Friday, October 19, 2007

जो चाहोगे वही मिलेगा

माइकेल जे. लोज़ियर की ताज़ा किताब लॉ ऑफ अट्रेक्शन: द साइंस ऑफ अट्रेक्टिंग मोर ऑफ व्हाट यू वाण्ट एण्ड लेस ऑफ व्हाट यू डोण्ट जीवन की एक महत्वपूर्ण गुत्थी को सुलझाने और जीवन पथ को सुगम बनने का एक दिलचस्प प्रयास है. जीवन में कई बार ऐसा होता है कि आप किसी चीज़ के बारे में शिद्दत से सोचते हैं और अनायास वह आपको मिल जाती है, आप अपने किसी प्रिय को याद करते हैं और अचानक वह आपके सामने आ जाता है. आप सोचते हैं कि यह या तो संयोग है या भाग्य. लेकिन लोज़ियर कहते हैं कि यह लॉ ऑफ अट्रेक्शन का परिणाम है.
अपनी लॉ ऑफ अट्रेक्शन की अवधारणा को समझाते हुए लोज़ियर बताते हैं कि आप अपने जीवन में उसी को अपनी तरफ खींचते और प्राप्त करते हैं जिस पर आप अपनी ऊर्जा और ध्यान केन्द्रित करते हैं. कभी ऐसा आपके चाहने से, आपके जाने में होता है, कभी अनजाने में. बकौल लोज़ियर, हमारे जीवन में सब कुछ ऐसी ऊर्जा से निर्मित है जो एक खास स्तर पर कम्पायमान होती रहती है. जब किसी के मन में कुविचार आते हैं तो नकारात्मक ऊर्जा का संचार भी होता है. अधिकांश भाषाओं में ऐसे अनेक मुहावरें और कहावतें पाई जाती हैं जिनसे इस लॉ ऑफ़ अट्रेक्शन की पुष्टि होती है, जैसे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे, बर्ड्स ऑफ द सेम फेदर फ्लॉक टुगेदर आदि.

लोज़ियर अपनी बात को और साफ करते हुए कहते हैं कि हम जिस तरह के भाव अपने मन में संचारित करते हैं, लॉ ऑफ अट्रेक्शन की वजह से वैसे ही और भाव उनके पास आते हैं. हमारी देह में भावों का यही कम्पन अनुभूतियों में तब्दील होता चलता है. उदाहरणार्थ, जब हम उत्साह, प्रेम, आत्म विश्वास या संतोष का अनुभव करते हैं तो यह कम्पन सकारात्मक होता है. इसके विपरीत, जब हम उदास, तनावग्रस्त, क्रुद्ध या लज्जित अनुभव करते हैं तब हमारा कम्पन नकारात्मक होता है. यही कारण है कि सुन्दर या प्रीतिकर को देखकर हम अच्छा अनुभव करते हैं और कुरूप या अप्रीतिकर को देखकर बुरा अनुभव करते हैं.
कहा भी जाता है कि हम अपना यथार्थ खुद रचते हैं. चाहे हम जान-बूझ्कर ऐसा करें या अनजाने में, हम सदा ही अपनी अनुभूतियों के अनुरूप ही व्यक्तियों और स्थितियों को आकृष्ट करते हैं. हम लगातार जैसा सोचते हैं, लॉ ऑफ अट्रेक्शन वैसी ही अनुभूतियों को उपजाकर तदनुरूप स्थितियां निर्मित कर देता है. और इसीलिए लॉज़ियर इस लॉ के ज़रिये हमें यह सिखाते हैं कि हम किस तरह उसे अपनी तरफ आकृष्ट कर सकते हैं जो हमें वांछित है और कैसे उसे दूर रख सकते हैं जिसे हम नहीं चाहते.

लॉज़ियर ऐसा करने के लिए एक त्रि-सूत्रीय फॉर्मूला सुझाते हैं. फॉर्मूला बहुत सरल है.
1. अपनी आकांक्षाओं को पहचानें अर्थात अपने जीवन के तमाम क्षेत्रों की विषमताओं को सीमित करें,
2. अपनी अनुभूतियों को उसके अनुरूप ढालें, अर्थात जो आप चाहते हैं उसी पर ध्यान केन्द्रित करें और जो नहीं चाहते हैं, उसकी तरफ से ध्यान हटायें, और
3. इसे विकसित होने दें, यानि ऐसा करने में जो मानसिक रुकावटें हैं , उन पर काबू पाएं.

इन तीन सूत्रों की क्रियान्विति के लिए लॉज़ियर कुछ व्यावहारिक तकनीकें भी सुझाते हैं और कहते हैं कि इनके सतत प्रयोग और अभ्यास से आप अपने सपनों को हक़ीक़त में बदल सकते हैं.

किताब रोचक तो है ही, सकारात्मक सोच का सहज विकास कर आपके जीवन को बेहतर बनाने के लिहाज़ से उपयोगी भी है. लोज़ियर कोई नई बात तो नहीं करते, लेकिन हमारी जानी हुई बात को नए, विश्वसनीय और प्रभावशाली तरीके से पेश ज़रूर करते हैं. लोज़ियर खुद कहते हैं कि वे अपने पाठक को यह नहीं सिखा रहे कि वे जीवन में कुछ कैसे हासिल करें, क्योंकि इस किताब को पढे बिना भी हम में से हरेक कुछ न कुछ तो हासिल करता ही रहता है. लोज़ियर तो बहुत सहज और सम्प्रेषणीय भाषा और शिल्प में केवल यह बताते हैं कि हम जो कर रहे हैं उसे और बेहतर तरीके से कैसे करें. कैसे प्रयत्न पूर्वक कुछ हासिल करें, कैसे जीवन में जो काम्य है उसे अपनी ओर खींचने में सक्षम बनें और कैसे प्रयत्नपूर्वक उसे दूर रखें जिसे हम पास नहीं आने देना चाहते. अंतर केवल प्रयत्न का है. जो हम अनायासम, बिना प्रयत्न के हासिल कर रहे हैं, अगर समझ कर, प्रयत्न कर उसे हासिल करना चाहेंगे तो अधिक सफलता मिलना निश्चित है. इस तरह, लॉ ऑफ अट्रेक्शन हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने में मददगार होने का प्रयास करती है. किताब हमें अपने शब्दों और विचारों के बारे में और अधिक सजग होने के लिए प्रेरित करती है और कम से कम इस बात के महत्व पर कोई असहमति नहीं हो सकती.
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भारत और चीन में आर्थिक उदारीकरण के पक्ष में

दो बडे देश – चीन और भारत. दोनों ही एक अरब से ऊपर आबादी वाले और दोनों ही पारम्परिक. अब ये दोनों देश विश्व व्यापार जगत में पहले से जमे हुए देशों के लिए कडी चुनौती पेश कर रहे हैं. हांग कांग में रह रहीं, फॉर्ब्स पत्रिका की एशिया सम्पादक, बहु-पुरस्कृत पत्रकार रॉबिन मेरेडिथ ने अपनी 256 पन्नों की 16 जुलाई 2007 को प्रकाशित किताब ‘द एलीफेण्ट एण्ड द ड्रेगन : द राइज़ ऑफ इण्डिया एण्ड चाइना एण्ड व्हाट इट मीन्स फॉर ऑल ऑफ अस’ में इन दोनों देशों के इसी बदलाव की पश्चिमी और पूंजीवादी नज़रिये से पडताल की है.
रॉबिन मेरेडिथ कहती हैं कि अब ऐसा उत्पाद ढूंढना जो चीन में न बना हो और ऐसा तकनीकी सहयोग प्राप्त करना जिसका उद्गम भारत में न हो, क्रमश:कठिनतर होता जा रहा है. भारत में तेज़ी से पैर पसार रहे कॉल सेंटर व्यवसाय के बारे में वैसे भी बहुत कहा-लिखा जाता है. बकौल मेरेडिथ, इस बदलते परिदृश्य की परिणति कई रूपों में दिखाई देती है. वे बताती हैं कि 1978 में जहां शंघाई में मात्र 15 स्काई स्क्रेपर (गगन चुम्बी भवन) थे, अब उनकी संख्या 3800 हो गई है. इतने स्काई स्क्रेपर तो शिकागो और लॉस एंजिलस में मिलाकर भी नहीं हैं. इधर दुनिया की सबसे बडी दस सूचना प्रौद्योगिकी कम्पनियों में से तीन भारत में अवस्थित हैं. इतना ही नहीं, अकेले आई बी एम में 53 हज़ार लोग काम करते हैं जबकि 1992 तक यह कम्पनी भारत में थी ही नहीं.
लेकिन सब कुछ इतना अच्छा भी नहीं है. दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से बीस चीन में हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि चीन इस पर्यावरणीय विभीषिका से तो बच भी जाए, आर्थिक विनाश से नहीं बच सकेगा क्योंकि वहां की सत्तर प्रतिशत सार्वजनिक कम्पनियां बेकार हैं. खुद चीनी प्रधानमंत्री स्वीकार करते हैं कि वहां की अर्थव्यवस्था अस्थिर, असंतुलित और असमन्वित है. यह भी अनुमान है कि चीन की बैंक व्यवस्था चरमरा रही है. भारत के बारे में भी कई बातें चिंताजनक हैं. यहां की चालीस प्रतिशत आबादी अभी भी निरक्षर है, यहां के साठ प्रतिशत लोग अभी भी कृषि पर निर्भर हैं और बमुश्किल दो वक़्त की रोटी जुटा पाते हैं क्योंकि खेती करने के उनके तौर-तरीके बेहद पुराने हैं. अमर्त्य सेन ने भी कहा है कि भारत के बारे में जितना अच्छा कहा जाता है, उसका उलट भी उतना ही सही होता है.

मेरेडिथ ने दोनों देशों में आये बदलाव की विवेचना करते हुए बताया है कि चीन में बाज़ार केन्द्रित आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1978 में और भारत में 1991 में हुई. इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि अकेले नब्बे के दशक में दोनों देशों में कुल मिलाकर बीस करोड लोग गरीबी से निज़ात पा सके. अगर दोनों देशों की आर्थिक प्रगति की रफ्तार पर एक नज़र डालें तो पाते हैं कि 1980 में जहां चीन और भारत जीडीपी और पर केपिटा इन्कम के मामले में समान धरातल पर थे, 2000 तक आते-आते चीन का जीडीपी भारत से दुगुना हो गया और निर्यात के मामले में उसकी रफ्तार भारत से आठ गुना ज़्यादा हो गई. आखिर ऐसा कैसे हुआ? मेरेडिथ के अनुसर, चीन ने भारत से तेईस साल पहले माओवादी बन्द अर्थव्यवस्था को तिलांजलि देकर मुक्त बाज़ार केन्द्रित अर्थ व्यवस्था को अपना लिया. मेरेडिथ बताती हैं कि चीन में माओ की सामूहिक कृषि नीति की वजह से 1959 से 1962 तक तीन से चार करोड लोग भुखमरी के शिकार हुए थे. सांस्कृतिक क्रांति के दौर में वहां की लगभग सारी यूनिवर्सिटियां बन्द हो गई थीं. भारत में भी, आज़ादी के बाद के समाजवादी रुझान और केन्द्रीय योजना के कारण आर्थिक विकास की दर बहुत धीमी रही. निकम्मी, संरक्षणवादी उद्यमी नीतियों ने गरीबी का उन्मूलन नहीं, उसका संरक्षण किया. मेरेडिथ ने भारत के एक पूर्व वित्त मंत्री को यह कहते हुए उद्धृत किया है कि हमने कुछ बरस पहले प्रतिस्पर्धी एजेण्डा अपना कर गरीबों के लिए जितना कर दिया उतना तो हम कई दशकों के गरीबी हटाओ एजेण्डा के माध्यम से भी नहीं कर पाये थे.

जैसा मैंने प्रारम्भ में इंगित किया, किताब पश्चिमी नज़रिये को केन्द्र में रखती है. इसीलिए मेरेडिथ इस बात की भी चर्चा करना नहीं भूलती कि इन दोनों देशों में जो हो रहा है उससे अमरीका का रोज़गार (आउट सोर्सिंग और ऑफ शोरिंग की वजह से) इन दोनों देशों में स्थानांतरित होता जा रहा है. लेकिन, यह चर्चा करने के बाद वे अपने अमरीकी पाठकों को सांत्वना देना भी नहीं भूलतीं कि उन्हें दुखी नहीं होना चाहिये क्योंकि सस्ते उत्पाद और सस्ती सेवाओं का फायदा भी तो उन्हीं को मिल रहा है. और यही अमरीकी पक्षधरता और पूंजीवाद की एक तरफा हिमायत इस किताब की सबसे बडी सीमा है. मेरेडिथ तस्वीर का एक ही रुख सामने लाती हैं. मुक्तबाज़ार व्यवस्था कैसे इन दोनों देशों के जीवन में बहुत सारी विकृतियां ला रही हैं, अगर मेरेडिथ उन पर भी कुछ कहतीं तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगता. लेकिन वे क्यों कहतीं? तब मुक्त बाज़ार और पूंजीवाद की तस्वीर इतनी उजली कैसे प्रस्तुत हो पाती?


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लेखक का काम है सभ्यताओं को नष्ट होने से बचाना

कुछ असफ़लताओं की परिणति इतनी सुखद होती है कि उन्हें असफ़लता कहते भी संकोच होता है। 49 वर्षीय अमरीकी पर्वतारोही ग्रेग मोर्टेन्सन की असफ़लता का किस्सा कुछ ऐसा ही है। मिरगी ने ग्रेग की 23 वर्षीया बहिन क्रिस्टी को उससे जुदा कर दिया तो ग्रेग ने 1993 में एक पर्वतारोहण अभियान के द्वारा दुनिया की दूसरी सबसे ऊंची चोटी, काराकोरम श्रंखला की के-2 पर विजय प्राप्त कर उसका नेकलेस वहां स्थापित करने की ठानी। दुर्भाग्य (या इसे सौभाग्य कहा जाए!) से ग्रेग अभियान में नाकामयाब रहे। इतना ही नहीं, इस जोखिम भरे अभियान से लौटते हुए वे अपने समूह से बिछड़ कर भटकते हुए उत्तरी पाकिस्तान के ऐसे दुर्गम क्षेत्र में जा पहुंचे जहां न पानी था, न खाना और न कोई आश्रय। तब उन्हें सात सप्ताह तक शरण और मदद देकर उनकी जान बचाई उस छोटे-से गांव के भोले-भाले बाशिन्दों ने। उसी दौरान ग्रेग ने देखा कि गांव इतना दरिद्र है कि एक शिक्षक का वेतन तक नहीं जुटा सकता और वहां के 84 बच्चे रेत पर लकड़ी की डंडियों से लिखने का प्रयास करते हैं। गांव वालों के प्रति प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ग्रेग ने वादा किया कि वे उस गांव का पहला स्कूल बनवायेंगे। और ग्रेग का यही वादा बन गया हमारे वक़्त की निहायत अविश्वसनीय मानवीय महागाथा जहां मात्र एक आदमी अपने विश्वास के बल पर ऐन तालिबान पैदा करने वाली धरती पर आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई में स्कूल और शिक्षा को हथियार बनाने में कामयाब होता है। ग्रेग खुद कोई अमीर नहीं थे। उन्होंने अपने घर सेन फ़्रांसिसको लौट कर अमरीका के 580 धनी मानी लोगों को खत लिखे। एन बी सी के टॉम ब्रोकॉ एकमात्र ऐसे सज्जन थे जिन्होंने जवाब में सौ डॉलर का चैक भेजा। ग्रेग ने अपना सब कुछ भी बेच डाला, लेकिन इससे भी महज़ दो सौ डॉलर ही जुट पाए। वे हताश होने ही को थे कि विस्कान्सिन के स्कूली बच्चों ने पेनी-पेनी जोड़कर 623 डॉलर उन्हें भेजे। इस बात से औरों को भी प्रेरणा मिली, अभियान ने गति पकड़ी और ग्रेग ने अगले एक दशक में सेण्ट्रल एशिया इन्स्टीट्यूट नामक अपने संगठन के माध्यम से पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के उस निहायत दुरूह, दुर्गम, दरिद्र और खतरनाक इलाके में खास तौर पर लड़कियों के लिए 58 स्कूल बनवा डाले। इस साल ये स्कूल कुल मिलाकर 24,000 बच्चों को शिक्षित कर रहे हैं जिनमें से 14,000 लड़कियां हैं।
तो, एक असफ़ल पर्वतारोहण अभियान के सफ़ल शिक्षादान अभियान में परिणत होने की रोचक, रोमांचक और प्रेरक गाथा है ग्रेग मोर्टेन्सन की किताब ‘थ्री कप्स ऑफ़ टी : वन मेन्स मिशन टू प्रोमोट पीस……वन स्कूल एट अ टाइम’ । 6 मार्च 2006 को हार्ड कवर में प्रकाशित इस किताब का पेपर बैक संस्करण हाल ही में आया है। इस बीच इस किताब को किरियामा प्राइज़ फ़ॉर नॉन फ़िक्शन, न्यूयॉर्क टाइम्स का बेस्ट सेलर सम्मान, टाइम मैगज़ीन की ओर से एशियन बुक ऑफ़ द ईयर, मोण्टाना ऑनर बुक अवार्ड आदि मिल चुके हैं। मोर्टेन्सन के सह लेखक हैं डेविड ऑलिवर रेलिन। रेलिन विस्तार से ग्रेग के प्रयत्नों का वर्णन करते हैं, गांव के प्रेरक चेहरों को उकेरते हैं और मुज़ाहिदीन, तालिबान अफ़सरों तथा महत्वाकांक्षी लड़कियों से हमारी मुलाक़ात कराते हैं। जिन इलाकों में ये लोग काम कर रहे थे वहां अमरीकियों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। मोर्टेन्सन को भी अगवा करने की कोशिशें हुईं, नाराज़ मुल्लाओं ने दो बार उनके खिलाफ़ फ़तवे जारी किए, 9/11 के बाद अमरीकियों ने उन्हें मुस्लिमों के बीच काम करने के लिए डराया धमकाया, लेकिन वे अपने मिशन से नहीं डिगे। नेल्सन मण्डेला ने कहा था कि दुनिया को बदलने के लिए शिक्षा से अधिक कारगर कोई हथियार नहीं है। अपने अनुभवों ने मोर्टेन्सन को भी यही सिखाया है कि आतंकवाद से लड़ाई बमों से नहीं किताबों से ही लड़ी जा सकती है। उन्होंने कहा भी है कि आप कण्डोम बांट सकते हैं, बम गिरा सकते हैं, सड़कें बना सकते हैं, बिजली ला सकते हैं, लेकिन लड़कियों को शिक्षित किए बगैर समाज को नहीं बदल सकते।
368 पन्नों की यह किताब दिलचस्प होने के साथ ही प्रेरक भी है। कुछ समीक्षकों ने इसे अपने समय की महत्वपूर्ण साहस गाथा कहा है तो कुछ ने कहा है कि यह हमारे समय को जानने-समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ‘तालिबान : मिलिटेण्ट इस्लाम, ऑयल एण्ड फ़ण्डामेण्टलिज़्म इन सेण्ट्रल एशिया’ नामक चर्चित किताब के लेखक अहमद रशीद ने तो यहां तक कहा है कि मोर्टेन्सन जो काम कर रहे हैं –निर्धनतम बच्चों को सन्तुलित शिक्षा देने का– उसकी वजह से अतिवादी मदरसों के लिए नए रंगरूट जुटाना मुश्क़िल होता जा रहा है। मुझे इस सन्दर्भ में अल्बेयर कामू याद आते हैं जिन्होंने कहा था कि लेखक का काम है सभ्यताओं को नष्ट होने से बचाना। यह किताब इस कथन की पुष्टि करती है।

आतंकवाद का अंतरंग

न्यूयॉर्कर के स्टाफ राइटर और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ के सेंटर ऑन लॉ एण्ड सिक्यूरिटी के फैलो लॉरेंस राइट की नई किताब ‘द लूमिंग टावर : अल क़ायदा एण्ड द रोड टू 9/11’ आतंकवाद के इतिहास पर एक सुचिंतित और विचारोत्तेजक रचना है. मध्यपूर्व मामलों में राइट की गहरी दिलचस्पी रही है और 11 सितम्बर (अमरीका में इसे 9/11 लिखा जाता है) की घटना के तुरंत बाद वे अल-क़ायदा की बीट पर भी रहे हैं. यह किताब लिखने के लिए उन्होंने पांच साल मेहनत की और मिश्र, सऊदी अरब, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सूडान, इंगलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, स्पैन और अमरीका में 560 इण्टरव्यू किए. जिनसे उन्होंने इण्टरव्यू किए उनमें बिन लादेन के कॉलेज के ज़माने के अंतरंग मित्र, रिचार्ड ए. क्लार्क, सऊदी राजपरिवार के सदस्य, अफगानी मुज़ाहिदीन और अल जज़ीरा के सम्वाददाता भी शामिल हैं. तब जाकर तैयार हुई यह किताब जो 11 सितम्बर की घटना के ठीक पहले के घटनाचक्र का सरसरी तौर पर हवाला देते हुए व्यक्तियों और विचारों, आतंकवादी योजनाओं और पश्चिमी खुफिया तंत्र की उस असफलता पर रोशनी डालती है जिसके कारण 11 सितम्बर घटित हुआ. द लूमिंग टॉवर पुस्तक का महत्व इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि इसे वर्ष 2007 में जनरल नॉन फिक्शन श्रेणी में प्रतिष्ठित पुलित्ज़र पुरस्कार प्रदान किया गया है.

द लूमिंग टावर का वृत्तांत चार लोगों की ज़िन्दगियों के सहारे आगे बढता है. ये चार हैं अल-क़ायदा के दो नेता ओसामा बिन लादेन और अयमान अल जवाहिरि, एफ बी आई के आतंकवाद निरोधी मुखिया जॉन ओ नील और सऊदी खुफिया विभाग के पूर्व हेड प्रिंस तुर्की अल फैज़ल. जैसे-जैसे इन चारों की ज़िन्दगी की परतें खुलती चलती हैं, हम आधुनिक इस्लाम की उन परस्पर विरोधी धाराओं से परिचित होते जाते हैं जिन्होंने जवाहिरि और बिन लादेन में आमूल-चूल परिवर्तन किया; हम यह भी जान पाते हैं कि अल-क़ायदा का जन्म और ऐसा विकास कैसे हुआ कि यह संगठन केन्या और तांजानिया में अमरीकी दूतावासों पर बमबारी करवा पाया, और ओ नील ने 11 सितम्बर से पहले अल क़ायदा की पडताल के लिए कैसे दुर्धर्ष प्रयास किए और कैसे वह बेचारा वर्ल्ड ट्रेड टॉवर्स में मौत का शिकार हुआ. किताब यह भी बताती है कि कैसे प्रिंस तुर्की बिन लादेन के साथी से उसका दुश्मन बना और कैसे एफ बी आई, सी आई ए और एन एस ए अपनी-अपनी सूचनाओं का साझा करने में नाकामयाब रहे.

यह सब समझाने के लिए लूमिंग टॉवर हमें अंतरंग वृत्तान्त देता है. यहां हम आधुनिक इस्लामी मूवमेण्ट के संस्थापक सईद कुत्ब से मिलते हैं जो 1940 के अमरीका में तन्हा और हताश हैं. हम बिन लादेन और जवाहिरि के शानदार बचपन की छवियां देखते हैं और परिचित होते हैं सूडान और अफगानिस्तान में अल-क़ायदा के अड्डों के पारिवारिक जीवन से. इन सबसे ज़्यादा दिलचस्प है ओ नील का रोमांचक-उत्तेजक व्यवसायी जीवन और उससे भी ज़्यादा दिलचस्प है उसकी निजी ज़िन्दगी जो वह तीन औरतों के साथ गुज़ारता है. मज़े की बात कि ये तीनों ही औरतें एक दूसरे के अस्तित्व से अनजान रहती हैं. कम दिलचस्प तो अमरीकी गुप्तचर एजेंसियों की पारस्परिक लडाइयां भी नहीं हैं.

किताब की शुरुआत राइट के इस विचार से होती है कि आतंक और हत्याओं के ‘उम्दा’ रिकॉर्ड के बावज़ूद द्वितीय महायुद्धोत्तर इस्लामी सैन्यवाद किसी भी अरब देश में मज़हबी निज़ाम कायम नहीं कर सका. इनमें से कईयों ने 1979 के रूसी हमले का प्रतिकार करने में अफगानिस्तान की मदद की. फिर इसके बेरोज़गार योद्धा अपने घर में सक्रिय हुए. 1988 में अफगानिस्तान में गठित अल-क़ायदा ने ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में एक अलग ही राह चुनी. यह राह थी इस्लाम की समस्याओं का ठीकरा अमरीका के सर फोडने की. राइट बताते हैं कि लादेन उतने अमीर नहीं हैं जितना उन्हें माना जाता है, लेकिन वे संगठन और जन सम्पर्क के माहिर हैं. दस साल बाद लादेन अफ्रीका में अमरीकी दूतावास उडाकर धन और रंगरूटों को अपनी तरफ आकर्षित करने की शानदार शुरुआत कर पाते हैं. अल-क़ायदा के कई अभियानों का विस्तृत ब्यौरा देते हुए राइट बताते हैं कि आतंक की योजना बनाना कितना जटिल और जोखिम भरा होता है. यहीं वे इस तरफ भी इशारा करते हैं कि 11 सितम्बर की दुर्भाग्यपूर्ण घटना नहीं घटती, अगर एफ बी आई, सी आई ए और एन एस ए ने तालमेल से काम किया होता.
पीटर बर्गेन की बहुचर्चित किताब ‘द ओसामा बिन लादेन आई नो’ (2006) को पढने के बाद यह किताब पढी जाए तो और भी अधिक महत्वपूर्ण लगेगी.
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Discussed book:
Title: The Looming Tower: Al-Qaeda and the Road to 9/11
Writer: Lawrence Wright
Page: 480
Publisher: Knopf

शीशे के दुर्ग से पीछे देखते हुए

न्यूयॉर्क शहर के पॉश इलाके से एक युवती टैक्सी से गुज़र रही है. अचानक उसकी नज़र एक औरत पर पडती है जो कचरे के डिब्बे में से कुछ बीन रही है. दोनों के बीच बमुश्किल पन्द्रह फुट का फासला है. युवती कार में नीचे झुक जाती है जिससे कि उस औरत की नज़र से बच जाए. वह घर पहुंचती है लेकिन सहज नहीं रह पाती. कारण? वह कचरा खंगालती औरत उसकी मां थी. पार्क एवेन्यू का महंगा अपार्टमेण्ट, मोतियों का बेशकीमती हार, कमरे में सजी बहुमूल्य कलाकृतियां और कचरे के ढेर में से खाने को कुछ ढूंढते और जैसे-तैसे ठण्ड से बचने का जुगाड करते मां-बाप! ये परस्पर विपरीत छवियां उसे बेचैन करती हैं.
कुछ दिनों बाद यही युवती मां को सन्देश भेजती है कि वह उसके घर आए. लेकिन मां रेस्तरां में मिलना पसन्द करती है क्योंकि उसे बाहर खाना ज़्यादा अच्छा लगता है. रेस्तरां में पहुंच कर मां आहिस्ता-आहिस्ता नमक-मिर्च-सॉस-शक्कर वगैरह की पुडियाएं अपने पर्स में खिसकाती रहती है, कुछ सूखे नूडल्स भी पर्स में डाल लेती है, ताकि “बाद में भी कुछ नाश्ता हो सके.” और यह करते हुए बेटी से पिकासो की चित्रकला पर गम्भीर चर्चा भी करती रहती है. बेटी के यह कहने पर कि वह मां की कुछ मदद करना चाहती है, मां किसी ब्यूटी पार्लर में जाने की तमन्ना का इज़हार करती है. ज़ाहिर है, बेटी को यह जंचता नहीं. वह कहती है कि वह तो मां की कोई ऐसी मदद करना चाहती है जिससे उसकी ज़िन्दगी बदल सके. मां जवाब देती है कि बदलाव की ज़रूरत उसे नहीं, बेटी को है क्योंकि उसका मूल्यबोध गडबड है. थोडी बहस होती है, और उसी दौरान बेटी मां को उस घटना की याद दिलाती है जिससे मैंने इस आलेख की शुरुआत की है. मां को ज़रा भी संकोच नहीं होता. वह पूरे आत्मविश्वास से कहती है कि इस देश के लोग बहुत अपव्यय करते हैं, वह तो उसी को दुरुस्त कर रही है. यानि मां (रोज़ मेरी) अपनी स्थिति से ज़रा भी दुखी नहीं है. यह मां एक कलाकार बनते-बनते रह गई थी. पिता रेक्स भी उससे अलग नहीं हैं. वे बहुत प्रबुद्ध हैं. दोनों जैसे एक दूसरे के लिए बने हैं : राम मिलाई जोडी. दोनों के गैर ज़िम्मेदाराना, झक्की और घुमक्कड जीवन ने चार बच्चों पर क्या क़हर बरपा किया होगा, इसका कुछ अन्दाज़ा उन्हीं चार में से एक, जीनेट वाल्स की इस संस्मरणात्मक किताब को पढकर लगाया जा सकता है.
कैसा होता है अपने त्रासद अतीत को आत्मीयता से याद करना? जीवन की जिन कटु, अप्रिय स्थितियों को आप पीछे छोड आए हैं, क्या उन्हें भी बगैर कडुआहट के पेश किया जा सकता है? जिन मां-बाप ने आपके प्रति अपने कर्तव्य निर्वहन की ज़रा भी चेष्टा नहीं की हो, उनको आखिर कितने अपनेपन से याद किया जा सकता है? इन और ऐसे अनेक सवालों के जवाब मिलते हैं फ्री- लांस लेखिका जीनेट वाल्स की संस्मरण पुस्तक ‘द ग्लास कासल’ को पढते हुए. जीनेट को उसके पिता पहाडी बकरी कहा करते थे. जीनेट ने अनायास ही अपने इस नाम को सार्थक कर दिया है. किताब में वह एक ऐसी लडकी के रूप में सामने आती है जिसने बहुत हिम्मत और कुशलता से अपने बाल्य-काल की ऊबड-खाबड और सीधी चढाई वाली ज़िन्दगी का सामना किया, जैसे पहाडी बकरियां किया करती हैं.
किताब में जीनेट बहुत मर्मस्पर्शी तरीके से अपने उस बचपन को सामने लाती है जहां उसे सेफ्टी पिन से जुडे जूते पहनने पडते थे और पैण्ट के छेदों को छिपाने के लिए अपनी त्वचा को मार्कर से रंगना पडता था. एक कामुक अंकल के यौनिक दुराचरण पर उसे यह शिक्षा दी गई कि ये सारी बातें मनगढंत हैं, और बाप ने तो हद्द ही कर दी, एक मदिरालय में उसी की दलाली कर डाली.. उसका बाप था तो बहुत बुद्धिमान, लेकिन कोई भी काम टिक कर करना उसकी फितरत में नहीं था. मां-बाप दोनों ही का खयाल था कि बच्चों को अपनी गलती से सीखने देना चाहिये, हालांकि खुद उन्होंने कभी कुछ नहीं सीखा और अंतत: सडक पर जा पहुंचे. लेकिन एक बात ज़रूर थी. वे अपने अभावों को लेकर कभी दुखी नहीं हुए. मां के पास तो हर बात के लिए सकारात्मक व्याख्या मौज़ूद थी. अगर फ्लैट की दीवारें बहुत ही पतली हैं तो क्या हुआ? पडौस की बातचीत सुन-सुनकर बच्चे बगैर ट्यूटर के थोडी बहुत स्पैनिश ही सीख लेंगे. पालतू जानवरों को खिलाने के लिए कुछ नहीं है तो क्या हुआ? वे अपने आप कुछ जुगाड करेंगे, उनमें आत्मनिर्भरता का गुण विकसित होगा. इतना ही नहीं, बेघरबार मां-बाप आत्मदया या हीनभाव से ग्रस्त नहीं हैं, इसमें उन्हें एडवेंचर नज़र आता है.
किताब की खासियत इस बात में है कि यहां लेखिका अपने मां-बाप के गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार की भर्त्सना करने की बजाय इस बात को अधिक उभारती है कि कैसे उन्होंने एक गैर-पारम्परिक जीवन जिया, वह भी अपनी शर्तों पर, और कैसे उस जीवन को जीते हुए वे गर्व से सर उठाये रहे. निश्चय ही जेनेट के मां-बाप का जीवन आदर्श जीवन नहीं था, लेकिन वह आम जीवन भी नहीं था. अपने कष्टों को नेपथ्य में कर जेनेट उन्हें इतनी आत्मीयता से याद करती है, यही बात इस किताब को भीड से अलग और महत्वपूर्ण बनाती है.
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