Tuesday, February 17, 2015

जैसी दुनिया इधर है वैसी ही उधर भी है


इधर हाल ही में दूरस्थ देश हंगरी की एक ख़बर पढ़ी तो बड़े कष्ट के साथ यह अनुभूति हुए बग़ैर नहीं रही कि कुछ मामलों में दुनिया एक-सी है. पहले ख़बर तो बता दूं आपको. हंगरी के शहर माको में एक व्यवस्था है कि साल के पहले जन्मे बच्चे को मेयर द्वारा ढाई सौ पाउण्ड की राशि प्रदान की जाती है. इस साल इस राशि का हक़दार बना रिकार्डो रैक्ज़ नामक बच्चा, और उसके मां-बाप के साथ उसकी तस्वीर वहां के अखबारों में छपी. यहां तक तो सब ठीक था. इस तस्वीर के छपने के बाद हंगरी की दक्षिणपंथी जोब्बिक पार्टी के उपनेता इलोड नोवाक ने अपने फेसबुक पन्ने पर इस नवजात और इसकी मां की तस्वीर इस सूचना के साथ लगाई कि यह बालक  23 वर्षीया जिप्सी मां की तीसरी संतान है. उन्होंने यह भी लिखा कि “हंगरी मूल के लोगों की आबादी दिन पर दिन कम होती जा रही है और बहुत जल्दी हम अपने ही देश में अल्पसंख्यक  बन जाएंगे. फिर एक दिन ऐसा आएगा जब वे हंगरी का नाम बदलने का फैसला लेंगे. उस वक़्त हम देश की सबसे बड़ी समस्या  से रू-ब-रू होंगे.” और यहीं आपको यह भी बता दूं कि इस जोब्बिक पार्टी के  समर्थक जिप्सियों के लिए अक्सर यह कहते हैं कि “ये चूहों और परजीवियों की तरह पैदा होते हैं.” इलोड नोवाक के इस वक्तव्य पर खूब  प्रतिक्रियाएं हुईं. आशा है कि आपको अब तक यह बात तो स्पष्ट हो ही गई होगी कि क्यूं इस प्रसंग से मुझे अपने देश की कष्टप्रद अनुभूति हुई. इस बात को और आगे बढाऊं उससे पहले क्यों न मशहूर शायरा फहमीदा रियाज़ की एक लोकप्रिय नज़्म की कुछ पंक्तियां आपको सुनाता चलूं? वे लिखती हैं:

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे 
अरे बधाई, बहुत बधाई।

इसी नज़्म के एक अन्य बंद में वे कहती हैं:

कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी

यानि क्या भारत, क्या इसके पड़ोसी मुल्क और क्या अन्य देश – सबके हाल एक जैसे हैं. चलिये फिर से हंगरी वाले प्रसंग पर लौट जाएं!

इस पूरे प्रसंग का मानवीय पक्ष उभरता है इस बालक रिकार्डो के मां-बाप सिल्विया और पीटर के वक्तव्यों से. पीटर का परिवार मोका शहर के किनारे बसे एक छोटे-से गांव में रहता है और वहां का एकमात्र रोमा (जिप्सी) परिवार है. पीटर सामुदायिक काम करते हैं और ट्रैक्टर तथा  हार्वेस्टर चलाना सीख रहे हैं. उनकी दोनों बेटियां अभी किण्डरगार्टेन  में हैं. पीटर एक ऐसी सुकूनभरी ज़िन्दगी के आकांक्षी हैं जिसमें मीडिया और राजनीति का कोई दखल न हो. उनका कहना है कि हमें, यानि जिप्सियों और हंगेरियनों को,  सिर्फ चमड़ी के रंग के आधार पर अलग किया जाता है जबकि हमारे दिल, खून और हमारी आत्मा सब एक हैं. पीटर और सिल्विया दोनों ही बार-बार यह बात कहते हैं कि हो सकता है हंगरी में कोई नस्लवाद हो, लेकिन उन्होंने इससे पहले कभी उसका अनुभव नहीं किया. “हम इस शहर में रहना पसन्द करते हैं. यहां सभी हमारे प्रति बहुत दयालु हैं.”  लेकिन असल मार्के की बात कही सिल्विया ने. उनके एक-एक शब्द से उनकी पीड़ा व्यक्त होती है. उन्होंने कहा, “लोगों को उनके जन्म के वक़्त से ही निशाना नहीं बनाना  चाहिए. मेरा बच्चा जब 18 साल का हो जाएगा तो वह यह फ़ैसला लेगा कि उसे रोमा के रूप में पहचाना जाए या नहीं. इसमें उसकी क्या ग़लती अगर वो पिछले साल के आखिरी दिन मध्यरात्रि  के कुछ लमहों के बाद इस दुनिया  में आया.”

यह बात बहुत विडम्बनापूर्ण लगती है कि जिसे आपने नहीं चुना है, जैसे अपना जन्म, उससे  जुड़ी तमाम बातें बिना आपकी सम्मति के आप पर लाद दी जाएं! इस बालक रिकार्डो रैक्ज़ ने यह चुनाव नहीं किया है कि वो रोमा है या हंगेरियन, लेकिन इलोड नोवाक महोदय उसे रोमा होने का दण्ड देने के लिए ज़रा भी इंतज़ार नहीं करना चाहते. इसी सन्दर्भ में अपने  सुधि पाठकों को याद दिला दूं कि हिन्दी में बनी कम से कम दो फिल्में तो मुझे तुरंत याद आ रही  हैं जो इस तरह की विडम्बनापूर्ण स्थितियों को सामने लाती हैं. एक है आचार्य चतुरसेन शास्त्री के इसी नाम के उपन्यास पर 1961 में यश चोपड़ा द्वारा बनाई गई ‘धर्मपुत्र’ और दूसरी भावना तलवार निर्देशित 2007 में रिलीज़ हुई ‘धर्म’. फिलहाल हम तो यही आशा कर सकते हैं कि जब हंगरी का यह बालक रिकार्डो बड़ा होगा  तो उसे आज से बेहतर दुनिया मिलेगी.
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जयपुर से प्रकाशित  लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत इसी शीर्षक से आज 17 फरवरी, 2015 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.