यह घटना सुदूर अमरीका में घटी, लेकिन जब इसके बारे में पढ़ा तो बरबस आंखें
नम हो आईं और माथा सराहना में झुक गया. क्या ही अच्छा हो कि सारी दुनिया ऐसे ही
अच्छे और संवेदनशील लोगों से भर जाए! घटना न्यूयॉर्क के एक जनाना अस्पताल की है
जहां भारतीय मूल की कनाडा वासिनी और फिलहाल सपरिवार अमरीका में रह रहीं सुषमा
द्विवेदी जिंदल भर्ती थीं. वे गर्भवती थीं और डॉक्टर की सलाह पर उनकी रीढ़ की हड्डी
के सबसे निचले वाले जोड़ के पास प्रसव पीड़ा को कम करने वाला इंजेक्शन लगाया गया था.
चिकित्सकीय भाषा में इसे एपीड्यूरल एनेस्थीसिया कहा जाता है. इंजेक्शन का असर शुरु
होने लगता उससे पहले ही सुषमा को पता चला कि उसी अस्पताल में प्रसव के लिए भर्ती
एक स्त्री और उसके साथी को सहायता की
ज़रूरत है. असल में ब्रायना डॉयेल और उनके साथी केसी वॉको इस बात के लिए बहुत आकुल
व्याकुल थे कि ब्रायना शिशु को जन्म दे उससे पहले उनका धार्मिक विधि विधान पूर्वक
बाकायदा विवाह हो जाए. वैसे वे लोग एक दिन पहले अदालत में जाकर कानूनी औपचारिकताएं
पूरी कर चुके थे और विवाह का कानूनी प्रमाण
पत्र भी हासिल कर चुके थे. वे धार्मिक रीति से विवाह की रस्में भी पूरी कर
लेते लेकिन गर्भस्थ शिशु को शायद इस दुनिया में आने की बहुत ज़्यादा जल्दी थी, सो उन्हें बजाय
चर्च जाने के भागकर अस्पताल आना पड़ गया. वैसे डॉक्टरों ने बच्चे की जन्म की जो
सम्भावित तिथि बताई थी वो अभी काफी दूर थी, और अगर सब कुछ योजनानुसार
चलता तो तब तक वे धार्मिक रीति से भी पति पत्नी बन चुके होते, लेकिन सब कुछ
योजनानुसार हो जाता तो यह प्रसंग ही क्यों बनता? ब्रायना और वॉको की
व्याकुलता को समझ संवेदनशील अस्पताल कर्मियों (वो कोई भारत का सरकारी अस्पताल थोड़े
ही था!) ने अस्पताल के पादरी की तलाश की, लेकिन वे उपलब्ध नहीं हुए तो उन्होंने भी
अपने हाथ खड़े कर दिए.
जब इस पूरे मामले की भनक
सुषमा को लगी तो उन्होंने अस्पताल वालों से कहा कि यह पवित्र कार्य तो वे भी
सम्पन्न कर सकती हैं. उन्होंने अस्पताल वालों को बताया कि कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने
इस कार्य का बाकायदा ऑनलाइन प्रशिक्षण
प्राप्त किया है और वे तब से पर्पल प्रोजेक्ट नामक एक सेवा का संचालन कर रही हैं
जो एलजीबीटीक्यू (LGBTQ) समुदाय के लोगों और उन हिंदू धर्मावलम्बियों के
विवाह सम्पन्न करवाती हैं जिन्हें उपयुक्त पण्डित नहीं मिल पाते हैं. अस्पताल
प्रशासन तेज़ी से हरकत में आया और उसने इस
अजीबोगरीब विवाह के लिए तुरत फुरत सारी सुविधाएं जुटा दीं. लेकिन तब तक सुषमा पर
उस इंजेक्शन का असर होना शुरु हो गया था और उन्हें लगा कि वे चलना तो दूर शायद खड़ी
भी न रह सकें. वो कहते हैं ना कि जहां चाह वहां राह. तो इस समस्या का भी हल निकाल
लिया गया. बजाय इसके कि सुषमा उस युगल के पास जाकर विवाह सम्पन्न करातीं, ब्रायना और वॉको
को ही उनके अस्पताली पलंग के पास ले आया गया. अस्पताल की नर्सों ने ब्रायना के केश
संवार कर उसे दुल्हन बनाया तो अन्य चिकित्सा कर्मियों ने अस्पताल में उपलब्ध
सामग्री का इस्तेमाल करते हुए दुल्हे मियां की समुचित साज सज्जा कर दी. कोई भाग कर
फूल भी ले आया और एक बंदे ने तो अवसरानुकूल कविता भी रच डाली. और फिर नर्सों के
मंगल गान के बीच यह युगल अस्पताल के गलियारों से होता हुआ बिस्तर पर लेटी
पण्डितानी यानि सुषमा के सामने जा पहुंचा. सुषमा ने विवाह की रस्में पूरी कीं और
बुधवार की उस आधी रात को वो अस्पताल जैसे प्रेम के जीते जागते मंदिर में तब्दील हो
गया.
इसके चार घण्टे बाद इस
खूबसूरत दुनिया में एक शिशु अवतरित हुआ
जिसे अब नयन जिंदल नाम से जाना जाएगा और नयन महाशय के इस दुनिया में पदार्पण के
चंद घण्टों बाद ब्रायना ने जन्म दिया रिले को. और इस तरह न्यूयॉर्क के उस अस्पताल
में लिखी गई दो शिशुओं के जन्म की वो
विलक्षण कथा जिसे कम से कम इन दो परिवारों में तो बार-बार सुनाया ही जाएगा. मेरे
दिल को तो उस बात ने छुआ जो सुषमा ने बाद में पत्रकारों से कही. अश्विन और उनसे दो
बरस छोटे नयन की मां सुषमा ने कहा कि “हमें खुशी है कि हम अपने बच्चों को यह पाठ
पढ़ा पा रहे हैं. हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे सदा इस बात को याद रखें कि अगर आपको
अपनी ज़िंदगी में कभी भी दयालुता दिखाने और किसी और के लिए कुछ भी अच्छा करने का
मौका मिले तो उसे हाथ से न जाने दें. जान लें कि ऐसा करना तनिक भी मुश्क़िल नहीं
है.” मुझे लगता है कि यह संदेश अश्विन और नयन के लिए ही नहीं, हम सबके लिए भी
है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत (इस बार मंगलवार की बजाय) शुक्रवार, 01 जून, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.