Tuesday, December 18, 2018

पुणे वालों ने समझ लिया है कि जल है तो कल है


हमें जो सहजता से सुलभ होता रहता है हम उसकी महत्ता से अनजान रहते हैं. हम शायद कभी यह सोचते भी नहीं हैं कि अगर कल को इस सुलभता पर कोई संकट आ गया तो हमारा हश्र क्या होगा. इससे और ज़्यादा ख़तरनाक बत यह है कि अपनी आश्वस्तियों के चलते हम ख़तरों की आहटों, बल्कि चेतावनियों तक को अनसुना करते जाते हैं. अब यही बात देखिये ना कि भारत के नीति आयोग द्वारा ज़ारी की गई कम्पोज़िट वॉटर  मैनेजमेण्ट  इंडेक्स में दो टूक शब्दों में कहा गया है कि भारत तेज़ी से भयंकर जल संकट की तरफ़ बढ़ रहा है. इस रिपोर्ट के अनुसार सन 2030 के आते-आते आधा भारत पेयजल के लिए तरसने लगेगा. इससे भी ज़्यादा चिंताजनक बात यह है कि सन 2020 तक भारत के इक्कीस बड़े शहरों में, जिनमें दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद और चेन्नई जैसे महानगर भी शामिल हैं, भूजल ख़त्म हो चुका होगा. और वैसे हालात तो अभी भी कोई ख़ास अच्छे  नहीं हैं. हर बरस कोई दो लाख लोग सुरक्षित पेय जल के अभाव में दम तोड़ देते हैं. लेकिन हम हैं कि इन सारी बातों की अनदेखी कर बड़ी निर्ममता से पानी को बर्बाद करते रहते हैं. हमें जैसे कल की कोई फिक्र नहीं है.

लेकिन इसी दुखी करने वाले परिदृश्य  के बीच महाराष्ट्र के पुणे शहर से जो खबर आई  है वह अंधेरे में प्रकाश की किरण की मानिंद आह्लदित  कर देने वाली है. ख़बर यह है कि पुणे के बहुत सारे रेस्तराओं ने अपने ग्राहकों को पानी के आधे भरे हुए गिलास देना शुरु कर दिया है, और वह भी मांगने पर. हां, ज़रूरत होने पर ग्राहक और पानी मांग सकता है और वह उसे दिया भी जाता है. न केवल इतना, ग्राहक गिलासों में जो पानी छोड़ देते हैं उसे भी रिसाइकल करके पौधों को सींचने या सफाई के काम में इस्तेमाल कर लिया जाता है. पुणे के रेस्टोरेण्ट एण्ड होटलियर्स असोसिएशन के अध्यक्ष गणेश शेट्टी बताते हैं कि अकेले उनके कलिंगा नामक रेस्तरां में हर रोज़ करीब आठ सौ ग्राहक आते हैं और उन्हें आधा गिलास पानी देकर वे रोज़ आठ सौ लिटर पानी बचाते हैं. पुणे के ही एक अन्य रेस्तरां के मालिक ने अपने यहां लम्बे गिलासों की बजाय छोटे गिलास रखकर पानी बचाने के  अभियान में सहयोग दिया है. बहुत सारे होटल वालों ने अपने शौचालयों को इस तरह से बनवाया है कि उनमें पानी की खपत पहले से कम होती है. अनेक प्रतिष्ठानों ने वॉटर  हार्वेस्टिंग प्लाण्ट लगवा लिये हैं और अपने कर्मचारियों को कम पानी इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षित कराया है. गणेश शेट्टी की इस बात  को सबने अपना मूल  मंत्र बना लिया है कि पानी की एक एक बूंद कीमती है और अगर हमें अपने भविष्य को बचाना है तो अभी से सक्रिय होना होगा.

मुम्बई के पास स्थित पुणे के निवासियों ने कोई दो बरस पहले पहली दफा जल संकट की आहटें सुनी थी. तब फरवरी और मार्च के महीनों में वहां जल आपूर्ति आधी कर दी गई थी, और एक दिन छोड़कर पानी सप्लाई किया जाता था. तभी सरकार की तरफ से जल के उपयोग-दुरुपयोग के बारे में कड़े निर्देश ज़ारी कर दिये गए थे और लोगों को सलाह दी गई थी कि वे अपनी अतिरिक्त जल  ज़रूरतों के लिए बोरवेल भी खुदवाएं. इन दो महीनों के लिए शहर में तमाम निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी गई थी, और कार गैरेज वालों को कहा गया था कि वे केवल जल रहित यानि सूखी सर्विसिंग करें. होटलों के स्विमिंग पूल बंद कर दिये गए, वहां होने वाले लोकप्रिय रेन वॉटर आयोजनों को प्रतिबंधित कर दिया गया और यहां तक हुआ कि होली पर भी पानी का इस्तेमाल नहीं किया गया. इस तरह पानी के हर दुरुपयोग को रोकने की कोशिश की गई और जिसने भी निषेधों का उल्लंघन किया उसे भारी जुर्माना भरना पड़ा. फिर अक्टोबर से स्थायी रूप से पानी की दस प्रतिशत कटौती लागू कर दी गई.  हालांकि पिछले बरस पुणे में ठीक ठाक बारिश  हुई थी फिर भी कुछ तो मौसम में आए बदलाव, कुछ बढ़ते शहरीकरण और कुछ पानी बर्बाद करने की हमारी ग़लत आदतों की वजह से अब फिर वहां जल संकट के गहराने की आहटें सुनाई देने लगी हैं. लग रहा है कि हालात पहले  से भी बदतर हो गए हैं, इसलिए पानी बचाने के लिए और अधिक सक्रियता ज़रूरी हो गई है. इसी क्रम में वहां के होटलों और रेस्तराओं ने यह सराहनीय क़दम उठाया है. वैसे, पुणे देश का एकमात्र ऐसा शहर नहीं है जहां जल संकट इतना सघन हुआ है. पिछले बरस शिमला से भी ऐसी ही ख़बरें आई थीं, और इन समाचारों ने भी सबका ध्यान खींचा था कि उद्यान नगरी बेंगलुरु  में भी पानी की कमी हो रही है. ऐसे में पुणे के होटल व रेस्तरां व्यवसाइयों की इस पहल का न केवल स्वागत, बल्कि अनुकरण भी किया जाना चाहिए.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 18 दिसम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 4, 2018

हमने ही नहीं औरों ने भी बदले हैं अपने शहरों के नाम!


यह बहुत दिलचस्प बात है कि अपनी अनेक असमानताओं के बावज़ूद आजकल भारत और ऑस्ट्रेलिया में एक बात समान देखी जा सकती है. यह समानता है नाम परिवर्तन को लेकर चल रही बहसों के मामले में. जहां हमारे अपने देश में हाल में कई शहरों के नाम बदले गए हैं और अब कई अन्य शहरों के नाम बदलने के सुझाव-प्रस्ताव सामने आ रहे हैं और इस बदलाव को लेकर लोगों के मनों में खासा उद्वेलन है, वहीं सुदूर ऑस्ट्रेलिया में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा है. इसी माह के प्रारम्भ में सिडनी की सिटी काउंसिल ने अपने शहर के एक पार्क के नाम को बदलने के प्रस्ताव को सर्व सम्मति से स्वीकृति दी है. अब तक इस पार्क को प्रिंस एल्फ्रेड पार्क  नाम से जाना जाता था, लेकिन नवम्बर 2017 में इस पार्क में कोई तीस हज़ार ऑस्ट्रेलियाई नागरिक समलिंगी विवाह (सेम सेक्स मैरिज) पर राष्ट्रीय मतदान का परिणाम जानने के लिए एकत्रित हुए थे. इसी पार्क में ऑस्ट्रेलिया का इसी मक़सद के लिए बहु चर्चित यस अभियान चला था. और जब मतदान का परिणाम अभियान चलाने वालों के पक्ष में आया (और इस कारण बाद में उस देश के कानून में बदलाव हुआ) तो पार्क में ज़बर्दस्त उत्सव मनाया गया. इसी अभियान और उत्सव की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए सिडनी के इस पार्क का नया नामकरण किया गया- इक्वलिटी ग्रीन. इस नए नाम परिवर्तन से पहले भी ऑस्ट्रेलिया में अनेक जगहों के नाम बदलने की चर्चाएं चलती रही हैं.

असल में ऑस्ट्रेलिया में एक समूह है जो इस बात पर बल देता है कि इस देश की जड़ों और इसके भविष्य को मद्देनज़र रखते हुए बहुत सारे नामों को इस तरह बदला जाना ज़रूरी है कि उनसे एक अधिक समकालीन ऑस्ट्रेलिया का बोध हो सके. इस तरह के लोगों का प्रतिनिधित्व  करने वाली ऑस्ट्रेलियाई राजधानी क्षेत्र की एक राजनीतिज्ञ बी कॉडी कैनबरा के कुछ क्षेत्रों का भी नाम बदलवाना चाहती हैं. उनका कहना है कि यहां के अनेक नाम ऐसे  हैं जो या तो बुरे लोगों के नामों पर रखे गए हैं या जिन नामों की वजह से पीड़ितों को ठेस पहुंचती है. उनका कहना है कि  ये नाम या तो इसलिए रख दिये गए कि तब बहुत सारी जानकारियां उपलब्ध नहीं थीं या फिर तब बहुत सारे कामों के बारे में समाज का नज़रिया अलहदा हुआ करता था. बी कॉडी का कहना है कि नामों में बदलाव की मांग वे उन्हें मिले नागरिकों के बहुत सारे अनुरोधों के कारण कर रही हैं. इनमें से ज़्यादातर अनुरोध ऐसे लोगों के नामों से जाने जाने वाले स्थानों के बारे में हैं जिन पर आपराधिक कृत्यों में लिप्त होने के अथवा ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों पर अत्याचार करने  के आरोप हैं या फिर उनकी भूमिका युद्ध के दौरान संदिग्ध रही है. ऐसे लोगों में वे एक पूर्व गवर्नर जनरल सर विलियम स्लिम का नाम लेती हैं जिन पर 1950 में लड़कों के साथ दुराचार के आरोप लगे थे, या पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पूर्व गवर्नर का नाम लेती हैं जिन्होंने 1834 में एक नरसंहार कराया था.

लेकिन ऑस्ट्रेलिया में भी सारे लोग उनके विचारों से सहमत नहीं हैं. ऑस्ट्रेलियाई राजधानी क्षेत्र के सह-सभापति जेफ़ ब्राउन का विचार है कि नाम परिवर्तन एक अजीब और उलझन भरा काम है क्योंकि इसकी वजह से अनगिनत लोगों को अपने सम्पर्क विवरण में बदलाव करना पड़ता है और इलेक्ट्रॉनिक नक्शों और अभिलेखों में भी बहुत सारे बदलाव करने पड़ते हैं. उनका स्पष्ट मत है कि सामान्यत: सारे नाम चिर स्थाई होते हैं. लेकिन इन दो परस्पर विरोधी मतों के बावज़ूद ऑस्ट्रेलिया में कुछ नाम बदले गए हैं. सन 2016 में एक सफल अभियान के बाद क्वींसलैण्ड के एक  द्वीप का जो नाम उसके ब्रिटिश खोजकर्ता  स्ट्रेडब्रोक के नाम पर था, उसे वहां के मूल ऑस्ट्रेलियाई निवासियों के नाम पर मिंजेरबा रखा गया. वहां की स्थानीय जंदाई भाषा में इस शब्द का अर्थ होता है धूप में द्वीप. ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी क्षेत्र में वहां के मूल निवासियों को सम्मान देने के लिए सर्वाधिक नाम बदले गए हैं. ऑस्ट्रेलिया में वहां के मूल निवासियों के प्रति बढ़ती जा रही सदाशयता की एक झलक इस नाम परिवर्तन में भी देखी जा सकती है.

और जब बात नाम परिवर्तन की ही चल गई है तो यह भी याद कर लेना कम रोचक नहीं होगा कि दुनिया के जिन  बहुत सारे शहरों को आज हम जिन नामों से जानते हैं वे उनके बदले हुए नाम हैं. क्या आपको यह बात पता है कि अमरीका का जाना माना शहर न्यूयॉर्क पहले न्यू एम्सटर्डम  नाम से जाना जाता था? या वियतनाम का हो ची मिन्ह शहर 1976 तक  सैगोन नाम से जाना जाता था? या कनाडा के टोरण्टो और ओटावा शहर क्रमश: यॉर्क और बायटाउन नामों से जाने जाते थे? या नॉर्वे का ओस्लो 1925 तक क्रिस्टियनिया हुआ करता था!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ  उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 दिसम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 27, 2018

स्विटज़रलैण्ड में गाय के सींग बनाम सब्सिडी


यह पूरा वृत्तांत मैं आपको प्रजातंत्र के असली रूप से परिचित कराने के लिए लिख रहा हूं. घटना दुनिया के बहुत छोटे लेकिन बेहद खूबसूरत देश स्विटज़रलैण्ड की है. इस वृत्तांत से पता चलता है कि वहां किस तरह एक सामान्य व्यक्ति का सोच पूरे  देश को जनमत संग्रह के लिए प्रेरित  कर सकता है. जनतंत्र  की आधारभूत परिकल्पना भी यही है  कि हरेक की बात सुनी जाए. आपको थोड़ा पीछे यानि सन 2010 में ले चलता हूं. स्विटज़रलैण्ड का एक उनसठ वर्षीय किसान आर्मिन कापौल अपने देश के संघीय कृषि कार्यालय को एक पत्र लिखता है और जब कुछ इंतज़ार के बाद उसे लगता है कि उसके पत्र पर कोई हलचल नहीं हुई है तो वह एक अभियान छेड़ कर अपने प्रिय मुद्दे के समर्थन में एक लाख लोगों के हस्ताक्षर जुटाता है ताकि उस मुद्दे पर जनमत संग्रह कराया जा सके. मुद्दा क्या था?  रोचक बात यह है कि आर्मिन कापौल ने यह संघर्ष अपने या इंसानी हितों के लिए न करके अपने देश की गायों के लिए किया. स्विटज़रलैण्ड  में बछड़े के जन्म लेने के तीसरे चौथे सप्ताह में ही उसके सींग काट दिये जाते हैं और फिर उसका विकास बिना सींग वाले प्राणी के रूप में ही होता है. वहां यह माना जाता है कि सींग वाली गायों का रख-रखाव ज़्यादा महंगा पड़ता है. इसके अलावा, जब वे किसी बाड़े में रहती हैं तो उनके सींग कई बार अन्य गायों के लिए घातक भी साबित हो जाते हैं. इसलिए वहां बिना सींग वाली गायों को पालना ज़्यादा सुगम और व्यावहारिक माना जाता रहा है. लेकिन पिछले कुछ समय से विभिन्न संगठनों ने इस कर्यवाही को पशुओं की गरिमा के विरुद्ध मान कर इसके खिलाफ़ आवाज़ उठानी शुरु की. आर्मिन कापौल का अभियान भी इसी आवाज़ का एक हिस्सा है.

आर्मिन और उसके साथी महसूस करते हैं कि सींगों का होना न केवल गायों की पाचन शक्ति में मददगार होता है, इनसे उनकी सेहत और पारस्परिक सम्पर्क में भी मदद मिलती है. वहां बाकायदा अध्ययन कर  बहुत सारी गायों पर सींग न होने के दीर्घकालीन दुष्परिणाम भी देखे गए हैं. लेकिन यह बात तो स्वयंसिद्ध है कि अगर किसान सींग वाली गायें पालेंगे तो उनके रख रखाव का खर्च बहुत बढ़ जाएगा. इसलिए स्वाभाविक ही है कि जब बात पैसों की होगी तो किसान गायों की गरिमा और उनकी  सेहत की बजाय अपनी जेब को देखेंगे और वे उनके सींग निकालने की प्रक्रिया ज़ारी रखना चाहेंगे. और इसलिए आर्मिन कार्पोल और उनके साथी चाहते हैं कि आर्थिक  कारणों से किसान गायों को सींग विहीन करने के लिए मज़बूर न हों. यह तभी सम्भव होगा जब सरकार सींग वाली गायें रखने के लिए किसानों को सब्सिडी देने का फैसला  करे. यानि यह मुद्दा गायों से होता हुआ सब्सिडी पर जाकर टिकता है. सब्सिडी की अनुमानित राशि है डेढ़ करोड स्विस फ्रैंक. बता दूं कि एक स्विस फ्रैंक करीब सत्तर रुपयों के बराबर होता है. स्विस सरकार फिलहाल यह अनुदान राशि खर्च करने के मूड में नहीं है, और इसलिए वह तर्क दे रही है कि सींग न केवल गायों के लिए, बल्कि उनके पालकों के लिए भी ख़तरनाक होते हैं और सींग वाली गायों को रखने के लिए ज़्यादा जगह की भी ज़रूरत होती है. स्विटज़रलैण्ड के कृषि मंत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि पशु अधिकारों के समर्थक  यह मुद्दा उठाकर अपने ही पाले में गोल करने पर उतारू हैं.

स्विटज़रलैण्ड में जनमत संग्रह की पुष्ट परम्परा है और वहां लोगों का रुझान आम तौर पर स्पष्ट नज़र भी आ जाता है. लेकिन यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर तराज़ू के दोनों पलड़े लगभग समान स्थिति में हैं. एक तरफ जहां ऑर्गेनिक फूड असोसिएशन और  अनेक पशु संरक्षण समूह इस मुद्दे का खुलकर समर्थन कर रहे हैं वहीं वहां की शक्तिशाली स्विस फार्मर्स  यूनियन ने अपने सदस्यों से कह दिया है कि वे जिस तरफ चाहें उस तरफ वोट दें. इसका परिणाम यह हुआ है कि एक सर्वे में 49 प्रतिशत लोग सब्सिडी का समर्थन करते पाए गए तो उनसे मात्र तीन प्रतिशत कम लोग सब्सिडी देने का विरोध करने वाले पाए गए.

जनमत संग्रह हो जाएगा और उसके परिणाम भी सामने आ जाएंगे. लेकिन हम भारतीयों के लिए यह वृत्तांत दो महत्वपूर्ण सबक छोड़ जाएगा. एक तो यह कि स्विस लोग अपनी गायों से किस हद तक प्रेम करते हैं और उनकी छोटी-से छोटी बात को लेकर कितने व्यथित और उद्वेलित होते हैं. उनके लिए गाय नारेबाजी और लड़ाई झगड़े का विषय न होकर असल लगाव का मामला है. और दूसरी बात यह कि वहां प्रजातंत्र का असली और वरेण्य रूप मौज़ूद है जो हरेक की बात सुनता और उस पर अपनी राय देने का हक़ देता है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 27 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 20, 2018

यह देश तो जैसे स्त्रियों का नरक है!


अपने देश में स्त्रियों की स्थिति पर प्राय: चर्चा होती है और जब देश के किसी भी भाग से उनके साथ  हुए किसी दुर्व्यवहार का समाचार आता है,  हम आक्रोश से भर उठते हैं और मन ही मन कामना करते हैं कि भविष्य में ऐसा न हो. हम यह भी जानते हैं कि आज़ादी के बाद से देश में स्त्रियों की स्थिति में बहुत बदलाव आया है और वे सभी क्षेत्रों में अपनी योग्यता का लोहा मनवा रही हैं. देश के सर्वोच्च पदों पर स्त्रियां आसीन रह चुकी हैं और आज जीवन का शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो जहां उनकी सम्मानजनक पहुंच न हो. लेकिन जब यह जानने को मिलता है कि हमारी इसी दुनिया में बहुत सारे देश ऐसे भी हैं जहां स्त्रियां आज भी नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं, तो हम गहरे संताप में डूब जाते हैं. ऐसा ही एक अभागा  देश है पापुआ न्यूगिनी. दक्षिणी पश्चिमी प्रशांत महासागर क्षेत्र में स्थित द्वीपों के इस समूह की आबादी बहुत कम है. मात्र साठ लाख. 1975 में ऑस्ट्रेलिया से आज़ादी प्राप्त  करने वाले विभिन्न समुदायों, जनजातियों और परिवारों वाले इस राष्ट्रमण्डलीय देश में गज़ब की विविधता है. यह तथ्य किसी को भी चौंका सकता है कि यहां करीब आठ सौ भाषाएं बोली जाती हैं और यह संख्या दुनिया के किसी एक देश में बोली जाने वाली भाषाओं  में सबसे बड़ी है. इस देश की  विविधता का एक और आयाम यह है कि एक गली में जो नियम और परम्पराएं चलन में है, पास वाली दूसरी गली में उससे नितांत भिन्न रीति रिवाज़ चलन में होते हैं. लेकिन विविधताओं भरे देश में एक मामले में ग़ज़ब की एकरूपता  भी  है. और वह एक मामला है स्त्रियों के साथ व्यवहार का. जब इस देश के महिलाओं के एक आश्रय स्थल की काउंसलर शैरॉन साइसोफा यह कहती हैं कि “यहां स्त्री को पीटना उतना ही सहज स्वाभाविक है जितना किसी पेड़ से आम तोड़ लेना, दोनों ही कामों में कोई पैसा  नहीं लगता  है”  तो वे एक कड़वी सच्चाई को शब्द दे रही होती हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट बताती है कि इस देश की दो तिहाई स्त्रियां अपने सहचर के दुर्व्यवहार का शिकार हैं. एक अन्य अध्ययन में इस देश के एक बड़े भू भाग के कम से कम साठ प्रतिशत पुरुष सामूहिक बलात्कार के दुष्कृत्य में शामिल होने की बात स्वीकार कर चुके हैं. इस देश का अधिक जनसंख्या वाला उत्तरी भूभाग स्त्रियों के लिए भी अधिक असुरक्षित है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के  एक सर्वेक्षण में वहां की अस्सी फीसदी महिलाएं यह बात मान चुकी हैं कि वे अपने पतियों की हिंसा का शिकार हुई हैं. इन तथ्यों के बाद इस बात को न मानने की कोई वजह ही नहीं रह जाती है कि पापुआ न्यूगिनी के उत्तरी क्षेत्र  में महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा की दर दुनिया में सबसे ज़्यादा है. कोढ़ में खाज यह कि स्त्रियों के प्रति दुर्व्यवहार को रोकने के लिए बनाने गए नियम-कानून बहुत अस्पष्ट हैं. अभी हाल तक तो इस देश में स्त्रियों को पति की सम्पत्ति ही माना जाता था और जैसे ही दुल्हन का मूल्य तै होता था, उसका भावी पति कानूनी  रूप से उसे पीटने या उसके साथ बलात्कार करने का हक़दार हो जाता  था. कई बरसों के संघर्ष और प्रतिरोध के बाद 2013 में सरकार ने एक पारिवारिक संरक्षण कानून  पास कर पत्नियों और बच्चों को पीटने पर प्रतिबंध लगाया. इसी कानून की अनुपालना  के लिए पुलिस में भी एक विभाग बनाया गया और सारे देश में पीड़ित महिलाओं के लिए सरकार द्वारा वित्त पोषित संरक्षण गृह बनाए गए. लेकिन इसके बाद सब कुछ गुड़ गोबर हो गया. भयंकर भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के चलते इन सबको पैसा मिलना बंद हो गया और हालत यह हो गई है कि अगर कोई घरेलू विवाद में बीच बचाव के लिए पुलिस को बुलाता है तो पुलिस कहती है कि हमारे पास इतना बजट ही नहीं है कि वहां आने के लिए गाड़ी में ईंधन डलवा सकें. संरक्षण गृह भी धनाभाव में बदहाल पड़े हैं.

यह जानकर आश्चर्य और क्षोभ होता है कि इस देश की संसद में एक भी महिला नहीं है. तलाक के कानून बेहद जटिल और कठोर हैं और हालत यह है कि तलाक लेने के लिए स्त्रियों को खुद अपना मोल चुकाना पड़ता है. पुरानी और सड़ी गली परम्पराएं अब भी इस देश को जकड़े हुए हैं. लोग जादू टोनों में गहरा विश्वास रखते हैं, और हालत यह है कि अगर किसी परिवार में कोई बच्चा या बड़ा  बीमार हो जाए तो उसका दोषारोपण पास में रहने वाली किसी स्त्री पर कर उसकी हत्या तक कर  दी जाती है. लेकिन इन विकट स्थितियों में भी इस देश के कुछ नागरिक और संगठन हालात को बेहतर बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 20 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 13, 2018

पराई पीड़ा को हरने की कोशिश में जुटे विदेशी वैष्णव जन!


धार्मिक संस्थानों की चल-अचल सम्पदा की प्राय: चर्चा होती है और समाज का एक तबका इस बात पर दुखी होता है कि अपनी अतिशय सम्पन्नता के बावज़ूद कई धार्मिक स्थल वंचितों और विपन्नों के लिए कुछ नहीं करते हैं या बहुत कम करते हैं. ऐसा नहीं है कि यह शिकायत सभी धर्मों और सभी धार्मिक स्थलों से हो. बहुत सारे धार्मिक स्थल या संस्थान अपनी कल्याणकारी गतिविधियों के लिए सराहे भी जाते हैं. अपने देश में भी अनेक ऐसे धार्मिक स्थल या  संस्थान  हैं जो निरंतर अपनी जन कल्याणकारी गतिविधियों के लिए सकारात्मक चर्चाओं के केन्द्र में रहते हैं. इसके बावज़ूद यह एक कड़वी सच्चाई  है कि ज़्यादातर धार्मिक संस्थाओं  की दिलचस्पी अपने वैभव को बढ़ाने और उसका प्रदर्शन करने में ही रहती है. ऐसे में जब सुदूर पश्चिम के देशों के कुछ गिरजाघरों से इस आशय के  समाचार आए कि उन्होंने अपने दरवाज़े बेघर लोगों के लिए खोल दिये हैं, तो मन खुश हो गया. लगा कि इस खुशी को तो सबके साथ साझा किया जाना चाहिए.

अभी यह ख़बर पढ़ने को मिली कि अमरीका के सैन फ़्रांसिस्को शहर में स्थित सेण्ट बॉनिफेस नामक एक चर्च के प्रबन्धकों ने अपने  इस उपासना गृह के दरवाज़े उन बेघरबार लोगों के लिए खोल दिए हैं जिन्हें किसी आश्रय स्थल की तलाश हो. उल्लेखनीय है कि इस चर्च के फादर लुइ विटाले उसी शहर के एक सामुदायिक एक्टिविस्ट शैली रॉडर के साथ मिलकर सन 2004 से ही गुबियो नाम की एक परियोजना चला रहे हैं.  इस परियोजना के तहत बेघरबार लोगों को सदस्य चर्चों में आश्रय प्रदान किया जाता है. इस सुविधा का उपयोग करने के आकांक्षी किसी भी व्यक्ति से न तो कोई सवाल पूछा जाता है और न कभी किसी को मना किया जाता है. हरेक को ससम्मान और पूरी गरिमा के साथ यह सुविधा प्रदान की जाती है. इस परियोजना के सहभागी चर्च अपनी दो तिहाई ज़मीन बेघरबार लोगों को सुलभ कराते हैं. परियोजना के कर्ताधर्ताओं का कहना है कि वे अपने आसपास रहने वाले बेघरबार लोगों को यह सन्देश देना चाहते हैं  कि वे भी समाज के सम्मानित सदस्य हैं और  जब कोई चर्च में उपासना के लिए आए तब भी वे उन्हें वहां से बाहर जाने की ज़रूरत नहीं है.

यहीं यह बात भी याद कर लेना उपयुक्त होगा कि सामान्यत: अमरीका में बेघरबार लोगों को समाज के लिए खतरनाक मानते हुए  सन्देह  और हिक़ारत की नज़रों से देखा जाता है और कोशिश यह की जाती है कि उन्हें अलग बाड़ों में क़ैदियों की तरह रखा जाए. सन 2017 में सिएटल में तो इस तरह के बेघरबार लोगों  को अपने डेरे जमाने से रोकने के लिए कांटेदार बाड़े बन्दी तक करने की योजना बनाई गई थी. खुद सैन फ़्रांसिस्को  में बेघरबार लोगों को भगाने के लिए रोबोट्स तक का सहारा लिया गया और वहां के प्रशासन ने एक बड़ी धनराशि बड़े पुलों के नीचे इन बेघरबारों के डेरे लगाने से रोकने के लिए खर्च की. बेघरबार लोगों के प्रति आक्रामकता और अस्वीकार्यता इस हद तक है कि कैलिफ़ोर्निया में फरवरी 2018 में अनेक एक्टिविस्टों को इन लोगों को खाना खिलाने के ज़ुर्म में गिरफ्तार तक कर लिया गया. बाद में प्रशासन ने अपनी सफाई यह कहते हुए दी कि उन्हें बीमारी को फैलने से रोकने के लिए ऐसा करना पड़ा था. 

ऐसे माहौल में उक्त गुबियो परियोजना अलग तरह का सुकून देती है और आश्वस्त करती है कि संवेदनशीलता  अभी भी बची हुई है.  ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ गुबियो परियोजना से जुड़े हुए चर्च ही बेघरबर लोगों को शरण दे रहे हैं. अमरीका में ही अन्य बहुत सारे चर्च भी अलग-अलग शर्तों पर और भिन्न भिन्न परिस्थितियों  में बेघरबार लोगों  को आश्रय सुलभ करा रहे हैं. मसलन कैनसास शहर के पास स्थित होप कम्युनिटी  चर्च है जो तापमान के बीस डिग्री से नीचे जाते ही बेघरबार लोगों को शरण मुहैया कराने लगता है. यह चर्च उन्हें न केवल स्थान उपलब्ध कराता है,  साफ सुथरे कपड़े भी देता है और अपने पैरों पर खड़े होने में मददगार बनता है. वहां ब्रिज ऑफ होप नामक एक समूह  है जो इस काम में चर्च की मदद करता है. इस समूह की एक सक्रिय कार्यकर्ता अम्बर होम्स खुद पांच बरस पहले तक बेघरबार थीं और आज इस तरह के लोगों की मदद करते हुए वे बार-बार अपने उस अतीत को जीने लगती हैं. अमरीका से दूर ऑस्ट्रेलिया में भी कई चर्च इसी तरह बेघरबार लोगों को आश्रय और सहायता सुलभ करा रहे हैं.

कहना अनावश्यक है कि इन धार्मिक केन्द्रों की यह दीन दुखियों की सेवा भी प्रकारांतर से ईश्वर  की ही सेवा है. याद कीजिए कि हमारे नरसी  मेहता ने भी तो कहा था-  वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 6, 2018

कृत्रिम बुद्धि की नैतिक उलझनें भी कम नहीं हैं!


जैसे जैसे हमारी ज़िन्दगी में कृत्रिम बुद्धि का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है उसे अधिक त्रुटिरहित बनाने के प्रयास भी तेज़ होते जा रहे हैं. सन 2016 में अमरीका की एमआईटी की मीडिया  लैब के शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग की शुरुआत की. उन्होंने एक वेबसाइट बनाई जिस पर जाकर कोई भी व्यक्ति अपने आप से ड्राइव होने वाली यानि ड्राइवर रहित कार के दुर्घटनाग्रस्त होने की स्थिति  में तेरह सम्भावनाओं में से किसी एक का चुनाव कर सकता था. सारे जवाब हां या ना में दिये जाने थे. दो बरसों में इस साइट पर दुनिया के 233 देशों के लोगों ने कोई चार करोड़ जवाब दिये. ये जवाब  दरअसल हमारे नैतिक अंतर्द्वन्द्व  को उजागर करते हैं. पहले ज़रा यह देखें कि इस शोध में किस तरह के सवाल पूछे गए थे. कुछ सवाल ये थे: अगर अचानक आपकी कार के सामने कोई आ जाए तो आप कार को दूसरी लेन में मोड़ लेंगे या उसी लेन में चलाते रहेंगे? अगर आपके पास बूढ़े और जवान में से,  स्त्री और पुरुष में से, मनुष्य और पालतू जानवर में से, एक बच्चे या दो बुज़ुर्गों में से, एक व्यक्ति या अनेक व्यक्तियों में से    किसी एक को बचा सकने का विकल्प हो तो आप किसे बचाएंगे? इसी तरह यह पूछा गया कि अगर आप पैदल चलने वाले या कार चलाने वाले में से किसी एक को बचा सकते हों तो किसे बचाएंगे? सड़क को सही तरह से पार करने वाले और ग़लत तरह से पार करने वाले में से किसे बचाएंगे? उच्च सामाजिक स्तर वाले जैसे डॉक्टर या व्यापारी और निम्न सामाजिक स्तर वाले जैसे मज़दूर में से किसे बचाएंगे? ये सवाल मनुष्यों से किये गए, लेकिन इन सवालों का मकसद यह था कि इनके आधार पर कुछ सामान्य मानदण्ड तैयार किये जा सकें जिनके आधार पर कृत्रिम बुद्धि चालित यंत्र काम करें.

इन तेरह सवालों के जो जवाब मिले उनका कई तरह से वर्गीकरण और विश्लेषण किया गया. वैसे तो करीब करीब सारे ही जवाबों का सार यह था कि जहां  कम और ज़्यादा जानों को बचाने में से किसी एक का चयन करना हो, हर कोई ज़्यादा जान बचाने का ही पक्षधर था. इसी तरह पालतू पशुओं और मनुष्यों में से किसी एक को बचाना हो तो आम राय मनुष्य के पक्ष में थी और अगर जवान और बूढ़े में से किसी एक को चुनना हो तो लोग जवान को  बचाने के पक्ष में थे. लेकिन इन कुछ समानताओं के अलावा जवाबों में बहुत ज़्यादा असमानताएं पाई गईं. रोचक बात यह कि जवाबों में असमानता का एक आधार भौगोलिक भी था. यानि दुनिया के एक हिस्से में रहने वालों की प्राथमिकता दुनिया के  दूसरे हिस्से में रहने वालों से अलहदा  पाई गई. अब यही बात देखिये ना कि फ्रांस, युनाइटेड किंगडम और अमरीका वासी जहां युवाओं को बचाने के पक्ष में थे वहीं चीन और ताइवान के रहने वाले वृद्धों को बचाने के पक्ष में थे. इसी तरह जापान के जवाब देने वालों ने कार में बैठे  हुए लोगों की तुलना में पैदल चलने वालों को बचाने की बात की तो चीन से जवाब देने वालों ने इसका उलट विकल्प चुना, यानि वे कार में बैठे हुओं  को बचाना चाहते थे. इस शोध का विश्लेषण करने वालों ने पाया कि इन  जवाबों के हिसाब से दुनिया को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला हिस्सा है पश्चिमी, जिसमें मुख्यत: उत्तरी अमरीका और यूरोप  आता है और  जो ईसाई नैतिकता से परिचालित है. दूसरा हिस्सा है पूर्वी जिसमें जापान, ताइवान और मध्यपूर्वी देश आते हैं और जो कन्फ्यूशियसवाद और इस्लाम से प्रभावित है, तथा तीसरा हिस्सा है दक्षिणी जिसमें मध्य और दक्षिणी अमरीका आते हैं और जिस पर तीव्र फ्रांसिसी प्रभाव है. यह हिस्सा मुखर रूप से स्त्री का पक्षधर है. पूर्वी हिस्सा युवाओं को बचाने का ज़ोरदार पैरोकार है. जब इन जवाबों का एक और तरह से विश्लेषण किया गया तो पाया गया कि जो उत्तरदाता अधिक धार्मिक थे वे पशुओं की तुलना में मनुष्यों को बचाने के समर्थक पाए गए, जबकि जहां स्त्री और पुरुष में से किसी को बचाने की बात आई  तो स्त्री और पुरुष दोनों ही स्त्री के पक्ष में पाए गए. 

जिन्होंने यह शोध की वे भी इस बात से अच्छी तरह परिचित हैं कि उत्तरदाताओं की इतनी  बड़ी संख्या के बावज़ूद यह सर्वेक्षण प्रतिनिधि नहीं है क्योंकि यहां अधिकांश  उत्तरदाता पढ़े लिखे और युवा समूह से ही ताल्लुक रखने वाले हैं. इस सर्वेक्षण की और भी अनेक खामियां हैं लेकिन इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि तो यही है कि इसने कृत्रिम बुद्धि की नैतिकता के मुद्दे पर एक सार्थक बहस शुरु कर दी है. हममें से हरेक इस बात से परिचित है कि आने वाला समय कृत्रिम बुद्धि का है और इसलिए उसके विभिन्न पक्षों पर गम्भीर विमर्श की शुरुआत का यह सही समय है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत  मंगलवार, 06 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 30, 2018

लफंगे वहां भी हैं, लेकिन उनके विरुद्ध सब एकजुट हैं!


इन दिनों जापान के लोगों, विशेष रूप से वहां की  महिला रेल यात्रियों को एक अजीब तरह की मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है. इस मानव निर्मित मुसीबत का नाम भी बहुत अजीब है. वहां इसे एयरड्रॉप चिकन या सायबर चिकन के नाम से जाना जा रहा है. एयरड्रॉप असल में एप्पल की एक एप है जिसका प्रयोग आई फोन के उपभोक्ता करते हैं.  अब यह चिकन क्या है? चिकन एक जापानी शब्द है जिसका इस्तेमाल वहां स्त्रियों के साथ अश्लील हरकत करने वालों के लिए किया जाता है. इसका काम चलाऊ हिंदी समानार्थी बिगड़ैल या लफंगा हो सकता है. जिनके पास आई फोन नहीं है लेकिन फिर भी जो यह काम करते हैं उन्हें सायबर चिकन कहा जाता है. अब ये चिकन यानि लफंगे करते यह हैं कि जैसे ही किसी महिला को आई फोन या किसी अन्य मोबाइल के साथ देखते हैं, वे उसे कोई अश्लील, अभद्र या भोण्डी तस्वीर भेज देते हैं. महिला के फोन पर संदेश आता है कि किसी ने आपको एक तस्वीर भेजी है. क्या आप उसे डाउनलोड करना चाहती हैं? और जैसे ही वह स्वीकृति देती है उसके मोबाइल स्क्रीन पर कोई नग्न, कुरुचिपूर्ण या भद्दी तस्वीर झिलमिलाने लगती है. कहना अनावश्यक है कि यह दुष्कृत्य यौन विकृति की परिणति होता है. इन बिगड़ैलों की यह हरकत उसी स्थिति में कामयाब हो पाती है जब सम्बद्ध महिला ने अपने मोबाइल का नीला दांत (ब्लू टूथ) या वाई फाई चालू कर रखा हो और अपने एयरड्रॉप एप की  सेटिंग ऐसी कर रखी  हो कि हर कोई आपको तस्वीर वगैरह भेज सके. अब होता यह है कि सामान्यत: लोग ब्लू टूथ या वाई फाई चालू ही रखते हैं और एयरड्रॉप की डिफॉल्ट सेटिंग को बदलने की ज़हमत नहीं उठाते हैं. इससे लफंगों को बदमाशी करने का मौका मिल जाता है.

जापान में वैसे तो इस तरह की हरकतें नई नहीं है. लोग याद करते हैं कि 2015 से ही  इस तरह की घटनाओं का ज़िक्र होने लगा था, लेकिन पिछले महीने से मीडिया में इन पर खूब चर्चाएं होने लगी हैं. वहां के कई टीवी चैनलों और प्रमुख समाचार पत्रों में इस तरह की अवांछित हरकतों की खबरें छप रही हैं और इन पर गम्भीर विमर्श हो रहा है. इस साल के शुरु में वहां ट्विटर पर भी यह चर्चा चली थी.  एक महिला जिसने नया-नया आई फोन खरीदा था,  उसने एक ट्वीट करके  बताया कि किसी ने एयरड्रॉप के ज़रिये उसे एक आपत्तिजनक तस्वीर  भेजी है. इस पर अन्य बहुतों ने अपने ऐसे ही अनुभव साझा किये. फिर तो ट्विटर पर  हैशटैग एयरड्रॉप के अंतर्गत ऐसे अनगिनत किस्से और तस्वीरें साझा हुए. तब लोगों को समझ में आया कि यह रोग कितना ज़्यादा फैल चुका है.

सुखद बात यह है कि जापान की पुलिस ने इन खबरों का तुरंत संज्ञान लिया है और हाल में दो ऐसे लफंगों को गिरफ्तार भी किया है. किसी दफ्तर में काम करने वाले एक बंदे ने रेल में अपने सामने बैठी युवती को एक आपत्तिजनक तस्वीर भेजी, तो उस युवती ने उस तस्वीर का स्क्रीनशॉट  लेकर पुलिस में शिकायत कर दी. उसने अपने सामने बैठे व्यक्ति को संदिग्ध भी बताया. पुलिस ने उसे तुरंत दबोच लिया. इसी तरह ओसाका जाने वाली ट्रेन में सफर कर रहे एक कार्यालयी कर्मचारी ने अपने पास बैठी एक महिला सहयात्री को जैसे ही एक अश्लील तस्वीर भेजी, उसी के साथ सफर कर रहे एक अन्य यात्री को उसका बर्ताव संदिग्ध लगा. उसने कुछ पूछताछ करने के बाद मामला पुलिस को सौंप दिया और पुलिस ने अपनी जांच में शिकायत को सही पाया. इन दो मामलों के बाद जापान में रेल यात्रियों को सलाह दी जा रही है कि अगर उन्हें भी अपने मोबाइल पर कोई अभद्र तस्वीर मिले तो वे तुरंत उसका स्क्रीन शॉट ले लें और मामले की शिकायत ट्रेन के स्टॉफ या पुलिस से करें. असल में होता यह है कि ऐसा बिगड़ैल तस्वीर भेजने के लिए भले  ही किसी छद्म नाम का प्रयोग करे, उसका मोबाइल एक डिजिटल फुटप्रिण्ट ज़रूर छोड़ता है जिसका विश्लेषण कर उस तक पहुंचा जा सकता है.

इसी के साथ जापानी मीडिया वहां के नागरिकों को इस बारे में भी सजग कर रहा है कि वे अपने मोबाइल के एयरड्रॉप एप की सेटिंग को बदल कर ऐसा कर लें कि वे केवल अपने परिचितों की भेजी तस्वीरें ही स्वीकार कर सकें. इतना ही नहीं अब तो खुद एप्पल कम्पनी ने भी अपने इस एप की डिफॉल्ट सेटिंग बदल कर ऐसी कर दी है. इस पूरे मामले में सबसे सुखद बात यह है कि जापानी मीडिया, वहां की पुलिस, रेलवे प्रशासन, जापानी समाज  और एप्पल जैसा बड़ा व्यावसायिक घराना – ये सब एक जुट होकर इस  बदतमीज़ी का सामना कर रहे हैं.

 काश! अपने यहां भी ऐसा ही होने लगे!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 30 अक्टोबर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 23, 2018

आसान नहीं है विदेशों में देशी नाम के साथ जीना और रहना!




लोगों के नामों का बहुत गहरा रिश्ता उनकी सांस्कृतिक परम्पराओं से होता है और इसलिए बावज़ूद तमाम असुविधाओं के लोग ऐसे नामों को पसन्द करते हैं जो उन्हें उनकी जड़ों से जुड़ाव महसूस करवाएं. इधर जब से हमारी दुनिया एक वैश्विक गांव में तब्दील हुई है तबसे विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान और औरों के लिए अपरिचित भाषिक संरचना वाले नाम अधिक  परेशानी का सबब भी बने हैं. लेकिन इस स्थिति का एक आयाम और भी है जिसकी तरफ प्राय: ध्यान नहीं गया है. इस आयाम को सामने लाई हैं भारतीय मूल की लेखिका और एक्टिविस्ट वैलेरी कौर. वैलेरी के परिजन तीन पीढ़ियों से अमरीका के कैलिफोर्निया में रह रहे हैं. वैलेरी दूसरी बार गर्भवती हुई हैं. वे अपने गर्भस्थ शिशु  के लिए एक उपयुक्त  नाम की तलाश में हैं. उनकी पहली संतान, जो एक बेटा है का नाम कवि है, क्योंकि बकौल वैलेरी कौर उनकी वंश परम्परा में कई नामी कवि  हो चुके हैं. जब वे अपनी इस अजन्मी बेटी के लिए ऐसा ही कोई उपयुक्त नाम खोज रही थीं तभी उनकी नज़र ट्विटर पर चल रही एक चर्चा पर पड़ी.


इस चर्चा के केन्द्र में है ‘डियर एबी’ नाम से विख्यात अमरीका की एक लोकप्रिय स्तम्भकार जेन फिलिप्स की यह सलाह कि लोगों को अपने बच्चों का विदेशी या ‘असामान्य’ नामकरण करने से बचना चाहिए. डियर एबी ने अपनी बात को स्पष्ट  करते हुए कहा है कि  विदेशी नाम न केवल उच्चारण  और हिज़्ज़ों के लिहाज़ से कठिन होते हैं, उनमें यह आशंका भी निहित होती है कि उस नामधारी को बाद में निर्दयतापूर्वक तंग किया जा सकता है. उन्होंने यह भी कहा कि हो सकता है कोई नाम अपनी मूल भाषा में बहुत खूबसूरत हो लेकिन विदेशी भाषा में वह अप्रिय अथवा कर्कश भी लग सकता है. डियर एबी की सलाह पर बहुत  नाराज़ होते हुए वैलेरी कौर ने कहा कि यह सलाह गुस्सा दिलाने और उनका असली रूप उजागर करने वाली है. असली रूप वाली बात को उन्होंने यह कहते हुए स्पष्ट किया कि एबी अभी भी उसी  पुराने  अमरीका से चिमटी हुई है जहां केवल श्वेत वर्ण और उससे जुड़ी चीज़ों को ही सामान्य और  सुन्दर माना जाता है तथा शेष सब विकृत और बेहूदा होता है. वैलेरी ने कहा कि वे और उनका जीवन साथी यही मानते हैं कि किसी बच्चे के नाम  के चयन में उच्चारण की सुगमता की बजाय यह देखा जाना चाहिए कि वह उसे अपनी जड़ों से कितना जोड़ता है. 

और जब बहस चल ही निकली तो यह स्वाभाविक था कि लोग पक्ष विपक्ष के दो खेमों में बंट गए. इस बात को तो सामान्यत: सभी स्वीकार करते हैं कि किसी भी देश के रहने वालों के लिए दूसरे देश के नामों का उच्चारण काफी दिक्कतें पैदा करता है, वे यह भी मानते हैं कि बहुत बार इसी वजह से नाम संक्षिप्त या विकृत भी हो जाते हैं.  पच्चीस वर्षीया मारवा बाल्कर बताती हैं कि अपनी नौकरी के पहले ही दिन उन्होंने अपने मैनेजर को अपने नाम के उच्चारण का सही तरीका समझा दिया, लेकिन फिर भी मैनेजर चाहता था कि वे कोई और नाम सुझा दे जिससे वो उन्हें पुकार सके. वे यह भी बताती हैं कि लोग प्राय: उनके नाम को संक्षिप्त कर मार्स या मार कर देते हैं. लेकिन फिर भी वे चाहती हैं कि लोग उनको उनके असल नाम से ही बुलाएं, भले ही ऐसा करते हुए उनसे कुछ भूल चूक क्यों न हो जाए! 

मारवा बाल्कर जैसा ही अनुभव एक लेखक आनंद गिरिधरदास को भी तब हुआ जब एक रेडियो होस्ट बार-बार उनके नाम का ग़लत उच्चारण करता रहा. इस पर आनंद ने पहले तो उसे सुधारने के प्रयास किये और अंतत: चिढ़कर यह पूछ ही लिया कि अगर आपको फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की या चाइकोव्स्की जैसे नामों का उच्चारण करने में कोई दिक्कत नहीं होती है तो फिर मेरे इस सरल नाम का ठीक से उच्चारण क्यों नहीं करते हैं? इस पर उस होस्ट का जवाब यह था कि क्योंकि  ये नाम बहुत प्रख्यात हैं इसलिए वो इनका ठीक उच्चारण कर लेता है. आनंद गिरिधरदास  उसके  इस तर्क से सहमत नहीं है. उनका कहना है कि असल बात यह नहीं, असल बात तो रंगभेद है. ये लोग प्रयत्नपूर्वक ही सही, गोरों के नामों का सही उच्चारण कर लेते हैं लेकिन जब हम अश्वेतों  की बारी आती है तो चाहते हैं कि हम उनकी सुविधा के लिए अपने नाम बदल लें! वैसे रंगभेद वाली बात में दम तो है. बहुत सारी शोधों के परिणाम भी यह बताते हैं कि जब किसी नौकरी के लिए प्राप्त आवेदन पत्रों की छंटाई की जाती है तो प्राय: ऐसे नाम वालों को प्राथमिकता मिलती है जिनसे उनके श्वेत होने का संकेत मिलता है. 
यानि नामों के चयन का मसला अनेक आयामी और बहुत उलझा हुआ है! 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 23 अक्टोबर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Friday, October 19, 2018

अप्रतिम साहस और अकथनीय दुख की जुगलबन्दी


कहते हैं कि किस्मत के लिखे को कोई बदल नहीं सकता, लेकिन इसी के साथ-साथ यह भी कहा जाता है कि दुनिया में नामुमकिन कुछ भी नहीं होता. ज़रूरत होती है आपके पक्के इरादे की. ये दोनों बातें एक साथ नमूदार हुईं उस प्रसंग में जो मैं आपको सुनाने जा रहा हूं. हाल में अमरीका के इण्डियाना में एक अनूठी शादी हुई. शादी हुई, शादी का सारा तामझाम मौज़ूद था, दुल्हन थी, दुल्हन के लिबास में थी, दुल्हा दुल्हन के तमाम परिवारजन और मित्रगण थे, लेकिन दूल्हा नहीं था. शादी फिर भी हुई. शादी हुई मृत दूल्हे की कब्र के साथ! यानि किस्मत के लिखे को बदल ही दिया गया! और ऐसा किया दुल्हन जेसिका पेजैट ने.

बेहतर होगा कि सारी बात सिलसिलेवार बता दी जाए. बरसों पहले जेसिका पेजैट की सगाई केण्डल जेम्स मर्फी के साथ हुई थी. एक दूसरे से महज़ सात मील की दूरी पर रहने वाले इस युवा जोड़े की पहली मुलाक़ात कॉलेज में हुई और फिर आहिस्ता-आहिस्ता वे एक दूसरे के प्रेम में डूबते गए. जेसिका ने बाद में बताया कि “केण्डल बेहतरीन इंसान थे. बहुत प्यार करने वाले और दयालु. वे किसी को भी अपने कपड़े उतारकर पहना देते थे.” उनकी सगाई के किस्से बहुत दिनों तक लोगों की ज़ुबां पर थिरकते  रहे. जैसे जैसे उनकी शादी का दिन नज़दीक आता जा रहा था, उनकी बेताबी भी बढ़ती जा रही थी. शादी की तैयारियां ज़ोर-शोर से चल रही थीं. लेकिन नियति को शायद उनकी खुशी स्वीकार्य नहीं थी. शादी से मात्र नौ महीने पहले एक भयंकर दुर्घटना हो गई. केण्डल जेम्स मर्फी जो कि एक स्वयंसेवी अग्निशामक यानि फायरफाइटर था, किसी घायल की जान बचाने जाते हुए एक अन्य ड्राइवर की गाड़ी तले कुचला गया. संयोग की बात यह थी कि वह ड्राइवर भी उसी घायल की जान बचाने जा रहा था. बताया गया कि वह ड्राइवर न केवल नशे में था, बहुत तेज़ गाड़ी चला रहा था और साथ ही मोबाइल पर बात  भी कर रहा था. केण्डल जेम्स मर्फी ने दुर्घटनास्थल पर भी दम तोड़ दिया. केण्डल की मौत के कुछ ही समय बाद जेसिका के पास बुटीक से फोन आया कि उसका शादी का जोड़ा तैयार है. भला इससे बड़ी विडम्बना भी कोई और हो सकती है?

ज़िन्दगी में आए इस भयंकर तूफान के खिलाफ़ खड़े होने की ताकत जेसिका पेजैट ने अपने भीतर कैसे संजोई होगी, सोचकर आश्चर्य होता है. सबसे बड़ा फैसला  उन्होंने यह किया कि केण्डल की मौत के बावज़ूद वो शादी रद्द नहीं करेंगी, न केवल  रद्द नहीं करेंगी, पूर्व निर्धारित तिथि  को ही करेंगी. बाद में जेसिका ने बताया, “मैं केण्डल के जाने के बावज़ूद इस दिन को उसी शिद्दत से मनाना चाहती थी, बावज़ूद इस बात के कि वो अब शारीरिक रूप से मेरे साथ  नहीं थे. मैं इस दिन की यादों को संजोकर रखना चाहती थी.” और इसलिए पूर्व निर्धारित 29 सितम्बर को जेसिका ने वही सफेद रंग का दुल्हन का लिबास धारण किया जो उन्होंने इस ख़ास दिन के लिए तैयार करवाया था. उनकी शादी की तस्वीरें खींचने के लिए वही फोटोग्राफर वहां उपस्थित थीं  जिन्हें  जेसिका और केण्डल ने मूल रूप से इस दिन फोटो खींचने का दायित्व सौंपा था. हां, इतना ज़रूर है कि वे केवल शादी करना चाहती थीं, फोटो शूट उनकी योजना में शामिल नहीं था. वह अनायास ही हो गया. जेसिका पेजैट ने अपने प्रिय केण्डल जेम्स मर्फी  की यादगार चीज़ों -उनकी आग बुझाने वाली पोशाक, हेलमेट, विशेष जूतों और उन सूरजमुखी के फूलों के साथ तस्वीरें खिंचवाई जो वे अपनी शादी के समय काम में लेने वाले थे. कुशल फोटोग्राफर ने बाद में कुछ तस्वीरों में फोटोशॉप करके केण्डल जेम्स को भी शामिल कर दिया. बाद में जब ये फोटो फ़ेसबुकर आए और फिर दुनिया भर में वायरल हुए तो लोगों ने इनमें उस युवती के अप्रतिम साहस और अकथनीय दुख दोनों को एक साथ देखा. खुद जेसिका ने बाद में कहा, “मैं अन्दर से टूटा हुआ महसूस कर रही थी. मेरी बगल में मेरा दूल्हा नहीं था. मैं वहां अकेली खड़ी थी.” लेकिन वैसे वे अकेली कहां थीं? उनका प्रिय केण्डल पास ही तो सो रहा था. और उसी चिर निद्रा में डूबे केण्डल  के साथ उन्होंने विवाह किया. इस अनूठी शादी में केण्डल के वे तमाम सहकर्मी भी शामिल हुए जो उनके जीवन के आखिरी दिन उनके साथ थे.

बाद में अपनी इस अनूठी शादी की तस्वीरों को देखकर जेसिका ने कहा, “तस्वीरें देखकर मुझे लगता है कि केण्डल मेरे पास ही हैं. मैं उन्हें हंसते हुए देख सकती हूं. वो आज भी मेरे दिल में मौज़ूद हैं. मैं उन्हें महसूस कर सकती हूं.” बहुत सारे लोगों ने इन तस्वीरों को देखकर जेसिका से सम्पर्क  किया और उन्हें बताया कि उनकी इन तस्वीरों ने उन्हें खुद उनके अपने शोक से उबरने की ताकत  दी है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत शुक्रवार, 19 अक्टोबर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Wednesday, October 10, 2018

ड्राइविंग लाइसेंस के लिए मशहूर हुआ पर्यटन स्थल


बहुत सारे देशों की बहुत सारी जगहें अलग-अलग कारण से इतनी विख्यात हैं कि दुनिया भर के पर्यटक वहां खिंचे चले आते हैं. पर्यटन से होने वाली आय से न केवल स्थानीय नागरिकों का कल्याण होता है उस देश विशेष की सरकार को भी अपनी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने में भारी सहायता  मिलती है. कुछ स्थान अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाने जाते हैं तो कुछ धर्म, अध्यात्म, पर्यावरण, नैसर्गिक सौंदर्य, खरीददारी, मौज़ मस्ती वगैरह के लिए. लेकिन अगर कोई आपसे यह कहे कि हमारी इस रंग बिरंगी दुनिया में कम से कम एक जगह ऐसी भी है जहां पर्यटक घूमने फिरने से  ज़्यादा इस बात से आकर्षित होकर आते हैं कि वहां ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना अपेक्षाकृत आसान है, तो क्या आप विश्वास कर लेंगे?

दक्षिण कोरिया का जेजू द्वीप पर्यटकों के बीच बहुत लोकप्रिय है. ज्वालामुखी विस्फोट से बना यह द्वीप कोरिया के दक्षिणी पश्चिमी हिस्से से मात्र सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. निकटवर्ती चीन से बहुत बड़ी संख्या में पर्यटक जेजू के समुद्र तट का आनंद लेने, खरीददारी करने और जुआ खेलने के लिए आते हैं, लेकिन इसी के साथ चीन से आने वाले पर्यटकों में ऐसे लोगों  की संख्या भी बहुत ज़्यादा होती है जो यहां सिर्फ ड्राइविंग लाइसेंस लेने आते हैं और अगर उस काम  से समय बच जाता है तो थोड़ा पर्यटन भी कर लेते हैं. दरअसल चीन के बड़े शहरों में ड्राइविंग स्कूल से लाइसेंस बनवाने पर जितना खर्चा होता है उससे कम खर्च में जेजू में आकर ड्राइविंग लाइसेंस बनवाया जा सकता है, और पर्यटन भी हो जाता है. चीन की बहुत सारी पर्यटन कम्पनियां दक्षिण कोरिया का हवाई कहे जाने वाले इस जेजू द्वीप में आकर लाइसेंस  बनवाने के लिए पांच दिन का हॉलीडे पैकेज तक देने लगी हैं. ये पैकेज लगभग 1300 डॉलर से शुरु होते हैं और इस में घूमना-फिरना भी शामिल होता है. इसके विपरीत चीन की राजधानी बीजिंग में एक वीआईपी ड्राइविंग कोर्स का खर्चा करीब 2200 डॉलर होता है. इतना ही नहीं, वहां ड्राइविंग लाइसेंस मिलना है भी बहुत कठिन. इसके अलावा यहां से मिलने वाले लाइसेंस का एक अतिरिक्त लाभ यह भी है कि यह विदेशों में भी मान्य है, जबकि चीन में लिया गया लाइसेंस  केवल चीन में ही काम में आ सकता है. इस बात को यों समझें. संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर इण्टरनेशनल ड्राइविंग परमिट की व्यवस्था शुरु की गई  जिससे यह सुविधा हो गई कि जिनके पास ये परमिट हों वे लगभग एक सौ पचास अन्य देशों में भी कार किराये पर ले सकते और ड्राइव कर सकते हैं. चीन ने इस समझौते पर दस्तखत नहीं किए इसलिए चीनी ड्राइविंग लाइसेंस पर यह परमिट नहीं मिलता है जबकि दक्षिण कोरिया वाले पर मिल जाता है. इस वजह से वे चीनी जो दुनिया के अन्य देशों में रहते या जाते रहते हैं उन्हें अपने देश के लाइसेंस की बजाय दक्षिण कोरिया का लाइसेंस लेना अधिक लाभप्रद लगता है. दक्षिण कोरिया के इस लाइसेंस को पा लेने के बाद चीनी नागरिकों को अपने देश में एक सामान्य लोकल ड्राइविंग परमिट लेना होता है जो आसानी से मिल जाता है. वैसे  चीन में ड्राइविंग लाइसेंस पाना बहुत कठिन है. एक तो यह बात कि वहां आवेदकों की तुलना में टेस्ट सेण्टर बहुत कम हैं इसलिए प्रतीक्षा सूची बहुत लम्बी होती है, और अगर कोई परीक्षा के किसी भी चरण में नाकामयाब हो जाए तो उसके इंतज़ार की घड़ियां और अधिक लम्बी हो जाती हैं. चीन का टेस्ट इस मामले में भी मुश्क़िल है कि वहां लिखित परीक्षा में सौ सवाल पूछे जाते हैं जबकि दक्षिणी कोरिया में मात्र चालीस सवाल ही पूछे जाते हैं. यही नहीं, चीन में उत्तीर्ण होने के लिए नब्बे प्रतिशत अंक ज़रूरी होते हैं, लेकिन कोरिया में साठ प्रतिशत अंक लाने पर ही उत्तीर्ण कर दिया जाता है.

दक्षिण कोरिया में ड्राइविंग लाइसेंस लेने की प्रक्रिया न तो चीन जितनी जटिल है और न उतनी समय खपाऊ. सामान्यत: एक दिन में टेस्ट की सारी प्रक्रिया पूरी हो जाती है और आवेदन करने से लगाकर आपके हाथ में लाइसेंस आने में अधिकतम एक सप्ताह लगता है. बहुत सारे पर्यटन पैकेज सुलभ कराने वाले कोरिया की ड्राइविंग एकेडेमी से तालमेल बिठाकर तेरह घण्टों की अनिवार्य ड्राइविंग ट्रेनिंग का भी इंतज़ाम कर देते हैं और ये दावा करते हैं  कि इनकी दिलवाई  ट्रेनिंग के बाद टेस्ट में सफलता करीब-करीब सौ फीसदी सुनिश्चित होती है. चीनियों के लिए जेजू द्वीप में आकर ड्राइविंग लाइसेंस लेने में एक और सुविधा यह भी है कि यहां आने के लिए उन्हें वीज़ा भी नहीं लेना होता है.

ड्राइविंग लाइसेंस और पर्यटन के इस गठबंधन ने क्या आपको भी यह सोचने को प्रेरित किया है कि ऐसे और कौन-से गठबंधन मुमकिन हैं?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 09 अक्टोबर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 2, 2018

अजीबोगरीब किस्सा आग बुझाने वाले दूल्हे का


जीवन में बहुत बार ऐसा कुछ घटित हो जाता है जिसके बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं होता है. लेकिन जब वो घटित हो चुका होता है तो उसकी स्मृतियां भावनाओं का पूरा इंद्रधनुष रच  देती हैं. अब देखिये ना, अमरीका के इस युगल के जीवन में यकायक जो घटित हो गया उसे भला कभी वे भूल सकेंगे?

मैं बात कर रहा हूं मिनेसोटा की बत्तीस वर्षीया क्रिस्टा बोलां और उनके दोस्त उनचालीस वर्षीय जेरेमी बुरासा की. कोई पांच बरस पहले क्रिस्टा बोलां की सगाई जेरेमी बुरासा के साथ हुई थी. और अब वे शादी कर लेना चाहते थे.  लेकिन जब भी वे इसकी योजना बनाने लगते  कोई न कोई अड़चन आ जाती. इस बार भी ऐसा ही हुआ. सब कुछ तै हो गया, लेकिन ऐन वक़्त पर बिल्ली रास्ता काट गई. जो समारोह स्थल उन्होंने अपने विवाह के लिए बुक किया था, वह अचानक अनुपलब्ध हो गया. लेकिन इस बार वे भी ठाने बैठे थे कि शादी तो पूर्व निर्धारित तारीख को ही करेंगे. जब और कोई जगह उन्हें नहीं मिल पाई तो अग्नि शमन दस्ते के कर्मचारी और दूल्हे मियां जेरेमी ने सोचा कि क्यों न अपने अग्नि शमन केंद्र को ही विवाह स्थल बना लिया जाए. इस शुभ काम के लिए अफसरों की अनुमति भी मिल गई! अब वैसे तो अग्नि शमन जैसी इमरजेंसी सेवा वालों को हमेशा ही इस बात का खतरा बना रहता है कि जाने कब बुलावा आ जाए, जेरेमी थोड़ा आश्वस्त यह सोचकर था कि एक तो उसके इलाके में बहुत ज़्यादा रिहायश नहीं है, दूसरे वहां आग लगने की घटनाएं ज़्यादा नहीं होती हैं और तीसरे उस दिन उसकी ड्यूटी भी नहीं है.

तो शादी के रस्मो-रिवाज़ शुरु हुए, हंसी-खुशी के माहौल में सब कुछ भली भांति सम्पन्न होता जा रहा था. नव विवाहित जोड़ा  फोटो खिंचवाने की तैयारी में था  कि अचानक उस अग्नि शमन केंद्र के सायरन चीख उठे. पास के एक घर में आग लग गई थी. बुरासा ने अपनी नई नवेली दुल्हन की तरफ देखा, और उसने भी तुरंत जैसे आंखों ही आंखों में जवाब दे दिया, “नहीं. तुम्हें नहीं जाना है.” शायद उसे भी लगा हो  कि भला यह भी कोई वक़्त है आग बुझाने के लिए जाने का! कुछ ही पल बीते होंगे कि घटनास्थल से एक बार फिर बुलावा आया. आग काबू में नहीं आ रही थी और वहां और अधिक लोगों की सख़्त ज़रूरत थी. बुरासा को लगा जैसे उसके साथी उसे ही पुकार रहे हैं. एक बार फिर नई नवेली पत्नी से उसकी आंखें मिलीं, और इस बार जैसे पत्नी भी मना नहीं कर सकी. इशारों ही इशारों में उसने कहा, “जाओ. तुम्हारे साथी तुम्हें पुकार रहे हैं, जाओ!”

बिना एक भी पल गंवाए बुरासा ने अपनी चमकती कमीज़ उतार कर कामकाजी ड्रेस धारण की और उछल कर अपने आग बुझाने वाले वाहन  पर जा सवार हुआ. जब वह अपना वाहन उस भवन से बाहर निकाल रहा था, विवाह में शामिल होने आए तमाम मेहमान कतारबद्ध खड़े होकर अपनी शुभ कामनाओं के साथ उसे विदा कर रहे थे. क्रिस्टा सोच रही थी, इतनी फुर्ती तो मैंने कभी नहीं देखी बुरासा में! और जब वह वहां से चला गया, क्रिस्टा बोलां, जो अब तक क्रिस्टा बुरासा बन चुकी थी अनायास ही उन त्रासदियों को याद करने लगी जो हाल में उसके जीवन में घटित हुई थीं. एक भयानक अग्नि काण्ड में उसकी बहन का घर जल कर खाक हो गया था, और जैसे इतना ही काफ़ी न हो, उस आग ने उसके ग्यारह और नौ बरस के भतीजे भतीजियों को भी लील लिया था. यह कोई कम भयानक  हादसा न था. अपने पांच बरस के प्रणय काल में वह यह भी जान चुकी थी कि जेरेमी का काम कितनी जोखिम भरा  है. जेरेमी प्राय: उससे अपने कामकाज के बारे में बातें किया करता था. न जाने कितनी आशंकाएं उसे व्याकुल किये दे रही थीं. वह मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि उसका जेरेमी जल्दी से जल्दी और सुरक्षित लौट आए.

और उधर जेरेमी जब घटनास्थल पर पहुंचा तो उसने पाया कि पूरा घर आग की लपटों में घिरा हुआ है, हालांकि वहां रहने वालों को सुरक्षित बाहर निकाला जा चुका था. दो घण्टों की कड़ी मेहनत के बाद उस आग पर भी काबू पा लिया गया. और तब तुरंत ही उसके अधिकारी ने उसे कहा कि वो अपने विवाह स्थल पर लौट जाए. जैसे ही बहुत थक कर लेकिन संतुष्ट मन से वो  वापस अग्नि शमन केंद्र स्थित अपने विवाह स्थल पर पहुंचा, उसका इंतज़ार कर रहे मेहमानों ने खड़े होकर अभिवादन करते हुए उसका स्वागत किया. पहले वो समारोह का केंद्र बिंदु था, अब हीरो भी बन चुका था.

पार्टी नए जोश-ओ-खरोश के साथ फिर शुरु हो चुकी थी.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक स्तम्भ कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 अक्टोबर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.