अमरीका के मेरीलेण्ड राज्य के वाल्डोर्फ
शहर के एक मिडिल स्कूल में जैसे ही श्रीमती एबॉनी बैंक्स की ग्यारह वर्षीया बेटी
पहुंची, स्कूल प्रशासन ने उसे क्लास में बैठने की अनुमति देने से मना कर दिया, उसे
एक अलग कमरे में बिठाया और कहा कि वो अपनी मां को फोन करे. बिटिया ने मां से कहा कि वो उसके लिए एक जीन्स लेकर फौरन स्कूल आ जाए. स्कूल प्रशासन का
कहना था कि वो लड़की जिस वेशभूषा में स्कूल
आई थी उससे उनके ड्रेस कोड का उल्लंघन हो रहा था. लड़की ने काले रंग की लेगिंग्स
पहनी थी और उस पर कमर तक पहुंच रहा काले रंग का छोटी आस्तीन वाला शर्ट और गुलाबी
रंग का स्वेटर जैकेट पहना था. स्कूल की अपेक्षा थी कि जो लड़कियां लेगिंग्स पहनें
वे पाँव की उंगलियों तक पहुंचने वाले शर्ट भी पहनें ताकि वे अपनी देह की तरफ़ अनावश्यक
ध्यान आकृष्ट न कर सकें.
मेरीलेण्ड के ही विश्वविद्यालय की एक
प्रोफेसर और जेण्डर एक्सप्रेशन की विशेषज्ञ ड्रेस इतिहासकार जो पाओलेत्ती ने बहुत
महत्वपूर्ण बात कही है. उन्होंने कहा है कि इस बात की परिभाषा सदा बदलती रहती है
कि क्या अनुपयुक्त या सेक्सी है. अपनी बात को और खोलते हुए वे कहती हैं कि फैशन
निरंतर नए आविष्कार करता रहता है और उन्हीं के पीछे चलते हुए ड्रेस कोड लेखकों को
यह तै करना होता है कि क्या अनुपयुक्त है और किसे बैन किया जाना है. ड्रेस कोड का
मसला स्कूलों में विशेष अहमियत रखता है और
वहां भी इसके घेरे में लड़कों की बजाय लड़कियां ज़्यादा आती हैं. अमरीका के विभिन्न
राज्यों में, और अपने भारत में भी, स्कूलों में कौन क्या पहने और क्या न पहने इस
पर प्राय: विवाद होते रहे हैं. बहुत सारे स्कूलों ने तो इस विवाद से निजात पाने का
आसान तरीका यह तलाश किया है कि उन्होंने अपने यहां यूनीफॉर्म निर्धारित कर दी है. लेकिन
जहां ऐसा नहीं हुआ है वहां विवाद भी अधिक हुए हैं.
यहां हमने जिन श्रीमती एबॉनी बैंक्स के
ज़िक्र से अपनी बात शुरु की, वे अपनी बेटी के स्कूल के इस फैसले से बेहद नाराज़ हैं.
इतनी कि उन्होंने स्कूल के सर्वोच्च
प्रशासन से शिकायत करने के साथ-साथ
संघीय अधिकारियों का दरवाज़ा भी खटखटाया है और सिविल राइट्स में भी शिकायत दर्ज़
कराई है. उनका कहना है कि उनकी बेटी स्कूल की ऑनर रोल विद्यार्थी है और वो डॉक्टर
बनने का ख्वाब देखती है. ऐसी ज़हीन लड़की को महज़ चन्द इंच कपड़ों की खातिर पूरे बीस
मिनिट कक्षा से वंचित कर देना नाइंसाफी
है. उनका यह भी कहना है कि स्कूल का यह कृत्य उस बच्ची के मन पर नकारात्मक
असर डालेगा, उसके स्व-देह-बोध और स्वाभिमान को ठेस पहुंचाएगा. एबॉनी बैंक्स ने कहा
कि स्कूल का यह कृत्य निहायत ही सेक्सिस्ट है और इसने मेरा खून खौला दिया है. इस विवाद का एक पहलू यह भी
सामने आया कि यह बच्ची जिस अफ्रीकी अमरीकन
समूह से ताल्लुक रखती है उनकी देह औरों की तुलना में अधिक मांसल होती हैं, और
कदाचित इसी वजह से स्कूल प्रशासन ने उसकी ड्रेस को आपत्तिजनक माना हो. हालांकि
स्कूल प्रशासन ने इस सम्भावना को सिरे से नकारा है और कहा है कि वे लड़कों से भी
उम्मीद करते हैं कि अपनी पतलूनों को नितम्बों से नीचे न बांधा करें. स्कूल ने अपने
कृत्य को उचित ठहराते हुए एक तर्क यह भी दिया कि जैसे चौराहे का सिपाही बहुत सारे
वाहन चालकों में से कुछ का ही चालान कर पाता है वैसे ही वे भी सबमें से कुछ ही
विद्यार्थियों की वेशभूषा पर आपत्ति कर सके हैं. स्कूल की इस बात से शायद ही कोई
असहमत हो कि स्कूल का एकमात्र उद्देश्य यह होता है कि विद्यार्थी अपनी पढ़ाई और
कैरियर पर ध्यान दें और साथ ही यह भी
समझें कि जीवन में अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग वेशभूषा की ज़रूरत होती है.
लेकिन स्वाभाविक है कि सभी लोग स्कूल के
इस कृत्य से सहमत नहीं हैं. तेरह वर्षीया सोला
बियर्स ने स्कूल के इस कृत्य के
विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करते हुए कहा कि
स्कूल का यह ड्रेस कोड वाकई सेक्सिस्ट है. इसमें लड़कियों के लिए तो बहुत सारे
नियम-कायदे हैं, लेकिन लड़कों के लिए एक भी प्रतिबन्ध नहीं है. सबसे उम्दा बात तो
कही खुद एबॉनी बैंक्स ने. उन्होंने कहा कि उनकी बेटी घटना वाले दिन से ही विचलित
रही लेकिन उसने इस बात को जल्दी ही भुला भी दिया. लेकिन खुद उन्होंने इस मामले को
किसी परिणति तक पहुंचाने के लिए अपने प्रयास ज़ारी रखे हैं. वे यह महसूस करती हैं
कि यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर व्यापक विमर्श की ज़रूरत है. “मैं नहीं चाहती कि
किसी और लड़की को भी मेरी बेटी की तरह अपमानित करके कक्षा से बाहर निकाला जाए!. यह
बेहद अपमानजनक है.”
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 08 नवम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.