Tuesday, December 24, 2013

जब एक विद्यार्थी ने पूरे कॉलेज को मामू बना डाला

प्रदेश में नई सरकार बन गई है और उसने जोर-शोर से काम शुरु कर दिया है. आम तौर पर सरकारें या तो शुरु में सक्रिय होती हैं या उस वक़्त जब उनके अस्तित्व पर कोई संकट आता है,  वरना तो वे सरक-सरक कर ही चलती हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि राजस्थान की नई सरकार इस धारणा को मिथ्या साबित करेगी और जन आकांक्षाओं पर खरी उतरेगी.  बहरहाल, मुझे आज याद आ रहा है 1975 का इमर्जेंसी का वो दौर जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए तमाम प्रजातांत्रिक नागरिक अधिकारों को  स्थगित कर दिया.  

उन दिनों प्रधानमंत्री का  बीस सूत्री कार्यक्रम बहुत उत्साह से प्रचारित किया जा रहा था. जनता को बताया जा रहा  था कि यह कार्यक्रम उसकी हालत बदल देगा. सरकारी संस्थाओं पर यह अनकहा दबाव था कि वे जी-जान से इसके प्रचार-प्रसार में जुट जाएं. कुछ दबाव और इससे भी अधिक सरकारी अमले की वफ़ादारी. हर तरफ बीस-बीस का ही शोर था.  मैं उन दिनों राज्य के एक छोटे कस्बे के एक महाविद्यालय में हिन्दी पढ़ाया करता था. मेरे महाविद्यालय के प्राचार्य जी को भी अपनी वफ़ादारी  दिखाने का जोश चढ़ा  और उन्होंने आनन-फानन में बीस सूत्री कार्यक्रम से होने वाले फायदों पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन  करने की घोषणा कर डाली. उस छोटे कस्बे के छोटे महाविद्यालय में कोई सभा भवन तो था नहीं. एक बड़े कमरे में वह गोष्ठी आयोजित की गई. हर संस्थान में, और ख़ास तौर पर शिक्षण संस्थानों  में ऐसे कुछ लोग अवश्य ही होते हैं जो किसी भी विषय पर अपने अमूल्य विचार प्रस्तुत करने को सदा सुलभ रहते हैं. हक़ीक़त तो यह है कि ऐसे वीर पुरुषों के दम पर ही इस किस्म के  आयोजन सम्पन्न किए जाते हैं. संस्था प्रधान भी यही चाहता है कि कुछ लोग प्रस्ताव के पक्ष में कुछ सुन्दर-सुन्दर विचार व्यक्त कर दें और सुख शांति पूर्वक रस्म अदायगी हो जाए!  और यही उस गोष्ठी में भी हुआ. विद्वान प्राध्यापकों ने बताया कि बीस सूत्री कार्यक्रम के आते ही देश की तक़दीर बदलने की शुरुआत हो चुकी है और बस कुछ ही समय में सब कुछ फर्स्ट क्लास हो जाने वाला है. ‘मौका भी है, दस्तूर भी’ का निर्वहन करते हुए एक से बढ़कर एक अच्छी-अच्छी  बातें की गईं.

गोष्ठी समापन की तरफ़ बढ़ रही थी, तभी एक विद्यार्थी ने संयोजक से अनुरोध किया कि वह भी अपने विचार व्यक्त करना चाहता है. छोटा महाविद्यालय था, सभी सबको जानते थे. किसी तरह के ख़तरे की कोई आशंका नहीं थी. वो विद्यार्थी वैसे भी अच्छा वक्ता और लोकप्रिय डिबेटर था. अत:  संयोजक ने सहर्ष उसे बोलने की अनुमति दे दी. उस विद्यार्थी ने अन्य बातों के अलावा यह भी कहा कि प्रधानमंत्री जी ने बीती रात अपने बीस सूत्री कार्यक्रम में पाँच  सूत्र और जोड़े हैं और अब यह पच्चीस सूत्री कार्यक्रम हो गया है. उसने यह बात इतने आत्मविश्वास से कही कि बाद वाले किसी भी वक्ता ने न केवल उसकी  बात का खण्डन नहीं किया, पच्चीस सूत्री कार्यक्रम की ही आरती गाई. बाद में तो संयोजक ने भी उस गोष्ठी को प्रधानमंत्री के पच्चीस सूत्री कार्यक्रम के नाम कर दिया और प्राचार्य जी ने भी पच्चीस सूत्री कार्यक्रम की शान में ही कसीदे पढ़े.  आज की बात होती तो जब वह विद्यार्थी बोल रहा था तभी किसी ने अपने मोबाइल पर गूगल करके उसके कथन की सत्यता को जांच भी लिया होता. लेकिन याद रखें, वो ज़माना, इण्टरनेट का तो दूर,  टीवी का भी नहीं था. ख़बरों का एक मात्र माध्यम था सरकारी रेडियो या फिर 24 घण्टों में एक बार आने वाला अख़बार. यानि विद्यार्थी के कथन को तत्काल जांचने का कोई तरीका उपलब्ध ही नहीं था.  

गोष्ठी बहुत बढ़िया तरह से सम्पन्न हो गई. लेकिन कुछेक लोगों के मन में यह बात ज़रूर खटकती रही कि प्रधानमंत्री जी ने अपने बीस सूत्री कार्यक्रम को बढ़ाकर पच्चीस सूत्री कर दिया, और उन्हें ख़बर तक नहीं हुई! ऐसा कैसे हो गया? घर जाकर रेडियो सुना, तो पाया कि वहां तो बीस सूत्री कार्यक्रम का ही कीर्तन जारी था. किसी भी बुलेटिन में पच्चीस सूत्र नहीं थे. अगले दिन स्टाफ रूम में यही चर्चा थी. हरेक यही ताज्जुब कर रहा था कि जिन पच्चीस सूत्रों की बात उस विद्यार्थी ने कल की थी, वे तो कहीं थे ही नहीं.

ज़ाहिर है कि उस विद्यार्थी ने हम सबको मामू बना दिया था. आज भी वो घटना याद आती है तो उस विद्यार्थी के आत्मविश्वास भरे कौतुक और हम सबके अपनी जानकारी पर भरोसे की कमी को याद करते हुए एक मुस्कान उभर आती है.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 24 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.     

Tuesday, December 17, 2013

घर से बाहर घर जैसा खाना

भारतीय मध्यवर्ग के जीवन में बहुत तेज़ी से जो बदलाव आ रहे हैं उनमें से एक खान-पान को लेकर है. कहा जाता रहा है कि यह वर्ग अपने खान-पान की रुचियों को लेकर बहुत प्रयोगशील नहीं है, लेकिन यह स्थिति अब धीरे-धीरे बदल रही है. मध्यवर्ग भी अपने खान-पान को लेकर खासा प्रयोगशील  होता जा रहा है, जिसका प्रमाण  हैं हर शहर-कस्बे में नए नए खुलते जा रहे किसम-किसम के और देश-देश के  व्यंजनों के आउटलेट्स.

मध्यवर्ग में बाहर खाने का प्रचलन भी बहुत तेज़ी से बढ़ा है. बहुत ज़्यादा समय नहीं बीता है जब इस वर्ग  में बाहर खाने-पीने को लेकर संकोच ही नहीं, अस्वीकार का भी भाव हुआ करता था. लेकिन अब हालत यह हो गई है कि अगर आप सप्ताहांत में बाहर खाना खाना चाहें तो आपको एक से ज़्यादा जगहों पर घूमना पड़ सकता है या काफी प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है. न केवल सप्ताहांतों में, तीज-त्यौहारों पर भी बाहर खाने का चलन बढ़ता जा रहा है. छोटे-मोटे पारिवारिक आयोजन रेस्तराओं में होने लगे हैं और अब तो भाई-दूज जैसे मौकों पर भी बहन-भाई घर की बजाय रेस्तरां को पसन्द करने लगे हैं. करवा चौथ जैसे अवसरों पर तो यह बात और जुड़ जाती है कि पति व्रत  रखने वाली प्रेमिल पत्नी को चूल्हे-चौके के झंझट से बचा रहा है.  बाहर खाने को स्त्री मुक्ति के साथ भी जोड़ कर देखा जाने लगा है. वही बात कि कम से कम एक दिन तो स्त्री को घर के इस तरह के कामों से मुक्ति मिले.

लोगों के खान-पान की आदतों में आए बदलाव को बाज़ार में आ रहे नए-नए व्यंजनों या उनके सहायक पदार्थों की भारी भीड़ में भी देखा जा सकता है. अनेक तरह के पैकेट आने लगे हैं जिन्हें ‘बस दो मिनिट’ में कम से कम मेहनत में आप टेबल पर लाकर खाने  योग्य बना सकते हैं. रेडीमेड मसाले या तैयार अदरक लहसुन मिर्ची इमली  आदि के पेस्ट भी इसी श्रंखला में हैं. इस सबके बीच जो बात मुझे सबसे मज़ेदार लगती है वो यह है कि चीज़ों को बेचने के लिए क्या-क्या किया जाता है.

आप देखेंगे कि बाज़ार में जो उत्पाद बेचे जाते हैं वे आपको बताते हैं कि उनका उपयोग करके आप घर पर होटल जैसा खाना तैयार कर उसका मज़ा ले सकते हैं. यहां एक साथ अर्थशास्त्र और स्वाद शास्त्र की मदद लेकर आपको आकर्षित किया जाता है. होटल में जाना महंगा होता है, इसलिए आप उस उत्पाद का प्रयोग कर घर पर ही होटल वाले शानदार स्वाद का मज़ा ले लीजिए!  लेकिन आपने यह  भी देखा होगा कि बहुत सारे होटल, और उनमें भी वो जो खासे महंगे होते हैं, आपको ‘घर जैसे खाने’ का लालच देते हैं. उनके विज्ञापनों को देखकर अक्सर मुझे विज्ञापन लिखने वालों की सूझ-बूझ पर सन्देह होने लगता है. फिर सोचता हूं कि हो सकता है यह निमंत्रण उन ‘बेचारों’ के लिए हो जिन्हें नौकरी या टूअर आदि के कारण घर से बाहर रहना पड़ रहा हो और जो घर को बुरी तरह मिस कर रहे हों! मैंने कभी  इस तरह के रेस्तरां के व्यंजनों का स्वाद नहीं चखा है. लेकिन जानने की उत्सुकता ज़रूर है कि क्या वे लोग भी घिया की सब्ज़ी, मूंग की दाल और जली हुई, कड़ी या कल सुबह की बची रोटी सर्व करते हैं?

और इसी से मुझे याद आ रहा है अपने एक मित्र के साथ घटित एक प्रसंग. एक दिन मुलाक़ात हुई तो बातचीत  से पता चला कि उनके सामने के दो दाँत भूतपूर्व हो गए हैं. कारण  पूछा तो उन्होंने बताया कि कल उनकी धर्म पत्नी जी ने जो रोटी  बनाई थी वो बहुत कड़ी थी! मैंने बहुत सहज भाव से कहा, “तो आपको खाने से मना कर देना चाहिए था!” और उन्होंने उससे भी अधिक सहज भाव से जवाब दिया, “वो ही तो किया था!” आशा करता हूं कि घर जैसा खाना खिलाने का वादा करने वाले होटल यह भी ज़रूर करते होंगे.

असल में यह जो बाहर खाने-वाने का चलन बढ़ा है इसमें एक बहुत बड़ी भूमिका इस बात की भी है कि स्त्रियां बहुत बड़ी तादाद में घर से बाहर निकल कर नौकरी वगैरह करने लगी हैं. यह स्वाभाविक ही है कि जब उन्होंने एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी ओढ़ी है तो अपने पहले वाले दायित्वों में से कुछ को वे हल्का करें. अब तो नई पीढ़ी  में बहुत सारे युगल ऐसे भी देखने को मिल जाते हैं जो सुबह आठ बजे नौकरी पर निकलते हैं और रात नौ बजे लौटते हैं. उनके यहां किसी भी पत्नी  से यह उम्मीद करना कि दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद वो अपने पतिदेव के सम्मान में गरमा गरम खाना तैयार कर परोसेगी, न केवल अव्यावहारिक, बल्कि अमानवीय भी होगा. और मुझे लगता है कि अगर हम स्त्रियों का बाहर काम करना स्वीकार कर सकते हैं तो फिर लोगों के बाहर खाना खाने को भी उसी सहज भाव से स्वीकार करना चाहिए.  
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय  अपराह्न दैनिक  न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 17 दिसम्बर, 2013 को  होटल में घर का स्वाद...अजब पहेली शीर्षक से प्रकाशित टिप्पणी का मूल आलेख! 

Tuesday, December 10, 2013

आगे की सुध ले....

चुनावों का एक दौर  पूरा हुआ. कुछ लोगों ने इसे  सत्ता का सेमी फाइनल भी कहा. और भी बहुत कुछ कहा. लेकिन फिलहाल मैं अभिव्यक्ति  पर, शब्दों के प्रयोग पर कोई विमर्श  शुरु नहीं कर रहा हूं. इसकी बजाय दो-तीन बातों पर आप सबका ध्यान खींचना चाह रहा हूं.

पहली बात तो यह कि करीब-करीब सब जगह इस बार रिकॉर्ड मतदान  हुआ. आज़ादी के इतने बरसों बाद हमारा मतदाता जागरूक होकर अपने मताधिकार का प्रयोग करने में अधिक सजग हुआ है, यह तो खुशी की बात है ही, प्रसन्नता इस बात की भी है कि निर्वाचन विभाग ने विभिन्न संचार माध्यमों का सदुपयोग कर मतदान के पक्ष में माहौल बनाया और अन्य बहुत सारे घटकों ने इस माहौल को अपना समर्थन देकर मज़बूत किया. परिणाम हम सबके सामने है. इससे यह भी भरोसा होता है कि अगर कोई काम मन लगाकर किया जाए तो उसके परिणाम भी निश्चित  रूप से सामने आते  हैं.

दूसरी बात यह है कि इस बार चुनाव परिणाम बहुत अप्रत्याशित रहे हैं. शायद  हर दफ़ा रहते हैं, लेकिन इस बार कुछ अधिक रहे. न जीतने वालों ने इतनी बड़ी जीत की उम्मीद की थी और न हारने वालों ने इतनी बड़ी हार की आशंका मन में रखी थी. ख़ास तौर पर अपने प्रांत राजस्थान में. मीडिया के अनुमान, एक्ज़िट पोल, ओपीनियन पोल, पण्डितों की भविष्यवाणियां – सब पीछे रह गए. यह अलग बात है कि परिणाम आ जाने के बाद पण्डित लोग (मेरा मतलब है राजनीतिक पण्डित लोग) अपनी-अपनी तरह से इन परिणामों की व्याख्या करते हुए दर्शा रहे हैं कि यह तो होना ही था. मेरा मन करता है कि उनसे पूछूं कि हुज़ूर अगर आप जानते थे तो पहले क्यों नहीं बोले? लेकिन फिर लगता है कि कुछ न कुछ कहना उनकी भी तो विवशता है. अब इस विवशता में वे अगर अपनी विद्वत्ता का भी थोड़ा तड़का लगा रहे हैं, तो इसे क्षम्य माना जाना चाहिए. लेकिन ये जो परिणाम सामने आए हैं, मुझे लगता है कि ये जाने वाली सरकार के लिए तो महत्व रखते ही हैं, आने वाली सरकार के लिए उससे भी अधिक महत्व रखते हैं. इन परिणामों  के बाद हमारे जन प्रतिनिधियों को, राजनीतिक दलों को, शासकों को, सरकारों  को यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि जनता न तो सहन करती है और न माफ़. वो अब इतनी समझदार हो गई है कि उसके हाथ में जो ताकत है उसका इस्तेमाल कर आपको अर्श पर ले जा सकती है तो फर्श पर भी पटक सकती है. यानि आप उसकी उपेक्षा न करें.

और यह बात इस बार जो सरकार बनने वाली है उसके लिए तो और अधिक महत्व रखती है. इसलिए रखती है कि आज़ादी के बाद हमारे प्रांत की यह कदाचित पहली ऐसी सरकार होगी जिसके सामने इतना छोटा विपक्ष होगा. लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए, लेकिन इस बार जनता जनार्दन ने जो जनादेश दिया है उसमें संभवत: सत्ता पक्ष को ही यह दायित्व भी सौंप दिया है कि अपने कामों की निगरानी भी वह खुद करे. यह बहुत बड़ा दायित्व है. इस सरकार को निरंकुश हो जाने के फिसलन भरे किंतु मोहक मार्ग से खुद अपना बचाव करना होगा.

कभी-कभी मुझे लगता है कि हमारे देश में किसी भी सरकार के लिए जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरना नामुमकिन है. अगर आप एक नागरिक के रूप में मुझसे जानना चाहें तो मेरी तमन्ना यही होगी  कि मुझसे कम से कम टैक्स लिया जाए और सरकार  मुझे ज़्यादा से ज़्यादा दे. मेरे सारे काम वो करे. आम लोगों की इस अव्यावहारिक तमन्ना को कोई पूरा नहीं कर सकता. लेकिन दो चीज़ें तो हो ही सकती हैं. एक तो यह कि टैक्स लेने और सुविधाएं देने के बीच वाज़िब संतुलन बनाया जाए, और दूसरे यह कि जनता को यह भरोसा दिलाया जाए कि जितना उससे लिया जा रहा है, उसका सदुपयोग हो रहा है. अब तक की त्रासदी यही रही है कि लोगों को लगा है कि उनसे टैक्स आदि के रूप में जो लिया जा रहा है उसका सही उपयोग नहीं हो रहा है.

और एक आखिरी बात. अब तक तो यही देखने में आया है कि चुनाव से पहले जो लोग मतदाता को यह एहसास दिलाते नज़र आते थे कि मतदाता ही सर्वोपरि है, चुनाव परिणाम आने और विजयी हो जाने के बाद  वे पहुंच से परे हो जाते हैं. जनता की सुध उन्हें पूरे पाँच बरस बाद ही आती है. जो लोग जीत कर आए हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि अब जनता इस बात को स्वीकार नहीं करने वाली है. उन्हें पूरे पाँच  बरस अपने मतदाताओं से जीवंत सम्पर्क बनाए रखना  होगा, और उनकी आशाओं-आकांक्षाओं की न केवल खोज-खबर  लेनी होगी, उनकी पूर्ति के लिए यथासम्भव  प्रयास भी करते रहना होगा. अगर ऐसा न किया गया तो जनता को 2013 को दुहराने में कोई संकोच नहीं होगा.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' में 10 दिसम्बर, 2013  को प्रकाशित टिप्पणी का मूल आलेख.       

Tuesday, December 3, 2013

हम तो लुट गए खड़े ही खड़े

शादियों का सीज़न पूरे यौवन पर है. सड़क पर निकलिये  तो आपको कहीं पता चलेगा कि ये देश वीर जवानों का है और थोड़ा आगे निकलेंगे तो मेरे यार की शादी है की नाचती-गाती  मुनादी सुनाई देगी. शादी का मतलब सबके लिए अलग-अलग होता है. दूल्हा दुल्हन के लिए अलग, उनके मां-बाप के लिए अलग, रिश्तेदारों के लिए अलग, और उन ‘मानस के राजहंसों’ के लिए अलग जिन्हें बुलाने को स्नेह निमंत्रण भेजे जाते हैं. इन बेचारे मानस के राजहंसों  की हालत हर आने वाले निमंत्रण के साथ पतली होती जाती है. महीने के बजट में उस निमंत्रण पत्र का मान कैसे फिट होगा, ज़्यादातर मध्यमवर्गीय लोगों  के  लिए यह सोच उस शादी के समारोह के उल्लास की समस्त सम्भावनाओं पर भारी पड़ा जाता है.
 
मुझे अपनी नौकरी के वे शुरुआती दिन याद हैं जब हमारे कॉलेज में कोई बीसेक प्राध्यापक हुआ करते थे और कॉलेज के किसी भी विद्यार्थी के परिवार में अगर शादी होती तो वो अपने किसी विश्वास पात्र को इस बात के लिए तैनात करता कि वो सारे प्राध्यापकों को लेकर आए और उनका विशेष ध्यान रखे. जीमण, जी हां, तब जीमण होते थे, ज़मीन पर पंगत में बैठ कर होता था और तीन-चार युवा हम सबको मनुहार कर-करके जिमाते थे. भरपेट जीम लेने के बाद बारी आती थी ‘आशीर्वाद’ देने की. तब लिफाफों का प्रचलन नहीं हुआ था. हमारे एक साथी इस काम में माहिर माने जाते थे इसलिए  हम सब उनको आगे करते और वे अपने हाथ में एक-एक रुपये के पाँच  नोट ताश  के पत्तों की तरह जमा कर वर या वधू के पिताश्री को भेंट करते. साथ-साथ वे हें-हें भी करते जाते. हम सब भी उनका अनुसरण करते. 

तब से अब तक देश की सारी नदियों में बहुत सारा पानी बह गया है. जीमण  की  जगह वृषभ भोज ने ले ली है. मेरा मतलब है बफ़े डिनर से  है. यह इतना आम हो गया है कि अब लोगों ने इसका उपहास करना भी बन्द कर दिया है. बफ़े डिनर के साथ-साथ शादियों का आकार इतना बड़ा होने लगा है कि न बुलाने वाला आपको पहचानता है और न आप अपने होस्ट को जानते हैं. एक शादी में आव भगत करने वाली सजी-धजी विनम्र  युवतियों  को मैं बहुत देर तक घर परिवार की सदस्याएं मानकर उनका अभिवादन करता रहा. और एक अन्य शादी में पहुंच कर शीतल पेय आदि ग्रहण करने के बाद जब अचानक एक पुराने मित्र से भेंट हुई और थोड़ी इधर-उधर की बातें  हुई मुझे पता चला कि जिस शादी में मुझे शामिल होना है वो तो दूसरी तरफ के पाण्डाल में है. ऐसे अनेक किस्से हैं.

जब भी शादियों की बात होती है, मुझे बरसों पहले की एक घटना याद आए बग़ैर नहीं रहती है. मेरे एक प्रिंसिपल महोदय की बेटी की शादी थी. प्रिंसिपल भी ऐसे वैसे नहीं, अंग्रेजों के जमाने के जेलर-नुमा. उनके यहां शादी में हमने पहली बार देखा कि ‘आशीर्वाद’ स्वीकार करने के लिए बाकायदा एक काउण्टर लगाया गया था, जिस पर उनके एक नज़दीकी  रिश्तेदार तैनात थे. ज़ाहिर है कि वे हममें से किसी को नहीं जानते थे. वैसे तो उस ज़माने में शादियों का आकार क्योंकि छोटा होता था, वर या वधू के परिवार के लोग हर मेहमान से  व्यक्तिश: परिचित हुआ करते थे.  लेकिन यह तो अफसर की बेटी की शादी का मामला था. इसलिए व्यवस्था भी अलग तरह की थी. तब तक लिफाफों का प्रचलन नहीं हुआ था. नोट नंगे  ही दिए जाते थे. हममें से एक-एक प्राध्यापक जाता, उन रिश्तेदार महोदय के सामने अपना पाँच रुपये का नोट पेश करता, वे नाम पूछते और उसी नोट पर वह नाम लिखकर अपने हाथ में लिए एक हैण्ड बैग में रख लेते. इस तरह हम सब मुलाजिमों ने अपना दायित्व निर्वहन कर लिया. तभी शहर के एक नामी वकील साहब वहां आए. उन्होंने बड़ी ठसक से अपनी जेब से सौ रुपये का नोट निकाला, और उन प्रभारी रिश्तेदार महोदय को पेश किया. तब क्योंकि शादी में आशीर्वाद के लिए पाँच  रुपये का रेट फिक्स्ड था, रिश्तेदार महोदय ने बहुत सहज भाव से उस सौ रुपये के नोट पर उन वकील साहब का नाम लिखा और अपने उस हैण्ड बैग से हम सबके दिए हुए नोट  निकाल कर उन वकील साहब को दे दिए.
सोच सकते हैं, तब हम सबके दिल पर क्या गुज़री होगी? बेहोश  होकर धराशायी होने में बस थोड़ी ही कमी रही. अफसोस केवल अपने पाँच  रुपयों का नहीं था, उससे भी ज़्यादा फिक्र इस बात की थी कि प्रिंसिपल साहब के दरबार में हमारा ‘आशीर्वाद’ गैर हाज़िर पाया जाएगा तो उनको कितना बुरा लगेगा! औरों की मैं नहीं जानता, मुझे तो अपने प्रिय कवि नीरज बुरी तरह याद आ रहे थे – कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

लेकिन क्या ज़माना था वो भी!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न  दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित होने वाले म्रे साप्ताहिक  कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 03 दिसम्बर 2013 को प्रिंसिपल के दरबार  में हमारा 'आशीर्वाद' गैर हाज़िर शीर्षक से प्रकाशित टीप का मूल आलेख.