ब्रिटेन की एक युवती एलोईस डेकर को क्या मालूम था कि किरगिज़स्तान की पहाड़ियों की रोमांचक यात्रा उनके जीवन
का एक बेहद रोचक अध्याय भी लिख जाएगी! अपनी यात्रा के दूसरे दिन यकायक उन्हें पता
चला कि उनकी दिवंगत मां का जो ब्रेसलेट वे पहने रहती थीं, वो कहीं गुम हो
गया है. पुरानी अंगूठियों के सोने को गलाकर बनवाया गया यह ब्रेसलेट एलोईस की मां
को उनकी मां से विरासत में मिला था और
जहां तक एलोईस की स्मृति जाती थी, उन्होंने हमेशा ही अपनी मां की
कलाई में यह ब्रेसलेट देखा था. लेकिन ज़िंदगी के आखिरी बरसों में जब वे बहुत कमज़ोर
हो गई थीं, यह ब्रेसलेट बार-बार उनकी कलाई से उतर जाता था और
आखिर तंग आकर उन्होंने इसे उतार कर रख दिया था. कमरा साफ़ करते हुए अचानक एक दिन
एलोईस ने इस ब्रेसलेट को देखा और अपनी कलाई में पहन लिया. उनकी मां ने यह देख अपनी
खुशी ज़ाहिर की और यह उम्मीद भी जताई कि किसी दिन एलोईस भी इसे अपनी संतान को
हस्तांतरित कर देगी. इसके कुछ ही महीनों बाद एलोईस की मां रोज़मरी का देहांत हो
गया. लेकिन उस ब्रेसलेट में जाने क्या कशिश थी कि तब से कभी भी एलोईस ने उसे अपनी
कलाई से नहीं उतारा. शायद आभूषण भी हमें अपनों से जोड़े रखने का एक सशक्त माध्यम
होते हैं. ख़ास तौर से वे आभूषण जो हमें विरासत में प्राप्त होते हैं.
तो, जैसे ही
एलोईस को यह भान हुआ कि वह बेशकीमती ब्रेसलेट उनसे ज़ुदा हो गया है, उनके पैरों तले की ज़मीन ही खिसक गई. हॉंग कॉंग में जन्मीं मां से ब्रिटेन में पली बढ़ी उसकी बेटी को जो ब्रेसलेट
प्राप्त हुआ था वह किरगिज़स्तान के बियाबान में कहीं खो
गया था. वे अपनी सूनी कलाई को बार-बार देखतीं और महसूस करतीं कि उनके अस्तित्व का
एक भाग उनसे ज़ुदा हो गया है. असल में वह ब्रेसलेट उनकी उस मां की एक और अंतिम भौतिक निशानी था जो अब केवल स्मृतियों में शेष रह गई
थीं. लेकिन अनहोनी तो हो ही चुकी थी. जितना वे खोज सकती थीं, उतना खोजा
भी, लेकिन ब्रेसलेट नहीं मिला. बहुत भारी और उदास मन से
जैसे-तैसे उन्होंने अपनी यात्रा पूरी की. और फिर लौट आईं अपने देश में अपने घर.
कुछ सप्ताह बाद
अप्रत्याशित कुछ हुआ. उन्हें फेसबुक पर एलामान असानबेव का एक संदेश मिला. एलामान किरगिज़स्तान
में उनके कई गाइडों में से एक था. उसने अपने संदेश के साथ एक तस्वीर संलग्न की थी, और बस इतना ही लिखा था: “मैं नहीं जानता कि यह वही है भी या
नहीं!” लेकिन एलोईस उस तस्वीर को देखते ही जान गई थीं कि यह वही है.
वही, यानि उनका खोया हुआ ब्रेसलेट! और जैसे मुर्दे में जान आ जाए, वे एकदम से खिल उठीं. लेकिन अब एक और बड़ा सवाल उनके सामने था. सुदूर
किरगिज़स्तान से वो ब्रेसलेट मंगवाया कैसे जाए? डाक सेवाओं पर
उनको ज़्यादा भरोसा नहीं था, और जब उन्होंने कूरियर से मंग़वाने के बारे में सोचा तो यह बात
याद आई कि तमाम कूरियर कम्पनियां यह हिदायत देती हैं कि उनके माध्यम से कीमती आभूषण आदि न भेजे जाएं.
उन्होंने इस सम्भावना को भी खंगाला कि कोई परिचित मिल जाए जो किरगिज़स्तान से आ रहा
हो तो उसे यह कष्ट दे दिया जाए, लेकिन ऐसी कोई सम्भावना बनी
नहीं. फिर तो एक ही विकल्प बचा था, कि वे खुद वहां जाकर उस
ब्रेसलेट को लातीं. एक सुखद संयोग यह और बन गया कि नवम्बर में फ्लाइट्स सस्ती हो जाती
हैं, तो इसका फायदा
उठाकर वे खुद ही लंदन से मॉस्को
होती हुईं किरगिज़स्तान की राजधानी जा पहुंची और वहां से छह घण्टे की सड़क यात्रा कर
उस कम्पनी के दफ्तर में पहुंच गई जिसने उसे वो गाइड उपलब्ध कराया था. कम्पनी के
मैनेजर ने उक्त एलामान असानबेव को बुलवा भेजा, और जैसे ही वह
आया, उसने यह कहते हुए कि “यह रहा” एलोईस को वो ब्रेसलेट थमा दिया! एलामान उस मैनेजर को
अपनी स्थनीय बोली में कुछ बता रहा था,
जिसमें से एलोईस को सिर्फ एक शब्द समझ में आया था टॉयलेट! यानि वो
ब्रेसलेट उसे टॉयलेट के आस-पास से मिला था.
कल्पना कीजिए कि कैसा रहा होगा वह क्षण
एलोईस के लिए! वे बार-बार उस ब्रेसलेट को देख रही थीं, छू रही थीं और फिर
हाथ में पहन कर महसूस कर रही थीं जैसे उनकी अपूर्णता पूर्णता में तबदील हो गई है.
इक्कीस घण्टों का सफ़र तै कर जब एलोईस अपने घर लौटीं तो उनका ध्यान इस बात पर गया
कि वहां मां की हर तस्वीर में उनकी कलाई में यह ब्रेसलेट मौज़ूद था. उन्हें लगा कि
जीवन की सबसे मूल्यवान वस्तु अब उनके पास है! और वे सोच रही थीं कि जब अगली किसी
यात्रा पर निकलेंगी तो इस ब्रेसलेट को पहन कर जाएं या नहीं?
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 03 जनवरी, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.