भारतीय टेलीविज़न के बहुत लोकप्रिय
कार्यक्रमों में से एक कौन बनेगा करोड़पति के अंत में
अमिताभ बच्चन कहते थे,
यह डिजिटल का ज़माना है, और फिर वे अपने हाथ
में लिये हुए टेबलेट के माध्यम से विजेता को आनन-फानन में उसकी जीती हुई धन राशि
ट्रांसफर कर देते थे. भारत सरकार ने भी डिजिटलीकरण पर काफी ध्यान दिया है. और इतना
ही क्यों, हम सबकी
ज़िंदगी में काफी कुछ डिजिटल हो गया है. पश्चिम से आई इस नई तकनीक ने शुरु-शुरु में
अपने नएपन से हमें आकर्षित किया, हालांकि अनेक आशंकाएं भी
इसने जगाईं, और फिर आहिस्ता-आहिस्ता इसकी सुगमता, तेज़ी और कम खर्च बालानशींपन ने हम सबको अपना मुरीद बना लिया. आज हालत यह
है कि हमारी ज़िंदगी का शायद ही कोई पक्ष ऐसा बचा हो जिसमें डिजिटल का प्रवेश न हो
चुका हो.
लेकिन बहुतों को शायद यह
बात अविश्वसनीय भी लगे,
लेकिन है सच, कि जिस पश्चिम से यह डिजिटल आंधी
हमारी ज़िंदगी में आई है उसी पश्चिम ने अब डिजिटल से दूरी बनाना शुरु कर दिया
है. अमरीका में हाल में ऐसी अनेक किताबें
बाज़ार में आई हैं जिनमें डिजिटल तकनीक के हानिप्रद प्रभावों पर सप्रमाण और विस्तार
से चर्चा की गई है. इन किताबों में यह चर्चा भी है कि कैसे स्मार्टफोन्स हमारे
बच्चों की मानसिकता को विकृत कर रहे हैं और सोशल मीडिया किस तरह हमारी
प्रजातांत्रिक संस्थाओं को क्षति पहुंचा रहा है. वहां इस बात की भी चर्चाएं हैं कि
डिजिटल तकनीक एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को पुष्ट करती हैं. हाल में अमरीका में
हुए एक सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई है कि लगभग सत्तर प्रतिशत अमरीकी
डिजिटलीकरण के कारण हुए कामकाज के यंत्रीकरण से रोज़गार के अवसरों पर पड़ने वाले
प्रतिकूल असर से चिंतित हैं. मात्र इक्कीस प्रतिशत अमरीकी फेसबुक को दी जाने वाली अपनी व्यक्तिगत जानकारियों की गोपनीयता के प्रति
आश्वस्त पाए गए और लगभग आधे उत्तरदाता यह मानते पाए गए कि सोशल मीडिया हमारी मानसिक और शारीरिक
सेहत पर बुरा असर डालता है. इस बात की पुष्टि अमरीकी साइकीऐट्रिक एसोसिएशन ने भी
कर दी.
और बातें केवल फिक्र करने
तक ही सीमित नहीं हैं. अपने देश में जहां
हम हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं कि ई बुक्स का चलन बढ़े, अमरीकी
प्रकाशकों के संघ के अनुसार यह लगातार तीसरा बरस है जब अमरीका में पारम्परिक
मुद्रित किताबों की बिक्री में वृद्धि नोट की गई है. यही नहीं वहां किताबों की
दुकानें भी पिछले कई सालों से बढ़ती जा रही हैं. और बात सिर्फ किताबों तक ही सीमित
नहीं है. भारत में चलन से करीब-करीब बाहर हो चुकीं विनाइल वाली एलपी रिकॉर्ड्स का
चलन वहां बढ़ता जा रहा है और बताया जाता है कि अकेले अमरीका में हर सप्ताह कोई दो
लाख विनाइल रिकॉर्ड्स बिक रही हैं. फिल्म वाले कैमरे, कागज़
की बनी नोटबुक्स, बोर्ड गेम्स आदि भी पहले से ज़्यादा खरीदे
जाने लगे हैं.
संशयालु लोग कह सकते हैं
कि यह सब पुराने के प्रति मोह यानि नोस्टाल्जिया की वजह से हो रहा है. लेकिन यही सच
नहीं है. सच यह भी है कि बावज़ूद इस बात के कि डिजिटल सामग्री बहुत सस्ती होती है, लोग
किताबों की तरफ इसलिए लौट रहे हैं कि उन्हें लगने लगा है कि किताब हाथ में लेकर उसके स्पर्श, उसकी
गंध, उसकी ध्वनि आदि का जो मिला-जुला अनुभव आप पाते हैं वह डिजिटल में मुमकिन ही नहीं है.
किसी किताब को आप खरीद, बेच और भेंट में दे सकते हैं, उसके बहाने दोस्ती कर
सकते हैं, और अगर पुरानी हिंदी फिल्मों को याद करें तो
किताबों में ख़तों का आदान-प्रदान कर मुहब्बत तक कर सकते हैं. यह सुख डिजिटल में
कहां? इतना ही नहीं,
गूगल जैसी अग्रणी और भविष्यवादी कम्पनी में भी पिछले कई बरसो से यह रिवायत है कि वेब डिज़ाइनर्स
को अपने किसी भी नए प्रोजेक्ट की पहली योजना कागज़ पर कलम से ही बनानी होती है.
कम्पनी का सोच यह है कि स्क्रीन पर काम करने की तुलना में इस तरह से अधिक और बेहतर
नए विचार उपजते हैं.
पश्चिम में डिजिटल से पीछे
हटने के पक्ष में कुछ और बातों पर भी ध्यान दिया जाने लगा है, जैसे यह
कि इससे संचालित सोशल मीडिया में बुरी भाषा का जितना प्रयोग होने लगा है वैसा
प्रयोग पारम्परिक माध्यमों में नहीं होता है. इस बात को तो अब पूरी तरह स्वीकार कर
ही लिया गया है कि डिजिटल माध्यम मानवीय सम्पर्क के खिलाफ़ जाते हैं, जबकि हमारी बेहतरी के लिए मानवीय सम्पर्कों का होना बेहद ज़रूरी हैं. लेकिन
इन तमाम बातों के बावजूद यह बात सभी
स्वीकार करते हैं कि डिजिटल का पूरी तरह त्याग मुमकिन नहीं है. इसलिए अब एक ही
विकल्प बचा है और वह यह कि इसका इस्तेमाल विवेकपूर्वक किया जाय और इसके
अतिप्रयोग से बचा जाए. पश्चिमी देश इसी
दिशा में प्रयासरत हैं.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्ग्त मंगलवार, 21 नवम्बर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.