Thursday, April 26, 2012

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर बातचीत

हाल ही में सम्पन्न हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के बारे में डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल से डॉ रजनीश भारद्वाज की बातचीत आप हिंदी के वरिष्ठ लेखक हैं, सजग आलोचक हैं, वस्तुपरक विश्लेषक हैं, देश-विदेश घूमने का आपको समृद्ध अनुभव है, अभिव्यक्ति की वर्तमान तकनीकों को अच्छी तरह समझते हैं तथा उनका उपयोग भी करते हैं. इसी दृष्टि से मैं आपके समक्ष ऐसे कुछ प्रश्न रख रहा हूं जिनका उत्तर आप ही दे सकते हैं. आप जयपुर में आयोजित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के हर आयोजन को देखते आ रहे है. अब तक हुए उत्सवों की साहित्यिक उपलब्धियों को आप किस प्रकार रेखांकित करेंगे? जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत 2006 में हुई थी, और उस बरस इसमें मात्र 18 लेखकों और 14 अन्य लोगों ने भाग लिया था. इन्हें सुनने वालों की संख्या बमुश्क़िल 100 रही होगी. इस बरस यानि 2012 के फेस्टिवल में लगभग 250 लेखकों ने शिरकत की और उन्हें देखने-सुनने वालों की संख्या एक लाख के लगभग बताई जाती है. यानि बहुत कम समय में यह उत्सव बहुत बड़ा हो गया है. इन बरसों में इस आयोजन में देश विदेश के अनेक बड़े और बहुत बड़े लेखकों ने शिरकत की है. इस बरस बेन ओकरी, रिचर्ड डॉकिंस, स्टीवन पिंकर, एमी चुआ जैसे विदेशी और गिरीश कर्नाड, के. सच्चिदानंदन, प्रतिभा रे, कुलदीप नैयर, एम. जे. अकबर, अशोक वाजपेयी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, नीलाभ अश्क़ जैसे अनेक भारतीय लेखक इसमें आए. मुझे लगता है कि किसी भी साहित्यिक आयोजन की उपलब्धि यही हो सकती है कि वह लेखक-पाठक को नज़दीक लाए. इस लिहाज़ से तो मैं इस आयोजन को उपलब्धिमूलक ही कहना चाहूंगा.  इस फेस्टिवल से साहित्य और समाज को क्या लाभ हुआ? इस सवाल का जवाब देना तो बहुत मुश्क़िल है. क्या किसी भी साहित्यिक आयोजन के बारे में यह सवाल करके कोई सीधा उत्तर पाया जा सकता है? एक बड़ा लेखक शहर में आता है, कोई संस्था उनके व्याख्यान का आयोजन करती है, या किसी विषय पर कोई चर्चा आयोजित की जाती है, किसी पुस्तक पर कोई चर्चा होती है. इन सबके सन्दर्भ में अगर कोई यह पूछे कि इनसे साहित्य और समाज को क्या लाभ हुआ, तो क्या उत्तर देंगे? मेरा यह मानना है कि किसी भी साहित्यिक आयोजन का मक़सद होता है विमर्श का मंच प्रदान करना और वृहत्तर समुदाय तक पहुंचना. तो इस लिहाज़ से यही कहा जाएगा कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने साहित्य और समाज दोनों को लाभान्वित किया है. साहित्यकारों को पाठक मिले और पाठकों को साहित्य और साहित्यकार. अगर हम यह भी मान लें कि यह कोई गम्भीर आयोजन नहीं था, एक फेस्टिवल था, एक उत्सव था, तो भी इस बात के महत्व को कम करके आंकना उचित नहीं होगा कि पूरे पाँच दिन हर दिन एक साथ चलने वाले सात गुणा पाँच यानि पैंतीस सत्रों में से हरेक में लगभग हाउसफुल की स्थिति रही. लोगों ने हर तरह के लेखकों को न केवल दत्तचित्त होकर सुना, उनसे गम्भीर सवाल भी किए. समाज को यह लाभ हुआ कि उसे इतने सारे लेखकों, विचारकों, पत्रकारों और अन्य बहुत सारे अनुशासनों के शीर्षस्थ लोगों से रूबरू होने का और उनके विचारों से अवगत होने का मौका मिला, और साहित्य का लाभ यह हुआ कि उसका प्रसार हुआ. प्रसंगवश, यह भी कहूं कि इस फेस्टिवल में किताबों की जो दुकानें थीं, और जिन पर इस फेस्टिवल में शिरकत करने वाले लेखकों की किताबें उपलब्ध थीं, अंतिम दिन उनमें से अधिकांश खाली हो चुकी थीं. यानि लोगों ने न सिर्फ चर्चाओं को सुना, चर्चा करने वाले लेखकों की किताबों को खरीदा भी सही. किताबों पर लेखकों के ऑटोग्राफ लेने वालों की भी बहुत लम्बी कतारें देखने को मिलीं.  इस उत्सव को आयोजित करने वालों की मूल प्रतिज्ञा शायद बड़े-बड़े लेखकों को एक मंच पर इकट्ठा करना और उनके माध्यम से दर्शकों को चमत्कृत करना है जिसकी परिणति मनोरंजन में होती है. क्या साहित्य की मूल प्रतिज्ञा से इस आयोजन की मूल प्रतिज्ञा मेल खाती है? इस बात में कोई शक़ नहीं है कि इस आयोजन में बहुत सारे बड़े लेखकों की सहभागिता रहती है. यह सहभागिता हर बरस बढ़ती जा रही है. बड़े नामों के प्रति आकर्षण हम सबमें होता है. अगर हम कोई बहुत छोटा आयोजन करते हैं तब भी हमारी यह कोशिश तो होती ही है कि अपने संसाधनों के हिसाब से किसी ‘बड़े’ लेखक को उसमें बुलाएं. हम जयपुर में कोई आयोजन करते हैं तो और नहीं तो यही कोशिश करते हैं कि दिल्ली का कोई लेखक आ जाए. ऐसे में अगर इतने बड़े पैमाने का कोई आयोजन है तो यह बहुत स्वाभाविक है कि उसमें बड़े-बड़े लेखक बुलाए जाएंगे. अगर आप बड़े लेखकों को नहीं बुलाएंगे तो इस पैमाने का आयोजन हो ही नहीं सकता. लेकिन आपने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी यह की है कि आयोजक बड़े-बड़े लेखकों को एक मंच पर इकट्ठा करके दर्शकों को चमत्कृत करना चाहते हैं. आपने अपनी टिप्पणी के साथ ‘शायद’ जोड़कर यह आशंका व्यक्त की है. मैं एक उदाहरण देकर फिर अपनी बात कहूंगा. इस बार के स्टार लेखकों में से एक थे बेन ओकरी. 23 जनवरी की शाम जिस समय उनका सत्र था उसी समय के चार दूसरे सत्रों में से एक सत्र उतने ही महत्वपूर्ण लेखक रिचर्ड डॉकिंस का था, और एक अन्य सत्र कविता समय शीर्षक से था जिसमें अशोक वाजपेयी, नन्द किशोर आचार्य, नन्द भारद्वाज, पीयूष दईया और लता शर्मा थे. इसी तरह आयोजन के पहले दिन एक सत्र में हैरी कुंजुरू थे, दूसरे में (यह बात अलग है कि उन्हें लेखक मानें भी या न मानें, लेकिन ‘बड़े’ तो वे हैं ही) कपिल सिब्बल थे, एक अन्य सत्र में के. सच्चिदानंदन थे और एक और अन्य सत्र कथा कोश में नवतेज सरना और दीप्ति नवल के साथ हमारे अपने चरण सिंह पथिक, और लक्ष्मी शर्मा थे. जो बात मैं रेखांकित करना चाहता हूं वह यह कि किसी एक सत्र में स्टार लेखक के होने के बावज़ूद शेष सभी सत्रों में भी दर्शकों-श्रोताओं की भरपूर उपस्थिति थी. अब बताइये, कि चमत्कार का क्या असर रहा? जिस वक़्त गुलज़ार और जावेद अख्तर जैसे स्टार एक सत्र में मौज़ूद हों उसी वक़्त अगर लोग रोसामुण्ड बार्टलेट, पवन वर्मा, पुरुषोत्तम अग्रवाल और जेम्स शैपिरो को दत्त चित्त होकर सुनें तो बताइये कि चमत्कार का क्या असर रहा? मुझे नहीं लगता है कि आयोजकों का मक़सद चमत्कार पैदा करना रहा है. अलबत्ता बड़े लेखकों को उन्होंने ज़रूर जुटाना चाहा और इसमें वे कामयाब भी रहे हैं. लेकिन, आयोजन में सिर्फ बहुत बड़े लेखक ही हों, ऐसा भी नहीं है. ऐसे बहुत सारे लेखक भी इसमें आते रहे हैं जिनकी अभी पहली ही किताब आई है और जो साहित्य की दुनिया में अपनी पहचान बना रहे हैं. यानि, कुल मिलाकर एक समन्वय की स्थिति मुझे तो नज़र आई. वैसे, आपने यह सवाल नहीं पूछा है, लेकिन मैं बता दूं कि इस आयोजन में हर दफा कुछ फिल्मी सितारे भी शिरकत करते रहे हैं. कभी अमिताभ बच्चन, कभी आमिर खान, कभी देव आनंद तो कभी ओम पुरी, आदि. आम तौर पर हुआ यह है कि किसी सितारे की कोई किताब उस दौरान प्रकाशित हुई तो उसके प्रोमोशन के लिए उस सितारे को भी बुला लिया गया. बेशक ऐसा करने के पीछे व्यावसायिक नज़रिया होता है. लेकिन एक बात तो यह कि इस आयोजन के कर्ताधर्ताओं ने साहित्य की एक व्यापक परिभाषा ली है. हम लोग आम तौर पर जिसे साहित्य कहते हैं, ये उससे काफी दूर तक जाते हैं और राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, सिनेमा, मनोरंजन, पत्रकारिता सभी को साहित्य की परिधि में लेते हैं. यही वजह है कि इनके आयोजनों में तरुण तेजपाल भी होते हैं, एम. जे. अकबर भी, कुलदीप नैयर भी, मार्क टुली भी, बरखा दत्त भी और ओप्रा विनफ्रे भी. मुझे तो लगता है कि ज्ञान की विविध शाखाओं के बीच पारस्परिक सम्वाद का यह खयाल बुरा नहीं है. मैं आयोजन में आने वाले लोगों की तारीफ करूंगा कि वे महज़ ग्लैमर के पीछे नहीं भागते हैं और जब किसी ग्लैमर वाले स्टार का सत्र चल रहा होता है उस वक़्त भी वे किसी गम्भीर लेखक के सत्र को अपनी पसंद बनाते हैं. लेकिन इसके बावज़ूद मुझे इस बात को लेकर चिंता होती है कि इस आयोजन में ग्लैमर का अनुपात बढ़ता जा है. मैं चाहूंगा कि आयोजक इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाएं.  इस उत्सव के दर्शक कौन हैं? क्या इनमें में वे लोग शामिल हैं जिनकी पीड़ाओं की बात हम अपनी बहसों में करते हैं? इस उत्सव के दरवाज़े सबके लिए खुले रहते हैं. आपको भी स्मरण होगा कि शुरुआती बरसों में तो आयोजकगण निमंत्रणों की बाकायदा बाढ़ ही ला दिया करते थे. धीरे-धीरे कागज़ की उस बर्बादी में कमी करने की सद्बुद्धि इन्हें आई और संचार माध्यमों के ज़रिये लोगों को आमंत्रित किया जाने लगा. इस वर्ष पहली बार आयोजकों ने आगंतुकों के लिए पंजीकरण का प्रावधान किया, और उसके पीछे सुरक्षा सम्बन्धी कारण थे, लेकिन पंजीकरण निशुल्क था. अलबत्ता शाम के मनोरंजन कार्यक्रमों के लिए टिकिट लगाया गया, लेकिन वह अलग बात है. तो, इस उत्सव में कोई भी आ सकता है. स्वाभाविक है कि जब इतना बड़ा आयोजन होगा तो आने वालों का स्तर एक समान तो हो नहीं सकता. जैसा आपने कहा, ‘जिनकी पीड़ाओं की बात हम अपनी बहसों में करते हैं’ वे अगर इस आयोजन में आते हैं तो वे भी आते हैं जो (शायद) उन पीड़ाओं को जन्म देते हैं. और इसमें मुझे कोई हर्ज़ भी नहीं लगता. महत्व तो इस बात का है कि इस आयोजन के दरवाज़े सबके लिए खुले हैं. बल्कि, मैं तो आगे बढ़कर यह भी कहना चाहूंगा कि यहां जो प्रजातांत्रिक व्यवस्था होती है उसका विस्तार और अनुकरण होना चाहिए. कोई भी कहीं भी बैठ सकता है. एक सत्र में मैंने देखा कि पवन के. वर्मा (वे भूटान में भारत के राजदूत हैं) आए और उन्हें कोई कुर्सी खाली नज़र नहीं आई तो वे गुलज़ार के पास ज़मीन पर ही बैठ गए. उनके लिए कुर्सी खाली करने के वास्ते किसी आम श्रोता को उठाया नहीं गया. कभी-कभी मुझे लगता है कि हम जिस समानता की बात जोर-शोर से करते हैं, वो क्रिया रूप में परिणत होती तो यहां नज़र आती है. लेकिन आपने बात पीड़ाओं की की थी. इस आयोजन में लगातार जाकर मैंने पाया है कि यहां सिर्फ उस साहित्य की बात नहीं होती है जो आम जन की पीड़ाओं से ताल्लुक रखता है. जैसा मैंने अभी कहा, यहां साहित्य को व्यापक अर्थ में लिया जाता है, इसलिए यहां जो दर्शक श्रोता समुदाय आता है वह भी वैविध्यपूर्ण होता है.  इस उत्सव में आने वाले दर्शकों की स्थिति से क्या इस उत्सव का मूल्यांकन नहीं होना चाहिए? आपका इशारा शायद इस तरफ है कि इस आयोजन में जो दर्शक आते हैं वे सम्पन्न वर्ग के होते हैं. आपके इस प्रश्न का उत्तर पिछले उत्तर में आ गया है.  क्या अपको नहीं लगता है कि एक प्रायोजित एलीट वर्ग यहां आ रहा है जो देश और समाज की समस्याओं के प्रति गम्भीर नहीं है? इसकी जड़ें भी हमारी देशजता में नहीं हैं शायद? इस प्रश्न का उत्तर हां में भी है और ना में भी. पहले हां की बात करूं. यह एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का आयोजन है. पूरी दुनिया से इसमें लोग आते हैं. न सिर्फ लेखक, वे भी जिनकी लेखन में रुचि है. अब अगर कोई अमरीका से, जर्मनी से, जापान से, या कहिये चेन्नई से, अहमदाबाद से एक साहित्यिक आयोजन में आ रहा है तो ज़ाहिर है कि उसका सामाजिक-आर्थिक-बौद्धिक स्तर उस तरफ झुका होगा जिसे आप एलीट वर्ग कह रहे हैं. यह मेरी अपनी जानकारी है कि हर बरस इस आयोजन में दुनिया भर से लोग अपने खर्चे पर (भी) आते हैं. यह स्वाभाविक बात है कि उन सबकी जड़ें ‘हमारी देशजता’ में नहीं है. लेकिन इस आयोजन में जो स्थानीय लोग आते हैं, उनके बारे में तो ऐसा नहीं है. वे उस वर्ग से इतर के भी हैं जिनकी अभी मैं बात कर रहा था. बहुत साधारण किस्म के लोगों को मैंने इस आयोजन में देखा है. न केवल देखा है, सम्मान और अधिकार से अगली पंक्ति में ठाठ से बैठकर चर्चाओं को सुनते देखा है. तो दोनों ही तरह के लोग इस आयोजन में आते हैं. और रही बात समस्याओं की, तो मैंने यह महसूस किया है कि आयोजकों का नज़रिया साहित्य के प्रति व्यापक है और वे केवल उसी को साहित्य नहीं मानते हैं जो समस्याओं की फिक्र करता हो. इससे मेरी व्यक्तिगत असहमति भी हो सकती है, लेकिन इसके बावज़ूद मैं यह मानता हूं कि आयोजन का फॉर्मेट तै करने का हक़ तो आयोजकों को ही है.  क्या इस उत्सव का प्रारूप आपको उपयुक्त लगता है जिसमें सब जल्दी में हैं, भागमभाग में हैं? बस, हैलो, हाय, बाय तक ही रिश्ते बन पा रहे हैं? आपका यह प्रश्न मुझे बहुत सार्थक लगा. इस आयोजन में हर दिन एक-एक घण्टे के सात सत्र होते हैं. ये सत्र एक साथ पाँच जगहों पर चलते हैं. मोटे तौर पर लगभग 175 सत्र. ज़ाहिर है कि कोई भी व्यक्ति एक वक़्त में एक ही सत्र में उपस्थित रहेगा, अंत: वह अधिक से अधिक 35 सत्र देख सुन सकता है. लेकिन वह कौन-से 35 सत्र देखे सुने, यह चयन उसका अपना होगा. यानि 175 में से 35 (या कम) चुनने की आज़ादी उसे आयोजक देते हैं. यह विविधता तो प्रशंसनीय है. अगर आपका प्रश्न यह है कि एक सत्र के लिए एक घण्टे का वक़्त कम है, तो मैं यह कहना चाहूंगा कि अगर लेखक व्यवस्थित और सुविचारित रूप से अपनी बात कहे तो यह समय कम नहीं है. हां, अगर कोई पन्द्रह मिनिट की बात कहने के लिए दो घण्टे की भूमिका बांधना ज़रूरी समझता हो तो बात अलग है. दूसरे यहां बहुत सारे सत्र तो रचना पाठ के होते हैं. उस लिहाज़ से तो यह समय वैसे भी कम नहीं है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जो बात मुझे सबसे महत्वपूर्ण लगी वह है समय के प्रति उनका आदर भाव. अगर कोई सत्र दस बजे शुरू और ग्यारह बजे खत्म होना है तो वह दस बजे ही शुरू होगा और ग्यारह बजे ही खत्म होगा. किसी का इंतज़ार नहीं, किसी को अपनी बात पूरी करने के लिए अतिरिक्त समय नहीं. हम लोग, विशेष रूप से हिंदी वाले इस बात के अभ्यस्त नहीं हैं. हमारा कार्यक्रम अगर तीन बजे घोषित है तो बड़े लोगों को तो वैसे ही साढे तीन का वक़्त बताया जाएगा, और अगर चार बजे वो कार्यक्रम शुरू हो जाए तो गनीमत मानिए. फिर माल्यार्पण, स्वागत, वक्ताओं का परिचय और उसके बाद खुद वक्ता, जिसे अनंतकाल तक बोलने का विशेषाधिकार मिला होता है. कार्यक्रम खत्म होने का तो कोई समय होता ही नहीं. कोई वक्ता जब एक बार बोलना शुरू कर दे, चाहे वह आभार प्रदर्शन ही क्यों न कर रहा हो, तो समझिये गया कम से कम आधा घण्टा. तो, हमारे इस अभ्यास की नज़र से देखें तो बेशक यह आयोजन भागमभाग और जल्दबाजी का आयोजन है. लेकिन, इस बार सवाल मुझे पूछने दें, कि क्या हमें भी अपने आयोजनों में समय की कद्र नहीं करनी चाहिए? क्या समयबद्धता कोई अपराध है? क्या अपनी बात सलीके से और सुगठित रूप से, पूरी तैयारी करके नहीं कही जानी चाहिए? क्या एक निश्चित समय में अपनी बात कहने का अनुशासन हममें नहीं आना चाहिए?  हम जल्दी-जल्दी में, अधिकाधिक लोगों की शिरकत के चक्कर में समाज और व्यक्ति की मूलभूत समस्याओं से टकराने के बजाय उनसे बचने का प्रयास नहीं कर रहे हैं? मेरे खयाल से ये दो अलग-अलग बातें हैं. जल्दी-जल्दी और अधिकाधिक लोगों की शिरकत की बात अभी अपन ने की. हो सकता है कि यह देखने का एक भिन्न नज़रिया भी हो. जिसे मैं समयबद्धता कह कर सराह रहा हूं वही किसी और को जल्दबाजी भी लग सकती है. सोच का यह फर्क़ तो रहेगा ही. लेकिन इसे समाज की और व्यक्ति की मूलभूत समस्याओं से टकराने की बजाय उनसे कतराने का नाम देना मुझे उचित नहीं लगता. समस्याओं से टकराने के लिए समय की बरबादी और बात को बेवजह विस्तार देना ज़रूरी नहीं है. अगर वक्ता की तैयारी है और वह सलीके से अपनी बात कह सकता है तो उसके लिए तीस मिनिट भी काफी हैं, अन्यथा.... . अगर मैं कहूंगा तो छोटे मुंह बड़ी बात हो जाएगी, इसलिए मैं श्रीलाल शुक्ल से शब्द उधार ले रहा हूं. उन्होंने कहीं कहा था कि हिंदी लेखक संक्षेप में अपनी बात कह ही नहीं सकता. बात को फैलाना उसके स्वभाव में ही है. अगर यह बात सही है, तो क्या आपको नहीं लगता कि हिंदी लेखक को भी अपना स्वभाव बदलना चाहिए? आपका जो दूसरा सवाल है उसका ताल्लुक आयोजन के फॉर्मेट से है. और जैसा मैंने पहले भी कहा है, किसी आयोजन का फॉर्मेट क्या हो यह तो आयोजक ही तै करेगा. इस साहित्य उत्सव का फॉर्मेट अगर हमारी अपेक्षाओं से अलग है, तो है.  क्या आपने देखा है कि डिग्गी पैलेस के बाहर यातायात व्यवस्था, पार्किंग आदि को लेकर कितनी मारामारी है? इस उत्सव के कारण रिक्शावालों, टैक्सी वालों तथा आम जन को कितनी तक़लीफें हो रही हैं? क्या इन बातों का एहसास आयोजकों को है? क्या वे अपनी बनावटी दुनिया में मस्त हैं और इस तथ्य से बेखबर हैं कि उनके आयोजन से जयपुर के आम जीवन में कितनी तक़लीफें आम जन को सहनी पड़ रही हैं? जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल बहुत बड़ा आयोजन बन गया है और किसी भी बड़े आयोजन के कारण कुछ असुविधाओं का होना अपरिहार्य है. लेकिन मेरा ऐसा खयाल है कि आयोजक भी और स्थानीय प्रशासन भी लगातार यह कोशिश करते हैं कि आम लोगों को कम से कम असुविधा हो.  डिग्गी पैलेस को जैसे किले में तबदील कर दिया गया है. चारों ओर पुलिस है, चारों ओर पहरा है, आम आदमी के लिए आम रास्ते तक बंद हैं जबकि पास ही प्रदेश का सबसे बड़ा अस्पताल है, अजमेरी गेट है, महाराजा-महारानी कॉलेज हैं, कुल मिलाकर यह बहुत व्यस्त इलाका है. क्या इस ओर आयोजकों को ध्यान नहीं देना चाहिए? क्या इस बाबत रचनाकारों का कुछ संवेदनात्मक दायित्व नहीं बनता है? ऐसा इसी बार हुआ है. कारण आप भी जानते हैं. सलमान रुश्दी प्रकरण. यह कानून-व्यवस्था का मामला था और अगर प्रशासन को एहतियाद बरतना ज़रूरी लगा, तो उसने वैसा किया. अगर हम आयोजकों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं, तो मेरे जेह्न में यह सवाल उठता है कि क्या उन्होंने जान-बूझकर सलमान रुश्दी को बुलाकर ‘आ बैल मुझे मार’ को चरितार्थ किया होगा? भला कौन अपना इतना बड़ा आयोजन दांव पर लगाना चाहेगा? हो सकता है कि उन्होंने इस बात का पूर्वानुमान न किया हो कि समाज का एक हिस्सा रुश्दी को बुलाये जाने के विरोध में उठ खड़ा होगा और सरकार भी ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील हो जाएगी! मुझे लगता है कि इस मामले को सरकार ने तो ग़लत तरह से हैंडल किया ही, मीडिया ने भी ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत दी. जो लोग आयोजन में शरीक नहीं थे उन्हें (मीडिया की वजह से) यह एहसास हुआ कि सारा आयोजन रुश्दी के इर्द-गिर्द ही सिमटा हुआ है. जबकि यथार्थ इससे बहुत भिन्न था. लेकिन यह तो विषयांतर हो गया. आपने रचनाकारों के संवेदनात्मक दायित्व का सवाल उठाया था. इस मामले में हम रचनाकार से किस तरह के संवेदनात्मक व्यवहार की उम्मीद करते हैं?  क्या यह आयोजकों की आत्ममुग्धता नहीं है कि वे जयपुर की आम ज़िन्दगी की तक़लीफों से बेखबर मानसिक विलास में डूबे हैं? बेहतर हो, यह सवाल आयोजकों से ही पूछा जाए. मैं भला उनकी तरफ से कोई सफाई देने वाला कौन होता हूं?  क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि इसके आयोजन के लिए किसी एकांत की जगह को चुना जाए जहां लेखकों को भौतिक तक़लीफों का भी एहसास हो? यह सवाल तो बहुत मज़ेदार है. ऐसी जगह चुनी जाए जहां लेखकों को भौतिक तक़लीफों का एहसास हो. बात सुनने में तो प्रभावशाली लगती है. लेकिन क्या असल ज़िन्दगी में हमेशा ऐसा ही होता और किया जाता है? अपने मेहमानों को हम सुविधा देना चाहते हैं या तक़लीफ का एहसास कराना चाहते हैं? आप मुझे बताएं कि कौन-सी साहित्यिक संस्था अपने लेखकों को भौतिक तक़लीफों का एहसास कराने के लिए स्लम्स में या कच्ची बस्तियों में ठहराती है?  बाहर से आने वाले लेखकों को पाँच सितारा या अच्छे होटलों में ठहराया जा रहा है. क्या आने वालों के लिए नए प्रकार के रैन बसेरों की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? हम नेताओं की अय्याशी की तो बात करते हैं, पर हम भी दुःख पाने के लिए तैयार कहां हैं? एक लेखक का एक दिन एक सत्र में प्रेजेण्टेशन और वह पाँच दिन यहां होटल में मज़े कर रहा है इसे अय्याशी नहीं कहेंगे? क्या ऐसे लेखकों पर बंदिश नहीं लगनी चाहिए? क्या यह सर्वेक्षण नहीं होना चाहिए कि कितने लेखक अपने खर्चे पर इस उत्सव में बाहर से आते हैं? हां, ये लोग अपने अतिथि लेखकों वगैरह को पाँच सितारा या उसी तरह के बेहतर होटलों में ठहराते हैं. मुझे नहीं पता कि अब तक किसी आगत लेखक ने इस बात का विरोध किया या नहीं. किया होता तो कहीं पढ़ने को भी मिला होता. मुझे नहीं पता कि ऐसे कौन से साहित्यिक संगठन हैं जो अपने लेखकों को रैन बसेरों में ठहराते हैं? आदर्श के लिहाज़ से तो बात भली लगती है कि लेखक भी फुटपाथ पर सोये, पैदल चले, पसीना बहाए, रूखी-सूखी खाकर ठण्डा पानी पी ले. लेकिन यथार्थ यह है कि हम सब सुविधाओं के आदी होते जा रहे हैं. अब यह बात आयोजक की क्षमता पर है कि वह कितनी सुविधा दे पाता है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि कोई भी लेखक इस बात पर आपत्ति करेगा कि उसे अमुक-अमुक सुविधा क्यों दी जा रही है. और जहां तक एक सत्र में प्रस्तुति और पाँच दिन के मज़े की बात है, इस सवाल के पीछे मुझे एक खास तरह की मानसिकता का आभास मिल रहा है, जो कम से कम मुझे तो कभी नहीं रुचि. हमारे प्रांत के एक बड़े लेखक ने एक बार किसी सन्दर्भ में चिढ़ कर कहा था, कि हम क्या ताली बजाने जाएंगे? यानि, अगर लेखक बड़ा है तो वह सिर्फ मंच पर बिराजेगा. श्रोता समूह में तो वह बैठ ही नहीं सकता. वह सिर्फ बोल सकता है, किसी को सुन नहीं सकता. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में मैंने ऐसा नहीं पाया. अगर कोई लेखक एक सत्र में अपनी बात कह रहा है तो बाकी सत्र में वह औरों की बात सुनता भी है, उनके सत्रों में बतौर श्रोता भी उपस्थित रहता है. मैंने बहुत बड़े और नामी लेखकों को दूसरों के सत्र में बैठे और बातें सुनते देखा है. किसी का आग्रह यह नहीं रहता कि वह सिर्फ मंचासीन ही होगा. तो यह तो प्रशंसनीय बात है कि एक लेखक एक सत्र में अपनी बात कहता है और बाकी सत्रों में औरों की बात सुनता है. इसे भला अय्याशी कैसे और क्यों कहा जाए?  क्या आयोजकों को उत्सव के आय-व्यय का हिसाब जनता के सामने नहीं रखना चाहिए? वे प्रायोजकों के नाम तो घोषित कर देते हैं, आभार व्यक्त करने के साथ, पर यह नहीं बताते कि किसने कितने पैसे दिए, कितने पैसे किस मद पर खर्च हुए. क्या कुछ राशि बची और अगर बची तो वह कहां गई. क्या यह पारदर्शिता आवश्यक नहीं है? पारदर्शिता होनी चाहिए, ज़रूर होनी चाहिए. लेकिन क्या जीवन के अन्य किसी क्षेत्र में हमें इस आदर्श पारदर्शिता के दर्शन होते हैं? विभिन्न लेखक संगठन या संस्थान जो आयोजन करते हैं क्या वे उसका लेखा-जोखा सार्वजनिक करते हैं? आप कह सकते हैं कि उनके आयोजन इतने बड़े नहीं होते हैं और उसमें इतने अधिक वित्तीय संसाधन प्रयुक्त नहीं होते हैं. ठीक है. लेकिन सिद्धांत तो सिद्धांत है. छोटे और बड़े का भेद क्यों किया जाना चाहिए? और एक बात. हो सकता है कि यह कहना ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ न हो लेकिन हम जब बात कर ही रहे हैं तो जो बात मेरे मन में है मुझे उसे कहने में संकोच नहीं करना चाहिए. मुझे यह भी लगता है कि एक ऐसे आयोजन जिसमें मेरा कोई आर्थिक योगदान नहीं है, के आयोजकों से मैं उनके आय व्यय के बारे में पूछने का क्या हक़ रखता हूं? यह हक़ तो उनका बनता है जिन्होंने उसमें कोई अंशदान किया है.  यह उत्सव किन मूल्यों की स्थापना कर रहा है तथा इसका वास्तविक प्रभाव क्या है इसका आकलन किस प्रकार होना चाहिए? मेरे खयाल से तो कोई भी उत्सव उत्सव होता है, वह मूल्यों की स्थापना के निमित्त नहीं होता है. हां, इतना ज़रूर देखा जाना चाहिए कि उसके कारण कोई विकृतियां समाज में न आएं. जहां तक प्रभाव की बात है, मुझे लगता है कि यह उत्सव समाज की साहित्य में दिलचस्पी बढ़ाने में काफी हद तक कामयाब रहा है. इसका आकलन कैसे हो, यह तो मैं भी नहीं जानता.  एक और बात. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इस आयोजन का बहुत अधिक झुकाव अंग्रेज़ी की तरफ है और इसमें हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं की गहन उपेक्षा होती है? जी, मुझे क़तई ऐसा नहीं लगता है. इसकी वजह यह है कि मेरे मन में यह बात बहुत स्पष्ट है कि यह साहित्य उत्सव है, भारतीय या हिंदी साहित्य का उत्सव नहीं. अगर आप सारी दुनिया के सन्दर्भ में देखेंगे तो पाएंगे कि हिंदी सहित भारतीय भाषाओं को जो प्रतिनिधित्व मिल रहा है वह संतोषप्रद है. थोड़ा असंतुलन हमें इसलिए भी लगता है कि दुनिया के दूसरे देशों के साहित्य में से ज़्यादातर का प्रतिनिधित्व यहां अंग्रेज़ी के माध्यम से होता है (और यह स्वाभाविक भी है. अगर कल को कोई फ्रेंच साहित्यकार फ्रेंच भाषा में अपनी बात कहेगा तो उसे सुनने-समझने वाले कितने कम होंगे! यह एक सच्चाई है कि अन्य भाषाओं की तुलना में अंग्रेज़ी बोलने समझने वाले अधिक हैं.). फिर भी, अगर इसमें भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व और बढेगा तो मुझे भी प्रसन्नता ही होगी.  हमारी अब तक की बातचीत से लग रहा है कि आप इस आयोजन से पूरी तरह संतुष्ट हैं. क्या आपको इस आयोजन में कुछ भी अप्रिय नहीं लगा? देखिए, सुधार की गुंजाइश तो हर जगह होती है. मेरा स्वभाव है कि मैं चीज़ों को उनके खास सन्दर्भ में देखता हूं और मूल्यांकन करते वक़्त सामने वाले पक्ष की सीमाओं को भी ध्यान में रखने की कोशिश करता हूं. वरना आम तौर पर होता यह है कि हम दूसरों से हद दर्ज़े के आदर्श की उम्मीद करने लगते हैं और फिर निराश होते हैं. यह बात मेरे स्वभाव में नहीं है. अब मुझे यह लगता है कि यह आयोजन कुल मिलाकर साहित्य और जन को नज़दीक लाने का एक उम्दा प्रयास है और इसी रूप में मैं इसका प्रशंसक हूं. बेशक यहां कोई गम्भीर विमर्श नहीं होता है, आम तौर पर. लेकिन इतने बड़े मेले से आपको गम्भीर विमर्श की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए. दूसरे, क्योंकि यह बहुत बड़ा आयोजन है, ज़ाहिर है कि आयोजकों पर बहुत सारे व्यावसायिक दबाव भी होते होंगे. वे नज़र भी आते हैं. मुझे नहीं लगता कि उनसे बचा जा सकता है. बचने की एक ही राह हो सकती है और वह यह कि आयोजन किया ही न जाए. अगर कोई मुझे छूट दे तो मैं तो इस विकल्प को नहीं चुनूंगा. मुझे लगता है कि नहीं करने से तो यह बेहतर है. अब आप कह सकते हैं कि इतना बड़ा आयोजन किया ही क्यों जाए! अगर आप यह कहें तो इसका कोई जवाब मेरे पास नहीं होगा. फिर भी, अगर आदर्श की बात करूं तो कहना चाहूंगा कि आयोजकों को व्यावसायिक पक्ष, ग्लैमर और तड़क भड़क से बचना चाहिए. एक बात और कहना चाहूंगा और वह यह कि अब यह आयोजन इतना बड़ा हो गया है कि डिग्गी पैलेस इसके लिए उपयुक्त नहीं रह गया है. मैं जानता हूं कि डिग्गी पैलेस के मालिकान यह स्थान आयोजकों को निशुल्क उपलब्ध कराते हैं और आयोजकों को अपने आयोजन की मार्केटिंग के लिहाज़ से एक ‘पैलेस’ रास भी आता है, लेकिन अब उन्हें कोई दूसरी जगह तलाश करनी ही चाहिए. और एक बात. मैं भी इस आयोजन की खूब सारी आलोचनाएं पढ़ता रहा हूं. वैसे तो मुझे यह बात दिलचस्प लगी कि अधिकांश आलोचनाएं लोगों ने बगैर इस आयोजन में आए, और बिना इसे समझे ही की है. सुनी-सुनाई, पढी-पढाई बातों के आधार पर. जो लोग कभी इस आयोजन में शरीक हुए उनमें से बहुत ही कम ने इसके बारे में प्रतिकूल कुछ कहा-लिखा है. फिर भी, एक बात मेरे मन में अवश्य आती है. थोड़ी देर के लिए मैं मान लेता हूं कि यह आयोजन बहुत खराब है, बहुत निकृष्ट है. तो, क्यों नहीं हम एक आदर्श और उत्कृष्ट आयोजन करके दिखाते हैं? हमें किसने रोका है? मैं जानता हूं कि हमारे यहां यानि इस फेस्टिवल से बाहर भी काफी कुछ होता है, अच्छा होता है. हाल ही में कविता समय का आयोजन हुआ. ऐसे और आयोजन हों तो कुछ बात बने. ◙◙◙ सम्पर्क सूत्र: डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, ई-2/211, चित्रकूट, जयपुर- 302021. डॉ रजनीश भारद्वाज, ए-243, त्रिवेणी नगर, गोपालपुरा बाय पास, जयपुर. 'एक और अंतरीप' के जनवरी-मार्च 2012 अंक में प्रकाशित. Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा