Sunday, December 28, 2008

दासता का एहसान

1993 की नोबल पुरस्कार विजेता टॉनी मॉरिसन अपने लेखन में बार-बार यह कहती रही हैं कि अमरीकी साहित्य और इतिहास उसकी अश्वेत जनसंख्या के निषेध पर निर्मित है और अमरीकी राष्ट्र की नींव श्वेत-अश्वेत के बीच की ‘हम’ और ‘वे’ की खाई पर टिकी है. ऐसे में यह बात अतिरिक्त महत्व अर्जित कर लेती है कि उन का नया उपन्यास अ मर्सी ( A Mercy) ठीक उसी सप्ताह में प्रकाशित हुआ है जिस सप्ताह में अमरीका ने अपने राष्ट्रपति के रूप में एक ऐसे शख्स को चुना जो इस खाई को नकारता नज़र आता है.

टॉनी मॉरिसन का यह उपन्यास अ मर्सी उनके बहु-प्रशंसित और पुलिट्ज़र विजेता उपन्यास बिलवेड (Beloved) से पहले की कथा कहता है. बिलवेड को हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स ने पिछले 25 वर्षों का महानतम उपन्यास घोषित किया है. अ मर्सी की कथा 1682 में शुरू होती है. एक भला व्यापारी जेकब वार्क है. उसके पास एक फार्म है जिससे उसे कोई खास मुनाफा नहीं हो रहा है. वह एक तम्बाकू खेत मालिक डी’ओर्टेगा से अपना कर्ज़ा वसूलने मेरीलैण्ड जाता है. ओर्टेगा कर्ज़ा चुकाने में असमर्थ है इसलिए वह अपने दो दर्ज़न गुलाम जेकब वार्क के सामने कर देता है. वार्क को यह अच्छा तो नहीं लगता लेकिन फिर भी दयावश वह एक छोटी लड़की फ्लोरेंस को चुन लेता है. उसकी यह दया ही उपन्यास का शीर्षक है. फ्लोरेंस पर दया उसकी मां ने भी की है, कि उसे ओर्टेगा के खेतों की क्रूरता से निकालकर वार्क के खेतों की अपेक्षाकृत आसान ज़िन्दगी प्रदान की है. मेरीलैण्ड गया हुआ जेकब यह सोचता है कि ओर्टेगा के पास इतना बड़ा घर और इतने उम्दा कपड़े क्यों है और क्यों वह अभावों में जी रहा है. इसी सवाल से उसे नई भावी अर्थव्यवस्था का सूत्र मिलता है. नई गुलाम श्रम व्यवस्था का. वह भी बारबाडोस के खेतों में निवेश करता है. उसका यह कृत्य प्रतीकात्मक रूप से इतिहास का वह क्षण है जब अमरीका सुदूर प्रांतों में गुलाम श्रमिकों के माध्यम से पूंजीवाद के डैने पसारने लगता है. (आज के आउटसोर्सिंग में भी इसकी अनुगूंज सुनी जा सकती है!). अपने प्रयत्न में उसे सफलता मिलती है. जब वह मरणासन्न है तो उसकी पत्नी रेबेका तीन लड़कियों की मदद से उसका करोबार संभालने के प्रयास में है. असली कथा तो इन तीन लड़कियों और रेबेका की ही है. मॉरिसन ने जैसे इन चार स्त्रियों में ही देश की उम्मीद के दीदार किए हैं.

ये चारों स्त्रियां अलग-अलग तरह से गुलाम हैं. इंग़लैण्ड से आई रेबेका को नौकर, वेश्या और पत्नी में से एक विकल्प चुनना था और उसे अंतिम विकल्प सबसे सुरक्षित लगा. लीना का पूरा परिवार उसके बाल्यकाल में ही प्लेग का शिकार हो गया था और रखैल बनकर उसने अपने जीवन को जैसे-तैसे स्थिर किया है. एक जहाज पर पली बढ़ी, कम अक्ल वाली सोरो, और फ्लोरेंस, जिसने एक गुलामी का त्याग करके दूसरी गुलामी का वरण किया. उपन्यास की धुरी है रेबेका. शेष चारों स्त्रियों के किरदार उसी की धुरी पर घूमते हैं. उसके बिना इन चारों लड़कियों का कोई ठिकाना नहीं होता और अगर ये लड़कियां न होतीं तो रेबेका कभी की मर गई होती. इस तरह स्वामी-दास के रिश्तों और स्त्रियों की अंतर्निर्भरता के इस विरोधाभास के माध्यम से टॉनी ने जैसे अमरीकी इतिहास को ही साकार कर दिया है. कथा का एक और आयाम है फ्लोरेंस का एक अफ्रीकी लुहार के प्रति अनुराग. इस लुहार को वार्क ने अपना नया घर बनाने के लिए नौकर रखा है. इस लुहार के लिए टॉनी लिखती हैं, “वह शादी कर सकता था, अपनी चीज़ें रख सकता था, यात्रा कर सकता था और अपना श्रम बेच सकता था.” यानि वह पूरी तरह से आज़ाद था. यह बात रेखांकनीय है कि टॉनी ने एक पूरी तरह मुक्त व्यक्ति के रूप में एक अफ्रीकी का सृजन कर दास-स्वामी की रूढ छवि को तोड़ा है. यह भी गौर तलब है कि यह अफ्रीकी लुहार चीज़ों को ढालता, बनाता और संवारता है. जैसे वह मानवता का लुहार है.

टॉनी कथा कहने के लिए रूढ शिल्प का प्रयोग नहीं करतीं. यहां उन्होंने हर किरदार को एक अध्याय दिया है और वे बहुत कम एक दूसरे के सामने आए हैं. उपन्यास एक तरह से मौखिक इतिहास की शक्ल में उभरता है. अपने काव्यात्मक और अनेकार्थी गद्य तथा बेहद प्रभावशाली ब्यौरों के कारण भी यह उपन्यास हमें अभिभूत करता है.

Discussed book:
A Mercy
By Toni Morrison
Published by Knopf
Hardcover, 176 pages
US $ 23.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे साप्ताहिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 28 दिसम्बर, 2008 को प्रकाशित.









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Sunday, December 14, 2008

कामयाबी के पीछे क्या है?

ब्लिंक और द टिपिंग पॉइंट जैसी बेस्ट सेलर पुस्तकों के लेखक माल्कम ग्लैडवेल की हाल ही में प्रकाशित किताब आउटलायर्स: द स्टोरी ऑफ सक्सेस इस बात की पड़ताल करती है कि क्यों कुछ लोग अपनी ज़िन्दगी में बेहद कामयाब रहते हैं और क्यों अन्य अपनी क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाते. सेल्फ मेड मेन की प्रचलित अवधारणा को सिरे से खारिज़ करते हुए ग्लैडवेल बलपूर्वक कहते हैं कि सुपरस्टार अपनी प्रतिभा और मेधा के दम पर अचानक अवतरित नहीं हो जाते, बल्कि वे अनिवार्यत: अनेक छिपी हुई सुविधाओं और असामान्य अवसरों का लाभ लेकर और अपनी सांस्कृतिक विरासत के बलबूते पर कठिन परिश्रम कर वह सब अर्जित कर पाते हैं जो दूसरों को मयस्सर नहीं होता. अपनी स्थापना की पुष्टि के लिए ग्लैडवेल मोज़ार्ट से लगाकर बिल गेट्स तक की ज़िन्दगी का विश्लेषण करते हैं और कहते हैं कि जो सफलता ऐसे लोगों को मिली, कुछ तो उसके हक़दार थे, कुछ ने उसे अर्जित किया और कुछ को वह केवल भाग्यवश ही मिल गई.

दर असल आउटलायर एक वैज्ञानिक पारिभाषिक शब्द है, जिसका अभिप्राय है ऐसी चीज़ या परिघटना जो सामान्य अनुभव के बाहर हो. जैसे, ग्लैडवेल कहते हैं कि गर्मियों में पेरिस में सामान्यत: मौसम गर्म या बेहद गर्म रहता है. लेकिन अगर अगस्त के मध्य में किसी दिन तापमान शून्य से नीचे चला जाए तो उसे आउटलायर कहा जाएगा. ग्लैडवेल इस किताब के ज़रिये हमें यह समझाना चाहते हैं कि जो लोग शीर्ष तक पहुंच पाते हैं वे कैसे वहां तक पहुंचते हैं. हर आउटलायर की एक कथा होती है जो उस पूरे परिप्रेक्ष्य को उजागर करती है जिसमें वह कामयाब होता या होती है. इस पूरे परिप्रेक्ष्य में शामिल हैं उसका परिवार व संस्कृति, दोस्तियां, बचपन, जन्म के संयोग, इतिहास और भूगोल. ग्लैडवेल कहते हैं कि केवल यह भर पूछ लेना काफी नहीं है कि कामयाब लोग कैसे होते हैं, यह भी पूछा जाना ज़रूरी है कि वे कहां के रहने वाले हैं. इससे भी तै होता है कि कौन कामयाब होगा और कौन नहीं.

ग्लैडवेल कहते हैं कि कामयाबी के लिए किसी का मेधावी होना ही काफी नहीं है. इस बात को वे एक मार्मिक प्रसंग से साफ करते हैं. प्रसंग है क्रिस्टोफर लंगन का, जो अपने 195 के आई क्यू (आइंस्टीन का आई क्यू 150 था) के बावज़ूद मिसौरी के एक अस्तबल में काम करने से आगे नहीं बढ सका. क्यों नहीं वह वह एक न्यूक्लियर रॉकेट विशेषज्ञ बन गया? इसलिए कि उसका परिवेश ही ऐसा था कि वह अपनी असाधारण मेधा का फायदा नहीं उठा सका. इसलिए कि उसे जो भी करना था, अपने दम पर करना था, जबकि, बकौल ग्लैडवेल, दुनिया में कोई भी –चाहे वह रॉक स्टार हो, प्रोफेशनल एथलीट हो, सॉफ्ट्वेयर बिलिनेयर हो या कोई विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न हो– अकेले कुछ नहीं कर पाता. बिल गेट्स की कामयाबी का विश्लेषण करते हुए ग्लैडवेल कहते हैं कि वे आज सफलता के उस मुकाम पर नहीं होते अगर उनके प्राइवेट स्कूल ने उन्हें एक उन्नत कम्प्यूटर सुलभ न कराया होता. बाद में भी वे और भी बेहतर कम्प्यूटरों पर काम इसलिये कर सके क्योंकि वे वाशिंगटन के पास रह रहे थे. ग्लैडवेल का कहना है कि बहुत सारे युवाओं में बिल गेट्स जैसी प्रतिभा है लेकिन वे उनकी तरह की कामयाबी इसलिए हासिल नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें वैसे उन्नत कम्प्यूटरों पर काम करने का अवसर नहीं मिल पाता.

किताब यह तो बताती है कि जो लोग कामयाब हुए वे कैसे और क्यों हुए, लेकिन यह नहीं बताती कि कामयाबी अर्जित कैसे की जाए. इसी तरह, इस किताब को पढते हुए यह गुत्थी भी नहीं सुलझ पाती कि क्यों कुछ लोग तो उन्हें मिले अवसरों का भरपूर फायदा उठा लेते हैं और क्यों अन्य ऐसा नहीं कर पाते. लेकिन, इसके बावज़ूद, किताब दिलचस्प और विचारोत्तेजक है. छोटी-छोटी अनेक सूचनाएं इसके आकर्षण को और बढाती हैं, जैसे यह कि ज़्यादातर पेशेवर हॉकी खिलाड़ियों का जन्म जनवरी में ही हुआ है, या एशियाई बच्चे गणित में इसलिए निष्णात होते हैं कि उनके मां-बाप हज़ारों सालों से चावल की खेती में भरपूर मेहनत करते रहे हैं, या सिलिकॉन वैली के ज़्यादार अरब पति 1955 के आस पास जन्मे हैं.


Discussed book:
Outliers: The Story of Success
By Malcolm Gladwell
Published by: Little, Brown and Company
Hardcover, 320 pages
US $ 27.00

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया में 14 दिसम्बर, 2008 को प्रकाशित.







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Saturday, December 6, 2008

थोड़ी-सी लिपस्टिक आपके लिए भी

पिछले दिनों हमारे कुछ राजनीतिज्ञ अपने बयानों के कारण चर्चा में रहे. एक बयान दिया भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नक़वी ने. उनके बयान पर जानी-मानी लेखिका शोभा डे ने एक तल्ख टिप्पणी की हिन्दुस्तान टाइम्स में. मुझे उनकी ज़्यादातर बातें सही लगीं. शोभा डे की टिप्पणी वे लोग भी पढ़ें जो हिन्दुस्तान टाइम्स नहीं पढ़ते, इसी खयाल से मैं उस टिप्पणी का अनुवाद यहां दे रहा हूं:

दुर्गाप्रसाद



थोड़ी-सी लिपस्टिक आपके लिए भी
शोभा डे

हां, मुख्तार नक़वी जी, मैं लिपस्टिक लगाती हूं. लेकिन, पाउडर नहीं लगाती. और हां, मैं उस दक्षिण मुम्बई में रहती हूं जिसे एक अभिजात रिहायश माना जाता है (हालांकि उसे एक अभिजात स्लम कहना ज़्यादा सही होगा). मैं अक्सर पांच सितारा होटलों में जाती हूं, खास तौर पर भव्य ताज महल होटल में. मैं बिना किसी संकोच के उसे अपना दूसरा घर कहती हूं, क्योंकि वो मेरा दूसरा घर है.

ज़्यादातर मानदण्डों के अनुसार मेरी जीवन शैली को विशिष्ट कहा जा सकता है.

तो?

इन सुख सुविधाओं के लिए मैंने लम्बे समय तक कठिन श्रम किया है. इन सबको मैंने ईमानदार साधनों से जुटाया है. मुझे अमीरी विरासत में नहीं मिली और मेरा पालन-पोषण एक मध्यम वर्गीय घर-परिवार में हुआ. सभी भारतीय अभिभावकों की तरह मेरे मां-बाप ने भी शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चों को एक बेहतर ज़िन्दगी देने का ख्वाब देखा. हमने उनके सपनों को, और कुछ अपने सपनों को भी, साकार किया. क्या यह कोई ज़ुर्म है?

मैं गर्व पूर्वक अपना टैक्स अदा करती हूं और अपने तमाम बिल भरती हूं. लेकिन क्या ऐसा ही आपकी बिरादरी के अधिकांश लोगों, जो वर्तमान समय के असली अभिजन हैं, के लिए भी कहा जा सकता है? मेरा इशारा राजनीतिज्ञों की तरफ है जिनकी जवाबदेही शून्य है लेकिन जो उन तमाम सुविधाओं का भोग करते हैं जिनके लिए वे अन्यों की आलोचना करते हैं.

अपनी जीवन शैली के लिए लज्जित होने से मैं इंकार करती हूं. कहावत है न कि बदला लेने का सबसे बढिया तरीका है बेहतर ज़िन्दगी जीना.

बहुतेरे तथाकथित नेताओं के विपरीत मेरा कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. जब मैं घर से बाहर निकलती हूं तो उम्दा कार में निकलती हूं, लेकिन वह कार कोई चलता फिरता दुर्ग नहीं होती जिसकी रक्षा सरकारी खर्च पर पलने वाले बन्दूक धारियों का समूह किया करता है. जब मैं निकलती हूं तो मेरे कारण ट्रैफिक को दूसरे रास्तों पर मोड़ कर औरों के लिए असुविधा पैदा नहीं की जाती. हवाई अड्डों पर दूसरों की तरह मेरी भी तलाशी ली जाती है.

इसलिए मिस्टर नक़वी, आपकी हिम्मत कैसे हुई इस तरह की अनुपयुक्त और अवांछित टिप्पणी करके मुझे (और अन्य स्त्रियों को) नीचा दिखाने की? हम लोग प्रोफेशनल हैं जो अपनी भरपूर क्षमता का प्रयोग करते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं. क्या आप भी ऐसा ही दावा कर सकते हैं? हम लोग चाहें लिपस्टिक लगायें, अपने चेहरों पर पाउडर पोतें, विग लगायें या कृत्रिम भौंहें लगायें, यह हमारा अपना निजी मामला और विशेषाधिकार है. आपकी यह टिप्पणी सिर्फ महिलाओं और विशेष रूप से उन शहरी कामकाजी महिलाओं के बारे में, जो कि आप जैसों के द्वारा निर्धारित पारम्परिक छवियों की अवहेलना करती हैं, आपके एकांगी और पक्षपातपूर्ण रवैये का दयनीय प्रदर्शन मात्र है.

आपकी और आप जैसे उन स्व-घोषित बुद्धिजीवियों जिन्होंने अभिजात लोगों को गरियाने का एक नया खेल तलाशा है, की यह टिप्पणी ऐसे वक़्त में आई है जब हमारा ध्यान अधिक महत्व के मुद्दों, जैसे घेरेबन्दी के समय में जीवित रहने की चुनौती पर, केन्द्रित होना चाहिए था. समाज के अधिक समृद्ध/शिक्षित लोगों पर इस प्रहार से एक रुग्ण संकीर्ण मानसिकता का पता चलता है.

मेरी आवाज़ की भी वही वैधता है जो एक अनाम सब्ज़ी विक्रेता की आवाज़ की है, क्योंकि हम दोनों भारत के नागरिक हैं. क्या आप यह कहना चाहते हैं कि वे टी वी एंकर जो लिपस्टिक या पाउडर का इस्तेमाल नहीं करतीं, अपने काम में दूसरों से बेहतर हैं? क्या राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाली औरतों को इसलिए सौन्दर्य प्रसाधनों से परहेज़ करना चाहिए ताकि उन्हें (निश्चय ही मर्दों द्वारा) अधिक ‘गम्भीरता’ से लिया जा सके? क्या सार्वजनिक जीवन में काम करने वाली महिलाओं को इसलिए घटिया कपड़े पहनने चाहियें कि उनकी विश्वसनीयता अधिक बढी हुई नज़र आए और समाज द्वारा उन्हें जो भूमिका प्रदान की गई है वे उसके उपयुक्त दिखाई दें? क्या लिपस्टिक उनके योगदान और योग्यता का अपहरण कर लेती है?

सवाल उस महिला कोण्डोलिज़ा राइस से भी पूछा जाना चाहिए जो सालों से दुनिया की मोस्ट स्टाइलिश सूची में जगह पाती रही हैं. पूछा सोनिया गांधी से भी जाना चाहिए जो हर वक़्त त्रुटिहीन वेशभूषा में नज़र आती हैं, और लिपस्टिक भी ज़रूर ही लगाती हैं. और हां, मैं अपनी नई करीबी दोस्त जयंती नटराजन को भला कैसे भूल सकती हूं?

बहुत दुख की बात है कि वर्तमान संकट के दौरान लैंगिक भेद का मुद्दा बीच में लाकर श्री नक़वी ने सारे मुद्दों को इतना छोटा बना दिया. जॉर्ज़ फर्नाण्डीज़ ने अपनी ज़मीन उस वक़्त खो दी थी जब उन्होंने कोका कोला के विरुद्ध लड़ाई शुरू करने का फैसला किया था. नक़वी शायद अपनी लड़ाई लिपस्टिक के खिलाफ लड़ रहे हैं.

अफसोस की बात है कि मुम्बई ने जो यातना झेली उसे एक तरह के ऐसे वर्ग युद्ध तक सिकोड़ दिया गया जिसमें बेचारे अभिजन से यह आशा की जा रही है कि वे यह कहते हुए अपना बचाव करें कि “नहीं, नहीं, इस हमले में जान देने वालों के लिए हमें भी कम अफसोस नहीं है.” अब तो बड़े हो जाइए. यह एक भयावह ट्रेजेडी थी. ट्रेजेडी को भी एक ऐसे चेहरे या छवि की ज़रूरत होती है जो सामूहिक वेदना को व्यक्त कर सके. और इसी कारण ताजमहल होटल ने उस छवि, उस प्रतीक का रूप धारण किया जो पूरे देश के उस त्रास, उस वेदना, उस पीड़ा को अभिव्यक्त करता है. आप क्यों उसे वर्ग में बांट रहे हैं?

क्या हमारे राजनीतिज्ञ पांच सितारा होटलों में सबसे बढ़िया कमरों (और वह भी बिना कोई कीमत अदा किए) की मांग नहीं करते? कम से कम हम शेष लोग उनके लिए भारी कीमत तो चुकाते हैं. क्या भारत के मैले-कुचैले कपड़ों और झोलेवाले बुद्धिजीवी जब भी और जहां भी मिल जाए मुफ्त की स्कॉच पीने से बाज आते हैं? साथियों, पहले अपनी दारू की कीमत अदा कीजिए, फिर दुनिया को बचाना.

कहा जाता है कि नारायण राणे के बेटे बेंटली कारों में घूमते हैं और आठ कमाण्डो उनकी रक्षा के लिए तैनात रहते हैं. उनका खर्चा कौन उठाता है? हम जैसे शोषक! जब हमें अपने देश की छवि का अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन करना होता है तो हम अपने अरबपतियों और बॉलीवुड स्टार्स को आगे कर देते हैं. ये ही वे अभिजन हैं जो संकट के समय राहत-पुनर्वास कार्यों के लिए दिल खोलकर दान देते हैं. मुझे तो नक़वी जैसों की बातों से उबकाई आती है. मैं जैसी हूं और जैसी नज़र आती हूं, उसके लिए अगर कोई मुझे ‘अपराधी’ ठहराने की कोशिश करता है तो मुझे घिन आती है.

माफ़ कीजिए नक़वी जी. मेरे होठों को देखें: लिपस्टिक ज़्यादा तो नहीं है? ज़्यादा गाढी और चमकदार? अगर आप चाहें, मुझ से थोड़ी-सी उधार ले सकते हैं.

◙◙◙

अनुवाद: डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

हिन्दुस्तान टाइम्स में शनिवार, 6 दिसम्बर को प्रकाशित आलेख ‘लिपस्टिक ऑन हिज़ कॉलर’ का मुक्त अनुवाद.









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Sunday, November 23, 2008

गरीबी विहीन दुनिया का सपना

नोबल शांति पुरस्कार विजेता और ग्रामीण बैंक के संस्थापक सुपरिचित बांगलादेशी अर्थ शास्त्री मुहम्मद यूनुस की सद्य प्रकाशित किताब क्रिएटिंग अ वर्ल्ड विदाउट पॉवर्टी एक अभिनव अवधारणा प्रस्तुत करती है. अवधारणा है सामाजिक व्यापार, सोश्यल बिज़नेस की; जिसके द्वारा आज के समय की सबसे बड़ी समस्या -गरीबी- का उन्मूलन किया जा सकता है. यूनुस मानते हैं कि विश्व शांति के लिए गरीबी सबसे बड़ी चुनौती है; आतंकवाद, धार्मिक कठमुल्लेपन, जातीय घृणा, राजनैतिक विद्वेष या किसी भी अन्य ऐसी ताकत जिसे हिंसा और युद्ध के लिए उत्तरदायी माना जाता हो, से बढकर. बकौल यूनुस, गरीबी निराशा को जन्म देती है और निराशा लोगों को इस तरह के कृत्यों में लिप्त होने को उकसाती है.

यूनुस ने अपनी पहली किताब बैंकर टू द पुअर में ग्रामीण बैंक की स्थापना और उसके शुरुआती वर्षों के विकास का परिचय दिया था. अब इस नई किताब में वे इसी बात को आगे बढाते हैं और ग्रामीण बैंक और माइक्रो क्रेडिट ने जिस आर्थिक और सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया, उसके अगले दौर की रूपरेखा पेश करते हैं. वह अगला दौर है सामाजिक व्यापार का, जो विश्व स्तर पर गरीबी उन्मूलन करेगा और तमाम लोगों की सर्जनात्मक ऊर्जा को इस्तेमाल कर हर मनुष्य के लिए संसाधनों की विपुलता के स्वप्न को साकार करेगा.

किताब में तीन मुख्य बातें हैं. पहली है गरीबी, उसके कारण और निवारण के उपाय. यहां वे बताते हैं कि गरीबी के मूल में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था तथा गलत विचार हैं, न कि गरीबों का आलस्य, अज्ञान और नैतिक न्यूनताएं. दूसरी बात है इस आने वाली क्रांति में महिलाओं की भूमिका. यूनुस मानते हैं कि अगर लाखों-करोडो ऐसी महिलाओं के मन में दबी सर्जनात्मकता, ऊर्जा और परिवार के उत्थान की आकांक्षा को पंख दे दिए जाएं तो फिर उनकी उड़ान को कोई ताकत नहीं रोक सकती. तीसरी बात यह कि तकनीक की भूमिका इस क्रांति में बहुत महत्वपूर्ण है. संचार और प्रबन्धन के नवीनतम औज़ार हरेक को, विशेष रूप से एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के दूरस्थ गांवों के लोगों को मुहैया कराये जाने चाहिये. इसका परिणाम आर्थिक और राजनीतिक ताकत के विकेन्द्रीकरण के रूप में सामने आएगा.

यूनुस इस किताब में समस्या के समाधान के लिए सामाजिक व्यापार की अवधारणा पेश करते हैं. उनका यह सामाजिक व्यापार कोई चेरिटी न होकर व्यापार है, और यह दान पर निर्भर न होकर स्व-अर्जित लाभ पर निर्भर है. फर्क़ केवल यह है कि जहां सामान्य व्यापार का लक्ष्य केवल मुनाफा कमाना होता है, सामाजिक व्यापार का लक्ष्य सामाजिक समस्या हल करना, सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति करना और सामाजिक मुनाफा पैदा करना है. सामाजिक व्यापार में कोई काम मुफ्त नहीं किया जाएगा. यह जो भी काम करेगा वह स-मूल्य होगा, हालांकि वह मूल्य बाज़ार मूल्य से बहुत कम हो सकेगा. इस सामाजिक व्यापार का आकलन इसके द्वारा कमाए गए मुनाफे से न होकर इस बात से होगा कि इसने सामाजिक समस्याओं को हल करने की दिशा में कितनी सकारात्मक भूमिका निबाही. एक और फर्क़ यह भी होगा कि यह सामाजिक व्यापार कोई लाभांश वितरित नहीं करेगा. इसमें जो भी मुनाफा होगा उसका पुनर्निवेश कर दिया जाएगा.

अपनी इस अवधारणा को आगे बढाते हुए यूनुस दो तरह के सामाजिक व्यापार की रूपरेखा पेश करते हैं. पहले प्रकार का व्यापार भोजन, मकान, स्वास्थ्य शिक्षा आदि के क्षेत्र में होगा जो एक तरह से सामाजिक लाभ के लिए होगा. दूसरे तरह का व्यापार किसी सामाजिक लाभ के लिए भले ही न होगा, वह गरीबों द्वारा संचालित होगा और उसमें होने वाला मुनाफा गरीबों की दशा सुधारने में प्रयुक्त होगा. यूनुस का ग्रामीण बैंक इसी तरह का व्यापार है. इन दोनों किस्मों के व्यापारों को मिलाकर भी किया जा सकता है, लेकिन यूनुस बहुत साफ कहते हैं कि सामाजिक और पारम्परिक व्यापार को कभी नहीं मिलाया जा सकता.

इस बात में गहरा भरोसा रखने वाले कि जब सही वक़्त आता है तो एक छोटा-सा नया विचार ही दुनिया को बदल डालता है, मोहम्मद यूनुस उन लोगों को करारा जवाब देते हैं जो गरीबी उन्मूलन को अब भी एक पूरा न हो सकने वाला सपना मानते हैं. वे कहते हैं कि हज़ारों साल से दुनिया में चेचक रही है, लाखों औरतें प्रसव के दौरान मौत का शिकार होती रही हैं. दुनिया में लम्बे समय तक उम्र के तीस बरस पार करना दुर्लभ हुआ करता था. लेकिन आज यह सब भी तो बदला है. विज्ञान, तकनीक, शिक्षा और सामाजिक प्रगति ने हमें समझा दिया है कि बीमरियां रोगाणुओं या गन्दगी की वजह से होती है न कि भूत-प्रेत की वजह से. अगर यह सब हुआ है तो गरीबी क्यों नहीं हट सकती?

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Discussed book:
Creating a World without Poverty
By Muhammad Yunus, Karl Weber
Published by: Public Affairs
Hardcover, Pages 296
US $ 26.00

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 23 नवम्बर, 2008 को प्रकाशित.


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Thursday, November 20, 2008

स्वागत का एक तरीका यह भी

आप सभी ने यह नोट किया होगा कि जब भी कोई आयोजन होता है, चाहे वह सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो, साहित्यिक हो, या राजनीतिक हो, खास मेहमानों का स्वागत माला पहना कर या पुष्प गुच्छ भेंट कर किया जाता है. सामाजिक या पारिवारिक आयोजनों की बात ज़रा अलग है, वहां तो जो मालाएं पहनाई जाती हैं, उसे या उन्हें लोग कुछ देर पहने रहते हैं. राजनीतिक आयोजनों की भी बात थोड़ी अलग है. आजकल चुनाव का मौसम है और मालाओं से लदे-फंदे नेता गली-गली नज़र आते हैं. शायद अपने गले में अधिकाधिक मालाएं डाल कर वे यह दर्शाने का प्रयास करते हैं कि वे कितने लोकप्रिय हैं. लेकिन साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में अतिथिगण को जो मालाएं पहनाई जाती हैं, उन्हें पहनाते ही उतार कर सामने टेबल पर रख देने का रिवाज़ आम है. अगर पुष्प गुच्छ भेंट किया जाता है तो उसे भी वहीं टेबल पर छोड़ दिया जाता है. किस अतिथि को कितनी मालाएं पहनाई जाएं यह आयोजकों की श्रद्धा या क्षमता या दोनों पर निर्भर करता है. मालाओं का सस्ता या महंगा होना भी इन्हीं बातों पर निर्भर करता है. उधर दक्षिण भारत में तो बहुत ही बड़ी और भारी मालाओं का रिवाज़ है.
क्या यह औपचारिकता संसाधनों की बरबादी नहीं है? मैं तो कई बार अपने मित्रों से मज़ाक-मज़ाक में कहा करता था कि अगर अतिथि जी को प्रति माला की दर से दस रुपये भी भेंट कर दिए जाएं तो उन्हें अधिक प्रसन्नता होगी. शायद ऐसी ही कुछ मानसिकता रही होगी, कि जब मेरा वश चला, मैंने इस माल्यार्पण की रस्म को टाला. मंच से कह दिया गया कि हम अमुक-अमुक जी का स्वागत करते हैं. अधिकांश ने इसे पसन्द किया, एकाध ने घुमा-फिरा कर अपनी अप्रसन्नता भी सम्प्रेषित की. जो भी हो, जब मेरा वश चला, मैंने माल्यार्पण की निरर्थक और फिज़ूलखर्ची वाली रस्म को टाला. मुझे याद है कि राजस्थान के एक राजनेता ने भी यह नीतिगत घोषणा कर रखी थी कि उन्हें मालाएं नहीं पहनाई जाएं. वैसे, किसी भी राजनेता के लिए ऐसी घोषणा करना कितना कठिन होगा, हम कल्पना कर सकते हैं.
ऐसे में आज जयपुर में एक आयोजन में एक सुखद अनुभव हुआ, और मेरा मन हुआ कि उसे आप सबके साथ साझा करूं. आज यहां राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति के तत्वावधान में चिल्डृन्स बुक ट्रस्ट, दिल्ली ने बाल साहित्य पर एक सेमिनार का आयोजन किया. सी बी टी ने अतिथियों का स्वागत किया, लेकिन पुष्प मालाओं से नहीं, बल्कि एक अनूठे और सार्थक तरीके से. आयोजकों ने अपने विशिष्ट अतिथिगण का स्वागत करते हुए उन्हें पुस्तक का पैकेट भेंट किया. कहना अनावश्यक है कि अतिथिगण के लिए भी उस पैकेट को (माला की तरह) टेबल पर छोड़ जाने की कोई पारम्परिक विवशता नहीं थी. हर अतिथि अपना उपहार अपने साथ ले गया. और, एक सारस्वत आयोजन में पुस्तक भेंट करके स्वागत करने से बेहतर और क्या हो सकता है, मैं तो नहीं सोच पा रहा हूं.
कितना अच्छा हो कि हम पुस्तक भेंट कर स्वागत करने की इस परम्परा को लोकप्रिय बनाएं. इससे अतिथि को आपके स्वागत के स्मृति चिह्न को लम्बे समय तक अपने साथ रखने का अवसर मिलेगा, पुस्तक संस्कृति विकसित होगी, और फूलों की बेकद्री पर रोक लगेगी.

आप क्या सोचते हैं?









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Sunday, November 2, 2008

समतल दुनिया में हरी क्रांति की ज़रूरत

तीन बार के पुलिट्ज़र पुरस्कार विजेता पत्रकार-लेखक थॉमस एल फ्रीडमैन ने करीब एक दशक पहले अपनी किताब लेक्सस एण्ड द ऑलिव ट्री में भूमण्डलीकरण का स्वागत किया था. उसके बाद 2005 में आई और अब तक की बेहद चर्चित किताबों में से एक, द वर्ल्ड इज़ फ्लैट में उन्होंने यह बताया कि सूचना क्रांति किस तरह दुनिया को समतल कर रही है और हमारे रोज़गार के अवसरों को कुछ इस तरह पुनर्संयोजित कर रही है अब उसे रोक पाना सीमाओं, समुद्रों और दूरियों के लिए भी मुमकिन नहीं रह गया है. इन्हीं फ्रीडमैन ने अब अपनी सद्य प्रकाशित किताब हॉट, फ्लैट एण्ड क्राउडेड: व्हाई वी नीड अ ग्रीन रिवोल्यूशन – एण्ड हाउ इट केन रिन्यू अमेरिका में बताया है कि हमारे समय के तीन बहुत बड़े बदलाव हैं ग्लोबल वार्मिंग, ग्लोबल फ्लैटनिंग और ग्लोबल क्राउडिंग. ये तीन बदलाव ऐसी तीन लपटों की तरह है जो आपस में मिलकर बहुत बड़ी आग में बदल चुकी है. यह आग पांच बड़ी समस्याओं को पैदा कर रही है. ये समस्याएं हैं – मौसम का बदलाव, पेट्रो-तानाशाही, ऊर्जा और प्राकृतिक संसाधनों के के उपभोग और उपलब्धता का बिगड़ता जा रहा संतुलन, जैव विविधता का खत्म होते जाना, और ऊर्जा दारिद्रय. आने वाला समय कैसा होगा, यह इसी बात पर निर्भर करेगा कि हम इन पांचों समस्याओं का सामना कैसे करते हैं.

फ्रीडमैन चेताते हैं कि हममें से हरेक को यह जान लेना चाहिए कि अब तेल की कीमतें कभी भी घटेंगी नहीं और अपव्यय करने और प्रदूषण फैलाने वाली तकनीकों को और बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए. फ्रीडमैन कहते हैं कि ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में आखिरी बड़ा नवाचार आणविक ऊर्जा का पचास बरस पहले हुआ था. उसके बाद तो जैसे जड़ता ही आ गई है. वे एक उम्दा बात यह कहते हैं कि पाषाण युग की समाप्ति इसलिए नहीं हुई थी कि पत्थर खत्म हो गया था. इसी तरह, वातावरण को नष्ट करने वाले जीवाश्म ईंधन का युग भी खत्म हो सकता है, अगर हम उसके लिए सचेष्ट हों.
फ्रीडमैन जीवाश्म ईंधन जैसे तेल, कोयला और प्राकृतिक गैस के जलाने से पैदा कार्बन डाइ ऑक्साइड की वृद्धि पर बहुत चिंतित हैं. वे बताते हैं कि कार्बन डाइ ऑक्साइड से उपजा प्रदूषण वायुमण्डल में इकट्ठा होता रहता है और इसी कारण मौसम में बदलाव आ रहे हैं. अपने देश अमरीका को वे विशेष रूप से लताड़ते हैं कि वहां प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत सबसे ज़्यादा है और इसीलिए पर्यावरण को बिगाड़ने का सबसे ज़्यादा दोषी भी उन्हीं का देश है. स्वाभाविक है कि वे स्थिति को सुधारने के लिए अमरीकी नेतृत्व से सक्रियता की उम्मीद करते हैं. वैसे, वे चिंतित एशियाई देशों के व्यवहार से भी कम नहीं हैं. फ्रीडमैन कहते हैं कि दुनिया के औद्योगिक उत्पाद को बढाने के मामले में भले ही चीन ने कमाल किया हो, उसने पर्यावरण को भी कम क्षति नहीं पहुंचाई है. वे बताते हैं कि पिछले छह सालों में चीन में कोयला जनित विकास में इतनी वृद्धि हुई है कि उसे अपने कोयला उत्पाद में उतनी वृद्धि करनी पड़ी है जितनी कि पूरे अमरीका की उत्पाद क्षमता है. अब इसी के साथ यह बात और जोड़ लीजिए कि सारी दुनिया में आबादी शहरों की तरफ जा रही है. इसी की परिणति है दुनिया का ‘हॉट, फ्लैट और क्राउडेड’ होते जाना. अपनी सारी चिंताओं के बावज़ूद फ्रीडमैन उम्मीद भी करते हैं कि चीन और अन्य देश नए पर्यावरण-मित्र उद्योगों में ज़्यादा निवेश कर इस मामले में अमरीका को भी पीछे छोड़ देंगे.

जैसा कि इसके शीर्षक से ही साफ है, किताब अमरीका को केन्द्र में रखकर लिखी गई है, लेकिन फ्रीडमैन की लेखन शैली उनकी चिंताओं में पूरी दुनिया को समेटती चलती है. जब वे यह कहते हैं कि पर्यावरण की चिंता केवल हमारे अस्तित्व का ही प्रश्न नहीं है, बल्कि इससे अमरीका अधिक समृद्ध, अधिक उत्पादक और अधिक सुरक्षित भी बनेगा, तो हम बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि यह बात और देशों पर भी उतनी ही अच्छी तरह से लागू होती है.

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Discussed book:
Hot, Flat and Crowded: Why We Need a Green Revolution – and How It Can Renew America
By Thomas L. Friedman
Published by Farrar, Straus and Giroux
448 Pages. Hardcover
US $ 27.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय संस्करण में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 2 नवम्बर, 2008 को प्रकाशित.











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Tuesday, October 7, 2008

पत्नी: पति के पीछे या उसके साथ

पत्रकार और प्रसारण माध्यमों की जानी-मानी टिप्पणीकार मेगन बाशम की एकदम हाल ही में प्रकाशित किताब ‘बिसाइड एवरी सक्सेसफुल मेन’ एक चौंकाने वाली स्थापना करती है और वह यह कि आज की औरत कामकाजी दुनिया से बाहर निकलने के लिए व्याकुल है, लेकिन दोहरी कमाई से घर चला पाने की विवशता के कारण काम करते रहने को मज़बूर है. कहना अनावश्यक है, यह स्थापना प्रचलित नारीवादी सोच से हटकर है.

मेगन पश्चिम के एक लोकप्रिय मनोरंजन चैनल ई! से एक मार्मिक प्रसंग उठाती हैं. एक आकर्षक युवा शल्य चिकित्सक ने उतनी ही आकर्षक एक डॉक्टर से शादी की है. कुछ समय बाद वे एक घर खरीदने की योजना बनाते हैं. एक एस्टेट एजेण्ट उन्हें एक बहुत उम्दा घर बताता है. घर दोनों को बहुत पसन्द आता है. पति पत्नी से कहता है, “यह घर हमारे लिए एकदम उपयुक्त है. लेकिन अगर हम इसे खरीदना चाहें तो तुम्हें अपनी नौकरी ज़ारी रखनी पड़ेगी.” पत्नी पूछती है, “कब तक?” “यह तो मैं नहीं जानता. शायद काफी दिनों तक.” पति का जवाब है. हताश-उदास पत्नी कहती है, “मगर हमने तो बच्चों के बारे में बात की थी, तुम भी तो तैयार थे.” “अभी उसके लिए बहुत वक़्त है.” पति का यह भावहीन उत्तर सुनकर पत्नी अपनी कडुआहट रोक नहीं पाती है, “हां, काफी वक़्त है, अगर तुम किसी और औरत के साथ बच्चे चाहो तो. मैं पैंतीस की तो हो चुकी हूं.”

अब ज़रा इस यथार्थ की तुलना कुछ वर्ष पहले के उस यथार्थ से कीजिए जहां पति चाहता था कि पत्नी घर में ही रहे, बच्चे पैदा करे और पाले. मेगन बताती हैं कि जब भी वे और उनकी सहेलियां मिलती हैं (सभी 25 से 35 के बीच की उम्र की हैं) तो उनकी बातचीत इस मुद्दे पर सिमट आती है कि आखिर कब उनके पति उन्हें नौकरी से मुक्ति दिलायेंगे? मेगन न्यू जर्सी की एक महिला वकील को यह कहते हुए उद्धृत करती हैं कि उनका सपना है कि वे अपने काम से मुक्त हो जाएं और सप्ताह के किसी दिन दोपहर में ग्रॉसरी शॉपिंग करें. इसी तरह एक 29 वर्षीया डॉक्टर कहती हैं कि हालांकि उन्हें अपने काम में मज़ा आता है, वे एक पत्नी और मां बने रहना ज़्यादा पसन्द करेंगी. ‘अच्छा होता, मैं डॉक्टर न होती’. वे कहती हैं.

मेगन बताती हैं को उनके देश में हुए अधिकांश जनमत सर्वेक्षण यही बताते हैं कि अब ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएं अपने जीवन के बेहतर वर्षों को घर और बच्चों के लिए प्रयुक्त करना चाहती हैं. यहां तक कि वे युवा अविवाहित लड़कियां भी, जिन्होंने अब तक बच्चों की ज़रूरतों का स्वयं अनुभव नहीं किया है, कहती हैं कि वे कैरियर की सीढियां चढने की बजाय परिवार की देखभाल मे समय लगाना अधिक पसन्द करेंगी.

लेकिन असल चुनौती यहीं उत्पन्न होती है. क्या स्त्री पढ-लिख कर काम न करे? अपने ज्ञान, प्रतिभा, योग्यता सब को चूल्हे-चौके में झोंक दे? और अगर वह ऐसा कर भी दे, तो उन आर्थिक ज़रूरतों की पूर्ति कैसे होगी, जो दिन-ब-दिन बढती जा रही हैं. और यहीं मेगन एक नई बात कहती हैं. वे सुझाती हैं कि शिक्षित, प्रतिभासम्पन्न, और दक्ष महिलाओं के लिए बेहतर विकल्प यह है कि वे अपनी योग्यताओं का इस्तेमाल अपने पतियों के कैरियर के उन्नयन में करें. ऐसा करने से न तो उनकी योग्यताओं का अपव्यय होगा, न उन्हें ठाले रहने का मलाल होगा और न बेहतर ज़िन्दगी जीने के अपने सपनों में कतर-ब्योंत करनी होगी. काम के मोर्चे पर पति की कामयाबी में सहयोगी बन कर स्त्री कुछ भी खोये बगैर सब कुछ प्राप्त कर सकती है. आज की स्त्री को मेगन की सलाह है कि वह एकल स्टार बनने की बजाय मज़बूत टीम की सदस्य बने. और यही वजह है कि उन्होंने इस किताब के शीर्षक में बिहाइण्ड की जगह बिसाइड शब्द का प्रयोग किया है.


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Discussed book:
Beside Every Successful Men
By Megan Basham
Published by Crown Forum
Hardcover, 256 pages
US $ 24.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' के अंतर्गत 5 अक्टोबर, 2008 को प्रकाशित.










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Wednesday, September 24, 2008

जावेद अख्तर का एक अद्भुत भाषण

कभी-कभी ऐसा कुछ पढ़ने को मिल जाता है कि मन उसे औरों के साथ साझा करने को व्याकुल हो उठता है. पिछले दिनों मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ. इण्टरनेट पर जो बहुत सारी सामग्री दोस्तों की कृपा से मिलती है, उसमें हालांकि बहुत सारा कचरा होता है, कभी-कभी उस कचरे के ढेर में सोना, बल्कि उससे भी कीमती कुछ मिल जाता है. किसी ने मुझे जावेद अख्तर का एक भाषण भेजा. भाषण उन्होंने इण्डिया टुडे कॉंक्लेव में दिल्ली में कुछ बरस पहले दिया था. इस भाषण ने मुझ पर जादू का-सा असर किया. लगा, जो भी मिल जाए उसे पकड़ कर कहूं कि इस भाषण को पढो. और करीब-करीब यही किया भी. नेट पर जितनों को फॉरवर्ड कर सकता था, किया. जिन्हें डाक से भेज सकता था उन्हें इसकी फोटो कॉपी भेजी. मन फिर भी नहीं भरा. बिना किसी के कहे, इसका हिन्दी अनुवाद कर डाला. अपने मित्र, प्रख्यात कथाकार और प्रतिष्ठित पत्रिका 'अक्सर' के सम्पादक डॉ हेतु भारद्वाज को इसे पढने को दिया तो उन्होंने इसे अपनी पत्रिका में छापने का इरादा कर लिया. मुझे तो भला क्या ऐतराज़ होता. मैं तो चाहता ही यही था कि यह भाषण अधिकाधिक लोगों तक पहुंचे.

मन इस से भी नहीं भरा, तो अपने अनुवाद को इस ब्लॉग पर भी रख रहा हूं ताकि आप भी इसे पढ सकें.

तो प्रस्तुत है, जावेद अख्तर के भाषण का मेरे द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद:


मुझे पूरा विश्वास है देवियों और सज्जनों कि इस भव्य सभा में किसी को भी मेरी स्थिति से ईर्ष्या नहीं हो रही होगी. श्री श्री रविशंकर जैसे जादुई और दुर्जेय व्यक्तित्व के बाद बोलने के लिए खड़ा होना ठीक ऐसा ही है जैसे तेंदुलकर के चमचमाती सेंचुरी बना लेने के बाद किसी को खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े. लेकिन किन्हीं कमज़ोर क्षणों में मैंने वादा कर लिया था.
कुछ बातें मैं शुरू में ही साफ कर देना चाहता हूं. आप कृपया मेरे नाम –जावेद अख्तर- से प्रभावित न हों. मैं कोई रहस्य उजागर नहीं कर रहा. मैं तो वह बात कह रहा हूं जो मैं अनेक बार कह चुका हूं, लिखकर, टी वी पर या सार्वजनिक रूप से बोलकर, कि मैं नास्तिक हूं. मेरी कोई धार्मिक आस्थाएं नहीं हैं. निश्चय ही मैं किसी खास किस्म की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करता. खास किस्म की!
एक और बात! मैं यहां बैठे इस भद्र पुरुष की आलोचना करने, इनका विश्लेषण करने, या इन पर प्रहार करने खड़ा नहीं हुआ हूं. हमारे रिश्ते बहुत प्रीतिकर और शालीन हैं. मैंने हमेशा इन्हें अत्यधिक शिष्ट पाया है.
मैं तो एक विचार, एक मनोवृत्ति, एक मानसिकता की बात करना चाहता हूं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं.

मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब राजीव ने इस सत्र की शुरुआत की, एक क्षण के लिए मुझे लगा कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूं. इसलिए कि अगर हम कृष्ण, गौतम और कबीर, या विवेकानन्द के दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है. मैं इसी वक़्त बैठ जाता हूं. मैं यहां उस गौरवशाली अतीत पर बहस करने नहीं आया हूं जिस पर मेरे खयाल से हर हिन्दुस्तानी को, और उचित ही, गर्व है. मैं तो यहां एक सन्देहास्पद वर्तमान पर चर्चा करने आया हूं.

इण्डिया टुडे ने मुझे बुलाया है और मैं यहां आज की आध्यात्मिकता पर बात करने आया हूं. कृपया इस आध्यात्मिकता शब्द से भ्रमित न हों. एक ही नाम के दो ऐसे इंसान हो सकते हैं जो एक दूसरे से एकदम अलग हों. तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की. रामानंद सागर ने टेलीविज़न धारावाहिक बनाया. रामायण दोनों में है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुलसीदास और रामानंद सागर को एक करके देख लेना कोई बहुत अक्लमन्दी का काम होगा. मुझे याद आता है कि जब तुलसी ने रामचरितमानस रची, उन्हें एक तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. भला कोई अवधी जैसी भाषा में ऐसी पवित्र पुस्तक कैसे लिख सकता है? कभी-कभी मैं सोचता हूं कि किसम-किसम के कट्टरपंथियों में, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के क्यों न हों, कितनी समानता होती है! 1798 में, आपके इसी शहर में, शाह अब्दुल क़ादिर नाम के एक भले मानुस ने पहली बार क़ुरान का तर्ज़ुमा उर्दू में किया. उस वक़्त के सारे उलेमाओं ने उनके खिलाफ एक फतवा ज़ारी कर डाला कि उन्होंने एक म्लेच्छ भाषा में इस पवित्र पुस्तक का अनुवाद करने की हिमाक़त कैसे की! तुलसी ने रामचरितमानस लिखी तो उनका बहिष्कार किया गया. मुझे उनकी एक चौपाई याद आती है :
”धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ जौलाहा कहौ कोऊ.

काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारन सोऊ..
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ.
मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकू न दैबो को दोऊ..”


रामानंद सागर ने अपने धारावाहिक से करोड़ों की कमाई की. मैं उन्हें कम करके नहीं आंक रहा लेकिन निश्चय ही वे तुलसी से बहुत नीचे ठहरते हैं.
मैं एक और उदाहरण देता हूं. शायद यह ज़्यादा स्पष्ट और उपयुक्त हो. सत्य की खोज में गौतम महलों से निकले और जंगलों में गए. लेकिन आज हम देखते हैं कि वर्तमान युग के गुरु जंगल से निकलते हैं और महलों में जाकर स्थापित हो जाते हैं. ये विपरीत दिशा में जा रहे हैं. इसलिए हम लोग एक ही प्रवाह में इनकी बात नहीं कर सकते. इसलिए, हमें उन नामों की आड़ नहीं लेनी चाहिए जो हर भारतीय के लिए प्रिय और आदरणीय हैं.

जब मुझे यहां आमंत्रित किया गया तो मैंने महसूस किया कि हां, मैं नास्तिक हूं और किसी भी हालत में बुद्धिपरक रहने की कोशिश करता हूं. शायद इसीलिए मुझे बुलाया गया है. लेकिन, उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क़ भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं – “दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए.” वे ऐसा नहीं करते. इसलिए, देवियों और सज्जनों मैं एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यहां उस आध्यात्मिकता के बारे में बात करने आया हूं जो दुनिया के सुपरमार्केट में बिकाऊ है. हथियार, ड्रग्स और आध्यात्मिकता ये ही तो हैं दुनिया के तीन सबसे बड़े धन्धे. लेकिन हथियार और ड्रग्स के मामले में तो आपको कुछ करना पड़ता है, कुछ देना पड़ता है. इसलिए वह अलग है. यहां तो आप कुछ देते भी नहीं.
इस सुपर मार्केट में आपको मिलता है इंस्टैण्ट निर्वाण, मोक्ष बाय मेल, आत्मानुभूति का क्रैश कोर्स – चार सरल पाठों में कॉस्मिक कांशियसनेस. इस सुपर मार्केट की चेनें सारी दुनिया में मौज़ूद हैं, जहां बेचैन आभिजात वर्गीय लोग आध्यात्मिक फास्ट फूड खरीद सकते हैं. मैं इसी आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं.
प्लेटो ने अपने डायलॉग्ज़ में कई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कही हैं. उनमें से एक यह है कि किसी भी मुद्दे पर बहस शुरू करने से पहले शब्दों के अर्थ निश्चित कर लो. इसलिए, हम भी इस शब्द- ‘आध्यात्मिकता’ का अर्थ निश्चित कर लेने का प्रयत्न करते हैं. अगर इसका अभिप्राय मानव प्रजाति के प्रति ऐसे प्रेम से है जो सभी धर्मों, जतियों, पंथों, नस्लों के पार जाता है, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं उसे मानवता कहता हूं. अगर इसका अभिप्राय पेड़-पौधों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों और पशुओं के प्रति, यानि मानवेत्तर विश्व से प्रेम से है, तो भी मुझे क़तई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं इसे पर्यावरणीय चेतना कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का मतलब विवाह, अभिभावकत्व, ललित कलाओं, न्यायपालिका, अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रति हार्दिक सम्मान का नाम है? मुझे भला क्या असहमति हो सकती है श्रीमान? मैं इसे नागरिक ज़िम्मेदारी कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भीतर उतरकर स्वयं की ज़िन्दगी का अर्थ समझना है? इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैं इसे आत्मान्वेषण या स्व-मूल्यांकन कहता हूं. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ योग है? पतंजलि की कृपा से, जिन्होंने हमें योग, यम, यतम, आसन, प्राणायाम के मानी समझाए, हम इसे किसी भी नाम से कर सकते हैं. अगर हम प्राणायाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है. मैं इसे हेल्थ केयर कहता हूं. फिजीकल फिटनेस कहता हूं.

तो अब मुद्दा सिर्फ अर्थ विज्ञान का है. अगर यही सब आध्यात्मिकता है तो फिर बहस किस बात पर है? जिन तमाम शब्दों का प्रयोग मैंने किया है वे अत्यधिक सम्मानित और पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए शब्द हैं. इनमें कुछ भी अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है. तो फिर इस शब्द- आध्यात्मिकता- पर इतनी ज़िद क्यों? आखिर आध्यात्मिकता शब्द में ऐसा क्या है जो इन शब्दों में नहीं सिमट आया है? वो ऐसा आखिर है क्या?
पलटकर कोई मुझी से पूछ सकता है कि आपको इस शब्द से क्या परेशानी है? क्यों मैं इस शब्द को बदलने, त्यागने, छोड़ देने, बासी मान लेने का आग्रह कर रहा हूं. आखिर क्यों? मैं आपको बताता हूं कि मेरी आपत्ति किस बात पर है. अगर आध्यात्मिकता का अर्थ इन सबसे है तो फिर बहस की कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ और है जो मुझे परेशान करता है. शब्द कोष में आध्यात्मिकता शब्द, -स्पिरिचुअलिटी- की जड़ें आत्मा, स्पिरिट में हैं. उस काल में जब इंसान को यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है या चपटी, तब उसने यह मान लिया था कि हमारा अस्तित्व दो चीज़ों के मेल से निर्मित है. शरीर और आत्मा. शरीर अस्थायी है. यह मरणशील है. लेकिन आत्मा, मैं कह सकता हूं, बायो डिग्रेडेबल है. आपके शरीर में लिवर है, हार्ट है, आंतें हैं, दिमाग है. लेकिन क्योंकि दिमाग शरीर का एक हिस्सा है और मन दिमाग के भीतर रहता है, वह घटिया है क्योंकि अंतत: शरीर के साथ दिमाग का भी मरना निश्चित है. लेकिन चिंता न करें, आप फिर भी नहीं मरेंगे, क्योंकि आप तो आत्मा हैं और क्योंकि आत्मा परम चेतस है, वह सदा रहेगी, और आपकी ज़िन्दगी में जो भी समस्याएं आती हैं वे इसलिए आती हैं कि आप अपने मन की बात सुनते हैं. अपने मन की बात सुनना बन्द कर दीजिए.. आत्मा की आवाज़ सुनिए – आत्मा जो कॉस्मिक सत्य को जानने वाली सर्वोच्च चेतना है. ठीक है. कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी: “अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं”. और भी गुरु हैं जिन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं होता है कि आप जूते बाहर नहीं छोड़ते. लेकिन दिमाग?.....नहीं.

अब, अगर आप अपना दिमाग ही बाहर छोड़ देते हैं तो फिर क्या होगा? आपको ज़रूरत होगी ऐसे गुरु की जो आपको चेतना के अगले मुकाम तक ले जाए. वह मुकाम जो आत्मा में कहीं अवस्थित है. वह सर्वोच्च चेतना तक पहुंच चुका है. उसे परम सत्य ज्ञात है. लेकिन क्या वह आपको बता सकता है? जी नहीं. वह आपको नहीं बता सकता. तो, अपना सत्य आप खुद ढूंढ सकेंगे?. जी नहीं. उसके लिए आपको गुरु की सहायता की ज़रूरत होगी. आपको तो उसकी ज़रूरत होगी लेकिन वह आपको इस बात की गारण्टी नहीं दे सकता कि आपको परम सत्य मिल ही जाएगा... और यह परम सत्य है क्या? कॉस्मिक सत्य क्या है? जिसका सम्बन्ध कॉस्मॉस यानि ब्रह्माण्ड से है? मुझे तो अब तक यह समझ में नहीं आया है. जैसे ही हम अपने सौर मण्डल से बाहर निकलते हैं, पहला नक्षत्र जो हमारे सामने आता है वह है अल्फा सेंचुरी, और वह हमसे केवल चार प्रकाश वर्ष दूर है. उससे मेरा क्या रिश्ता बनता है? क्यों बनता है?
तो, राजा ने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं जो सिर्फ बुद्धिमानों को ही दिखाई देते हैं. और राजा लगातार बड़ा होता जा रहा है. और ऐसे बुद्धिमानों की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है जिन्हें राजा के ये कपड़े दिखाई दे रहे हैं और जो उनकी तारीफ करते हैं. मैं सोचता था कि आध्यात्मिकता दरअसल धार्मिक लोगों की दूसरी रक्षा पंक्ति है. जब वे पारम्परिक धर्म से लज्जित अनुभव करने लगते हैं, जब यह बहुत चालू लगने लगता है तो वे कॉस्मॉस या परम चेतना के छद्म की ओट ले लेते हैं. लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है. इसलिए कि पारम्परिक धर्म और आध्यात्मिकता के अनुयायीगण अलग-अलग हैं. आप ज़रा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिह्नित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे मार्क्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है.
आप देखेंगे कि इनके अनुयायी खासे खाते-पीते लोग है, समृद्ध वर्ग से हैं. ठीक है. गुरु को भी सत्ता मिलती है, ऊंचा कद और पद मिलता है, सम्पत्ति मिलती है..(जिसका अधिक महत्व नहीं है), शक्ति मिलती है और मिलती है अकूत सम्पदा. और भक्तों को क्या मिलता है? जब मैंने ध्यान से इन्हें देखा तो पाया कि इन भक्तों की भी अनेक श्रेणियां हैं. ये सभी एक किस्म के नहीं हैं. अनेक तरह के अनुयायी, अनेक तरह के भक्त. एक वह जो अमीर है, सफल है, ज़िन्दगी में खासा कामयाब है, पैसा कमा रहा है, सम्पदा बटोर रहा है. अब, क्योंकि उसके पास सब कुछ है, वह अपने पापों का शमन भी चाहता है. तो गुरु उससे कहता है कि “तुम जो भी कर रहे हो, वह निष्काम कर्म है. तुम तो बस एक भूमिका अदा कर रहे हो, यह सब माया है, तुम जो यह पैसा कमा रहे हो और सम्पत्ति अर्जित कर रहे हो, तुम इसमें भावनात्मक रूप से थोड़े ही संलग्न हो. तुम तो बस एक भूमिका निबाह रहे हो.. तुम मेरे पास आओ, क्योंकि तुम्हें शाश्वत सत्य की तलाश है. कोई बात नहीं कि तुम्हारे हाथ मैले हैं, तुम्हारा मन और आत्मा तो शुद्ध है”. और इस आदमी को अपने बारे में सब कुछ अच्छा लगने लगता है. सात दिन तक वह दुनिया का शोषण करता है और सातवें दिन के अंत में जब वह गुरु के चरणों में जाकर बैठता है तो महसूस करता है कि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं.

लोगों का एक और वर्ग है. ये लोग भी धनी वर्ग से हैं. लेकिन ये पहले वर्ग की तरह कामयाब लोग नहीं हैं. आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि “कौन कहता है कि तुम नाकामयाब हो? तुम्हारे पास और भी तो बहुत कुछ है. तुम्हारे पास ज़िन्दगी का एक मक़सद है, तुम्हारे पास ऐसी संवेदना है जो तुम्हारे भाई के पास नहीं है. क्या हुआ जो वह खुद को कामयाब समझता है? वह कामयाब थोड़े ही है. तुम्हें पता है, यह दुनिया बड़ी क्रूर है. दुनिया बड़ी ईमानदारी से तुम्हें कहती है कि तुम्हें दस में से तीन नम्बर मिले हैं. दूसरे को तो सात मिले हैं. ठीक है. वे तुम्हारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे.” तो इस तरह इसे करुणा मिलती है, सांत्वना मिलती है. यह एक दूसरी तरह का खेल है.
एक और वर्ग. मैं इस वर्ग के बारे में किसी अवमानना या श्रेष्ठता के भाव के साथ बात नहीं कर रहा. और न मेरे मन में इस वर्ग के प्रति कोई कटुता है, बल्कि अत्यधिक सहानुभूति है क्योंकि यह वर्ग आधुनिक युग के गुरु और आज की आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा अनुयायी है. यह है असंतुष्ट अमीर बीबियों का वर्ग.

एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक उदासीन पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? कुछ बच्चे! वह डूबा है अपने काम धन्धे में, या दूसरी औरतों में. इस औरत को तलाश है एक कन्धे की. इसे पता है कि यह एक अस्तित्ववादी असफलता है. आगे भी कोई उम्मीद नहीं है. उसकी ज़िन्दगी एक विराट शून्य है; एकदम खाली, सुविधाभरी लेकिन उद्देश्यहीन. दुखद किंतु सत्य!
और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुज़र जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है: “आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?” किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि “यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है”. तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि “मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है”. आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है. ज़िन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है.
आपमें से कोई मुझसे पूछ सकता है कि अगर इन्हें कुछ खुशी मिल रही है, कुछ शांति मिल रही है तो आपको क्या परेशानी है? मुझे अपनी पढ़ी एक कहानी याद आती है. किसी संत की कही एक पुरानी कहानी है. एक भूखे कुत्ते को एक सूखी हड्डी मिल जाती है. वह उसी को चबाने की कोशिश करने लगता है और इसी कोशिश में अपनी जीभ काट बैठता है. जीभ से खून आने लगता है. कुत्ते को लगता है कि उसे हड्डी से ही यह प्राप्त हो रहा है. मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं नहीं चाहता कि ये समझदार लोग ऐसा बर्ताव करें, क्योंकि मैं इनका आदर करता हूं. मानसिक शांति या थोड़ा सुकून तो ड्रग्स या मदिरा से भी मिल जाता है लेकिन क्या वह आकांक्ष्य है? क्या आप उसकी हिमायत करेंगे? जवाब होगा, नहीं. ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज़ एक मृग तृष्णा है. मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है. अगर आप यह साइकिल चलाएं, आप गिरेंगे नहीं. लेकिन बड़े हो गए लोग तीन पहियों की साइकिलें नहीं चलाया करते. वे दो पहियों वाली साइकिलें चलाते हैं, चाहे कभी गिर ही क्यों न जाएं. यही तो ज़िन्दगी है.

एक और वर्ग है. ठीक उसी तरह का जैसा गोल्फ क्लब जाने वालों का हुआ करता है. वहां जाने वाला हर व्यक्ति गोल्फ का शौकीन नहीं हुआ करता. ठीक उसी तरह हर वह इंसान जो आश्रम में नज़र आता है, आध्यात्मिक नहीं होता. एक ऐसे गुरु के, जिनका आश्रम दिल्ली से मात्र दो घण्टे की दूरी पर है, घनघोर भक्त एक फिल्म निर्माता ने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे भी उनके गुरु के पास जाना चाहिए. वहां मुझे दिल्ली की हर बड़ी हस्ती के दीदार हो जाएंगे. सच तो यह है कि वे गुरु जी निर्माणाधीन दूसरे चन्द्रास्वामी हैं. तो, यह तो नेटवर्किंग के लिए एक मिलन बिन्दु है. ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है जो आध्यात्मिक या धार्मिक हैं और फिर भी भले इंसान हैं. इसकी वजह है. मैं मानता हूं कि किसी भी भाव या अनुभूति की तरह आपकी भी एक सीमा होती है. आप एक निश्चित दूरी तक ही देख सकते हैं. उससे आगे आप नहीं देख सकते. आप एक खास स्तर तक ही सुन सकते हैं, उससे परे की ध्वनि आपको सुनाई नहीं देगी. आप एक खास मुकाम तक ही शोक मना सकते हैं, दर्द हद से बढ़ता है तो खुद-ब-खुद दवा हो जाता है. एक खास बिन्दु तक आप प्रसन्न हो सकते हैं, उसके बाद वह प्रसन्नता भी प्रभावहीन हो जाती है. इसी तरह, मैं मानता हूं कि आपके भलेपन की भी एक निश्चित सीमा है. आप एक हद तक ही भले हो सकते हैं, उससे आगे नहीं. अब कल्पना कीजिए कि हम किसी औसत इंसान में इस भलमनसाहत की मात्रा दस इकाई मानते हैं. अब हर कोई जो मस्जिद में जाकर पांच वक़्त नमाज़ अदा कर रहा है वह इस दस में से पांच इकाई की भलमनसाहत रखता है, जो किसी मदिर में जाता है या गुरु के चरणों में बैठता है वह तीन इकाई भलमनसाहत रखता है. यह सारी भलमनसाहत निहायत गैर उत्पादक किस्म की है. मैं इबादतगाह में नहीं जाता, मैं प्रार्थना नहीं करता. अगर मैं किसी गुरु के पास, किसी मस्जिद या मंदिर या चर्च में नहीं जाता तो मैं अपने हिस्से की भलमनसाहत का क्या करता हूं? मुझे किसी की मदद करनी होगी, किसी भूखे को खाना खिलाना होगा, किसी को शरण देनी होगी. वे लोग जो अपने हिस्से की भलमनसाहत को पूजा-पाठ में, धर्म या आध्यात्म गुरुओं के मान-सम्मान में खर्च करने के बाद भी अगर कुछ भलमनसाहत बचाए रख पाते हैं, तो मैं उन्हें सलाम करता हूं.
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि अगर धार्मिक लोगों के बारे में मेरे विचार इस तरह के हैं तो तो फिर मैं कृष्ण, कबीर या गौतम के प्रति इतना आदर भाव कैसे रखता हूं? आप ज़रूर पूछ सकते हैं. मैं बताता हूं कि क्यों मेरे मन में उनके प्रति आदर है. इन लोगों ने मानव सभ्यता को समृद्ध किया है. इनका जन्म इतिहास के अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ. लेकिन एक बात इन सबमें समान थी. ये अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए. ये दलितों के लिए लड़े. चाहे वह रावण हो, कंस हो, कोई बड़ा धर्म गुरु हो या गांधी के समय में ब्रिटिश साम्राज्य या कबीर के वक़्त में फिरोज़ शाह तुग़लक का धर्मान्ध साम्राज्य हो, ये उसके विरुद्ध खड़े हुए.
और जिस बात पर मुझे ताज़्ज़ुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान और सत्ता की स्वीकृति हो. लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं जिसने गुजरात के पीड़ितों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो. ये सब भी तो आखिर इंसान हैं.
मान्यवर, यह काफी नहीं है कि अमीरों को यह सिखाया जाए कि वे सांस कैसे लें. यह तो अमीरों का शगल है. पाखण्डियों की नौटंकी है. यह तो एक दुष्टता पूर्ण छद्म है. और आप जानते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इस छद्म के लिए एक खास शब्द है, और वह शब्द है: होक्स(HOAX). हिन्दी में इसे कहा जा सकता है, झांसे बाजी!.
धन्यवाद.
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इण्डिया टुडे कॉनक्लेव में दिनांक 26 फरवरी, 2005 को ‘स्पिरिचुअलिटी, हलो ऑर होक्स’ सत्र में दिया गया व्याख्यान.

Sunday, September 21, 2008

व्यवस्था का सच

कल्पना कीजिए एक ऐसे देश की जहां यह सोचना तक अपराध माना जाए कि कोई अपराध हुआ है. और फिर भी अगर आप ऐसा सोच लें तो उसे देश के प्रति काबिले-सज़ा अपराध मान लिया जाए और आपको या तो किसी दूरस्थ दुर्गम प्रदेश में सश्रम कारावास दे दिया जाए या फिर बिना सुनवाई के ही खत्म कर दिया जाए. एक ऐसा देश जहां आपके पडौसी ही आपको देशद्रोही घोषित कर सकते हों या पुलिस बिना किसी वजह के आपके घर की तलाशी ले सकती हो. ऐसा देश जहां कोई भी, आपका अपना परिवार तक, भरोसे के काबिल न हो. कहां है ऐसा देश? ऐसा देश है 28 वर्षीय लन्दन निवासी लेखक टॉम रॉब स्मिथ के हाल ही में प्रकाशित और बहुचर्चित उपन्यास चाइल्ड 44 में.

विज्ञान कथा लेखक जेफ नून की एक कहानी का रूपांतर करते हुए 28 वर्षीय टॉम रॉब स्मिथ का सामना एक रूसी सीरियल किलर आन्द्रेई चिकातिलो के वृत्तांत से हुआ. चिकातिलो ने 50 से ज़्यादा औरतों और बच्चों की हत्या की थी. 1944 में उसे फांसी हुई. इस वृत्तांत ने स्मिथ को पचास के दशक के स्टालिन कालीन सोवियत रूस के जीवन पर आधारित यह उपन्यास लिखने को प्रेरित किया. बकौल स्मिथ, यह उपन्यास उनके तीन उपन्यासों की श्रंखला में पहला है. इन दिनों वे इस श्रंखला के दूसरे उपन्यास पर काम कर रहे हैं.

उपन्यास चाइल्ड 44 की कथा का केन्द्रीय चरित्र है एम जी बी (रूसी गुप्तचर संस्था) का एक अफसर लियो स्टेपानोविच. लियो अपनी सरकार और उसकी नीतियों में शत प्रतिशत विश्वास रखता है. सरकार जिस किस्म की अन्धी वफादारी अपने नागरिकों से चाहती है, उसमें उसे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन, स्टालिन कालीन रूस में होता यह है कि शिकारी खुद ही शिकार हो जाता है. अफसर लियो को इन अफवाहों का खात्मा करने का आदेश मिलता है कि उसके एक जूनियर सहकर्मी फ्योदोर के चार वर्षीय बेटे की हत्या हुई है. इस मृत्यु के बारे में सरकारी रिपोर्ट में कहा गया था कि यह रेल की पटरियों पर हुई एक सामान्य दुर्घटना है, जबकि इस रिपोर्ट पर न फ्योदोर को भरोसा था न उनके पडौसियों को. उनका मानना था कि बालक के शव को रेल की पटरियों पर डालने से पहले उस पर नृशंस प्रहार किए गए थे. अफसर लियो, तत्कालीन सरकार की ही तरह, मानता है कि श्रमिकों के उस स्वर्णिम स्वर्ग में, जहां कि हर नागरिक को उसकी ज़रूरत की हर चीज़ सुलभ है, अपराध जैसी कोई चीज़ बची ही नहीं है. अगर कुछ बचा है तो वह है बाहर की दुनिया के भ्रष्टों के हमले. तो, सरकार का वफादार लियो अपनी ड्यूटी निबाहता हुआ फ्योदोर को सरकारी रिपोर्ट पर सन्देह करने के खतरों से आगाह करता है. जैसा उस समय का माहौल था, फ्योदोर चुप हो जाता है, लेकिन उसके मन में लियो के प्रति एक गांठ ज़रूर पड़ जाती है. एक दूसरे प्रकरण में, जब लियो की की हुई जांच और उसका निर्णय सन्देह के घेरे में आता है तो फ्योदोर को बदला लेने का मौका मिल जाता है.
कथा आगे बढती है. वह तर्क जो अब तक लियो दूसरों पर लागू करता रहा है, कि जो व्यक्ति किसी भी बात पर सन्देह करता है, वह स्वयं सन्दिग्ध होता है, दमनकारी शासन द्वारा खुद उस पर चस्पां कर दिया जाता है. उसकी निष्ठा की परख के लिए उसे आदेश दिया जाता है कि वह वह अपनी ही पत्नी रईसा की जासूसी करे. जांच की उलझन को भला लियो से ज़्यादा कौन समझ सकता है! अगर उसने यह कहा कि रईसा देश की वफादार नागरिक है तो वह खुद सन्देह के घेरे में आ जाएगा. उलझन का अंत होता है, स्टालिन की मौत से. उसके अनुचरों की अनिश्चित स्थिति इस दम्पती को बहुत हलके-से दण्ड के साथ भाग छूटने का मौका देती है. लियो को पदावनत करके एक उजाड शहर में भेज दिया जाता है. यह क्या कम है कि उसे अपने प्राणों से हाथ न धोना पड़ा. लेकिन जो ज़िन्दगी उसे और उसकी पत्नी को मिलती है वह भी कम त्रासद नहीं है. अब धीरे-धीरे उस पर यह राज़ खुलता है कि अब तक वो जो मानता रहा है वह मिथ्या था. उसका काम कानून का निर्वाह कराने का था ही नहीं. वहीं उसे अनेक अपराधों और अपराधियों का पता चलता है. लेकिन तब भी, यह कहना कि अपराधी विद्यमान हैं, मुमकिन नहीं क्योंकि तब भी यही माना जाता था कि अपराधी तो पतनशील पूंजीवादी व्यवस्था में ही होते हैं, श्रमिकों के स्वर्ग में नहीं.
इसके बाद कथाकार इस दम्पती को असल हत्यारे की तलाश में लगा देता है और यहीं से उपन्यास एक थ्रिलर की गति पकड़ता है.
पूरा उपन्यास उस व्यवस्था की विसंगतियां उभारता है जिसका मानना है कि सन्दिग्ध को इतना सताओ कि वह अपना अपराध कुबूल कर ले. यह इसी व्यवस्था की विसंगति है कि असल अपराधी बच निकलते हैं. कथानायक लियो इस विसंगति से वाक़िफ होने के बाद जैसे प्रायश्चित स्वरूप कुछ बेहतर करना चाहता है, और इसमें बेशक उसे पाठकों की पूरी हमदर्दी हासिल होती है.
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Discussed book:
Child 44
A novel by Tom Rob Smith
Published by: Grand Central Publishing
448 pages Hardcove.
US $ 24.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' में 21 सितम्बर, 2008 को प्रकाशित आलेख का असम्पादित रूप.









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Wednesday, September 10, 2008

सच्चाई ज़रूरी है आज के अतिवादी समय में

पुलिट्ज़र पुरस्कार विजेता पत्रकार रोन सस्किण्ड की हाल ही में प्रकाशित किताब ‘द वे ऑफ द वर्ल्ड: ए स्टोरी ऑफ ट्रुथ एण्ड होप इन एन एज ऑफ एक्स्ट्रीमिज़्म’ ने इन दिनों अमरीका को बड़ी असहज स्थिति में डाल रखा है. किताब में कुछ बेहद सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किए गए हैं. बात इतनी आगे बढ़ गई है कि सीनेट सेलेक्ट कमिटी ऑन इण्टेलीजेंस और हाउस ज्यूडिशियरी कमिटी को कहना पड़ा है कि रोन ने जो खुलासे किए हैं, उनकी पड़ताल की जाएगी. वैसे, जैसा इस तरह के मामलों में हमेशा होता है, सम्बद्ध पक्षों ने खण्डन का कर्मकाण्ड पूरा कर लिया है. आखिर रोन ने ऐसा क्या कह दिया है इस किताब में? रोन ने कहा है कि 2003 में व्हाइट हाउस ने अमरीकी गुप्तचर एजेंसी सी आई ए को आदेश दिया था कि वह ईराक़ और अल-कायदा की नज़दीकी प्रकट करने वाले जाली दस्तावेज़ तैयार और प्रचारित करे. आदेश का पालन करते हुए सी आई ए ने एक जाली पत्र तैयार किया. पत्र ईराक़ी गुप्तचर सेवा के प्रमुख हाब्बुश ने सद्दाम हुसैन को ‘लिखा’ था. एक जुलाई 2001 की तारीख वाले इस पत्र में कहा गया कि 9 सितम्बर की घटना के रिंग लीडर मोहम्मद अत्ता को इस काण्ड के लिए ईराक़ में प्रशिक्षित किया गया. रोन कहते हैं कि इस जाली पत्र ने व्हाइट हाउस की सारी समस्याएं हल कर दीं.
रोन की यह किताब अनेक दस्तावेज़ी साक्ष्यों के हवाले से बताती है कि बुश प्रशासन युद्ध के कई सप्ताह पहले ईराक़ी गुप्तचर सेवा के प्रमुख से यह जान चुका था कि ईराक़ के पास महाविनाश के हथियार नहीं हैं. लेकिन इस सच्चाई को झुठलाते हुए ईराक़ी गुप्तचर सेवा के प्रमुख से अमरीकियों को यह भरोसा दिलवाने वाला पत्र लिखवाया गया कि ईराक़ के पास महाविनाश के हथियार हैं और उसकी संलग्नता अल-क़ायदा के साथ है. अमरीका ने गुप्तचर सेवा प्रमुख को इस ‘सेवा’ के बदले पचास लाख डॉलर प्रदान किए.
ये और ऐसे अनेकानेक सनसनीखेज खुलासे करते हुए पुस्तक के लेखक रोन सस्किण्ड कहते हैं कि एक देश के रूप में अमरीका पथभ्रष्ट हो गया है और वह नैतिक सत्ता, जो कि उसके अस्तित्व का आधार है, उसके हाथ से फिसल चुकी है. रोन बेहद भावपूर्ण शब्दों में अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि इस समय की सबसे बड़ी चुनौती -आतंकवादियों के हाथों में आणविक हथियार– का सामना करने वाली नैतिक नेतृत्व क्षमता अमरीका खो चुका है. किताब के अनेक केन्द्रीय विचारों में से एक है कथनी और करनी के बीच की बढती खाई, अमरीकी सरकार और अधिकारियों द्वारा की जाने वाली नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें, हवाई वक्तव्य और उनके बरक्स उसकी काली करतूतें. किताब में एक जगह बेनज़ीर भुट्टो को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है, “रोन, मैं अपनी तमाम ज़िन्दगी इन प्रजातांत्रिक मूल्यों की बात करती रही हूं, लेकिन पिछले महीने ही मुझे उनकी ताकत का एहसास हुआ है.” किताब में खूब सारी घटनाएं और अनेक याद रह जाने वाले किरदार हैं. बेनज़ीर भुट्टो मुशर्रफ से पूछती हैं कि क्या उनकी जान की रक्षा की जाएगी? और इसके जवाब में मुशर्रफ कहते हैं कि “यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारे रिश्ते कैसे रहते हैं. इसे अच्छी तरह समझ लें.” रोन टिप्पणी करते हैं कि यह उत्तर किसी माफिया डॉन की धमकी जैसा लगता है. रोन यह भी बताते हैं कि अपने आखिरी दिनों में बेनज़ीर को यह समझ में आ गया था कि अमरीका ने आदर्श को एक तरफ रख कर अवैध सत्ता से हाथ मिलाते हुए उन्हें दर किनार करना शुरू कर दिया था.
किताब अमरीकी सरकार द्वारा मानवाधिकार हनन के अनेक प्रसंगों, और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर किए जाने वाले अगणित हमलों के प्रसंग उजागर करती हुई ऐसे अनेक चरित्रों को सामने लाती है जो अन्धेरे में रोशनी की मानिन्द हैं. ऐसा ही एक चरित्र है संयुक्त राष्ट्र संघ की शरणार्थी आयुक्त वेण्डी चेम्बरलिन का. वेण्डी कहती हैं, “अगर पूरे दिन के काम के बाद, शाम को आप यह पाएं कि आपने अपनी शपथ का पूरा निर्वाह किया है तो फिर आपका कोई शत्रु हो ही नहीं सकता, और अगर हो भी तो वह अपराजेय नहीं हो सकता.”
किताब आज के आपाधापी और मूल्यहीनता के समय में, जबकि सच्चाई, न्याय और जवाबदेही केवल शब्दों तक सिमट कर रह गई है नैतिक मूल्यों की ज़रूरत को बहुत प्रखरता से रेखांकित करती है.
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Discussed book:
The Way of the World: A Story of Truth and Hope in an Age of Extremism
By Ron Suskind
Published by Harper
432 pages , Hardcover
US $ 27.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' में 07 सितम्बर, 2008 को प्रकाशित आलेख का असम्पादित रूप.








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Sunday, August 10, 2008

जान लेवा भी साबित हो सकती हैं कुछ मेडिकल मिथ्स

चिकित्सा विषयक हज़ारों मिथ्स यानि मन-गढंत बातें सदियों से प्रचलित हैं. उन्हें इतनी बार दुहराया गया है कि वे हमें एकदम प्रामाणिक लगने लगी हैं. वर्तमान सूचना क्रांति ऐसी बातों के भण्डार में और भी वृद्धि करती जा रही है. अगणित वेब साइट्स पर ऐसी बहुत सारी जानकारियां, सूचनाएं और सलाहें सर्व सुलभ हैं जिनका कोई उचित आधार नहीं है. ऐसी बहुत सारी बातें फॉर्वर्डेड मेल्स के माध्यम से और भी अधिक प्रसारित होने लगी हैं. हम इन्हें प्रामाणिक मान कर अपनी या औरों की बेशकीमती ज़िन्दगी से निरंतर खिलवाड़ करते रहते हैं. पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय में कैंसर शल्यचिकित्सक और एन बी सी न्यूज़ की चीफ मेडिकल एडिटर डॉ नैंसी एल स्नाइडरमैन ने अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक “मेडिकल मिथ्स देट केन किल यू एण्ड द 101 ट्रुथ्स देट विल सेव, एक्सटेण्ड एंड इम्प्रूव युअर लाइफ” में सात खण्डों में बांटकर ऐसी ही 101 मनगढंत मिथ्स का परीक्षण किया है और हमें एक स्वस्थ जीवन शैली की राह दिखाई है.

स्नाइडरमैन कहती हैं कि ऐसी कुछ बातें मात्र बेहूदा होती हैं और कुछ पर्याप्त हानिप्रद, लेकिन हमें तो सभी पर विचार कर उनको कसौटी पर कसना चाहिए ताकि मिथ और यथार्थ को अलग कर हम अपनी ज़िन्दगी को न केवल बेहतर बना सकें, बल्कि बचा भी सकें. वे एक मिथ का ज़िक्र करती है जो यह सलाह देती है कि हार्ट अटैक के समय ज़ोर-ज़ोर से खांसना चाहिए. स्नाइडरमैन कहती हैं कि इस मिथ का कोई आधार नहीं है और यह सलाह प्राणघातक सिद्ध हो सकती है. एक अन्य मिथ, जो पिछले दिनों फॉर्वर्डेड मेल्स के कारण खूब प्रचारित हुई है यह बताती है कि खाना खाने के साथ या उसके बाद ज़्यादा ठण्डे पानी का प्रयोग कैंसर को बढावा देता है. मिथ के अनुसार, ठण्डा पानी भोजन में शामिल फैट यानि वसा को जमा देता है और जमी हुई फैट पेट की अम्ल से मिलकर कैंसर को बढावा देती है. स्नाइडरमैन के अनुसार यह एकदम बेहूदा मिथ है. ऐसी ही एक मिथ है कि कॉलेस्ट्रॉल घटाने की दवा से लिवर खराब होता है. लेखिका कम से कम आठ गिलास पानी रोज़ पीने वाली सलाह को भी ऐसी ही बेमानी मिथों में गिनती हैं. लेकिन एक दूसरी तरह की मिथ का खण्डन करती हुई वे यह बताना भी नहीं भूलती कि रक्तदान से हृदय रोग होने के खतरे में कमी आती है. इसी तरह वे इस मिथ का भी पुरज़ोर शब्दों में खण्डन करती हैं कि कान का मैल साफ करने के लिए रुई वाली डण्डी (कॉटन स्वाब) का प्रयोग किया जाना चाहिए. वे आगाह करती हैं कि इससे मैल कान में और गहरे धंस सकता है और उसकी परिणति श्रवण क्षमता में कमी में भी हो सकती है. इस मिथ का खण्डन वे एक मिथ बन चुकी मेडिकल सलाह से करती हैं, कि अपने कान में आप कुहनी से छोटी कोई चीज़ न डालें!

किताब में स्नाइडरमैन ने जिन सात मुख्य मिथों की चर्चा की है वे हैं: वार्षिक स्वास्थ्य परीक्षण बेमानी है, टीकाकरण केवल शिशुओं के लिए है, डॉक्टर कोई पक्षपात नहीं करते, हम कैंसर के खिलाफ लड़ाई हार रहे हैं, हृदय रोग और हृदयाघात सिर्फ बूढों को होता है, हर प्राकृतिक चीज़ सुरक्षित होती है, और मानसिक रोगों से छुटकारा आपके अपने वश की बात है. ये सारी मिथें आधारहीन हैं. इन्हीं सात विषयों पर चर्चा करते हुए स्नाइडरमैन ने 101 मिथों की चर्चा व परीक्षा की है. उनकी कुछ सलाहें ध्यान देने योग्य हैं :

-आप अपनी ज़रूरत, स्वास्थ्य और पारिवारिक इतिहास के अनुसार वार्षिक स्वास्थ्य परीक्षण ज़रूर कराएं.

-कोई भी टीका पूरी ज़िन्दगी प्रभावी नहीं रहता. तीस की उम्र के बाद बूस्टर डोज़ ज़रूरी हो जाती है. नए निकले वैक्सीनों की जानकारी भी लेते रहें.

-कैंसर कोई एक बीमारी नहीं, सैंकड़ों बीमारियों के समूह का नाम है. कैंसर के इलाज़ की दिशा अब उसके उपचार से हटकर नियंत्रण की तरफ है.

-हृदय रोग किसी भी उम्र में हो सकता है.
-यह कभी न समझें कि जो प्राकृतिक है, वह सदा ही सुरक्षित है. प्राकृतिक तो तम्बाकू भी है और संखिया भी. ये कहां सुरक्षित हैं? इसके विपरीत, वे बहुत सारी दवाइयां जो प्राकृतिक नहीं हैं, मानवता के लिए जीवन-रक्षक भी सिद्ध हुई हैं.

स्नाइडरमैन जहां ऐसी मिथ्स की बढती संख्या पर चिंतित होती हैं वहीं वे यह कहना भी नहीं भूलती कि बहुत सारी मिथ्स समय के साथ अपने आप नष्ट भी हो जाती हैं. जैसे, पहले यह माना जाता था कि बुखार के लिए कोई दवा नहीं ली जानी चाहिए लेकिन अब कोई ऐसा नहीं मानता. फिर भी, स्नाइडरमैन बहुत ज़ोर देकर यह कहती हैं कि बीमारियों के खिलाफ लड़ाई में हमारे दो सबसे बड़े दुश्मन हैं अज्ञान और निजी विश्वास. उनका कहना है कि इनसे मुक्ति पाकर हम बीमारियों के खतरों से पूरी तरह मुक्त भले ही न हो पाएं, उस राह पर अवश्य बढेंगे. वे सेल्फ डाइग्नोसिस को बहुत खतरनाक मानते हुए इससे बचने की सलाह देती हैं.

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Discussed book:
Medical Myths That Can Kill You: And the 101 Truths That Will Save, Extend, and Improve Your Life
By Nancy L. Md Snyderman
Published by: Crown
288 pages, Hardcover
US $ 24.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे नए पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' के अंतर्गत दिनांक 10 अगस्त 2008 को प्रकाशित आलेख का किंचित विस्तृत रूप.










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Thursday, July 24, 2008

अतार्किक व्यवहार का अदम्य आकर्षण

हम सोचते हैं कि मानव अधिकांश स्थितियों में बहुत बुद्धिसंगत तरीके से सोचते हैं, खास तौर पर व्यापार के मामलों में या कामकाजी जीवन जैसे मामलों में जहां बुद्दिसंगतता आवश्यक मानी जाती है. शेयर्स के भाव गिरते हैं, फिर भी आप उन्हें बेचने से बचते हैं. लोग मृत रिश्तों को भी ढोते रहते हैं. तमाम खतरों से परिचित होते हुए भी लोग प्रेम करने का दुस्साहस करते हैं. लेकिन ओरी और रोम ब्राफमान कहते हैं कि हम प्राय: बुद्धिसंगत तरीके से नहीं सोचते. अपनी नई किताब स्वे: द इर्रेसिस्टिबल पुल ऑफ इर्रेशनल बिहेवियर में ये ब्राफमान भ्राता, एक व्यापारी और दूसरा मनोवैज्ञानिक, इसी विधा की बहुचर्चित किताबों फ्रीकोनोमिक्स और ब्लिंक (दोनों किताबों की चर्चा इस कॉलम में की जा चुकी है) के विमर्श को आगे बढाते हुए एक बार फिर से मानव मन की अतल गहराइयों में उतर कर उसकी अतार्किकता की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं. मनुष्य के इसी इर्रेशनल यानि अतार्किक व्यवहार को उन्होंने स्वे करना कहा है, यानि डिगना, झूलना, झुकना.
ब्राफमान भ्राताओं ने अपनी किताब की शुरुआत एक प्रभावशाली उदाहरण से की है. 1977 में के एल एम का एक वायुयान दुर्घटनाग्रस्त हुआ था, जिसमें उसके 584 यात्री मारे गए थे. इस दुर्घटना को उडान इतिहास की भीषणतम दुर्घटना के रूप में स्मरण किया जाता है. लेखकों ने विश्लेषण करके बताया है कि रास्ता बदले जाने के बाद पायलट अपनी मंज़िल पर पहुंचने के बारे में इतना अधिक फोकस्ड था कि वह एक नितांत बेतुके निर्णय की तरफ स्वे कर गया जिसकी परिणति इस हादसे में हुई. किताब का प्रत्येक अध्याय किसी दिलचस्प विचार से प्रारम्भ होता है, और फिर कुछ ऐसी चर्चा की जाती है जो पहली नज़र में अतार्किक लगती है, लेकिन लेखक के विश्लेषण के बाद आप खुद सोचते हैं कि बात तो ठीक है.
सामाजिक मनोविज्ञान, व्यवहारवादी अर्थशास्त्र और संगठनात्मक व्यवहार के क्षेत्र में हुई नवीनतम शोधों के आधार पर हमारे जीवन के विविध क्षेत्रों के जिन महत्वपूर्ण स्वे’ज़ की चर्चा इस किताब में की गई है वे ये हैं:
-प्राय: हम सम्भावित नुकसानों के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा रिएक्ट कर जाते हैं और दूरगामी परिणामों की बजाय निकटगामी परिणामों पर अधिक केन्द्रित रहते हैं.

-कोई नुकसान जितना ही ज़्यादा अहम होता है हम उसके प्रति उतने ही विमुख रहते हैं यानि हम यह दिखाते हैं कि वह नुकसान हमें अधिक प्रभावित नहीं कर रहा.
-हम प्रतिबद्धता के व्यापक सम्मोहन से ग्रस्त रहते हैं. जब हम किसी रिश्ते, निर्णय या जीवन की स्थिति से लगाव महसूस करते हैं तो हमारे लिए यह बहुत मुश्किल होता है कि हम बेहतर उपलब्ध विकल्पों पर नज़र भी डालें.
-मनुष्यों में एक प्रवृत्ति यह होती है कि वे किसी व्यक्ति या वस्तु पर कुछ खास गुण आरोपित कर लेते हैं और ऐसा करते हुए अक्सर तथ्यों की अनदेखी कर जाते हैं. इसी को मूल्य आरोपण कहा जाता है.
-मनुष्यों में एक और प्रवृत्ति यह होती है कि आरम्भिक राय के आधार पर व्यक्तियों, वस्तुओं या विचारों पर लेबल लगा लेते हैं और फिर उस लेबल पर पुनर्विचार नहीं करते. इसे निदान का पूर्वाग्रह कहा जाता है.
-हम लोग दूसरों को डिगाते रहते हैं और दूसरों के कारण खुद भी डिगते रहते हैं. लेखकों ने इसे गिरगिटी प्रभाव नाम दिया है.
-लोग साफ सुथरा व्यवहार करना चाहते हैं और दूसरों से भी ऐसी ही आशा रखते हैं.

- हम किसी काम को या तो स्वार्थ की निगाह से परखते हैं या परोपकार की निगाह से. लेकिन एक साथ दोनों निगाहों से कभी नहीं देखते.
-समूह हमारी तर्क क्षमता को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं.
किताब के अंत में लेखक ने ऐसी अनेक युक्तियां सुझाई हैं जिनके प्रयोग से हम अपने बेतुके व्यवहार –या स्वे- पर काबू पा सकते हैं. लेकिन ये युक्तियां प्रभावी हो सकती हैं या नहीं, यह आपके नज़रिये पर निर्भर करता है. मुझे तो लगा कि ज़्यादातर युक्तियां नितांत सरलीकृत उपदेश हैं. जैसे, लेखक कहते हैं कि अपने बिगडे सोच पर, जो कि मूल्य आरोपण की परिणति होता है, पार पाने के लिए आप चीज़ों को उस रूप में देखें जैसी कि वे असल में हैं, न कि जैसी दिखाई देती हैं. सिद्धांतत: बात ठीक है, लेकिन इस पर अमल कितना सम्भव है? फिर भी, अगर इस तरह के आदर्शीकृत सुझावों की बात अलग छोड दें तो किताब की महता असंदिग्ध है, इसलिए कि इसके माध्यम से हम मानवीय व्यवहार को और अधिक बारीकी से समझ पाते हैं, अपने तथा औरों के अतार्किक व्यवहार की तह में जा सकते हैं और उसके प्रति अधिक सदय तथा सम्वेदनशील हो सकते हैं. इतना भी कम नहीं है.

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Discussed book:
Sway: The Irresistible Pull of Irrational Behaviour
By Ori Brafman & Rom Brafman
Published by: Doubleday Business
Hardcover, 224 pages
US $ 21.95








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Thursday, July 17, 2008

कामयाबी का राज़

स्टार ट्रैक के स्क्रिप्ट लेखक और स्टीफेन हॉकिंग की बहु चर्चित पुस्तक ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ के सह लेखक के रूप में सुविख्यात लिओनार्ड म्लोदिनोव की नई किताब द ड्रंकर्ड्स वॉक: हाउ रैण्डमनेस रूल्स अवर लाइव्ज़ यह बताती है कि हमारी ज़िन्दगी में संयोगों और आकस्मिकता की क्या अहमियत है. खुद म्लोदिनोव एक विश्वविद्यालय में भावी वैज्ञानिकों को रैण्डमनेस यानि बेतरतीबी के बारे में पढाते हैं. किताब बहुत दिलचस्प तरीके से हमें इस बात का एहसास कराती है कि दुनिया किस तरह चलती है, और इस बारे में हम जो जानते हैं, वह कितना अल्प है. इस किताब में म्लोदिनोव गुज़रे समय के महानतम लोगों से लगाकर आज के मामूली लोगों तक की ज़िन्दगी और क्रिया कलाप के अनेक प्रसंग सामने लाकर हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बेतरतीबी या आकस्मिकता, संयोग और सम्भाव्यता की भूमिका को उजागर करते हैं और यह बताते हैं कि कैसे एक साधारण बातचीत या किसी बडी आर्थिक क्षति- इन सबकी अहमियत को हम ग़लत तरह से ग्रहण करते हैं.

दर असल ड्रंकर्ड्स वॉक एक गणितीय अभिव्यक्ति है जो किसी तरतीब हीन गति को अभिव्यक्त करती है. इस अभिव्यक्ति को अपनी किताब का शीर्षक बना कर लेखक म्लोदिनोव ने कहना चाहा है कि हमारी ज़िन्दगी का अधिकांश पहले से केवल उतना ही पूर्वानुमेय होता है जितना किसी मधुशाला से ताज़ा-ताज़ा निकले लडखडाते आदमी के क़दम. यानि किसी शराबी के कदमों का बहुत कम पूर्वानुमान लगाया जा सकता है.
म्लोदिनोव अपनी किशोरावस्था को याद करते हैं और कहते हैं कि वे मोमबत्तियों की पीली लौ को बेतरतीबी से हिलते-डुलते देखा करते थे. तब वे सोचते कि मोमबत्तियों की लौ की हलचल में निश्चय ही कोई तार्किक क्रम होता है और वैज्ञानिक ज़रूर ही उस क्रम को समझ सकते होंगे. लेकिन उन्हीं दिनों उनके पिता ने उनसे कहा कि ज़िन्दगी ऐसी नहीं होती. कई बार बहुत कुछ ऐसा घट जाया करता है जिसकी पहले से कल्पना नहीं की जा सकती. खुद उनकी ज़िन्दगी का एक वाकया इस बात की पुष्टि करता है.

म्लोदिनोव के पिता एक नाज़ी यातना शिविर में क़ैद थे. जब भूख असहनीय हो गई तो उन्होंने एक बेकरी से डबल रोटी चुरा ली. बेकरी के मालिक और गेस्टापो ने मिलकर सारे संदिग्धों को एक क़तार में खडा कर पूछा कि डबलरोटी किसने चुराई है. जब किसी ने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया तो उन्होंने सैनिकों को हुक्म दिया कि वे इन लोगों को एक-एक करके उस वक़्त तक शूट करते रहें जब तक कोई अपना अपराध स्वीकार न कर ले या सारे ही मर न जाएं. ऐसे में दूसरों की जान-बचाने के लिए म्लोदिनोव के पिता आगे आए. बाद में उन्होंने अपने बेटे से कहा कि उन्होंने किसी महानता की वजह से ऐसा नहीं किया. इसलिए किया कि मरना तो हर हाल में था: ज़ुर्म कुबूल करके भी, चुप रहके भी. पिता को बेकरी वाले ने एक अच्छी नौकरी पर अपने सहायक के तौर पर रख लिया. पिता ने म्लोदिनोव से कहा कि यह सब संयोग नहीं तो और क्या था? अगर ऐसा न होकर कुछ भी और हुआ होता तो तुम्हारा जन्म ही नहीं हुआ होता. यानि तुम्हारे जन्म में तुम्हारी तो कोई भूमिका नहीं थी. इसी क्रम को आगे बढाते हुए खुद म्लोदिनोव ने सोचा कि उन्हें तो अपने होने के लिए हिटलर का आभारी होना चाहिए क्योंकि जर्मनों ने उनके पिता की पत्नी और दो बच्चों को मारकर उनकी पिछली ज़िन्दगी की स्लेट को पोंछ दिया था. अगर युद्ध न हुआ होता और उनके पिता ने न्यूयॉर्क पलायन न किया होता तो म्लोदिनोव की मां से उनकी मुलाक़ात ही न हुई होती. और तब उनके दो भाइयों का जन्म ही न हुआ होता.

निजी अनुभवो से हटकर एक सार्वजनिक प्रसंग के माध्यम से भी म्लोदिनोव यही बात कहते हैं. वे कहते हैं कि आज जे के रॉलिंग की हैरी पॉटर की लोकप्रियता असन्दिग्ध है. लेकिन प्रकाशकों ने इसे एक-दो नहीं पूरे नौ बार अस्वीकृत किया था. हम हिन्दुस्तानी चाहें तो अमिताभ बच्चन के शुरुआती दौर को भी याद कर सकते हैं जब उनकी आवाज़ और कद काठी को अस्वीकार किया गया था. इसीलिए म्लोदिनोव कहते हैं कि किसी फिल्म की सफलता-असफलता ऐसे बहुत सारे तत्वों पर निर्भर करती है जिन पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं होता.

यही वजह है कि म्लोदिनोव कहते हैं कि हमारी ज़िन्दगी की रूपरेखा तो मोमबत्ती की लौ की मानिन्द होती है. बहुत सारी आकस्मिक घटनाएं, जैसे हवा के झोंके, उस लौ को अनेकानेक दिशाओं की तरफ धकेलती हैं और उनके मुक़ाबिल खुद लौ का अस्तित्व उसका भविष्य तै करता है. इसलिए न तो ज़िन्दगी की दिशा और उसकी गति की कोई व्याख्या की जा सकती है और न उसका पूर्वानुमान किया जा सकता है.

म्लोदिनोव कहते हैं कि ऐसी तमाम अनिश्चितताओं के बीच समझदारीपूर्ण निर्णय करना और सही विकल्प चुनना खास तरह की दक्षता की मांग करता है, और दूसरी सारी दक्षताओं की तरह इस दक्षता को भी अनुभव व श्रम से निरंतर विकसित किया जा सकता है. लेकिन, याद रखें, ज़िन्दगी के खेल में भले ही कुछ खिलाडी दूसरों से बेहतर हों, उनकी हार-जीत में रैण्डमनेस की भूमिका सर्वोपरि होती है.

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Discussed book:
The Drunkard’s Walk: How Randomness Rules Our Lives
By Leonard Mlodinow
Published by Pantheon
Hardcover, 272 pages
US $ 24.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 17 जुलाई, 2008 को प्रकाशित.








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Thursday, July 10, 2008

मानवीय इतिहास के सबसे खतरनाक क्षण को याद करते हुए

अब तक यह माना जाता रहा है कि 1962 के मिसाइल क्राइसिस के बारे में जितना लिखा जा सकता था, सब लिखा जा चुका है. लेकिन हाल ही में प्रकाशित वाशिंगटन पोस्ट के अनुभवी रिपोर्टर माइकेल डॉब्ब्स की किताब वन मिनट टु मिडनाइट: केनेडी, ख्रुश्चेव, एण्ड कास्त्रो ऑन द ब्रिंक ऑफ न्युक्लियर वार को पढकर लगता है कि काफी कुछ अब तक अनकहा और अनजाना ही था. बेलफास्ट, आयरलैण्ड में जन्मे माइकेल डॉब्ब्स का ज़्यादा समय साम्यवाद के पतन का अध्ययन करने में बीता है और उनकी एक किताब ‘डाउन विद बिग ब्रदर: द फॉल ऑफ सोवियत एम्पायर’ 1997 के पेन अवार्ड्स की अंतिम सूची तक पहुंच चुकी है.

अक्टूबर, 1962 में, जब शीत युद्ध अपने उफान पर था, संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ क्यूबा में मिसाइलों की तैनाती के मुद्दे पर तेज़ी से आणविक संघर्ष की दिशा में बढते प्रतीत हो रहे थे. डॉब्ब्स ने अब तक अछूते अमरीकी, सोवियत और क्यूबाई दस्तावेजों, साक्ष्यों और चित्रों को खंगाल कर क्यूबाई मिसाइल संकट पर अब तक की सर्वाधिक आधिकारिक पुस्तक की रचना की है. कुछ चौंकाने वाले नए प्रसंग उजागर कर डॉब्ब्स यह बताने में पूरी तरह सफल होते हैं कि दुनिया महायुद्ध और महाविनाश के कितना नज़दीक पहुंच गई थी.

इस किताब में पहली बार हमें गुआण्टानामो स्थित अमरीकी नौसैनिक ठिकानों को तबाह कर डालने के ख्रुश्चेव के इरादों का दिल दहला देने वाला वृत्तांत पढने को मिलता है. यह भी पढने को मिलता है कि कैसे गलती से एक अमरीकी जासूसी वायुयान सोवियत संघ के आकाश में उडान भरने लगा था. क्यूबा में सी आई ए एजेण्ट्स की गतिविधियों और एक अमरीकी टी 106 जेट वायुयान की, जिसमें आणविक हथियार भरे थे, क्रैश लैण्डिंग का ब्यौरा भी हमें पढने को मिलता है.

डॉब्ब्स हमें व्हाइट हाउस और क्रेमलिन के भीतर ले जाते हैं और हम यह जान पाते हैं कि किस तरह विचारधारात्मक सन्देहों ने केनेडी और ख्रुश्चेव जैसे विवेकी और बुद्धिमान नेताओं के बीच की दूरियां बढा दीं और कैसे वे युद्ध की आशंका से व्यथित हुए. हम देखते हैं कि ये दोनों नेता आणविक युद्ध की भयावह हक़ीक़तों को पहचानते हैं, लेकिन दूसरी तरफ कास्त्रो हैं जो वैसे तो कभी भी पारम्परिक राजनीतिक सोच के प्रवाह में नहीं बहते, लेकिन एक मसीही सपना पाले रहते हैं कि उन्हें तो इतिहास ने एक खास मिशन के लिए चुना है. जैसे-जैसे नए प्रसंग उजागर होते हैं, डॉब्ब्स हमें क्यूबा की निगरानी कर रहे अमरीकी जहाजों के डैक्स पर ले जाते हैं, मियामी की गलियों की सैर कराते हैं जहां कास्त्रो विरोधी निर्वासित उनके तख्ता पलट की योजना बनाने में जुटे हैं.
डॉब्ब्स बताते हैं कि ख्रुश्चेव कास्त्रो को ‘एक बेटे की तरह’ प्यार करते थे, लेकिन साथ ही उनकी भावनात्मक स्थिरता के बारे में आशंकित भी रहते थे. इसीलिए वे कास्त्रो के हाथों में आणविक हथियार सौंपने को तैयार नहीं थे. और जहां तक कास्त्रो का सवाल है, उनकी पूरी रणनीति ही चुनौती पर आधारित थी. वे अपने शत्रुओं के समक्ष ज़रा भी कमज़ोर नहीं पडना चाहते थे. वे किसी मक़सद के लिए अपने देशवासियों को साथ लेकर मरने को तैयार थे. अगर मौका आता, वे क्यूबा की धरती पर अमरीकी घुसपैठ रोकने के लिए आणविक युद्ध शुरू करने की अनुमति देने में क़तई नहीं हिचकिचाते.
डॉब्ब्स ने यह किताब नई पीढी के पाठकों को 27 अक्टूबर 1962 के उस स्याह शुक्रवार की तथा उसकी पूर्ववर्ती घटनाओं की जानकारी देने के लिए लिखी है, जिसे इतिहासकार आर्थर एम श्लेसिंगर ने मानवीय इतिहास का सबसे खतरनाक क्षण कह कर पुकारा था. किताब अमरीकी, रूसी और क्यूबाई तीनों पक्षों के चरित्रों के मानवीय पक्ष को बखूबी उभारती है. इससे पता चलता है कि असल संकट केनेडी और ख्रुश्चेव के सीधे टकराव का नहीं था. संकट तो पैदा हुआ एक के बाद एक अप्रत्याशित रूप से घटित होने वाली घटनाओं के कारण. और फिर जब एक बार युद्ध के नगाडे बजने ही लग गए तो उन्हें रोकना किसी के भी वश में नहीं रह गया. उस स्याह शुक्रवार को, जब दोनों ही पक्षों को महसूस हुआ कि अब स्थितियों पर उनकी पकड नहीं रह गई है तो बजाय टकराने के, वे एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में चले गए. केनेडी पर यह दबाव डाला जा रहा था कि वे प्रक्षेपास्त्रों के ठिकानों पर बमबारी करें और क्यूबा पर हमला कर दें. समझा जा सकता है कि अगर उन्होंने ऐसा कर दिया होता तो तो सोवियत संघ भी अमरीकी आक्रामक ताकतों का सामना अपने आणविक हथियारों से ज़रूर करता. फिर क्या हुआ होता, इसकी कल्पना ही हमें दहशत से भर देती है.

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Discussed book:
One Minute to Midnight: Kennedy, Khrushchev, and Castro on the Brink of Nuclear War
By Michael Dobbs
Published by: Knopf Publishing Group
Hardcover, 448 pages
US $ 28.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 10 जुलाई, 2008 को प्रकाशित.






मानवीय इतिहास के सबसे खतरनाक क्षण को याद करते हुए


अब तक यह माना जाता रहा है कि 1962 के मिसाइल क्राइसिस के बारे में जितना लिखा जा सकता था, सब लिखा जा चुका है. लेकिन हाल ही में प्रकाशित वाशिंगटन पोस्ट के अनुभवी रिपोर्टर माइकेल डॉब्ब्स की किताब वन मिनट टु मिडनाइट: केनेडी, ख्रुश्चेव, एण्ड कास्त्रो ऑन द ब्रिंक ऑफ न्युक्लियर वार को पढकर लगता है कि काफी कुछ अब तक अनकहा और अनजाना ही था. बेलफास्ट, आयरलैण्ड में जन्मे माइकेल डॉब्ब्स का ज़्यादा समय साम्यवाद के पतन का अध्ययन करने में बीता है और उनकी एक किताब ‘डाउन विद बिग ब्रदर: द फॉल ऑफ सोवियत एम्पायर’ 1997 के पेन अवार्ड्स की अंतिम सूची तक पहुंच चुकी है.

अक्टूबर, 1962 में, जब शीत युद्ध अपने उफान पर था, संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ क्यूबा में मिसाइलों की तैनाती के मुद्दे पर तेज़ी से आणविक संघर्ष की दिशा में बढते प्रतीत हो रहे थे. डॉब्ब्स ने अब तक अछूते अमरीकी, सोवियत और क्यूबाई दस्तावेजों, साक्ष्यों और चित्रों को खंगाल कर क्यूबाई मिसाइल संकट पर अब तक की सर्वाधिक आधिकारिक पुस्तक की रचना की है. कुछ चौंकाने वाले नए प्रसंग उजागर कर डॉब्ब्स यह बताने में पूरी तरह सफल होते हैं कि दुनिया महायुद्ध और महाविनाश के कितना नज़दीक पहुंच गई थी.

इस किताब में पहली बार हमें गुआण्टानामो स्थित अमरीकी नौसैनिक ठिकानों को तबाह कर डालने के ख्रुश्चेव के इरादों का दिल दहला देने वाला वृत्तांत पढने को मिलता है. यह भी पढने को मिलता है कि कैसे गलती से एक अमरीकी जासूसी वायुयान सोवियत संघ के आकाश में उडान भरने लगा था. क्यूबा में सी आई ए एजेण्ट्स की गतिविधियों और एक अमरीकी टी 106 जेट वायुयान की, जिसमें आणविक हथियार भरे थे, क्रैश लैण्डिंग का ब्यौरा भी हमें पढने को मिलता है.

डॉब्ब्स हमें व्हाइट हाउस और क्रेमलिन के भीतर ले जाते हैं और हम यह जान पाते हैं कि किस तरह विचारधारात्मक सन्देहों ने केनेडी और ख्रुश्चेव जैसे विवेकी और बुद्धिमान नेताओं के बीच की दूरियां बढा दीं और कैसे वे युद्ध की आशंका से व्यथित हुए. हम देखते हैं कि ये दोनों नेता आणविक युद्ध की भयावह हक़ीक़तों को पहचानते हैं, लेकिन दूसरी तरफ कास्त्रो हैं जो वैसे तो कभी भी पारम्परिक राजनीतिक सोच के प्रवाह में नहीं बहते, लेकिन एक मसीही सपना पाले रहते हैं कि उन्हें तो इतिहास ने एक खास मिशन के लिए चुना है. जैसे-जैसे नए प्रसंग उजागर होते हैं, डॉब्ब्स हमें क्यूबा की निगरानी कर रहे अमरीकी जहाजों के डैक्स पर ले जाते हैं, मियामी की गलियों की सैर कराते हैं जहां कास्त्रो विरोधी निर्वासित उनके तख्ता पलट की योजना बनाने में जुटे हैं.


डॉब्ब्स बताते हैं कि ख्रुश्चेव कास्त्रो को ‘एक बेटे की तरह’ प्यार करते थे, लेकिन साथ ही उनकी भावनात्मक स्थिरता के बारे में आशंकित भी रहते थे. इसीलिए वे कास्त्रो के हाथों में आणविक हथियार सौंपने को तैयार नहीं थे. और जहां तक कास्त्रो का सवाल है, उनकी पूरी रणनीति ही चुनौती पर आधारित थी. वे अपने शत्रुओं के समक्ष ज़रा भी कमज़ोर नहीं पडना चाहते थे. वे किसी मक़सद के लिए अपने देशवासियों को साथ लेकर मरने को तैयार थे. अगर मौका आता, वे क्यूबा की धरती पर अमरीकी घुसपैठ रोकने के लिए आणविक युद्ध शुरू करने की अनुमति देने में क़तई नहीं हिचकिचाते.

डॉब्ब्स ने यह किताब नई पीढी के पाठकों को 27 अक्टूबर 1962 के उस स्याह शुक्रवार की तथा उसकी पूर्ववर्ती घटनाओं की जानकारी देने के लिए लिखी है, जिसे इतिहासकार आर्थर एम श्लेसिंगर ने मानवीय इतिहास का सबसे खतरनाक क्षण कह कर पुकारा था. किताब अमरीकी, रूसी और क्यूबाई तीनों पक्षों के चरित्रों के मानवीय पक्ष को बखूबी उभारती है. इससे पता चलता है कि असल संकट केनेडी और ख्रुश्चेव के सीधे टकराव का नहीं था. संकट तो पैदा हुआ एक के बाद एक अप्रत्याशित रूप से घटित होने वाली घटनाओं के कारण. और फिर जब एक बार युद्ध के नगाडे बजने ही लग गए तो उन्हें रोकना किसी के भी वश में नहीं रह गया. उस स्याह शुक्रवार को, जब दोनों ही पक्षों को महसूस हुआ कि अब स्थितियों पर उनकी पकड नहीं रह गई है तो बजाय टकराने के, वे एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में चले गए. केनेडी पर यह दबाव डाला जा रहा था कि वे प्रक्षेपास्त्रों के ठिकानों पर बमबारी करें और क्यूबा पर हमला कर दें. समझा जा सकता है कि अगर उन्होंने ऐसा कर दिया होता तो तो सोवियत संघ भी अमरीकी आक्रामक ताकतों का सामना अपने आणविक हथियारों से ज़रूर करता. फिर क्या हुआ होता, इसकी कल्पना ही हमें दहशत से भर देती है.

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Discussed book:

One Minute to Midnight: Kennedy, Khrushchev, and Castro on the Brink of Nuclear War

By Michael Dobbs

Published by: Knopf Publishing Group

Hardcover, 448 pages

US $ 28.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अन्तर्गत 10 जुलाई, 2008 को प्रकाशित.





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