Tuesday, November 27, 2018

स्विटज़रलैण्ड में गाय के सींग बनाम सब्सिडी


यह पूरा वृत्तांत मैं आपको प्रजातंत्र के असली रूप से परिचित कराने के लिए लिख रहा हूं. घटना दुनिया के बहुत छोटे लेकिन बेहद खूबसूरत देश स्विटज़रलैण्ड की है. इस वृत्तांत से पता चलता है कि वहां किस तरह एक सामान्य व्यक्ति का सोच पूरे  देश को जनमत संग्रह के लिए प्रेरित  कर सकता है. जनतंत्र  की आधारभूत परिकल्पना भी यही है  कि हरेक की बात सुनी जाए. आपको थोड़ा पीछे यानि सन 2010 में ले चलता हूं. स्विटज़रलैण्ड का एक उनसठ वर्षीय किसान आर्मिन कापौल अपने देश के संघीय कृषि कार्यालय को एक पत्र लिखता है और जब कुछ इंतज़ार के बाद उसे लगता है कि उसके पत्र पर कोई हलचल नहीं हुई है तो वह एक अभियान छेड़ कर अपने प्रिय मुद्दे के समर्थन में एक लाख लोगों के हस्ताक्षर जुटाता है ताकि उस मुद्दे पर जनमत संग्रह कराया जा सके. मुद्दा क्या था?  रोचक बात यह है कि आर्मिन कापौल ने यह संघर्ष अपने या इंसानी हितों के लिए न करके अपने देश की गायों के लिए किया. स्विटज़रलैण्ड  में बछड़े के जन्म लेने के तीसरे चौथे सप्ताह में ही उसके सींग काट दिये जाते हैं और फिर उसका विकास बिना सींग वाले प्राणी के रूप में ही होता है. वहां यह माना जाता है कि सींग वाली गायों का रख-रखाव ज़्यादा महंगा पड़ता है. इसके अलावा, जब वे किसी बाड़े में रहती हैं तो उनके सींग कई बार अन्य गायों के लिए घातक भी साबित हो जाते हैं. इसलिए वहां बिना सींग वाली गायों को पालना ज़्यादा सुगम और व्यावहारिक माना जाता रहा है. लेकिन पिछले कुछ समय से विभिन्न संगठनों ने इस कर्यवाही को पशुओं की गरिमा के विरुद्ध मान कर इसके खिलाफ़ आवाज़ उठानी शुरु की. आर्मिन कापौल का अभियान भी इसी आवाज़ का एक हिस्सा है.

आर्मिन और उसके साथी महसूस करते हैं कि सींगों का होना न केवल गायों की पाचन शक्ति में मददगार होता है, इनसे उनकी सेहत और पारस्परिक सम्पर्क में भी मदद मिलती है. वहां बाकायदा अध्ययन कर  बहुत सारी गायों पर सींग न होने के दीर्घकालीन दुष्परिणाम भी देखे गए हैं. लेकिन यह बात तो स्वयंसिद्ध है कि अगर किसान सींग वाली गायें पालेंगे तो उनके रख रखाव का खर्च बहुत बढ़ जाएगा. इसलिए स्वाभाविक ही है कि जब बात पैसों की होगी तो किसान गायों की गरिमा और उनकी  सेहत की बजाय अपनी जेब को देखेंगे और वे उनके सींग निकालने की प्रक्रिया ज़ारी रखना चाहेंगे. और इसलिए आर्मिन कार्पोल और उनके साथी चाहते हैं कि आर्थिक  कारणों से किसान गायों को सींग विहीन करने के लिए मज़बूर न हों. यह तभी सम्भव होगा जब सरकार सींग वाली गायें रखने के लिए किसानों को सब्सिडी देने का फैसला  करे. यानि यह मुद्दा गायों से होता हुआ सब्सिडी पर जाकर टिकता है. सब्सिडी की अनुमानित राशि है डेढ़ करोड स्विस फ्रैंक. बता दूं कि एक स्विस फ्रैंक करीब सत्तर रुपयों के बराबर होता है. स्विस सरकार फिलहाल यह अनुदान राशि खर्च करने के मूड में नहीं है, और इसलिए वह तर्क दे रही है कि सींग न केवल गायों के लिए, बल्कि उनके पालकों के लिए भी ख़तरनाक होते हैं और सींग वाली गायों को रखने के लिए ज़्यादा जगह की भी ज़रूरत होती है. स्विटज़रलैण्ड के कृषि मंत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि पशु अधिकारों के समर्थक  यह मुद्दा उठाकर अपने ही पाले में गोल करने पर उतारू हैं.

स्विटज़रलैण्ड में जनमत संग्रह की पुष्ट परम्परा है और वहां लोगों का रुझान आम तौर पर स्पष्ट नज़र भी आ जाता है. लेकिन यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर तराज़ू के दोनों पलड़े लगभग समान स्थिति में हैं. एक तरफ जहां ऑर्गेनिक फूड असोसिएशन और  अनेक पशु संरक्षण समूह इस मुद्दे का खुलकर समर्थन कर रहे हैं वहीं वहां की शक्तिशाली स्विस फार्मर्स  यूनियन ने अपने सदस्यों से कह दिया है कि वे जिस तरफ चाहें उस तरफ वोट दें. इसका परिणाम यह हुआ है कि एक सर्वे में 49 प्रतिशत लोग सब्सिडी का समर्थन करते पाए गए तो उनसे मात्र तीन प्रतिशत कम लोग सब्सिडी देने का विरोध करने वाले पाए गए.

जनमत संग्रह हो जाएगा और उसके परिणाम भी सामने आ जाएंगे. लेकिन हम भारतीयों के लिए यह वृत्तांत दो महत्वपूर्ण सबक छोड़ जाएगा. एक तो यह कि स्विस लोग अपनी गायों से किस हद तक प्रेम करते हैं और उनकी छोटी-से छोटी बात को लेकर कितने व्यथित और उद्वेलित होते हैं. उनके लिए गाय नारेबाजी और लड़ाई झगड़े का विषय न होकर असल लगाव का मामला है. और दूसरी बात यह कि वहां प्रजातंत्र का असली और वरेण्य रूप मौज़ूद है जो हरेक की बात सुनता और उस पर अपनी राय देने का हक़ देता है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 27 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 20, 2018

यह देश तो जैसे स्त्रियों का नरक है!


अपने देश में स्त्रियों की स्थिति पर प्राय: चर्चा होती है और जब देश के किसी भी भाग से उनके साथ  हुए किसी दुर्व्यवहार का समाचार आता है,  हम आक्रोश से भर उठते हैं और मन ही मन कामना करते हैं कि भविष्य में ऐसा न हो. हम यह भी जानते हैं कि आज़ादी के बाद से देश में स्त्रियों की स्थिति में बहुत बदलाव आया है और वे सभी क्षेत्रों में अपनी योग्यता का लोहा मनवा रही हैं. देश के सर्वोच्च पदों पर स्त्रियां आसीन रह चुकी हैं और आज जीवन का शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो जहां उनकी सम्मानजनक पहुंच न हो. लेकिन जब यह जानने को मिलता है कि हमारी इसी दुनिया में बहुत सारे देश ऐसे भी हैं जहां स्त्रियां आज भी नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं, तो हम गहरे संताप में डूब जाते हैं. ऐसा ही एक अभागा  देश है पापुआ न्यूगिनी. दक्षिणी पश्चिमी प्रशांत महासागर क्षेत्र में स्थित द्वीपों के इस समूह की आबादी बहुत कम है. मात्र साठ लाख. 1975 में ऑस्ट्रेलिया से आज़ादी प्राप्त  करने वाले विभिन्न समुदायों, जनजातियों और परिवारों वाले इस राष्ट्रमण्डलीय देश में गज़ब की विविधता है. यह तथ्य किसी को भी चौंका सकता है कि यहां करीब आठ सौ भाषाएं बोली जाती हैं और यह संख्या दुनिया के किसी एक देश में बोली जाने वाली भाषाओं  में सबसे बड़ी है. इस देश की  विविधता का एक और आयाम यह है कि एक गली में जो नियम और परम्पराएं चलन में है, पास वाली दूसरी गली में उससे नितांत भिन्न रीति रिवाज़ चलन में होते हैं. लेकिन विविधताओं भरे देश में एक मामले में ग़ज़ब की एकरूपता  भी  है. और वह एक मामला है स्त्रियों के साथ व्यवहार का. जब इस देश के महिलाओं के एक आश्रय स्थल की काउंसलर शैरॉन साइसोफा यह कहती हैं कि “यहां स्त्री को पीटना उतना ही सहज स्वाभाविक है जितना किसी पेड़ से आम तोड़ लेना, दोनों ही कामों में कोई पैसा  नहीं लगता  है”  तो वे एक कड़वी सच्चाई को शब्द दे रही होती हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट बताती है कि इस देश की दो तिहाई स्त्रियां अपने सहचर के दुर्व्यवहार का शिकार हैं. एक अन्य अध्ययन में इस देश के एक बड़े भू भाग के कम से कम साठ प्रतिशत पुरुष सामूहिक बलात्कार के दुष्कृत्य में शामिल होने की बात स्वीकार कर चुके हैं. इस देश का अधिक जनसंख्या वाला उत्तरी भूभाग स्त्रियों के लिए भी अधिक असुरक्षित है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के  एक सर्वेक्षण में वहां की अस्सी फीसदी महिलाएं यह बात मान चुकी हैं कि वे अपने पतियों की हिंसा का शिकार हुई हैं. इन तथ्यों के बाद इस बात को न मानने की कोई वजह ही नहीं रह जाती है कि पापुआ न्यूगिनी के उत्तरी क्षेत्र  में महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा की दर दुनिया में सबसे ज़्यादा है. कोढ़ में खाज यह कि स्त्रियों के प्रति दुर्व्यवहार को रोकने के लिए बनाने गए नियम-कानून बहुत अस्पष्ट हैं. अभी हाल तक तो इस देश में स्त्रियों को पति की सम्पत्ति ही माना जाता था और जैसे ही दुल्हन का मूल्य तै होता था, उसका भावी पति कानूनी  रूप से उसे पीटने या उसके साथ बलात्कार करने का हक़दार हो जाता  था. कई बरसों के संघर्ष और प्रतिरोध के बाद 2013 में सरकार ने एक पारिवारिक संरक्षण कानून  पास कर पत्नियों और बच्चों को पीटने पर प्रतिबंध लगाया. इसी कानून की अनुपालना  के लिए पुलिस में भी एक विभाग बनाया गया और सारे देश में पीड़ित महिलाओं के लिए सरकार द्वारा वित्त पोषित संरक्षण गृह बनाए गए. लेकिन इसके बाद सब कुछ गुड़ गोबर हो गया. भयंकर भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के चलते इन सबको पैसा मिलना बंद हो गया और हालत यह हो गई है कि अगर कोई घरेलू विवाद में बीच बचाव के लिए पुलिस को बुलाता है तो पुलिस कहती है कि हमारे पास इतना बजट ही नहीं है कि वहां आने के लिए गाड़ी में ईंधन डलवा सकें. संरक्षण गृह भी धनाभाव में बदहाल पड़े हैं.

यह जानकर आश्चर्य और क्षोभ होता है कि इस देश की संसद में एक भी महिला नहीं है. तलाक के कानून बेहद जटिल और कठोर हैं और हालत यह है कि तलाक लेने के लिए स्त्रियों को खुद अपना मोल चुकाना पड़ता है. पुरानी और सड़ी गली परम्पराएं अब भी इस देश को जकड़े हुए हैं. लोग जादू टोनों में गहरा विश्वास रखते हैं, और हालत यह है कि अगर किसी परिवार में कोई बच्चा या बड़ा  बीमार हो जाए तो उसका दोषारोपण पास में रहने वाली किसी स्त्री पर कर उसकी हत्या तक कर  दी जाती है. लेकिन इन विकट स्थितियों में भी इस देश के कुछ नागरिक और संगठन हालात को बेहतर बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 20 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 13, 2018

पराई पीड़ा को हरने की कोशिश में जुटे विदेशी वैष्णव जन!


धार्मिक संस्थानों की चल-अचल सम्पदा की प्राय: चर्चा होती है और समाज का एक तबका इस बात पर दुखी होता है कि अपनी अतिशय सम्पन्नता के बावज़ूद कई धार्मिक स्थल वंचितों और विपन्नों के लिए कुछ नहीं करते हैं या बहुत कम करते हैं. ऐसा नहीं है कि यह शिकायत सभी धर्मों और सभी धार्मिक स्थलों से हो. बहुत सारे धार्मिक स्थल या संस्थान अपनी कल्याणकारी गतिविधियों के लिए सराहे भी जाते हैं. अपने देश में भी अनेक ऐसे धार्मिक स्थल या  संस्थान  हैं जो निरंतर अपनी जन कल्याणकारी गतिविधियों के लिए सकारात्मक चर्चाओं के केन्द्र में रहते हैं. इसके बावज़ूद यह एक कड़वी सच्चाई  है कि ज़्यादातर धार्मिक संस्थाओं  की दिलचस्पी अपने वैभव को बढ़ाने और उसका प्रदर्शन करने में ही रहती है. ऐसे में जब सुदूर पश्चिम के देशों के कुछ गिरजाघरों से इस आशय के  समाचार आए कि उन्होंने अपने दरवाज़े बेघर लोगों के लिए खोल दिये हैं, तो मन खुश हो गया. लगा कि इस खुशी को तो सबके साथ साझा किया जाना चाहिए.

अभी यह ख़बर पढ़ने को मिली कि अमरीका के सैन फ़्रांसिस्को शहर में स्थित सेण्ट बॉनिफेस नामक एक चर्च के प्रबन्धकों ने अपने  इस उपासना गृह के दरवाज़े उन बेघरबार लोगों के लिए खोल दिए हैं जिन्हें किसी आश्रय स्थल की तलाश हो. उल्लेखनीय है कि इस चर्च के फादर लुइ विटाले उसी शहर के एक सामुदायिक एक्टिविस्ट शैली रॉडर के साथ मिलकर सन 2004 से ही गुबियो नाम की एक परियोजना चला रहे हैं.  इस परियोजना के तहत बेघरबार लोगों को सदस्य चर्चों में आश्रय प्रदान किया जाता है. इस सुविधा का उपयोग करने के आकांक्षी किसी भी व्यक्ति से न तो कोई सवाल पूछा जाता है और न कभी किसी को मना किया जाता है. हरेक को ससम्मान और पूरी गरिमा के साथ यह सुविधा प्रदान की जाती है. इस परियोजना के सहभागी चर्च अपनी दो तिहाई ज़मीन बेघरबार लोगों को सुलभ कराते हैं. परियोजना के कर्ताधर्ताओं का कहना है कि वे अपने आसपास रहने वाले बेघरबार लोगों को यह सन्देश देना चाहते हैं  कि वे भी समाज के सम्मानित सदस्य हैं और  जब कोई चर्च में उपासना के लिए आए तब भी वे उन्हें वहां से बाहर जाने की ज़रूरत नहीं है.

यहीं यह बात भी याद कर लेना उपयुक्त होगा कि सामान्यत: अमरीका में बेघरबार लोगों को समाज के लिए खतरनाक मानते हुए  सन्देह  और हिक़ारत की नज़रों से देखा जाता है और कोशिश यह की जाती है कि उन्हें अलग बाड़ों में क़ैदियों की तरह रखा जाए. सन 2017 में सिएटल में तो इस तरह के बेघरबार लोगों  को अपने डेरे जमाने से रोकने के लिए कांटेदार बाड़े बन्दी तक करने की योजना बनाई गई थी. खुद सैन फ़्रांसिस्को  में बेघरबार लोगों को भगाने के लिए रोबोट्स तक का सहारा लिया गया और वहां के प्रशासन ने एक बड़ी धनराशि बड़े पुलों के नीचे इन बेघरबारों के डेरे लगाने से रोकने के लिए खर्च की. बेघरबार लोगों के प्रति आक्रामकता और अस्वीकार्यता इस हद तक है कि कैलिफ़ोर्निया में फरवरी 2018 में अनेक एक्टिविस्टों को इन लोगों को खाना खिलाने के ज़ुर्म में गिरफ्तार तक कर लिया गया. बाद में प्रशासन ने अपनी सफाई यह कहते हुए दी कि उन्हें बीमारी को फैलने से रोकने के लिए ऐसा करना पड़ा था. 

ऐसे माहौल में उक्त गुबियो परियोजना अलग तरह का सुकून देती है और आश्वस्त करती है कि संवेदनशीलता  अभी भी बची हुई है.  ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ गुबियो परियोजना से जुड़े हुए चर्च ही बेघरबर लोगों को शरण दे रहे हैं. अमरीका में ही अन्य बहुत सारे चर्च भी अलग-अलग शर्तों पर और भिन्न भिन्न परिस्थितियों  में बेघरबार लोगों  को आश्रय सुलभ करा रहे हैं. मसलन कैनसास शहर के पास स्थित होप कम्युनिटी  चर्च है जो तापमान के बीस डिग्री से नीचे जाते ही बेघरबार लोगों को शरण मुहैया कराने लगता है. यह चर्च उन्हें न केवल स्थान उपलब्ध कराता है,  साफ सुथरे कपड़े भी देता है और अपने पैरों पर खड़े होने में मददगार बनता है. वहां ब्रिज ऑफ होप नामक एक समूह  है जो इस काम में चर्च की मदद करता है. इस समूह की एक सक्रिय कार्यकर्ता अम्बर होम्स खुद पांच बरस पहले तक बेघरबार थीं और आज इस तरह के लोगों की मदद करते हुए वे बार-बार अपने उस अतीत को जीने लगती हैं. अमरीका से दूर ऑस्ट्रेलिया में भी कई चर्च इसी तरह बेघरबार लोगों को आश्रय और सहायता सुलभ करा रहे हैं.

कहना अनावश्यक है कि इन धार्मिक केन्द्रों की यह दीन दुखियों की सेवा भी प्रकारांतर से ईश्वर  की ही सेवा है. याद कीजिए कि हमारे नरसी  मेहता ने भी तो कहा था-  वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 6, 2018

कृत्रिम बुद्धि की नैतिक उलझनें भी कम नहीं हैं!


जैसे जैसे हमारी ज़िन्दगी में कृत्रिम बुद्धि का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है उसे अधिक त्रुटिरहित बनाने के प्रयास भी तेज़ होते जा रहे हैं. सन 2016 में अमरीका की एमआईटी की मीडिया  लैब के शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग की शुरुआत की. उन्होंने एक वेबसाइट बनाई जिस पर जाकर कोई भी व्यक्ति अपने आप से ड्राइव होने वाली यानि ड्राइवर रहित कार के दुर्घटनाग्रस्त होने की स्थिति  में तेरह सम्भावनाओं में से किसी एक का चुनाव कर सकता था. सारे जवाब हां या ना में दिये जाने थे. दो बरसों में इस साइट पर दुनिया के 233 देशों के लोगों ने कोई चार करोड़ जवाब दिये. ये जवाब  दरअसल हमारे नैतिक अंतर्द्वन्द्व  को उजागर करते हैं. पहले ज़रा यह देखें कि इस शोध में किस तरह के सवाल पूछे गए थे. कुछ सवाल ये थे: अगर अचानक आपकी कार के सामने कोई आ जाए तो आप कार को दूसरी लेन में मोड़ लेंगे या उसी लेन में चलाते रहेंगे? अगर आपके पास बूढ़े और जवान में से,  स्त्री और पुरुष में से, मनुष्य और पालतू जानवर में से, एक बच्चे या दो बुज़ुर्गों में से, एक व्यक्ति या अनेक व्यक्तियों में से    किसी एक को बचा सकने का विकल्प हो तो आप किसे बचाएंगे? इसी तरह यह पूछा गया कि अगर आप पैदल चलने वाले या कार चलाने वाले में से किसी एक को बचा सकते हों तो किसे बचाएंगे? सड़क को सही तरह से पार करने वाले और ग़लत तरह से पार करने वाले में से किसे बचाएंगे? उच्च सामाजिक स्तर वाले जैसे डॉक्टर या व्यापारी और निम्न सामाजिक स्तर वाले जैसे मज़दूर में से किसे बचाएंगे? ये सवाल मनुष्यों से किये गए, लेकिन इन सवालों का मकसद यह था कि इनके आधार पर कुछ सामान्य मानदण्ड तैयार किये जा सकें जिनके आधार पर कृत्रिम बुद्धि चालित यंत्र काम करें.

इन तेरह सवालों के जो जवाब मिले उनका कई तरह से वर्गीकरण और विश्लेषण किया गया. वैसे तो करीब करीब सारे ही जवाबों का सार यह था कि जहां  कम और ज़्यादा जानों को बचाने में से किसी एक का चयन करना हो, हर कोई ज़्यादा जान बचाने का ही पक्षधर था. इसी तरह पालतू पशुओं और मनुष्यों में से किसी एक को बचाना हो तो आम राय मनुष्य के पक्ष में थी और अगर जवान और बूढ़े में से किसी एक को चुनना हो तो लोग जवान को  बचाने के पक्ष में थे. लेकिन इन कुछ समानताओं के अलावा जवाबों में बहुत ज़्यादा असमानताएं पाई गईं. रोचक बात यह कि जवाबों में असमानता का एक आधार भौगोलिक भी था. यानि दुनिया के एक हिस्से में रहने वालों की प्राथमिकता दुनिया के  दूसरे हिस्से में रहने वालों से अलहदा  पाई गई. अब यही बात देखिये ना कि फ्रांस, युनाइटेड किंगडम और अमरीका वासी जहां युवाओं को बचाने के पक्ष में थे वहीं चीन और ताइवान के रहने वाले वृद्धों को बचाने के पक्ष में थे. इसी तरह जापान के जवाब देने वालों ने कार में बैठे  हुए लोगों की तुलना में पैदल चलने वालों को बचाने की बात की तो चीन से जवाब देने वालों ने इसका उलट विकल्प चुना, यानि वे कार में बैठे हुओं  को बचाना चाहते थे. इस शोध का विश्लेषण करने वालों ने पाया कि इन  जवाबों के हिसाब से दुनिया को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला हिस्सा है पश्चिमी, जिसमें मुख्यत: उत्तरी अमरीका और यूरोप  आता है और  जो ईसाई नैतिकता से परिचालित है. दूसरा हिस्सा है पूर्वी जिसमें जापान, ताइवान और मध्यपूर्वी देश आते हैं और जो कन्फ्यूशियसवाद और इस्लाम से प्रभावित है, तथा तीसरा हिस्सा है दक्षिणी जिसमें मध्य और दक्षिणी अमरीका आते हैं और जिस पर तीव्र फ्रांसिसी प्रभाव है. यह हिस्सा मुखर रूप से स्त्री का पक्षधर है. पूर्वी हिस्सा युवाओं को बचाने का ज़ोरदार पैरोकार है. जब इन जवाबों का एक और तरह से विश्लेषण किया गया तो पाया गया कि जो उत्तरदाता अधिक धार्मिक थे वे पशुओं की तुलना में मनुष्यों को बचाने के समर्थक पाए गए, जबकि जहां स्त्री और पुरुष में से किसी को बचाने की बात आई  तो स्त्री और पुरुष दोनों ही स्त्री के पक्ष में पाए गए. 

जिन्होंने यह शोध की वे भी इस बात से अच्छी तरह परिचित हैं कि उत्तरदाताओं की इतनी  बड़ी संख्या के बावज़ूद यह सर्वेक्षण प्रतिनिधि नहीं है क्योंकि यहां अधिकांश  उत्तरदाता पढ़े लिखे और युवा समूह से ही ताल्लुक रखने वाले हैं. इस सर्वेक्षण की और भी अनेक खामियां हैं लेकिन इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि तो यही है कि इसने कृत्रिम बुद्धि की नैतिकता के मुद्दे पर एक सार्थक बहस शुरु कर दी है. हममें से हरेक इस बात से परिचित है कि आने वाला समय कृत्रिम बुद्धि का है और इसलिए उसके विभिन्न पक्षों पर गम्भीर विमर्श की शुरुआत का यह सही समय है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत  मंगलवार, 06 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.