Sunday, December 25, 2011

वर्ष 2011 में हिंदी भाषा और साहित्य

बीतते जा रहे साल के आखिरी दिनों में पूरे साल का लेखा जोखा करने बैठा हूं तो सबसे पहले इस बात पर ध्यान जाता है कि हमारे समाज की भाषा की ज़रूरतों में तेज़ी से बदलाव आ रहा है. अब तक हम जिस तरह से भाषा को बरतते रहे हैं, बरताव का वह तरीका अब प्रचलन से बाहर होता जा रहा है. हमारे समय में विभिन्न कारणों से, जिनमें डम्बिंग डाउन सिण्ड्रोम भी एक है, भाषा की पारम्परिक महत्ता का तेज़ी से क्षरण हुआ है. स्वाभाविक है कि मेरी अपनी भाषा हिंदी भी इस से अछूती नहीं रही है. बढ़ते वैश्वीकरण ने अंग्रेज़ी को और भी अधिक ताकतवर बनाया है और उसके ताकतवर होने का खामियाज़ा तमाम भारतीय भाषाओं को, जिनमें हिंदी भी एक है, भुगतना पड़ा है. रोजी-रोटी के लिहाज़ से हिंदी की महता में कमी आई है और इसका असर हिंदी के पारंपरिक पठन-पाठन पर भी पड़ा है. नए खुल रहे निजी विश्वविद्यालयों में तो भाषा के अध्ययन-अध्यापन की सम्भावनाएं लगभग खत्म ही हो गई है. जहां हिंदी का अध्यापन हो रहा है वहां भी स्थिति बेहतर और उत्साहपूर्ण नहीं है. लेकिन वैसे हिंदी में रोज़गार के नए अवसर भी खूब पैदा हुए हैं. अनुवाद का बाज़ार खूब फला फूला है लेकिन उस बाज़ार के लिए हमारी तैयारी अभी कम ही है. इधर भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राजभाषा प्रभाग ने एक विज्ञप्ति जारी कर हिंदी के तथाकथित कठिन शब्दों की बजाय अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करने की सलाह देकर हिंदी को ठेस पहुंचाई है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ नकारात्मक ही है. इंटरनेट, मोबाइल आदि पर हमारी भाषा का प्रयोग बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है लेकिन इस वजह से भाषा के स्वरूप में बहुत तेज़ी से बदलाव आ रहे हैं. आने वाले बरसों में हमें नए सांचे में ढली हिंदी को देखने का और उसे बरतने का अभ्यस्त होना होगा. जहां तक साहित्य का सवाल है, हम चाहें तो इस बात पर खुशी मना सकते हैं कि खूब लिखा जा रहा है और छप भी खूब रहा है. लेकिन दुख की बात यह है कि इसी अनुपात में पाठक संख्या में वृद्धि नहीं हुई है. कम से कम किताबों की बिक्री से तो यही लगता है. किताबों की वैयक्तिक खरीद का ग्राफ जस का तस है और अधिकतर प्रकाशक सरकारी और सांस्थानिक खरीद पर ही आश्रित हैं. हां, इतना ज़रूर हुआ है कि राजस्थान के एक प्रकाशक बोधि प्रकाशन ने मात्र एक-एक सौ रुपये में दस पुस्तकों के दो सेट प्रकाशित कर और उन्हें ठीक से बेच कर इस ठहरे पानी में हलचल पैदा करने की एक कोशिश की. लेकिन शेष प्रकाशन जगत पर इस प्रयास की कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली. हिंदी साहित्य की दुनिया में एक बड़ी बात यह हुई है कि नई तकनीक ने लेखक को उसकी रचनाशीलता के प्रसार के लिए अनेक वैकल्पिक माध्यम सुलभ करा दिए हैं. पिछले बरस हिंदी के नए लेखकों के अलावा अनेक प्रतिष्ठित लेखकों ने भी ब्लॉग, फेसबुक वगैरह का खूब प्रयोग कर इन नए माध्यमों को अपनी स्वीकृति प्रदान की. फेसबुक पर बहुत सारे मुद्दों पर जीवंत बहसें चलीं. ब्लॉग्स पर भी काफी कुछ बेहतरीन देखने को मिला. एक और खास बात यह हुई कि विधाओं की जकड़बन्दी में बहुत कमी आई और उनमें पारस्परिक अंत:क्रिया बढी. मुझे यह बात भी महत्वपूर्ण लगती है कि अंग्रेज़ी सहित अनेक विदेशी भाषाओं की नव प्रकाशित पुस्तकें अब तुरंत हिंदी में भी सुलभ होने लगी हैं. निश्चय ही इससे भी हिंदी की दुनिया समृद्ध हो रही है. तो कुल मिलाकर भाषा और साहित्य दोनों ही दृष्टियों से बीता साल मिला-जुला रहा है. ◙◙◙ दिनांक 25 दिसम्बर 2011 को दैनिक डेली न्यूज़ में प्रकाशित आलेख का किंचित परिवर्तित रूप. Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

Saturday, December 10, 2011

सरकार अपना बचकाना इरादा छोड़े

भारत के टेलीकॉम और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल इन दिनों अनगिनत आलोचनाओं और उपहासों के पात्र बन रहे हैं. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार कोई छह सप्ताह पहले उन्होंने कुछ सोशल मीडिया साइट्स के एक्ज़ीक्यूटिव्स के साथ मुलाकात करके उन्हें आपत्तिजनक सामग्री हटाने का निर्देश दिया. अब सिब्बल ने यह भी कहा है कि उन्हें देश के लोगों की भावनाओं का खयाल है और अगर सोशल नेटवर्क सरकार के अनुरोध पर ध्यान नहीं देंगे तो सरकार उनके खिलाफ कदम उठाने पर विचार कर सकती है. ज़ाहिर है कि इन माध्यमों का प्रयोग करने वाले करीब बीस करोड़ लोगों में से अधिकांश ने और अन्यों ने भी सिब्बल के इस कदम को बुरी तरह नापसन्द किया है.

सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों का उपयोग करने वाले इन माध्यमों की आज़ादी और त्वरिततता के कायल हैं और वे अपनी बात कहने या दूसरों की बात पर अपनी प्रतिक्रिया -चाहे वह अनुकूल हो या प्रतिकूल– देने के लिए खुल कर इन माध्यमों यथा फेसबुक, ट्विट्टर, यू ट्यूब वगैरह का निर्बाध उपयोग कर रहे हैं और करते रहना चाहते हैं. यह बहुत स्वाभाविक है कि इन माध्यमों पर सरकार की और उसके कामों की खुलकर आलोचना होती है. इतनी खुलकर कि मुद्रण माध्यमों में तो उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. लेकिन इससे यह न समझ लिया जाए कि आलोचना केवल पक्ष की ही होती है. बख्शा प्रतिपक्ष को भी नहीं जाता है. इसका बहुत अच्छा उदाहरण हैं नरेन्द्र मोदी. इन माध्यमों पर बात केवल राजनीति पर ही नहीं होती है. जीवन के तमाम पक्षों पर खुली और बेबाक बातचीत यहां होती है. कभी-कभी तो यह बातचीत ज़्यादा ही खुली हो जाती है, लेकिन इस अनियंत्रित बेबाकी की आलोचना भी इन्हीं माध्यमों पर होती है.

कपिल सिब्बल ने कहा है कि इन मंचों पर धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली सामग्री से वे चिंतित हैं. एक मंत्री के नाते उनका यह दायित्व समझ में आता है कि उन्हें अगर कहीं ऐसा कुछ नज़र आए जो देश की कानून व्यवस्था को आहत करने वाला हो तो वे उसके बारे में फिक्रमंद हों. लेकिन क्या बात वाकई यही है? या यह भी है कि पिछले कुछ समय से इन माध्यमों पर सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिरता नज़र आ रहा है और वे इससे चिंतित हैं. ऊपर मैंने न्यूयॉर्क टाइम्स की जिस रिपोर्ट का हवाला दिया है उसमें तो यह भी कहा गया है कि सिब्बल ने फेसबुक के अधिकारियों को एक ऐसा पृष्ठ दिखाया था जिसमें श्रीमती सोनिया गांधी के बारे में कुछ अप्रिय था. कॉग्रेस की जो कल्चर है उसमें यह बात तुरंत स्वीकार्य लगती है. सत्तारूढ़ दल भला देश के इस अति विशिष्ट परिवार के बारे में कुछ भी अप्रिय कैसे सहन कर सकता है? और अगर उस अप्रिय के बहाने इस दल के किन्हीं सदस्यों को परिवार के प्रति अपनी वफादारी प्रदर्शित करने का मौका मिलता है तो भला वे इस मौके को हाथ से कैसे जाने दे सकते हैं?

लेकिन आम जनता को तो इन सबसे कोई लेना-देना नहीं है. हमें तो अपनी आज़ादी प्यारी है. हम तो खुलकर अपनी बात कहना चाहते हैं! हम क्यों किसी को इस आज़ादी को छीनने की छूट दें? कपिल सिब्बल और सरकार के इरादों के तीव्र विरोध के पीछे यही बात है.

अगर इस विरोध की बात को थोड़ी देर के लिए अलग रखें तो सरकार के इस इरादे की हास्यास्पदता भी सामने आए बगैर नहीं रहती है. आप मुद्रित शब्द को तो जैसे-तैसे सेंसर कर सकते हैं, हालांकि वो भी इतना आसान नहीं होगा, इन नए माध्यमों को आप कैसे सेंसर करेंगे? यू ट्यूब पर हर रोज़ करीब 25 करोड़ तस्वीरें अपलोड होती हैं. माना जाता है कि भारत में 8 करोड़ लोग फेसबुक और ट्विट्टर का इस्तेमाल करते हैं. क्या कर लेंगे आप इन सबका? ज़्यादा से ज्यादा यही करेंगे ना कि अगर आपके ध्यान में ऐसा कुछ आया जो आपको पसंद नहीं है तो इन कम्पनियों से उसे हटाने का अनुरोध करेंगे. वैसे में, एक तो यह ज़रूरी नहीं कि आपका अनुरोध मान ही लिया जाए, और दूसरे यह कि उस तरह की सामग्री को आप एक जगह से हटवा भी देंगे तो वो चार और जगहों पर चस्पां हो जाएगी. यानि कुल मिलाकर आप अपनी खिसियाहट ज़ाहिर करने से ज़्यादा कुछ खास नहीं कर सकेंगे. मैं तो चाहूंगा कि हमारी सरकार अपना यह बचकाना इरादा छोड़ दे और जनता को अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का खुलकर इस्तेमाल करने दे. एक स्वस्थ और विकासशील प्रजातंत्र में यही अपेक्षित है. अगर वाकई कहीं कुछ अवांछनीय आता भी है तो इन माध्यमों पर नियंत्रण करके अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को बाधित करने की कोशिश करने की बजाय उसे नज़रन्दाज़ करना बेहतर होगा. और, अगर सरकार को कुछ कहना है तो वो भी इन मंचों का इस्तेमाल करे. इससे शायद उसकी विश्वसनीयता में भी कुछ वृद्धि होगी.

◙◙◙

जयपुर से प्रकाशित डेली न्यूज़ में दिनांक 10 दिसम्बर 2011 को प्रकाशित टिप्पणी.

Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा