही है कि जेन और उसकी मित्र मार्टिना की हत्या की निष्पक्ष  जांच हो और अपराधियों को सज़ा मिले. जनता फिर से चुनाव करवाने की भी मांग कर रही है. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 03 अप्रेल, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.