हाल में हैदराबाद के एक ऑनलाइन डेटिंग
पोर्टल ‘क्वैक क्वैक’ ने ‘हैप्पीली सिंगल’
नाम से एक अभियान चलाया जो फेसबुक पर बहुत जल्दी वायरल हो कर लगभग 25 लाख लोगों तक पहुंच चुका है. इस अभियान में
बैंगलूर के युवाओं से यह जानने की कोशिश की गई कि उनके मां-बाप क्या-क्या तर्क
देकर उन पर शादी के बंधन में बंध जाने का दबाव बनाते हैं. इनमें से अधिकांश तर्क
वे हैं जिन्हें हम अपनी फिल्मों के
चिर-परिचित संवादों के रूप में जानने के साथ-साथ अपने इर्द गिर्द भी कई दफा सुन
चुके होंगे. ऐसे कुछ तर्कों का आनंद आप भी लीजिए:
अगर तुमने शादी नहीं की तो समाज में
तुम्हारे पिता की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी./ तुम गैर ज़िम्मेदार और निकम्मे
हो. शादी करने से ज़िम्मेदारी आ जाएगी./ जब तक तुम शादी नहीं कर लोगे तुम्हारी छोटी
बहिन की भी शादी नहीं होगी./ लड़का अमीर खानदान का है. वो तुम्हें सुखी रखेगा./ मेरे
दादाजी की अंतिम इच्छा यही है कि न सही
अपना पड़पोता, कम से कम वे पोते की शादी तो देख लें./ यह शिक्षा कैरियर, बिज़नेस सब
बेकार है, अगर तुम्हारा अपना परिवार न हो./ तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए क्योंकि
हमारे पड़ोसी इस बात को लेकर बहुत बातें बनाने लगे हैं./ तुम्हारे सारे दोस्तों की शादियां हो गई
है, अब तो तुम भी कर लो./ अपने कज़िन को ही
देखो, उसकी शादी हो चुकी है और वो बहुत खुश है./ मेरे मां बाप बूढ़े हो रहे हैं
इसलिए वे चाहते हैं कि अब तो मेरी देखभाल करने वाला कोई हो./ वो एक गोरी, खूबसूरत
ब्राह्मण लड़की है. तुम्हें भला और क्या चाहिये?/ उम्र गुज़र जाने के बाद तुम्हें
कोई लड़का नहीं मिलने वाला./ अगर तुमने देर से शादी की तो तुम्हारे बच्चे नहीं हो
पाएंगे./ इससे पहले कि लड़की मुंह काला करवा दे, इसकी शादी कर डालो./ हमने तुम्हारे
लिए इतना सब कुछ किया है और तुम हमारी यह एक छोटी-सी तमन्ना भी पूरी नहीं कर सकते?/
और आखिरी और सबसे
ज्यादा पॉपुलर कथन है - लोग क्या
कहेंगे?
कहना अनावश्यक है कि इस बदले हुए समय में,
जब विवाह की औसत आयु काफी ऊपर जा चुकी है, युवाओं के सपने नई ऊंचाइयां छूने लगे
हैं, शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ कैरियर से जुड़ी आकांक्षाएं निरंतर बड़ी होती जा
रही हैं, जीवन में भौतिक सुख सुविधाओं का महत्व बढ़ता जा रहा है, नैतिकता और दैहिक
शुचिता के पुराने मानदण्ड अप्रासंगिक होते जा रहे हैं, युवाओं को अपने मां बाप से
इस तरह के संवाद सुनना प्रीतिकर नहीं लगता है. कभी वे बातों को टालते हैं, कभी कम
या ज़्यादा कड़ा प्रतिरोध करते हैं, और कभी उनके आगे समर्पण कर अपनी तमन्नाओं का खून
भी हो जाने देते हैं.
लेकिन मैं यह सारी चर्चा यह सवाल उठाने के
लिए कर रहा हूं कि क्या विवाह आवश्यक है? और यह कितना उचित है कि मां-बाप अपनी
संतान पर दबाव बनाएं या इमोशनल ब्लैक मेल करके उनको विवाह के लिए विवश करें? अब
जबकि पढ़े लिखे परिवारों में सामान्यत: ठीक ठाक उम्र हो जाने तक युवा अपनी शादी के बारे
में सोचते ही नहीं हैं, यानि तब तक वे खासे परिपक्व भी हो चुके होते हैं, तो फिर
उनके शादी करने न करने का फैसला भी क्या उन पर ही नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए? और
स्पष्ट कहूं कि क्या शादी न करने के विकल्प को भी पारिवारिक और सामाजिक स्वीकृति
नहीं मिल जानी चाहिए?
विवाह संस्था के समर्थन में जो तर्क अब तक
दिये जाते रहे हैं, हम उनके विस्तार और पक्ष विपक्ष में न जाएं और केवल यह सोचें
कि जिस देश में स्त्री-पुरुष अनुपात 943 है और इसमें लगातार गिरावट आती जा
रही है, वहां सबका विवाह तो वैसे ही
मुमकिन नहीं है. लेकिन ज़्यादा महत्व की
बात यह है कि क्या अब मां-बाप के दायित्वों और सामाजिक संरचना को नए सिरे से परिभाषित करने का समय नहीं आ गया
है? एक समय था जब मां-बाप अपने बच्चों की शादी करके ही अपने आप को दायित्व मुक्त
मानते थे, हालांकि दायित्व मुक्त होते तब
भी नहीं थे. क्या हर्ज़ है अगर अब वे अपने बच्चों को पढ़ा लिखाकर, आत्म निर्भर बना
कर उनके जीवन के अन्य निर्णय खुद उन्हें करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दें? अब तो
कैरियर के मामले में भी यह हो रहा है कि जहां पहले मां-बाप यह कहते थे कि हम अपने
बच्चों को ये बनाएंगे और वो बनाएंगे, उनकी जगह आज के समझदार मां-बाप कहने लगे हैं
कि हमारे बच्चे जो बनना चाहेंगे वो बनने में हम उनको सहयोग देंगे. ऐसे में अगर कोई
युवक या युवती विवाह न करने का फैसला करता है तो क्यों न उस फैसले को भी सहर्ष
स्वीकार किया जाए!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 23 जून, 2015 को 'क्या शादी के लिए ज़रूरी है इमोशनल अत्याचार' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.