देश में चुनाव सम्पन्न हो गए और नई सरकार की तस्वीर साफ हो गई है. इस
बार के चुनाव कई मामलों में बेहद अनूठे रहे. वैसे तो हर बार यही कहा जाता है कि
परिणाम अप्रत्याशित रहे हैं, लेकिन इस बार
के परिणाम ज़्यादा ही अप्रत्याशित रहे हैं.
इतने एक पक्षीय फैसलों की तो घोर से घोर समर्थकों ने भी आशा नहीं की थी. निश्चय ही
यह उम्मीद की जानी चाहिए कि नई सरकार बिना किसी दबाव और समझौतों के काम करेगी, आम
जन के जीवन को बेहतर बनाने के लिए कार्य करेगी और जनाकांक्षाओं पर खरी उतरेगी.
इस बार के चुनावी माहौल में दो बातें बहुत ख़ास रही हैं. इन चुनावों
में जितनी कटुता देखने को मिली, और एक दूसरे के प्रति जितनी ख़राब भाषा का प्रयोग किया गया वैसा अब तक कभी
नहीं हुआ था. वैसे इस बार के चुनावों को लोगों के अनुपम हास्य बोध के लिए भी याद
किया जाना चाहिए. अपने चहेते नेताओं और दलों के पक्ष का समर्थन करने के लिए
विरोधियों को लेकर जैसे-जैसे लतीफे,
प्रसंग, कार्टून वगैरह रचे गए वैसे
और उतनी मात्रा में शायद ही पहले कभी रचे गए हों. लेकिन यहां भी अधिकतर यह
प्रवृत्ति देखने को मिली कि हम तो सबका कैसा भी मखौल उड़ा सकते हैं लेकिन हमारी तरफ
देखने की कोई ज़ुर्रत भी न करे! अब जब चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं, यह उम्मीद की
जानी चाहिए कि इस सब अप्रिय बातों को भुला दिया जाएगा और पूरी सद्भावना और सदाशयता
के साथ काम किया और करने दिया जाएगा.
दूसरी बात जो ग़ौर तलब है वह यह कि इन चुनावों में पहली बार पर सोशल
मीडिया, विशेष रूप से फेसबुक, ट्विट्टर,
वाट्सएप्प आदि का इतने बड़े पैमाने इस्तेमाल
हुआ. वैसे तो इस इस्तेमाल की पदचाप हाल ही में सम्पन्न हुए विधान सभा चुनावों में
भी काफी साफ सुनाई दी थी और एक नए जन्मे दल
के लिए कहा गया था कि उसने इस माध्यम का बहुत सशक्त प्रयोग किया है, लेकिन इस
संसदीय चुनाव में यह प्रयोग और बड़े पैमाने पर हुआ. लगभग सभी राजनीतिक दलों ने बहुत योजनाबद्ध रूप से इन
माध्यमों को अपने पक्ष में इस्तेमाल किया
और इस कुशलता के साथ किया कि वे अपने
समर्थकों को भावनात्मक रूप से अपने साथ इस हद तक जोड़ने में कामयाब रहे कि राजनीतिक
पक्षधरता और संलग्नता निजी और पारिवारिक सम्बन्धों तक पर भारी पड़ गई. मैं कल ही
यहां यहां बैंगलोर में एक ख़बर पढ़ रहा था कि दो परिपक्व और खासे शिक्षित युवाओं में
बरसों पुरानी गहरी दोस्ती सिर्फ इसी बात
पर टूट गई कि उनमें से एक किसी एक राजनीतिक दल का कट्टर समर्थन कर रहा था. हम लोग
जो फेसबुक पर सक्रिय हैं, उन्होंने भी यह बात लक्षित की है कि इस चुनाव के दौरान
‘अनफ्रेण्ड’ करने का कारोबार कुछ ज़्यादा ही चला है.
निश्चय ही इस पूरे सिलसिले में अपने राजनीतिक विचार के प्रति हमारी
गहरी संलग्नता के साथ ही दूसरे के विचार और उसकी भावनाओं के प्रति असहिष्णुता की
भूमिका को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता है. अलग राजनीतिक विचारों का होना
अस्वाभाविक और असामान्य बात नहीं है. यह तो प्रजातंत्र का मूल है. विचार वैभिन्य
जितना देश या समाज में हो सकता है, उतना ही परिवार और दोस्तों के बीच भी
हो सकता है. हम अलग-अलग विचार और पसन्द नापसन्द रखकर भी साथ रह सकते हैं, और प्रेम
से रह सकते हैं – इस बात पर ज़ोर देने की बेहद ज़रूरत इन चुनावों ने महसूस कराई है.
असल में, अब तक यह बात कि हमारा मत किसको जाएगा, गोपनीय रहती आई है और इस वजह से
बहुत सारे टकरावों से भी हम बचे रहे हैं. राजनीतिक
दलों के प्रचारक अपना काम करते रहे और
मतदाता अमन चैन की ज़िन्दगी जीता रहा. लेकिन इस बार, कदाचित पहली बार, सोशल मीडिया
पर लोगों ने अपनी पसन्द खुलकर बताई और न
सिर्फ यह किया, बल्कि जिनकी पसन्द उनसे भिन्न थी, उन पर तमाम तरह के उचित-अनुचित,
सही ग़लत प्रहार भी किए. एक तरह से आम
मतदाता भी पार्टी का प्रचारक बन कर उभरा. सारी
खुराफत की जड़ यही बात थी. अब इसके मूल में
बहुत सारी बातें हो सकती हैं. हो सकता है ऐसा इसलिए हुआ हो कि देश का एक बड़ा वर्ग
परिवर्तन के लिए व्याकुल था और वह उससे कम के लिए क़तई प्रस्तुत नहीं था. और भी बहुत कुछ इसके मूल
में हो सकता है, जिसका विश्लेषण यहां प्रासंगिक नहीं होगा. लेकिन अब, जबकि
वह परिवर्तन हो चुका है, यह बहुत ज़रूरी है
कि इस दौर की तमाम कटुताओं को खुले मन से विस्मृत कर दिया जाए, और न सिर्फ इतना
बल्कि यह भी सोचा जाए कि भविष्य में इससे कैसे बचा जाएगा. चुनाव फिर होंगे, हर
पाँच बरस में होंगे. फिर हम किसी के पक्ष में
और किसी के प्रतिपक्ष में होंगे. लेकिन हमारी पारस्परिक सद्भावना कभी आहत न हो, हमारे
विचारों के कारण हमारे निजी और पारिवारिक रिश्ते तनिक भी क्षतिग्रस्त न हों, इसका ध्यान ज़रूर रखा जाना चाहिए. यह बात एक मज़बूत लोकतंत्र के लिए जितनी ज़रूरी है उतनी ही ज़रूरी
एक स्वस्थ और परिपक्व समाज के लिए भी है.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 20 मई, 2014 को आम मतदाता बनकर उभरा पार्टी प्रचारक शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.