Tuesday, November 29, 2016

इटली में होटल में ठहरें मुफ्त में. शर्तें लागू!

विकट समय में एक अच्छी ख़बर. इटली में कुछ होटल आपको अपने यहां मुफ्त में ठहरने का ऑफर  दे रहे हैं. लेकिन आप वहां जाने के लिए तैयारियां शुरु करें उससे पहले बारीक लिखावट वाली कुछ शर्तों को जान लेना आपके हित में  होगा. पहली बात तो यह कि यह सुविधा इटली के सारे होटल नहीं दे रहे हैं. दूसरी बात यह कि इस सुविधा के साथ एक और ख़ास शर्त जुड़ी है. शर्त यह है कि होटल  में ठहरने वाले युगल को नौ माह बाद अपने यहां शिशु जन्म का प्रमाण पत्र देना होगा. अगर वह सही पाया गया तो अभी जितने समय आप होटल में रुके हैं उतने ही समय फिर से निशुल्क रुक सकेंगे या अभी आपने जो भुगतान किया है वह आपको लौटा दिया जाएगा. और यह सुविधा इटली के एक शहर असीसी के होटल असोसिएशन द्वारा वहां के दस चुनिंदा होटलों में ठहरने पर ही देय होगी. यहीं यह भी बताता चलूं कि इटली में इन दिनों औसतन एक डबल बेड रूम का किराया करीब सौ यूरो होता है. भारत में फिलहाल एक यूरो करीब सत्तर रुपये का है. इससे आप होने वाली बचत का अनुमान लगा सकेंगे.  

असल में इटली इस समय अनेक बड़ी समस्याओं से जूझ रहा है. कहा जा रहा है कि वहां जन्म दर बहुत तेज़ी से घटती जा रही है. सन 1960 की तुलना में यह घट कर आधी ही रह गई है. माना  जा रहा है कि एक राष्ट्र के रूप में इटली के एकीकरण के बाद से पिछले बरस वहां जन्म दर अपने न्यूनतम पर थी. औसतन इटली की स्त्रियां 1.39 शिशुओं को जन्म देती हैं जो यूरोपीय संघ के 1.58 वाले औसत से काफी कम है. यह अनुमान लगाया गया है कि अगर यही रुझान बना रहा तो अगले दस सालों में वहां सन 2010 की तुलना में लगभग साढे तीन लाख यानि चालीस प्रतिशत शिशु कम जन्म लेंगे. इस स्थिति को ‘जनसांख्यिक  कयामत’  का नाम दिया गया है. और इसी सम्भावित कयामत का सामना करने के लिए असीसी शहर के होटल मालिकों ने हाल में यह  ‘फर्टिलिटी  रूम’  नामक अभियान शुरु किया है. इस अभियान के तहत दिये जाने वाले कमरों में मोमबत्तियां, पुष्प और संगीत जैसी रोमाण्टिक सुविधाएं भी प्रदान की जा रही हैं.  होटल संगठन के  एक प्रवक्ता का कहना है कि “किसी शिशु को जन्म देना प्रेम की गहनतम अभिव्यक्ति है और हमें जीवन की बहुत सारी कठिनाइयों के बावज़ूद इसको  प्रोत्साहित करना चाहिए.” उन्होंने आपने इस अभियान के लिए नारा भी बनाया है: “कम टू असीसी. टुगेदर.” 

लेकिन असीसी के होटल व्यवसाइयों का यह नेक इरादा बहुतों को पसंद नहीं भी आया है. कुछ को लग रहा है कि यह अभियान असीसी शहर की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक छवि के अनुरूप नहीं है. यह नगर पोप फ्रांसिस की जन्मभूमि के रूप में भी जाना जाता है. लोगों की इस नापसंदगी  ने स्थानीय प्रशासन को भी इस अभियान से दूरी बरतने को मज़बूर कर दिया और वहां के एक काउंसिलर को बाकायदा बयान ज़ारी कर कहना पड़ा कि वे इस बात का पता लगाएंगे कि कहीं यह अभियान असीसी की छवि को आहत तो नहीं कर रहा है. इसी संदर्भ में यह भी याद किया जा सकता है कि कुछ समय पहले इटली के स्वास्थ्य मंत्री महोदय को भी इसी समस्या का सामना करने के लिए 22 सितम्बर को ‘फर्टिलिटी दिवस’ मनाने के लिए ज़ारी किए गए पोस्टरों को वापस लेने को मज़बूर कर दिया था क्योंकि लोगों ने उन्हें असंवेदनशील और उन स्त्रियों के खिलाफ़ माना था जो किसी कारण गर्भ धारण कर पाने में असमर्थ हैं. 

वैसे इटली में जन्म दर में यह गिरावट अकारण नहीं है. वहां की आर्थिक अनिश्चितता  और  अत्यधिक बेरोज़गारी इसके मूल में है. हालांकि यह बात भी सही है कि बेरोज़गारी के हालात अब कुछ सुधरने लगे हैं. फिर भी स्थिति काफी चिंताजनक बनी हुई है. इसी बेरोज़गारी के चलते अनेक यूरोपीय देशों की तरह यहां भी ‘नो चाइल्ड बेनेफिट’  योजना लागू है.  कामकाजी महिलाओं पर यह खतरा भी मण्डराता रहता है कि अगर वे मां बन गईं तो उन्हें अपनी  नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है. इटली में कामकाजी महिलाओं के लिए उनके शिशुओं की देखभाल की सुविधाएं  भी बहुत कम हैं. ये ही कारण इस बात  के भी मूल में है कि वहां स्त्रियां अपने मातृत्व को स्थगित करने लगी हैं और सन 2002 से 2012 के बीच चालीस  बरस से अधिक की आयु में मां बनने वाली स्त्रियों की संख्या दुगुनी हो गई है. औसतन वहां स्त्रियां इकत्तीस बरस  सात माह की आयु में पहली दफा मां बन रही हैं. 
सारी दुनिया गहरी दिलचस्पी से इस बात को देख रही है कि विषम आर्थिक परिस्थितियों के बीच घटती जन्म दर की समस्या का सामना इटली जैसा परम्परा प्रेमी  देश कैसे करता है! 

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 29 नवम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

Tuesday, November 22, 2016

हर कोई त्रस्त है डिजिटल दुनिया के नए वायरस से

आजकल डिजिटल दुनिया में एक वायरस ने सबके नाकों में दम कर रखा है. उस वायरस  का नाम है –फ़ेक न्यूज़. यानि मिथ्या समाचार. यह वायरस इतना अधिक फैल चुका है कि लोग बरबस एक पुरानी कहावत को फिर से याद करने लगे हैं. कहावत है – झूठ तेज़ रफ़्तार  से दौड़ता है जबकि सच लंगड़ाता हुआ उसका पीछा  करने की कोशिश करता है.  हाल में सम्पन्न हुए अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी ऐसा ही  हुआ, और खूब हुआ. सामाजिक मीडिया पर यह बात खूब चली कि पोप फ्रांसिस ने डोनाल्ड ट्रम्प का समर्थन किया है, या कि लोकप्रिय मतदान में ट्रम्प महाशय हिलेरी क्लिण्टन से आगे चल रहे हैं. कहना अनावश्यक है कि ये ख़बरें आधारहीन  थीं. लेकिन इन और इनकी तरह की अन्य ख़बरों के प्रसार का आलम यह था कि अमरीका में समाचारों का विश्लेषण करने वाली एक संस्था को यह कहना पड़ा कि फेसबुक पर बीस शीर्षस्थ वास्तविक और प्रमाणिक खबरों की तुलना में बीस शीर्षस्थ मिथ्या खबरों को शेयर्स, लाइक्स और कमेण्ट्स के रूप में अधिक समर्थन हासिल हुआ. आम तौर पर माना जाता है कि इस तरह की मिथ्या खबरों को फैलाने का काम या तो कुछ लालची स्कैमर्स करते हैं और या फिर भोले-भाले नासमझ लोग. लेकिन अमरीका में तो विभिन्न प्रत्याशियों और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को भी इस तरह की आधारहीन खबरों को फैलाते हुए पाया गया है. मसलन नेब्रास्का के एक रिपब्लिकन सीनेटर ने हाल में ट्वीट करके कहा कि कुछ लोगों को पैसे देकर उनसे ट्रम्प के खिलाफ दंगे करवाए गए. यह एक झूठ था जिसे जान-बूझकर प्रचारित किया गया था. इस तरह की अनेक झूठी खबरों के निर्माता एक व्यक्ति ने तो वॉशिंगटन पोस्ट में यह बात लिख ही दी कि उसकी रची हुई बहुत सारी क्लिण्टन विरोधी खबरों को, बिना उनकी उनकी प्रमणिकता जांचे,  ट्रम्प के समर्थकों और उनके चुनाव अभियान के आयोजकों ने बढ़ चढ़कर प्रसारित किया. इस लेखक ने यह भी कयास लगाया है कि उसके  द्वारा रची गई इन मिथ्या  खबरों का भी रिपब्लिकन विजय में कुछ न कुछ योगदान अवश्य रहा है. 

लेकिन विचारणीय  बात यह है कि क्या झूठ के इस फैलाव के लिए सिर्फ इनके निर्माता ज़िम्मेदार हैं, या कि कुछ ज़िम्मेदारी उस सोशल मीडिया की भी है जिसके मंच का इस्तेमाल झूठ के फैलाव के लिए किया जाता है. यहीं यह बात भी याद कर लेना  उचित होगा कि सामाजिक मीडिया के मंचों के माध्यम से झूठ के प्रचार-प्रसार का यह कारोबार केवल अमरीका में ही नहीं चल रहा है. म्यांमार जैसे देश में शरारतपूर्ण खबरों की वजह से जातीय हिंसा फैलाई गई तो इण्डोनेशिया, फिलीपींस वगैरह में चुनाव जीतने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया. पश्चिमी अफ्रीका में इबोला वायरस  के बारे में झूठ फैलाया गया तो कोलम्बिया में शांति स्थापना प्रयासों के पक्ष में किए जाने वाले जनमत संग्रह के बारे में दुष्प्रचार के लिए इसका इस्तेमाल  किया गया. खुद अपने देश में इसके इस्तेमाल के बारे में कुछ भी लिखना  इसलिए अनावश्यक है कि हम सब उससे भली-भांति परिचित हैं. सच और झूठ के  बीच फर्क़ करना ही मुश्क़िल होता जा रहा है. कभी-कभी तो लगता है कि भूसे के ढेर में जैसे सुई खो जाया करती है वैसे ही झूठ  के ढेर  में सच खो गया है. 

ऐसा वायरस फैलाने से जिनके किसी भी तरह के कोई हित सधते हैं, यानि उन्हें ऐसा करने के लिए पैसा मिलता है या वे अपने पक्ष को सबल करने के उत्साहितिरेक में ऐसा करते हैं, उनको छोड़ शेष लोग तो स्वाभाविक रूप से इस प्रवृत्ति से चिंतित हैं और इसके खिलाफ़ हैं. ऐसे लोगों ने बार-बार सोशल मीडिया के नियंताओं के आगे गुहार लगाकर उनसे मदद भी मांगी है. और ऐसा भी नहीं है कि वे लोग इस बार में हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. मार्क ज़ुकरबर्ग ने तो सन 2012 में ही अपने निवेशकों को लिखे एक पत्र में यह कहा था कि वे चाहते हैं कि सोशल मीडिया समाज के उत्थान में सहयोगी बने. अब भी फेसबुक के संचालक झूठ के खिलाफ़ लामबंद हैं. आर्थिक क्षति उठाकर भी वे मिथ्या ख़बरों वाली साइट्स पर फेसबुक पॉवर्ड  विज्ञापन नहीं दे रहे हैं. गूगल वाले भी ऐसा ही कर रहे हैं. इन्हीं गर्मियों में फेसबुक ने तकनीकी रूप से ऐसा करने का भी प्रयास किया है कि हमें अपनी न्यूज़ फ़ीड्स में समाचार संगठनों की फ़ीड्स की तुलना में दोस्तों और परिवार जन की ज़्यादा फ़ीड्स देखने को मिलें. ज़ाहिर है कि इस प्रयास से झूठ के फैलाव को रोकने में कुछ तो कामयाबी हासिल होगी. लेकिन लड़ाई लम्बी है और प्रतिपक्ष बहुत चालाक. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न  दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 नवम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 15, 2016

जो पहले जन्मा वो छोटा और जो बाद में जन्मा वह बड़ा है!

फिल्म 'हिना' का वो गाना याद है ना: 'देर करता नहीं हूं देर हो जाती है.'  सोचता हूं कि अगर इसे बदल कर यों कर दिया जाए कि 'गड़बड़ करता नहीं हूं, गड़बड़ हो जाती है, तो कैसा रहे?'  ना, ना, आप ग़लत न समझें. मैंने कोई गड़बड़ नहीं की है. अलबत्ता सात समुद्र पार के अमरीका में ज़रूर एक मज़ेदार गड़बड़ हो गई. उसी का किस्सा आपको सुनाने के लिए यह भूमिका मैंने बनाई है. पिछले दिनों अमरीका के मैसाचुसेट्स राज्य के एक कस्बे के अस्पताल में एक अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई. इसी छह नवम्बर को अल्लसुबह इस राज्य के एक छोटे-से कस्बे के एक अस्पताल में एमिली और सेठ पीटरसन के परिवार में दो जुड़वां बेटों की आमद हुई. सुबह एक बजकर उनतालीस  मिनिट पर एमिली ने जन्म दिया पांच पाउण्ड के सेम्युअल को, और इसके ठीक इकत्तीस मिनिट बाद इस खूबसूरत दुनिया में अवतरित हुए इनसे चौदह औंस  अधिक वज़न वाले इनके लघु भ्राता रोनान. आप सही गणना कर रहे हैं कि रोनान इस दुनिया में अवतरित हुए ठीक दो बजकर दस मिनिट पर. इस तरह बड़े भाई सैम्युअल हुए और छोटे भाई हुए रोनान.

लेकिन अस्पताल से इनके जन्म के जो प्रमाण पत्र ज़ारी हुए उनमें सैम्युअल के जन्म का समय प्रात: 1.39 और रोनान के जन्म का समय प्रात: 1.10 अंकित किया गया. अगर आप सोच रहे हैं कि ऐसा उलटफेर अस्पताल के किसी कर्मचारी की चूक  की वजह से हुआ होगा, तो आपको अपने सोच पर पुनर्विचार  करना होगा. आप भी कहेंगे कि इसमें पुनर्विचार की ज़रूरत कहां है? ग़लती तो ग़लती है. लेकिन अब मैं आपको बताता हूं कि यह ग़लती नहीं है.

इस बात  को समझने के लिए हमें उस व्यवस्था को समझना होगा जिससे हम अपरिचित हैं और जो व्यवस्था जो दुनिया के कुछ अन्य देशों की तरह अमरीका के अधिकांश राज्यों में भी चलन में है. व्यवस्था यह है  कि साल के गर्म महीनों की शुरुआत के समय घड़ी की सुइयों को एक घण्टा आगे खिसका दिया जाए. इससे सुबह एक घण्टे  बाद होती है और दिन  एक घण्टे बाद तक बना रहता है. इस व्यवस्था को डे लाइट सेविंग टाइम –संक्षेप में डीएसटी-  कहा जाता है. अमरीका में मार्च के दूसरे रविवार से यह व्यवस्था लागू होती है और नवम्बर के पहले रविवार को समाप्त हो जाती है. राज्य विशेष के स्थानीय समय के अनुसार सुबह दो बजे से इस व्यवस्था की शुरुआत होती है. भारत में ऐसा नहीं होता है, इसलिए हम इस व्यवस्था से अनभिज्ञ हैं. याद रखें कि नवम्बर के पहले रविवार (इस बरस छह नवम्बर को पहला रविवार था) से अमरीका में घड़ी की सुइयां एक घण्टा पीछे कर दी गई थीं. अब शायद यह बात स्पष्ट हो गई हो कि जब सैम्युअल महाशय इस दुनिया में अवतरित हुए तब घड़ी में समय हो रहा था एक बजकर उनतालीस मिनिट. लेकिन जब इसके ठीक इकतीस  मिनिट बाद उनके लघु भ्राता रोनान महाशय ने इस दुनियाँ में पदार्पण किया तब तक अमरीकी डे लाइट सेविंग व्यवस्था के अनुसार वहां की घड़ियों की सुइयां एक घण्टा पीछे की जा चुकी थीं. इसलिए इकतीस  मिनिट बाद दुनिया में पधारने वाले रोनान भइया के जन्म  का समय कागज़ों में अंकित किया गया एक बजकर दस मिनिट. यानि ठीक इकतीस  मिनिट छोटे रोनान अपने ही बड़े भाई सैम्युअल को छोटा साबित करते हुए उनसे  उनतीस मिनिट बड़े बन गए. और वो भी आधिकारिक रूप से. है ना मज़ेदार बात!

इस पूरे मामले का मज़ा लेते हुए इनकी मां, बत्तीस वर्षीया एमिली पीटरसन ने बताया कि उनके पतिदेव उनके पास आकर बोले कि तुम्हारे लिए एक पहेली है! छोटे बड़े की यह उलझन सुनकर एक बार  तो एमिली भी चकरा गई. लेकिन फिर उसे लगा कि इसमें क्यों दिमाग खपाया जाए. लेकिन जब एक दिन बाद ही अस्पताल की नर्स ने उससे कहा कि वो चालीस बरसों से वहां काम कर रही है लेकिन ऐसा वाकया पहली दफा सामने आया है, तो एमिली को भी लगा कि बात है तो ग़ौर  तलब. लेकिन अब वो भी जीवन में आ गई इस उलझन का भरपूर लुत्फ़ ले रही है. एमिली हंसते हुए कहती हैं कि भले ही सैम्युअल और रोनान के बीच छोटे-बड़े की यह उलझन आ खड़ी हुई है, इनकी बड़ी बहन ऑब्रे तो इनसे बड़ी ही है, और बड़ी रहेंगी. मामले का सौहार्द्रपूर्ण पटाक्षेप करती हुई एमिली कहती हैं, "मैं उम्मीद करती हूं कि अपने भावी जीवन में सैम्युअल और रोनान इस बात को लेकर कोई झगड़ा नहीं करेंगे!"  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 15 नवम्बर, 2016 को 'अमरीका में डीएसटी सिस्टम से बड़ा भाई हुआ छोटा' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 8, 2016

ताकि स्कूल कल किसी और की बेटी का अपमान न करे!

अमरीका के मेरीलेण्ड राज्य के वाल्डोर्फ शहर के एक मिडिल स्कूल में जैसे ही श्रीमती एबॉनी बैंक्स की ग्यारह वर्षीया बेटी पहुंची, स्कूल प्रशासन ने उसे क्लास में बैठने की अनुमति देने से मना कर दिया, उसे एक अलग कमरे में बिठाया और कहा कि वो अपनी मां को फोन करे. बिटिया  ने मां से कहा कि वो उसके लिए एक जीन्स  लेकर फौरन स्कूल आ जाए. स्कूल प्रशासन का कहना  था कि वो लड़की जिस वेशभूषा में स्कूल आई थी उससे उनके ड्रेस कोड का उल्लंघन हो रहा था. लड़की ने काले रंग की लेगिंग्स पहनी थी और उस पर कमर तक पहुंच रहा काले रंग का छोटी आस्तीन वाला शर्ट और गुलाबी रंग का स्वेटर जैकेट पहना था. स्कूल की अपेक्षा थी कि जो लड़कियां लेगिंग्स पहनें वे पाँव की उंगलियों तक पहुंचने वाले शर्ट भी पहनें ताकि वे अपनी देह की तरफ़ अनावश्यक ध्यान आकृष्ट न कर सकें.

मेरीलेण्ड के ही विश्वविद्यालय की एक प्रोफेसर और जेण्डर एक्सप्रेशन की विशेषज्ञ  ड्रेस इतिहासकार जो पाओलेत्ती ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है. उन्होंने कहा है कि इस बात की परिभाषा सदा बदलती रहती है कि क्या अनुपयुक्त या सेक्सी है. अपनी बात को और खोलते हुए वे कहती हैं कि फैशन निरंतर नए आविष्कार करता रहता है और उन्हीं के पीछे चलते हुए ड्रेस कोड लेखकों को यह तै करना होता है कि क्या अनुपयुक्त है और किसे बैन किया जाना है. ड्रेस कोड का मसला स्कूलों  में विशेष अहमियत रखता है और वहां भी इसके घेरे में लड़कों की बजाय लड़कियां ज़्यादा आती हैं. अमरीका के विभिन्न राज्यों में, और अपने भारत में भी, स्कूलों में कौन क्या पहने और क्या न पहने इस पर प्राय: विवाद होते रहे हैं. बहुत सारे स्कूलों ने तो इस विवाद से निजात पाने का आसान तरीका यह तलाश किया है कि उन्होंने अपने यहां यूनीफॉर्म निर्धारित कर दी है. लेकिन जहां ऐसा नहीं हुआ है वहां विवाद भी अधिक हुए हैं.

यहां हमने जिन श्रीमती एबॉनी बैंक्स के ज़िक्र से अपनी बात शुरु की, वे अपनी बेटी के स्कूल के इस फैसले से बेहद नाराज़ हैं. इतनी कि उन्होंने स्कूल के सर्वोच्च  प्रशासन से शिकायत  करने के साथ-साथ संघीय अधिकारियों का दरवाज़ा भी खटखटाया है और सिविल राइट्स में भी शिकायत दर्ज़ कराई है. उनका कहना है कि उनकी बेटी स्कूल की ऑनर रोल विद्यार्थी है और वो डॉक्टर बनने का ख्वाब देखती है. ऐसी ज़हीन लड़की को महज़ चन्द इंच कपड़ों की खातिर पूरे बीस मिनिट कक्षा से वंचित कर देना नाइंसाफी  है. उनका यह भी कहना है कि स्कूल का यह कृत्य उस बच्ची के मन पर नकारात्मक असर डालेगा, उसके स्व-देह-बोध और स्वाभिमान को ठेस पहुंचाएगा. एबॉनी बैंक्स ने कहा कि स्कूल का यह कृत्य निहायत ही सेक्सिस्ट है और इसने मेरा  खून खौला दिया है. इस विवाद का एक पहलू यह भी सामने  आया कि यह बच्ची जिस अफ्रीकी अमरीकन समूह से ताल्लुक रखती है उनकी देह औरों की तुलना में अधिक मांसल होती हैं, और कदाचित इसी वजह से स्कूल प्रशासन ने उसकी ड्रेस को आपत्तिजनक माना हो. हालांकि स्कूल प्रशासन ने इस सम्भावना को सिरे से नकारा है और कहा है कि वे लड़कों से भी उम्मीद करते हैं कि अपनी पतलूनों को नितम्बों से नीचे न बांधा करें. स्कूल ने अपने कृत्य को उचित ठहराते हुए एक तर्क यह भी दिया कि जैसे चौराहे का सिपाही बहुत सारे वाहन चालकों में से कुछ का ही चालान कर पाता है वैसे ही वे भी सबमें से कुछ ही विद्यार्थियों की वेशभूषा पर आपत्ति कर सके हैं. स्कूल की इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि स्कूल का एकमात्र उद्देश्य यह होता है कि विद्यार्थी अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान दें और साथ ही यह भी  समझें कि जीवन में अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग  वेशभूषा की ज़रूरत होती है. 

लेकिन स्वाभाविक है कि सभी लोग स्कूल के इस कृत्य से सहमत नहीं हैं. तेरह वर्षीया सोला   बियर्स ने स्कूल के इस कृत्य के विरुद्ध अपनी आवाज़  बुलन्द करते हुए कहा कि स्कूल का यह ड्रेस कोड वाकई सेक्सिस्ट है. इसमें लड़कियों के लिए तो बहुत सारे नियम-कायदे हैं, लेकिन लड़कों के लिए एक भी प्रतिबन्ध नहीं है. सबसे उम्दा बात तो कही खुद एबॉनी बैंक्स ने. उन्होंने कहा कि उनकी बेटी घटना वाले दिन से ही विचलित रही लेकिन उसने इस बात को जल्दी ही भुला भी दिया. लेकिन खुद उन्होंने इस मामले को किसी परिणति तक पहुंचाने के लिए अपने प्रयास ज़ारी रखे हैं. वे यह महसूस करती हैं कि यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर व्यापक विमर्श की ज़रूरत है. “मैं नहीं चाहती कि किसी और लड़की को भी मेरी बेटी की तरह अपमानित करके कक्षा से बाहर निकाला जाए!. यह बेहद अपमानजनक  है.”      

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 08 नवम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

जापानी वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर गर्व भी है, चिंता भी

आधुनिक विज्ञान जिस तेज़ गति से नए नए करतब करता जा रहा है उससे हम एक साथ ही चकित भी हो रहे हैं और चिंतित भी. चकित होने की वजह तो यह है कि विज्ञान की नव सृजन की गति हमारी कल्पना से भी आगे निकली जा रही है. मैं तो प्राय: सोचता हूं कि अगर कोई चमत्कार हो जाए और सौ बरस पहले रहा कोई व्यक्ति आज की दुनिया में आ जाए तो वह अपने चारों तरफ की दुनिया देखकर पगला ही जाएगा. इधर हाल में जापान से एक नए सृजन की जो ख़बरें आई हैं वे एक बार फिर हमें दांतों तले उंगलियां दबाने को मज़बूर कर रही हैं. जापान के वैज्ञानिकों की एक टीम ने साया नाम की एक कन्या का निर्माण किया है, और यह कन्या आजकल जापान की बहुत बड़ी सेलेब्रिटी बनी हुई है. स्कूली परिधान में सजी-धजी झालरदार बालों वाली इस  सत्रह वर्षीय  बाला को जो भी देखता है  उसका ध्यान इस बात की तरफ जाता ही नहीं है कि वो इंसान नहीं है. जो भी उसे देखता है वो  सच्चाई को जानने के बाद भी यही कहता है कि वह एकदम वास्तविक लड़की लगती है.

जापान में एक बड़ी टीम  ने काफी लम्बे प्रयासों  के बाद इस साया नाम वाली कन्या  का सृजन किया है. इस टीम की ग्राफिक आर्टिस्ट  यूका इशिकावा और उनके पति ने जब साया की तस्वीरें ऑनलाइन  जारी की तो दुनिया ने पहली बार यह जाना कि कम्प्यूटर डिज़ाइन से क्या कमाल किया जा सकता है. यूका इशिकावा  को लोगों से जो प्रतिक्रियाएं मिली हैं वे अभिभूत कर देने वाली हैं. जिन्होंने भी उनके सृजन साया को देखा है, यही कहा है कि यह तो एकदम वास्तविक लगती है. और लगेगी भी क्यों नहीं! बीते एक साल के दौरान इस दम्पती ने साया को हूबहू इसान बनाने के लिए मेहनत भी तो कम नहीं की है. यूका इशिकावा  ने बताया है कि उन्होंने साया को मानवीय बनाने के लिए उसके सिर से  अंगूठे तक कड़ी मेहनत की है. अपनी मेहनत की बात को और स्पष्ट करते हुए यूका  इशिकावा ने एक मार्मिक बात कही है. उन्होंने कहा है, “हम खुद को साया के पैरेण्ट्स के तौर पर  नहीं देखते हैं, लेकिन हमने उसे अपनी बेटी की तरह ही प्यार और लगाव से तैयार किया है.” यूका  और उनकी टीम ने साया के सृजन के लिए टोक्यो के शिबुआ इलाके में रहने वाली लड़कियों को मानक माना है. साया में उन्होंने जापानी महिलाओं में पाए जाने वाले तमाम गुणों को शामिल किया है, इसलिए वह दयालु, भली और नैतिक मूल्यों से युक्त लड़की है. क्यूट तो वो है ही. और हालांकि इस कृत्रिम संरचना की अपनी कोई उम्र नहीं है, उसे सत्रह वर्षीया कन्या के रूप में तैयार किया गया है.

वैसे साया के सृजन की कथा बड़ी रोचक है. मूलत: इस टीम को एक शॉर्ट फिल्म के लिए एक किरदार की रचना करनी थी, और इस तरह साया का सृजन एक साइड प्रोजेक्ट भर था. लेकिन जब यह प्रोजेक्ट बहुत सराहा गया तो यूका इशिकावा को इसमें अपरिमित सम्भावनाएं नज़र आने लगीं, और तब उन्होंने और उनके पति ने अपनी नौकरी छोड़ दी और वे पूरी तरह से साया के सृजन में जुट गए. नौकरी से बचाए हुए पैसों से उन्होंने अपना चूल्हा जलाए रखा और प्रोजेक्ट  के लिए धन सुलभ कराया  कॉरपोरेट घरानों ने. अब जबकि साया पर काफी काम किया जा चुका है, और इसी सप्ताह उसका पहला एनिमेटेड प्रारूप जापान में आयोजित होने वाली  कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक एक्ज़ीबीशन में प्रदर्शित किया जा रहा है, इशिकावा युगल महसूस करते हैं कि उन्हें अभी इसकी चाल-ढाल को और संवारना है.  उन्हें लगता है कि साया जब चलती है तो उसके मूवमेण्ट सहज नहीं बल्कि  झटकेदार होते हैं. अपने सपनों को और विस्तार देते हुए अब इशिकावा दम्पती  इसे एक वर्चुअल ह्यूमन के रूप में विकसित करना चाहते हैं. उनका खयाल है कि आर्ट तकनीकी की मदद से वे साया को फ्रेम के दायरे से बाहर निकाल कर आम लोगों के संसार में ला सकेंगे. तब साया आम लड़कियों की तरह बात करेगी और लोगों को भावनात्मक संबल भी प्रदान कर सकेगी.

और यहीं उस बड़े ख़तरे की आहट भी सुनी जा सकती है जो इस प्रयोग की सफलता के पीछे से झांक रहा है. सोचिये, अगर यह प्रयोग कामयाब रहा तो क्या हमें इस आशंका से भयभीत नहीं होना चाहिए कि कल को कोई ताकतवर सत्ता अपनी मनपसंद प्रजा का सृजन नहीं कर डालेगी! और अगर वह प्रजा भली नहीं हुई तो? अगर किसी ने दैत्यों की ही एक दुनिया का निर्माण कर डाला तो? बेशक ये सम्भावनाएं, या आशंकाएं अभी हमारे बहुत नज़दीक नहीं हैं लेकिन यह हमारे अपने हित में होगा कि हम इनके बारे में सावचेती बरतें. 


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 01 नवम्बर  को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.