28 जनवरी 2008 को जयपुर में विरासत फाउण्डेशन द्वारा आयोजित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल सम्पन्न हुआ. आखिरी दिन का एक आयोजन दो प्रसिद्ध राजस्थानी लेखकों श्री लाल मोहता और चन्द्रप्रकाश देवल के बीच संवाद भी था.
इसी संवाद को लेकर आज(29 जनवरी) के दैनिक भास्कर में पहले पन्ने पर एक समाचार छपा, जिसका शीर्षक था " राजस्थानी साहित्यकारों को मंच से उतारा". इसी समाचार के बगल में कल्पेश याग़्निक का एक विशेष सम्पादकीय भी था,"मर्यादा तोडता दम्भ". अखबार के खबर के अनुसार हुआ यह कि पिछले सत्र के देर से शुरू होने के कारण राजस्थानी का यह संवाद सत्र बीस मिनिट देर से शुरू हुआ, और जब राजस्थानी लेखकों ने चाहा कि उनका सत्र निर्धारित समय से बीस मिनिट देर तक चले तो आयोजन से जुडी अंग्रेज़ी लेखिका नमिता गोखले ने अशिष्टतापूर्वक इन दोनों साहित्यकारों को जबरन मंच से उतार दिया.
विशेष सम्पादकीय भी इसी मुद्दे पर लिखा गया.
कल रात ही दैनिक भास्कर से किसी पत्रकार ने मुझे भी इस बाबत फोन किया था. उनका नाम मैं ठीक से सुन नहीं पाया. उन्होंने इस घटना पर मेरी टिप्पणी चाही थी. मैंने उनसे कहा कि ऐसी कोई खास बात तो आयोजन के दौरान हुई नहीं. मैं उस पूरे सत्र में मौज़ूद था. उससे पहले भी और बाद में भी. हां, इतना ज़रूर हुआ था कि नमिता गोखले ने एकाधिक बार इन लेखकों से अपनी बात पूरी करने का अनुरोध किया था क्योंकि अगला सत्र शुरू होना था. आखिरी बार वे थोडे गुस्से से, और बिना एक भी शब्द बोले, उस टैण्ट से बाहर निकल गई थी. इसके भी कोई पांच सात मिनिट तक इन लेखकों ने अपनी बात पूरी की, और बाकायदा चर्चा का समापन कर नीचे उतरे. इसके बाद अगला सत्र शुरू हुआ जिसमें चित्रा मुद्गल मुख्य भूमिका में थी. चन्द्र प्रकाश देवल और श्रीलाल मोहता भी उस सत्र में काफी देर तक तो थे. मैंने सम्वाददाता से कहा कि नमिता गोखले ने बोला तो एक भी शब्द नहीं. अलबत्ता वे गुस्से से ज़रूर बाहर गईं. लेकिन यह ऐसी कोई खास बात नहीं थी. वे अपनी आयोजकीय भूमिका का निर्वाह कर रही थीं, और इसे सहजता से लिया जाना चाहिए. इसके बाद सम्वाददाता जे ने पूरे आयोजन में अंग्रेज़ी के वर्चस्व पर मुझसे थोडी चर्चा की. मेरा भी यही खयाल था कि आयोजन में अंग्रेज़ी को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व दिया गया.
लेकिन आज सुबह अखबार में वह खबर पढकर मेरा भी चौंकना स्वाभाविक था. जो हुआ ही नहीं, उसे न केवल खबर बनाया गया, उस को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हुए एक विशेष सम्पादकीय भी लिखा गया. खबर के साथ ही मुझ सहित कुछेक लूगों के बयान भी दिये गये. मज़े की बात यह कि जिनके बयान दिये गए उनमें से दो लेखक मित्र तो आयोजन में उपस्थित ही नहीं थे. माना जा सकता है कि उन्होंने सम्वाददाता के वर्णन के आधार पर अपनी टिप्पणियां दी होंगी.
मेरा आशय यहां नमिता गोखले के पक्ष में कोई टिप्पणी करने का नहीं है. आज के अखबार में उनका जो बयान छपा है, अगर वाकई उन्होंने वैसा कहा है तो वह गलत है. लेकिन, इससे पहले तो यह बात कि अखबार जो लिख रहा है वह कितना सही है!
जैसा मैंने कहा, ऐसी कोई घटना घटित ही नहीं हुई. इस बात की पुष्टि मैंने उन कई मित्रों से भी की जो उस सत्र में मेरे साथ मौज़ूद थे.
हम आयोजन में अंग्रेज़ी के महत्व स्थापन पर आपत्ति करें, यह तो ठीक लेकिन बिना बात का बतंगड खडा करें, यह तो उचित नहीं.
Sunday, January 13, 2008
दर्शक दीर्घा में बैठकर न देखें प्रजातंत्र का खेला
अब तक महिला विषयक लेखन के लिए सुपरिचित बेस्ट सेलर लेखिका नाओमी वुल्फ अपनी नई किताब ‘द एण्ड ऑफ अमरीका: लेटर ऑफ वार्निंग टू अ यंग पैट्रिअट’ के माध्यम से अपने देशवासियों को आगाह करती हैं कि उनके देश में प्रजातंत्र का बने रहना इस बात पर निर्भर है कि वे उसमें कितनी भागीदारी निबाहते हैं. यूरोपीय व अन्य देशों के सत्तावादी उभारों के इतिहास का स्मरण करते हुए वह भयावह आशंका जताती है कि अमरीका में भी ऐसा हो सकता है. वुल्फ बताती हैं कि किस तरह दुनिया के तमाम निरंकुश अत्याचारी शासक एक खास क्रम में उठाये गए दस कदमों से प्रजातंत्र को कुचलते रहे हैं. ये दस कदम हैं : सबसे पहले आंतरिक और बाह्य संकट का हौव्वा खडा किया जाए, गुप्त कारागार स्थापित किए जाएं, एक पैरा मिलिट्री फोर्स बनाई जाए, आम नागरिकों की निगरानी शुरू की जाए, नागरिक समूहों में घुसपैठ की जाए, मनमाने तरीके से नागरिकों की पकड-धकड की जाए और बिना किसी तर्क के उन्हें छोड भी दिया जाए, मुख्य व्यक्तियों को निशाना बनाया जाए, प्रेस को नियंत्रित किया जाए, आलोचना को ‘जासूसी’ का और असहमति को ‘देशद्रोह’ का नाम दिया जाए, और न्याय पूर्ण व्यवस्था को नष्ट किया जाए. सारी दुनिया में इन कदमों का प्रयोग खुले समाजों को बर्बाद करने में किया जाता रहा है.
नाओमी वुल्फ की यह किताब भयावह है क्योंकि यह अमरीका के आज के घटनाक्रम और बीसवीं शताब्दी के मध्य के उस घटनाक्रम में साम्य दर्शाती है जिसकी परिणति फासीवाद और द्वितीय विश्व युद्ध में हुई थी. वुल्फ ज़ोर देकर कहती हैं कि समाज तानाशाही की तरफ यकायक नहीं मुड जाया करते. प्राय: होता यह है कि ज़्यादातर लोगों की सामान्य नियमित दिनचर्या अप्रभावित रहती है. हो सकता है कि हम ‘अमरीकन आइडल’ देखते रहें, मॉल में जाकर पिज़्ज़ा ऑर्डर करते रहें और उसी वक़्त हमारी आज़ादी हमसे छीनी जाती रहे. इसीलिए वे कहती हैं कि अमरीका आज जिस रास्ते पर चल रहा है वह डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि आज़ादी का लोप तो सबको ही प्रभावित करेगा.
वुल्फ पूरी ऊर्जा और शिद्दत से यह एहसास कराती है कि बुश प्रशासन की नीतियों की वजह से उनका देश एक खतरनाक फासिस्ट शिफ्ट से गुज़र रहा है. वे कहती हैं कि फासीवाद तानाशाही के बगैर भी पनप सकता है.
हालांकि आम अमरीकी यह मानने को तैयार नहीं होता कि 9/11 के बाद उसका देश किसी भी तरह नाज़ी जर्मनी और चिली के फासीवाद और सर्वसत्तावादी कालखण्ड के समकक्ष बनता जा रहा है, लेकिन एक बहुत छोटे किंतु प्रतिबद्ध प्रकाशक के यहां से प्रकाशित वुल्फ की महज़ 192 पृष्ठों की किताब यह स्थापित करने में पूरी तरह कामयाब है कि उन समाजों और आज के अमरीकी समाज के बीच की समानांतरता और समानताओं या कि अनुगूंजों को अनसुना नहीं किया जा सकता. इस तरह यह किताब एक साथ ही चौंकाती है, डराती है और हमारी संवेदनाओं को झकझोरती है.
नोआमी वुल्फ इस किताब में 30 के दशक के जर्मनी, 40 के दशक के रूस, 50 के दशक के पूर्वी जर्मनी, 60 के दशक के चेकोस्लोवाकिया, 70 के दशक के चिली और 80 के दशक के चीन के परिदृश्य से 2000 के बाद के अमरीका की समानताएं दिखाकर प्रजातंत्र के सम्भावित पटाक्षेप के खिलाफ जनमत जगाने का मूल्यवान प्रयास करती हैं. वे साफ शब्दों में कहती हैं कि प्रजातंत्र ऐसा तमाशा नहीं है जिसे दर्शक दीर्घा में बैठकर देख जाए. अमरीका के संस्थापकों ने ऐसे देश की कल्पना नहीं की थी जहां वकील, स्कॉलर, राजनीतिज्ञ जैसे प्रोफेशनल ही संविधान की व्याख्या और जनाधिकारों की चिंता करें. उन लोगों ने यह कभी नहीं चाहा था कि आम लोगों से अलग ताकतवर लोग आज़ादी की रक्षा करें. उन्होंने तो यह चाहा था कि आम लोग ही अपनी आज़ादी की रक्षा करें. अमरीका के संस्थापकों ने आज़ादी को नैसर्गिक, ईश्वर प्रदत्त और ऐसी व्यवस्था कभी नहीं कहा-समझा जिसमें सभ्यता स्वत: बनी रहेगी. बल्कि उन्होंने तो अत्याचार और दमन को यथास्थिति तथा स्वाधीनता को अपवाद माना. ऐसा अपवाद जिसको पाने के लिए संघर्ष किया जाए और जो अगर मिल जाए तो उसे सीने से लगाकर रखा जाए. नोआमी वुल्फ को शिकायत है कि अमरीकियों ने प्रजातंत्र को बहुत अगम्भीरता से लिया है, जबकि इसका तो अस्तित्व ही नागरिकों की सहभागिता और सक्रियता पर निर्भर है.
किताब अमरीका को सम्बोधित है, लेकिन हम भारतीयों के लिए भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं है. आज अमरीका इतनी बडी वैश्विक शक्ति बन चुका है कि वहां की हर छोटी-बडी हलचल शेष विश्व को भी प्रभावित करती है. अगर वहां प्रजातंत्र का क्षरण होता है तो उसका असर हम सब पर भी पडेगा. इस बात के अतिरिक्त भी, जो बातें नोआमी अमरीका को सम्बोधित कर कह रही हैं, उन्हें हमें भी सुनना और गुनना चाहिए. कभी पण्डित नेहरु ने भी तो कहा था : एटर्नल विजिलेंस इज़ द प्राइस ऑफ लिबर्टी.
नाओमी वुल्फ की यह किताब भयावह है क्योंकि यह अमरीका के आज के घटनाक्रम और बीसवीं शताब्दी के मध्य के उस घटनाक्रम में साम्य दर्शाती है जिसकी परिणति फासीवाद और द्वितीय विश्व युद्ध में हुई थी. वुल्फ ज़ोर देकर कहती हैं कि समाज तानाशाही की तरफ यकायक नहीं मुड जाया करते. प्राय: होता यह है कि ज़्यादातर लोगों की सामान्य नियमित दिनचर्या अप्रभावित रहती है. हो सकता है कि हम ‘अमरीकन आइडल’ देखते रहें, मॉल में जाकर पिज़्ज़ा ऑर्डर करते रहें और उसी वक़्त हमारी आज़ादी हमसे छीनी जाती रहे. इसीलिए वे कहती हैं कि अमरीका आज जिस रास्ते पर चल रहा है वह डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि आज़ादी का लोप तो सबको ही प्रभावित करेगा.
वुल्फ पूरी ऊर्जा और शिद्दत से यह एहसास कराती है कि बुश प्रशासन की नीतियों की वजह से उनका देश एक खतरनाक फासिस्ट शिफ्ट से गुज़र रहा है. वे कहती हैं कि फासीवाद तानाशाही के बगैर भी पनप सकता है.
हालांकि आम अमरीकी यह मानने को तैयार नहीं होता कि 9/11 के बाद उसका देश किसी भी तरह नाज़ी जर्मनी और चिली के फासीवाद और सर्वसत्तावादी कालखण्ड के समकक्ष बनता जा रहा है, लेकिन एक बहुत छोटे किंतु प्रतिबद्ध प्रकाशक के यहां से प्रकाशित वुल्फ की महज़ 192 पृष्ठों की किताब यह स्थापित करने में पूरी तरह कामयाब है कि उन समाजों और आज के अमरीकी समाज के बीच की समानांतरता और समानताओं या कि अनुगूंजों को अनसुना नहीं किया जा सकता. इस तरह यह किताब एक साथ ही चौंकाती है, डराती है और हमारी संवेदनाओं को झकझोरती है.
नोआमी वुल्फ इस किताब में 30 के दशक के जर्मनी, 40 के दशक के रूस, 50 के दशक के पूर्वी जर्मनी, 60 के दशक के चेकोस्लोवाकिया, 70 के दशक के चिली और 80 के दशक के चीन के परिदृश्य से 2000 के बाद के अमरीका की समानताएं दिखाकर प्रजातंत्र के सम्भावित पटाक्षेप के खिलाफ जनमत जगाने का मूल्यवान प्रयास करती हैं. वे साफ शब्दों में कहती हैं कि प्रजातंत्र ऐसा तमाशा नहीं है जिसे दर्शक दीर्घा में बैठकर देख जाए. अमरीका के संस्थापकों ने ऐसे देश की कल्पना नहीं की थी जहां वकील, स्कॉलर, राजनीतिज्ञ जैसे प्रोफेशनल ही संविधान की व्याख्या और जनाधिकारों की चिंता करें. उन लोगों ने यह कभी नहीं चाहा था कि आम लोगों से अलग ताकतवर लोग आज़ादी की रक्षा करें. उन्होंने तो यह चाहा था कि आम लोग ही अपनी आज़ादी की रक्षा करें. अमरीका के संस्थापकों ने आज़ादी को नैसर्गिक, ईश्वर प्रदत्त और ऐसी व्यवस्था कभी नहीं कहा-समझा जिसमें सभ्यता स्वत: बनी रहेगी. बल्कि उन्होंने तो अत्याचार और दमन को यथास्थिति तथा स्वाधीनता को अपवाद माना. ऐसा अपवाद जिसको पाने के लिए संघर्ष किया जाए और जो अगर मिल जाए तो उसे सीने से लगाकर रखा जाए. नोआमी वुल्फ को शिकायत है कि अमरीकियों ने प्रजातंत्र को बहुत अगम्भीरता से लिया है, जबकि इसका तो अस्तित्व ही नागरिकों की सहभागिता और सक्रियता पर निर्भर है.
किताब अमरीका को सम्बोधित है, लेकिन हम भारतीयों के लिए भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं है. आज अमरीका इतनी बडी वैश्विक शक्ति बन चुका है कि वहां की हर छोटी-बडी हलचल शेष विश्व को भी प्रभावित करती है. अगर वहां प्रजातंत्र का क्षरण होता है तो उसका असर हम सब पर भी पडेगा. इस बात के अतिरिक्त भी, जो बातें नोआमी अमरीका को सम्बोधित कर कह रही हैं, उन्हें हमें भी सुनना और गुनना चाहिए. कभी पण्डित नेहरु ने भी तो कहा था : एटर्नल विजिलेंस इज़ द प्राइस ऑफ लिबर्टी.
◙◙◙
चर्चित पुस्तक :
The End of America: Letter of Warning To A Young Patriot
By Naomi Wolf
Publisher: Chelsea Green Publishing; White River Jct., VT 05001,USA
Pages: 192
US $ 13.95
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत प्रकाशित.
चर्चित पुस्तक :
The End of America: Letter of Warning To A Young Patriot
By Naomi Wolf
Publisher: Chelsea Green Publishing; White River Jct., VT 05001,USA
Pages: 192
US $ 13.95
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत प्रकाशित.
Thursday, January 10, 2008
हंसाते-हंसाते रुला देने वाला उपन्यास
पडौसी देश पाकिस्तान से हाल ही में आया ‘खोया पानी’ व्यंग्य(और हास्य भी) का एक अनूठा उपन्यास है. टोंक में जन्मे और अब लन्दन में रह रहे मुश्ताक़ अहमद यूसुफी का यह उपन्यास (हिन्दी अनुवाद: तुफैल चतुर्वेदी) पांच कहानी नुमा निबन्धों या निबन्ध नुमा कहानियों से बुना हुआ है. कहानियां हैं हवेली, धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा, स्कूल मास्टर का ख्वाब, खण्डहर में दीवाली, और कार, काबुलीवाला और अलादीन बेचिराग. उपन्यास में कोई एक सीधी सपाट कथा नहीं है, लेकिन जो वृत्तांत है उससे मुख्य चरित्र गुस्सैल किबला यानि बिशारत के ससुर, खुद बिशारत फारूक़ी और मुल्ला अब्दुल मन्नान आरसी भिक्षु और उनका परिवेश कुछ इस तरह साकार होते है आपके मुंह से एक साथ ही ‘वाह’ और ‘आह’ दोनों निकल पडते हैं. उपन्यास की एक बडी ताकत इसकी चुस्त-चपल और हास्य-व्यंग्य से भरपूर भाषा है. कुछ बानगियां देखें :
•शेर को इस तरह नाक से गाकर सिर्फ वही मौलवी पढ सकता है जो गाने को वाकई हराम समझकर गाता हो. किसी शख्स को गाने, सूफीज़्म, फारसी और मौलवी चारों से एक ही समय में नफरत करानी हो तो मसनवी के दो शेर इस धुन में सुनवा दीजिए.
•शेरो-शायरी या नोविलों में देहाती ज़िन्दगी को रोमांटिसाइज़ करके उसकी निश्छलता, सादगी, सब्र और प्राकृतिक सौन्दर्य पर सर धुनना और धुनवाना और बात है लेकिन सचमुच किसी किसान के आधे पक्के या मिट्टी गारे के घर में ठहरना किसी शहरी इण्टेलेक्चुअल के बस का रोग नहीं.
•भोगे हुए यथार्थ के पर्दे में जितनी दाद तवायफ को उर्दू फिक्शन लिखने वालों से मिली उतनी अपने रात के ग्राहकों से भी न मिली होगी.
•बिशारत स्तब्ध रह गये, मर्द ऐसे मौकों पर खून कर देते हैं और नामर्द खुदकुशी कर लेते हैं. उन्होंने यह सब नहीं किया, नौकरी की जो क़त्ल और खुदकुशी दोनों से कहीं ज़ियादा मुश्क़िल है.
•अरे साहब! मैं भी एक बिज़नेसमैन को जानता हूं. उनके घर पर कालीनों के लिये फर्श पर जगह न रही तो दीवारों पर लटका दिये. कालीन हटा-हटा कर मुझे दिखाते रहे कि इनके नीचे निहायत कीमती रंगीन मारबल है.
लेखक का सबसे बडा कौशल इस बात में है कि वे हंसाते-हंसाते अचानक उदास कर देते हैं. मार्मिक चित्रण में तो वे बेजोड हैं. कुछ बानगियां देखें :
•यह कैसी बस्ती है. जहां बच्चे न घर में खेल सकते हैं न, बाहर. जहां बेटियां दो गज़ ज़मीन पर एक ही जगह बैठे-बैठे पेडों की तरह बडी हो जाती हैं, जब ये दुल्हन ब्याह के परदेस जायेगी तो इसमे मन में बचपन और मायके की क्या तस्वीर होगी? फिर खयाल आया, कैसा परदेस, कहां का परदेस. यह तो बस लाल कपडे पहन कर यहीं-कहीं एक झुग्गी से दूसरी झुग्गी में पैदल चली जाएगी. यही सखी सहेलियां “काहे को ब्याही बिदेसी रे! लिखी बाबुल मोरे!” गाती हुई इसे दो गज़ पराई ज़मीन के टुकडे तक छोड आयेंगी. फिर एक दिन मेंह बरसते में जब ऐसा ही समां होगा, वहां से अंतिम दो गज़ ज़मीन की ओर डोली उठेगी और धरती का बोझ धरती की छाती में समा जायेगा.
•कब्रिस्तान भी सीख लेने की जगह है. कभी जाने का मौक़ा मिलता है तो हर कब्र को देख ध्यान आता है कि जिस दिन इसमें लाश उतरी होगी, कैसा कुहराम मचा होगा. रोने वाले कैसे बिलख-बिलख, कर तडप-तडप कर रोये होंगे. फिर यही रोने वाले दूसरों को रुला-रुला कर यहीं बारी-बारी मिट्टी का पैबन्द होते चले गये. साहब ! यही सब कुछ होना है तो फिर कैसा शोक किसका दुखा, काहे का रोना.
या ये सूक्ति नुमा वाक्य देखिये :
•देहात में वक़्त भी बैलगाडी में बैठ जाता है.
•जिन कामों में मेहनत अधिक पडती है लोग उन्हें नीचा और घृणित समझते हैं.
•आप रिश्वतखोर, व्यभिचारी और शराबी को हमेशा मिलनसार और मीठे स्वभाव का पायेंगे. इस वास्ते कि वो अक्खडपना, सख्ती और बदतमीज़ी एफोर्ड कर ही नहीं सकता.
•आज काम तो बडे हो रहे हैं, मगर आदमी छोटे हो गए हैं.
उपन्यास में कथाओं-उपकथाओं के शीर्षक देने में भी गज़ब की कलाकारी है. जानी-पहचानी गज़लों, गीतों और मिस्रों को शीर्षक बना कर जो लज़्ज़त पैदा की गई है, उसका क्या कहना! हम चुप रहे, हम रो दिये; कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या; जग में चले पवन की चाल; कोई दीवार सी गिरी है अभी; एक उम्र से हूं लज़्ज़ते-गिरियां से भी महरूम; कश्का खेंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया; वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है आदि.
लेखक बीते ज़माने की तस्वीर बनाता है, खुद उसके मज़े लेता है, आपको हंसाता है, व्यंग्य करता है और अचानक कोई ऐसी बात कह जाता है कि आपकी आंखें नम हो जाती हैं. उसकी सहानुभूति सर्वत्र वंचित के साथ है. कहीं भी वह उसके प्रति क्रूर नहीं होता. उपन्यास अतीत और वर्तमान के बीच बहुत सहजता से आता-जाता है. यह उपन्यास एक ऐसी रचना है जिसकी उत्कृष्टता का असल अनुभव इसे खुद पढकर ही किया जा सकता है. जब आप इसे पढते हैं तो इसके एक-एक वाक्य, एक-एक प्रसंग के साथ डूबते-उतरते हैं, लेकिन जब पढकर खत्म करते हैं तो बरबस फिराक़ गोरखपुरी याद आ जाते हैं :
आए थे हंसते खेलते मैखाने में फिराक़
जब पी चुके शराब तो संज़ीदा हो गए!
◙◙◙
चर्चित पुस्तक:
खोया पानी (अद्भुत व्यंग्य उपन्यास)
मुश्ताक़ अहमद यूसुफी
अनुवाद : तुफैल चतुर्वेदी
प्रकाशक : लफ्ज़, प-12, नर्मदा मार्ग, सेक्टर – II, नोएडा-201301
पहला संस्करण : 2007
पृष्ठ : 348
मूल्य : 200.00
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत दिनांक 10 जनवरी 2008 को प्रकाशित.
•शेर को इस तरह नाक से गाकर सिर्फ वही मौलवी पढ सकता है जो गाने को वाकई हराम समझकर गाता हो. किसी शख्स को गाने, सूफीज़्म, फारसी और मौलवी चारों से एक ही समय में नफरत करानी हो तो मसनवी के दो शेर इस धुन में सुनवा दीजिए.
•शेरो-शायरी या नोविलों में देहाती ज़िन्दगी को रोमांटिसाइज़ करके उसकी निश्छलता, सादगी, सब्र और प्राकृतिक सौन्दर्य पर सर धुनना और धुनवाना और बात है लेकिन सचमुच किसी किसान के आधे पक्के या मिट्टी गारे के घर में ठहरना किसी शहरी इण्टेलेक्चुअल के बस का रोग नहीं.
•भोगे हुए यथार्थ के पर्दे में जितनी दाद तवायफ को उर्दू फिक्शन लिखने वालों से मिली उतनी अपने रात के ग्राहकों से भी न मिली होगी.
•बिशारत स्तब्ध रह गये, मर्द ऐसे मौकों पर खून कर देते हैं और नामर्द खुदकुशी कर लेते हैं. उन्होंने यह सब नहीं किया, नौकरी की जो क़त्ल और खुदकुशी दोनों से कहीं ज़ियादा मुश्क़िल है.
•अरे साहब! मैं भी एक बिज़नेसमैन को जानता हूं. उनके घर पर कालीनों के लिये फर्श पर जगह न रही तो दीवारों पर लटका दिये. कालीन हटा-हटा कर मुझे दिखाते रहे कि इनके नीचे निहायत कीमती रंगीन मारबल है.
लेखक का सबसे बडा कौशल इस बात में है कि वे हंसाते-हंसाते अचानक उदास कर देते हैं. मार्मिक चित्रण में तो वे बेजोड हैं. कुछ बानगियां देखें :
•यह कैसी बस्ती है. जहां बच्चे न घर में खेल सकते हैं न, बाहर. जहां बेटियां दो गज़ ज़मीन पर एक ही जगह बैठे-बैठे पेडों की तरह बडी हो जाती हैं, जब ये दुल्हन ब्याह के परदेस जायेगी तो इसमे मन में बचपन और मायके की क्या तस्वीर होगी? फिर खयाल आया, कैसा परदेस, कहां का परदेस. यह तो बस लाल कपडे पहन कर यहीं-कहीं एक झुग्गी से दूसरी झुग्गी में पैदल चली जाएगी. यही सखी सहेलियां “काहे को ब्याही बिदेसी रे! लिखी बाबुल मोरे!” गाती हुई इसे दो गज़ पराई ज़मीन के टुकडे तक छोड आयेंगी. फिर एक दिन मेंह बरसते में जब ऐसा ही समां होगा, वहां से अंतिम दो गज़ ज़मीन की ओर डोली उठेगी और धरती का बोझ धरती की छाती में समा जायेगा.
•कब्रिस्तान भी सीख लेने की जगह है. कभी जाने का मौक़ा मिलता है तो हर कब्र को देख ध्यान आता है कि जिस दिन इसमें लाश उतरी होगी, कैसा कुहराम मचा होगा. रोने वाले कैसे बिलख-बिलख, कर तडप-तडप कर रोये होंगे. फिर यही रोने वाले दूसरों को रुला-रुला कर यहीं बारी-बारी मिट्टी का पैबन्द होते चले गये. साहब ! यही सब कुछ होना है तो फिर कैसा शोक किसका दुखा, काहे का रोना.
या ये सूक्ति नुमा वाक्य देखिये :
•देहात में वक़्त भी बैलगाडी में बैठ जाता है.
•जिन कामों में मेहनत अधिक पडती है लोग उन्हें नीचा और घृणित समझते हैं.
•आप रिश्वतखोर, व्यभिचारी और शराबी को हमेशा मिलनसार और मीठे स्वभाव का पायेंगे. इस वास्ते कि वो अक्खडपना, सख्ती और बदतमीज़ी एफोर्ड कर ही नहीं सकता.
•आज काम तो बडे हो रहे हैं, मगर आदमी छोटे हो गए हैं.
उपन्यास में कथाओं-उपकथाओं के शीर्षक देने में भी गज़ब की कलाकारी है. जानी-पहचानी गज़लों, गीतों और मिस्रों को शीर्षक बना कर जो लज़्ज़त पैदा की गई है, उसका क्या कहना! हम चुप रहे, हम रो दिये; कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या; जग में चले पवन की चाल; कोई दीवार सी गिरी है अभी; एक उम्र से हूं लज़्ज़ते-गिरियां से भी महरूम; कश्का खेंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया; वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है आदि.
लेखक बीते ज़माने की तस्वीर बनाता है, खुद उसके मज़े लेता है, आपको हंसाता है, व्यंग्य करता है और अचानक कोई ऐसी बात कह जाता है कि आपकी आंखें नम हो जाती हैं. उसकी सहानुभूति सर्वत्र वंचित के साथ है. कहीं भी वह उसके प्रति क्रूर नहीं होता. उपन्यास अतीत और वर्तमान के बीच बहुत सहजता से आता-जाता है. यह उपन्यास एक ऐसी रचना है जिसकी उत्कृष्टता का असल अनुभव इसे खुद पढकर ही किया जा सकता है. जब आप इसे पढते हैं तो इसके एक-एक वाक्य, एक-एक प्रसंग के साथ डूबते-उतरते हैं, लेकिन जब पढकर खत्म करते हैं तो बरबस फिराक़ गोरखपुरी याद आ जाते हैं :
आए थे हंसते खेलते मैखाने में फिराक़
जब पी चुके शराब तो संज़ीदा हो गए!
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चर्चित पुस्तक:
खोया पानी (अद्भुत व्यंग्य उपन्यास)
मुश्ताक़ अहमद यूसुफी
अनुवाद : तुफैल चतुर्वेदी
प्रकाशक : लफ्ज़, प-12, नर्मदा मार्ग, सेक्टर – II, नोएडा-201301
पहला संस्करण : 2007
पृष्ठ : 348
मूल्य : 200.00
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत दिनांक 10 जनवरी 2008 को प्रकाशित.
Thursday, January 3, 2008
विज्ञान गल्प का समृद्ध संसार
हमारे समय के सबसे ज़्यादा चर्चित-प्रशंसित कथाकारों में से एक, फाहरेनहाइट 451 सहित 30 से अधिक पुस्तकों के लेखक 90 वर्षीय रे ब्रेडबरी की नई किताब नाऊ एण्ड फॉरएवर: समव्हेयर अ बैण्ड इज़ प्लेइंग एण्ड लेवियाथन ’99 कृतित्व के दो नितांत भिन्न आयामों से हमारा परिचय कराती है. रे ब्रेडबरी की ख्याति विज्ञान कथा और फैण्टेसी लेखक के रूप में अधिक है. इस किताब में उनकी अब तक अप्रकाशित दो उपन्यासिकाएं हैं.
पहली उपन्यासिका समव्हेयर अ बैण्ड इज़ प्लेइंग को आलोचकों ने एक स्वर से ब्रेडबरी की ‘फाहरेनहाइट 451’ के बाद की श्रेष्टतम रचना माना है. उपन्यासिका का प्रारम्भ होता है एक कविता से जिसका आशय कुछ इस तरह से है कि कहीं एक बैण्ड बज रहा है, उसे सुनो. अगर तुमने उसकी धुन को सुन लिया तो तुम सदा नृत्य रत रहोगे, और मौत सदा को शांत हो जाएगी.. इस कविता को पढते हुए उपन्यासिका का मुख्य पात्र पत्रकार जेम्स कार्डिफ अपनी आंखें मूंद लेता है और क्रमश: समरटन, एरिज़ोना नामक एक विलक्षण कस्बे की तरफ आकृष्ट होता है. वह उसी रात ट्रेन पकड कर अपने सपनों के इस कस्बे की ओर चल पडता है जहां कोई ट्रेन रुकती ही नहीं है क्योंकि यह कस्बा नक्शे तक में नहीं है. अंतत: वह चलती ट्रेन से ही इस कस्बे में कूद पडता है. वहां उसका ऐसे स्वागत होता है जैसे उसका इंतज़ार ही किया जा रहा हो. रेगिस्तान के बीच में बसा यह समरटन लगभग स्वर्ग जैसा ही है. स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ और उत्कृष्ट मदिरा से भरा. गाडियों में लदी ताज़ा ब्रेड हर रोज़ कस्बा वासियों को मिलती है, हर घर के हरे-भरे तराशे हुए खूबसूरत लॉन में उगे विशाल सूरजमुखी के फूल सूरज को ताकते हैं, मीठी प्यारी हवा सांसों में ताज़गी भरती रहती है. और भी सब कुछ सर्वोत्क़ृष्ट. समय और उद्योग इस कस्बे को जल्दी ही बदल डालने को है. लेकिन कार्डिफ को लगता है कि कुछ महत्वपूर्ण है जो अनुपस्थित है. वहां न तो बच्चे हैं, न बेसबाल के बल्ले और न बास्केटबाल के खम्भे. है एक उजडा-सा स्कूल, जिसमें पढने वाला कोई नहीं है. कस्बे में केवल युवा हैं. कोई डॉक्टर भी वहां नहीं है. एक बहुत अजीब-सा कब्रिस्तान ज़रूर है. कस्बे के सारे लोग बहुत स्वस्थ और प्रमुदित हैं. अजीब इसलिए कि वहां कब्रों पर जो पत्थर लगे हैं. उन पर मृत्यु तिथि की बजाय जन्म तिथियां अंकित हैं. कस्बे में कोई न तो बूढा होता है और न मरता है. वहां हरेक व्यक्ति एक लेखक है. जेम्स को इजिप्शियन व्यू आर्म्स नामक एक विशाल विक्टोरियन बोर्डिंग हाउस में ले जाया जाता है. इसकी मालकिन है रहस्यमयी नेफ. बला की खूबसूरत और सम्मोहक. जेम्स को लगता है जैसे वह नेफ को युगों-युगों से जानता है और नेफ जैसे उसी का इंतज़ार कर रही है. महत्वपूर्ण है समरटन की हवा में फैली रहस्य की गंध. कार्डिफ उसी गंध को सूंघ कर उसका पीछा करता है और जो कुछ पाता है उसे हमारे लिए लिखता है. उसके मन में द्वन्द्व है कि क्या वह कस्बे वालों को यह बता दे कि सरकार बहुत जल्दी उस कस्बे को नेस्तनाबूद कर वहां एक हाइवे बनाने वाली है. उपन्यास का गद्य इतना काव्यात्मक है कि चाहें तो केवल उसके आस्वाद के लिए ही इसे पढ लें.
इस कथा से एकदम भिन्न है लेवियाथन ’99 की कथा. अगर संगीत की भाषा में कहें तो कह सकत हैं कि पहली कथा आलाप जैसी है और दूसरी किसी द्रुत गत जैसी. लेवियाथन दर असल हरमन मेलविल के सुप्रसिद्ध उपन्यास मॉबी डिक का आधुनिक रुपांतरण है. ब्रेडबरी पूरी ज़िन्दगी मॉबी डिक से प्रभावित रहे हैं. 1955 में उन्हें इस उपन्यास का स्क्रीन प्ले तैयार करने को कहा गया था. अपने वर्तमान रूप में ब्रेडबरी का यह लघु उपन्यास सफेद व्हेल और पागल कप्तान अहाब के साथ ब्रेडबरी की मुठभेड की परिणति है. इस कथा का काल 2099 है और यह घटित होती है एक विशाल जहाज सेस्टस 7 पर. एक जहाजी इस्माइल जोंस अपनी जान बचाने और कप्तान के आदेश का पालन करने के द्वन्द्व में फंसा है. अन्धा और पागल कप्तान ब्रह्माण्ड के सर्वाधिक प्रभावशाली और विनाशक धूमकेतु लेवियाथन से आतंकित है.यहां ब्रेडबरी ने मेलविल की व्हेल को धूमकेतु में रुपांतरित किया है. उन्होंने ने मेलविल की कथा की दार्शनिक गहनता को भी बहुत खूबी से उभारा है.
ब्रेडबरी जब किसी स्थान का वर्णन करते हैं तो लगता है जैसे आप वहां मौज़ूद हैं और जब वे किसी मौसम के बारे में लिखते हैं तो आप खुद उस मौसम का अनुभव करते हैं. ब्रेडबरी के लेखन के रसज्ञों का कहना है कि यहां उनकी कल्पनाशीलता अपने चरम पर है. दोनों उपन्यासिकाओं का अंत बता कर मैं अपने पाठकों के सुख को छीनने का अपराधी नहीं बनना चाहता. विज्ञान कथा लेखन के शीर्ष रचनाकार ब्रेडबरी की ये दोनों उपन्यासिकाएं आपको कुछ इस तरह अभिभूत करती हैं कि इनके प्रभाव से मुक्त होने का मन ही नहीं करता.
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राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स में 3 जनवरी 2008 को प्रकाशित.
पहली उपन्यासिका समव्हेयर अ बैण्ड इज़ प्लेइंग को आलोचकों ने एक स्वर से ब्रेडबरी की ‘फाहरेनहाइट 451’ के बाद की श्रेष्टतम रचना माना है. उपन्यासिका का प्रारम्भ होता है एक कविता से जिसका आशय कुछ इस तरह से है कि कहीं एक बैण्ड बज रहा है, उसे सुनो. अगर तुमने उसकी धुन को सुन लिया तो तुम सदा नृत्य रत रहोगे, और मौत सदा को शांत हो जाएगी.. इस कविता को पढते हुए उपन्यासिका का मुख्य पात्र पत्रकार जेम्स कार्डिफ अपनी आंखें मूंद लेता है और क्रमश: समरटन, एरिज़ोना नामक एक विलक्षण कस्बे की तरफ आकृष्ट होता है. वह उसी रात ट्रेन पकड कर अपने सपनों के इस कस्बे की ओर चल पडता है जहां कोई ट्रेन रुकती ही नहीं है क्योंकि यह कस्बा नक्शे तक में नहीं है. अंतत: वह चलती ट्रेन से ही इस कस्बे में कूद पडता है. वहां उसका ऐसे स्वागत होता है जैसे उसका इंतज़ार ही किया जा रहा हो. रेगिस्तान के बीच में बसा यह समरटन लगभग स्वर्ग जैसा ही है. स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ और उत्कृष्ट मदिरा से भरा. गाडियों में लदी ताज़ा ब्रेड हर रोज़ कस्बा वासियों को मिलती है, हर घर के हरे-भरे तराशे हुए खूबसूरत लॉन में उगे विशाल सूरजमुखी के फूल सूरज को ताकते हैं, मीठी प्यारी हवा सांसों में ताज़गी भरती रहती है. और भी सब कुछ सर्वोत्क़ृष्ट. समय और उद्योग इस कस्बे को जल्दी ही बदल डालने को है. लेकिन कार्डिफ को लगता है कि कुछ महत्वपूर्ण है जो अनुपस्थित है. वहां न तो बच्चे हैं, न बेसबाल के बल्ले और न बास्केटबाल के खम्भे. है एक उजडा-सा स्कूल, जिसमें पढने वाला कोई नहीं है. कस्बे में केवल युवा हैं. कोई डॉक्टर भी वहां नहीं है. एक बहुत अजीब-सा कब्रिस्तान ज़रूर है. कस्बे के सारे लोग बहुत स्वस्थ और प्रमुदित हैं. अजीब इसलिए कि वहां कब्रों पर जो पत्थर लगे हैं. उन पर मृत्यु तिथि की बजाय जन्म तिथियां अंकित हैं. कस्बे में कोई न तो बूढा होता है और न मरता है. वहां हरेक व्यक्ति एक लेखक है. जेम्स को इजिप्शियन व्यू आर्म्स नामक एक विशाल विक्टोरियन बोर्डिंग हाउस में ले जाया जाता है. इसकी मालकिन है रहस्यमयी नेफ. बला की खूबसूरत और सम्मोहक. जेम्स को लगता है जैसे वह नेफ को युगों-युगों से जानता है और नेफ जैसे उसी का इंतज़ार कर रही है. महत्वपूर्ण है समरटन की हवा में फैली रहस्य की गंध. कार्डिफ उसी गंध को सूंघ कर उसका पीछा करता है और जो कुछ पाता है उसे हमारे लिए लिखता है. उसके मन में द्वन्द्व है कि क्या वह कस्बे वालों को यह बता दे कि सरकार बहुत जल्दी उस कस्बे को नेस्तनाबूद कर वहां एक हाइवे बनाने वाली है. उपन्यास का गद्य इतना काव्यात्मक है कि चाहें तो केवल उसके आस्वाद के लिए ही इसे पढ लें.
इस कथा से एकदम भिन्न है लेवियाथन ’99 की कथा. अगर संगीत की भाषा में कहें तो कह सकत हैं कि पहली कथा आलाप जैसी है और दूसरी किसी द्रुत गत जैसी. लेवियाथन दर असल हरमन मेलविल के सुप्रसिद्ध उपन्यास मॉबी डिक का आधुनिक रुपांतरण है. ब्रेडबरी पूरी ज़िन्दगी मॉबी डिक से प्रभावित रहे हैं. 1955 में उन्हें इस उपन्यास का स्क्रीन प्ले तैयार करने को कहा गया था. अपने वर्तमान रूप में ब्रेडबरी का यह लघु उपन्यास सफेद व्हेल और पागल कप्तान अहाब के साथ ब्रेडबरी की मुठभेड की परिणति है. इस कथा का काल 2099 है और यह घटित होती है एक विशाल जहाज सेस्टस 7 पर. एक जहाजी इस्माइल जोंस अपनी जान बचाने और कप्तान के आदेश का पालन करने के द्वन्द्व में फंसा है. अन्धा और पागल कप्तान ब्रह्माण्ड के सर्वाधिक प्रभावशाली और विनाशक धूमकेतु लेवियाथन से आतंकित है.यहां ब्रेडबरी ने मेलविल की व्हेल को धूमकेतु में रुपांतरित किया है. उन्होंने ने मेलविल की कथा की दार्शनिक गहनता को भी बहुत खूबी से उभारा है.
ब्रेडबरी जब किसी स्थान का वर्णन करते हैं तो लगता है जैसे आप वहां मौज़ूद हैं और जब वे किसी मौसम के बारे में लिखते हैं तो आप खुद उस मौसम का अनुभव करते हैं. ब्रेडबरी के लेखन के रसज्ञों का कहना है कि यहां उनकी कल्पनाशीलता अपने चरम पर है. दोनों उपन्यासिकाओं का अंत बता कर मैं अपने पाठकों के सुख को छीनने का अपराधी नहीं बनना चाहता. विज्ञान कथा लेखन के शीर्ष रचनाकार ब्रेडबरी की ये दोनों उपन्यासिकाएं आपको कुछ इस तरह अभिभूत करती हैं कि इनके प्रभाव से मुक्त होने का मन ही नहीं करता.
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राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स में 3 जनवरी 2008 को प्रकाशित.
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