Tuesday, July 25, 2017

कुछ समुदायों की घटती जनसंख्या भी है समस्या

सामान्यत: इस बात से सभी सहमत हैं कि भारत की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है इसकी बढ़ती हुई जनसंख्या. आज़ादी के बाद से विभिन्न सरकारों ने अपने-अपने अंदाज़ में जनसंख्या वृद्धि पर काबू पाने के प्रयास किए हैं और उन प्रयासों को आंशिक सफलता भी मिली है. सोचा जा सकता है कि अगर वे प्रयास न किए गए होते तो आज हम किस हाल में होते. इसके बावज़ूद कुछ संगठन और लोग ऐसे भी हैं जो इस बात पर चिन्तित होते हैं कि कुछ जातियों/धर्मों को मानने वालों की जनसंख्या उतनी नहीं बढ़ रही है जितनी उनकी बढ़ रही है जिनसे उनको ख़तरा है. लेकिन अगर ऐसों की  बात न भी करें तो हमारे विविधता भरे देश में कम से कम एक समुदाय ऐसा मौज़ूद है जिसकी संख्या निरंतर छीजती जा रही है और यह समाज तेज़ी से विलुप्त होने की तरफ बढ़ रहा है. संकट इतना गहरा है कि अब सरकार की तरफ से और खुद इस समुदाय  के लोगों की तरफ से भी इस समुदाय की जनसंख्या बढ़ाने के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं.

मैं बात पारसी समुदाय की कर रहा हूं. वही पारसी समुदाय, जिसकी चर्चा अपनी ख़ास जीवन शैली, सुरुचि, उच्च शैक्षिक स्तर और समृद्धि के लिए होती है. 1941 में देश में जहां पारसियों की संख्या 114,000 थी वहीं 2001 की जनगणना में ये 69 हज़ार से भी कम रह गए थे और 2011 की जनगणना में तो इनकी संख्या और भी  घटकर मात्र 57, 264 ही रह गई थी. इसी बात से चिंतित होकर भारत सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने पारसियों को अपनी आबादी बढ़ाने के लिए प्रेरित करने के लिए सन 2013 से जियो पारसी’  नाम से एक अभियान चला रखा है.  इस अभियान के पहले चरण में, जो जल्दी ही पूरा होने वाला है, सरकार ने एक बड़ी राशि इस निमित्त प्रदान की है कि जिन पारसी युगलों की आय एक निश्चित सीमा से कम है उन्हें संतानोत्पत्ति विषयक उपचार कराने के लिए आर्थिक सहायता दी जा सके. इसके अलावा इस अभियान के अंतर्गत विज्ञापन, काउंसिलिंग और अन्य तरीकों से भी पारसियों को जनसंख्या बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है. अभियान के शुरुआती समय में कई विज्ञापन ज़ारी किये गए जिनमें पारसियों से गर्भ निरोधक इस्तेमाल न करने का भी अनुरोध किया गया. ये तमाम बातें भारत सरकार की परिवार नियोजन को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों के खिलाफ़ हैं. एक तरफ जहां इस अभियान का जम कर उपहास हुआ वहीं दूसरी तरफ इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आये, लेकिन तीसरी तरफ़ खुद पारसी समुदाय के भीतर से कुछ लोगों ने इसका विरोध किया. यहां तक कहा  गया कि यह अभियान स्त्री को मात्र संतानोत्पत्ति करने वाली मान कर चलता है.

यह समझना भी ज़रूरी होगा कि आखिर क्यों पारसी जनसंख्या इतनी घटती जा रही है. असल में पारसी समुदाय एक सुगठित लेकिन बंद समुदाय है जहां जो कुछ भी बाहरी है वह सब निषिद्ध  है. अगर कोई महिला पारसी समुदाय से बाहर शादी कर लेती है तो वह पारसी नहीं रह जाती है, और अगर कोई किसी अन्य समुदाय से हो और किसी पारसी से विवाह कर ले तो उसके बच्चों को भी पारसी का दर्ज़ा नहीं दिया जाता है. किसी भी ग़ैर पारसी के लिए पारसी मंदिर में आना वर्जित  होता है. यही नहीं लगभग तीस प्रतिशत पारसी स्त्री-पुरुष तो विवाह ही नहीं करते हैं. देश में जो पारसी आबादी है उसमें से कम से कम तीस प्रतिशत की उम्र साठ से ऊपर है. और जैसे यह सब पर्याप्त न हो, देश में पारसियों की फर्टिलिटी दर मात्र 0.8 है जबकि औसत भारतीयों में यह दर 2.3 है. यहीं यह भी याद कर लिया जाना उपयुक्त होगा कि जब फर्टिलिटी दर 2.1 होती है तो जनसंख्या स्थिर  हो जाती है.

इस अभियान का विरोध करने वालों का कहना है कि पारसियों को ज़्यादा बच्चे पैदा करने के लिए उकसाने की बजाय पारसी संस्कृति की रक्षा और उसके संवर्धन के लिए प्रयास किये जाने चाहिए. लेकिन समझा जा सकता है कि यह तर्क  महज़ विरोध करने के लिए दिया गया तर्क है. अगर पारसी संस्कृति का बहुत ज़्यादा समर्थन किया जाएगा तो यह समुदाय सिकुड़ते-सिकुड़ते लुप्त ही हो जाएगा. जब आप अपने तमाम खिड़की दरवाज़े बंद कर देंगे तो यही होगा. और यही वजह है कि पारसी समुदाय के भीतर से भी आम तौर पर इस सरकारी पहल का स्वागत हो रहा है और समझदार लोग कहने लगे हैं कि यह अभियान काफी पहले शुरु कर दिया जाना चाहिए  था. यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि यह सरकारी अभियान पारसी समुदाय को बचा पाने में कितना सफल रहता है!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 25 जुलाई, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, July 18, 2017

कुत्ता पुराण उर्फ़ अच्छे परिवारों के कुत्ते भी अच्छे होते हैं!

अगर कोई व्यक्ति अमरीका के किसी बड़े शहर में कोई घर या अपार्टमेण्ट खरीदना या किराये पर लेना चाहे तो उसे न सिर्फ अपनी आर्थिक-सामाजिक  स्थिति, अपने परिवार आदि के बारे में आश्वस्तिदायक एवम प्रामाणिक जानकारियां सुलभ करानी होती हैं, अगर वो पालतू कुत्ता भी रखता है तो उसे उस कुत्ते के खानदान और चाल-चलन के बारे में भी समुचित और सत्यापित जानकारियां देनी होती हैं. न सिर्फ इतना, बहुत सारे अपार्टमेण्ट प्रबंधन तो बाकायदा कुत्तों के इण्टरव्यू भी लेने लगे हैं. एक भावी किरायेदार ने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया है कि उनसे उनके और उनके परिवार के बारे में जितने सवाल-जवाब किये गए उससे कहीं ज़्यादा सवाल उनके कुत्ते से पूछे गए. और कुत्तों को लेकर यह सजगता केवल अमरीका में ही नहीं बरती जा रही है. कनाडा और ऑस्ट्रेलिया  से भी ऐसी ही ख़बरें आ रही हैं. शायद दुनिया के और भी अनेक देशों में यह चलन हो गया हो कि किसी को मकान किराये पर देने से पहले उसके पालतू कुत्ते के बारे में भी आश्वस्त हो जाया जाए ताकि वहां रहने वाले अन्य लोगों को कोई असुविधा न हो. यहीं यह स्मरण कर लेना भी प्रासंगिक होगा कि पश्चिमी देशों में नागरिक सुविधाओं की सुनिश्चितता पर बहुत ज़ोर रहता है. कोई भी किसी अन्य को अपनी छोटी से छोटी सुविधा या अधिकार का हनन नहीं करने देता है और सरकारें भी इस काम में मददगार साबित होती हैं. इन सारी बातों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.  

इन देशों में जब इतना सब हो रहा है तो बहुत स्वाभाविक है कि उद्यमी लोग इसमें भी अपना रोज़गार और मुनाफ़ा खोज लें. अमरीका में, जहां जानवर पालने का चलन खूब है,  पालतू जानवरों की एक पूरी की पूरी इण्डस्ट्री ही उठ खड़ी हुई है, जो उनके मालिकों को मकान दिलवाने में मदद करने के लिए इन पालतू कुत्तों का डीएनए  टेस्ट करवाती हैं, उनकी वंशावली प्रमाणित करती है, उनके खानदानी होने का प्रमाण पत्र प्रदान  करती है, उनके फोटो शूट करवाती है ( बतर्ज़ प्रोपोज़ल फोटोज़!) और ज़रूरत पड़ने पर उनके सद व्यवहार के प्रमाण पत्र भी ज़ारी करती है.  और जैसे इतना ही पर्याप्त न हो, वहां एक अमरीकन  कैनल क्लब तक है जो कुत्तों के लिए गुड सिटिजन सर्टिफिकेट कोर्स भी  संचालित करता है. काफी पुराने इस क्लब की  प्रगति का यह आलम है कि जहां साल 1989 में इस क्लब ने सिर्फ  1300 कुत्तों को ग्रेजुएट की उपाधि प्रदान की थी, पिछले बरस इस संस्थान से 65,000 श्वान स्नातक हुए. अकेले न्यूयॉर्क शहर में इस क्लब के 75 मान्य इंस्ट्रक्टर्स  और परीक्षक हैं, जो हर बरस कम से कम 2500 कुत्तों की परीक्षा लेते हैं. इसी तरह के अन्य भी  अनेक संस्थान हैं. इनके प्रमाण पत्र व अनुशंसा पत्र बहुत मूल्यवान माने जाते हैं. 

बहुत सारे ऐसे संस्थान भी खुल गए हैं जो भावी मकान मालिक द्वारा लिये जाने वाले इण्टरव्यू के लिए कुत्तों को प्रशिक्षित  करते हैं. ऐसे ही एक संस्थान के कैनाइन गुड सिटिजन प्रोग्राम  के अंतर्गत  कुत्तों को दस स्किल्स सिखाई जाती हैं जिनमें निर्देश पर बैठ जाना और कहने पर अपरिचितों के साथ शालीनता से पेश आना भी शामिल होता है. लेकिन मज़े की बात यह कि अपने देश की तरह परदेस में भी ऐसे प्रतिभाशाली लोग कम नहीं हैं जो हर चीज़ के लिए वैकल्पिक शॉर्ट कट तलाश लेते हैं. वहां भी उस्ताद लोग  प्रशिक्षण की परेशानी  से बचने के लिए अपने कुत्तों को या तो नशीली दवा खिला देते हैं या फिर इण्टरव्यू से ठीक पहले उन्हें इतना थका डालते हैं कि वे इण्टरव्यू के वक्त आक्रामक व्यवहार कर ही नहीं पाते हैं. अनेक इमारतों में कुत्तों की अधिकतम वज़न सीमा भी निर्धारित होती है जिसकी पालनार्थ लोग अपने कुत्तों  को कई दिन भूखा तक रखते हैं. बहुत सारी इमारतों में कुछ ख़ास नस्लों के कुत्तों को वर्जित करार दिया जाता है और इसका तोड़ उस्तादों ने यह निकाला है कि वे उनका डीएनए परीक्षण  करवा कर यह स्थापित कर देते हैं कि वह कुत्ता उस नस्ल का नहीं है जिसका नज़र आ रहा है.

कुल मिलाकर तू डाल-डाल मैं पात-पात का खेल ज़ारी है. असल में रिहायशी इलाकों और इमारतों का प्रबंधन करने वाले चाहते हैं कि किसी के भी पालतू कुत्ते से औरों को कोई  असुविधा न हो. इसी लिहाज़ से न्यूयॉर्क  के एक सम्पन्न रिहायशी इलाके की एक प्रतिष्ठित बिल्डिंग ने तो अपने यहां एक डॉग इण्टरव्यूवर  की नियुक्ति की है जो भावी किरायेदारों के कुत्तों का बाकायदा इण्टरव्यू लेती हैं. यह भद्र महिला उम्मीदवार श्वान को अपने साथ काम करने वाली लड़कियों से मिलवाती है और फिर उसकी प्रतिक्रिया को परखती हैं. वे खुद भी उस कुत्ते को छू कर उसकी प्रतिक्रिया  का आकलन करती हैं. इस भद्र महिला का यह कथन बहुत अर्थपूर्ण है कि अच्छे परिवारों के कुत्ते भी अच्छे होते हैं!


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 18 जुलाई, 2017 को अमरीका में उद्योग बना पालतू जानवरों का शौक शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, July 11, 2017

तबीयत से उछाला एक पत्थर और कर दिया आकाश में छेद!

मंगोलिया की डॉक्टर ओदोंतुया दवासुरेन जब महज़ सत्रह बरस की थीं और घर से काफी दूर लेनिनग्राड में रहकर पढ़ाई कर रही थीं तब फेफड़ों के कैंसर ने पिता को उनसे छीन लिया था. बाद में कभी उन्होंने बताया कि उन्हें इस बात का अब भी  मलाल है कि वे अपने पिता के अन्तिम  दर्शन तक नहीं कर सकीं, और अपनी बड़ी बहन से ही उन्हें यह भी पता चला कि उनके पिता लगातार असह्य वेदना झेलते रहे. इसके कई बरस बाद, जब वे डॉक्टर बन चुकीं तब भी उन्हें अपने असंख्य मरीज़ों के अलावा अपने निकट के लोगों की वेदना का मूक दर्शक बनना पड़ा. उनकी सास उनके साथ ही रहती थीं और ओदोंतुया ने लिवर कैंसर से जूझती,  दर्द से तड़पती और शांत मृत्यु के लिए विकल अपनी सास की पीड़ा को गहराई से महसूस किया. वे उनकी हर तरह से सेवा करतीं लेकिन उन्हें दर्द से निज़ात दिलाने में असमर्थ थीं.

उनकी असमर्थता का एक ख़ास संदर्भ  है. भले ही तब दुनिया के दूसरे देशों में असाध्य रोगों से ग्रस्त मरणासन्न रोगियों की पीड़ा कम करने के लिए ख़ास व्यवस्थाएं (पैलिएटिव केयर)  सुलभ थीं, खुद उनके देश मंगोलिया में उनके लिए सामान्य दर्द निवारकों से अधिक कुछ भी सुलभ नहीं था. यह आकस्मिक ही था कि सन 2000 में डॉक्टर ओदोंतुया को यूरोपियन पैलिएटिव केयर असोसिएशन की एक कॉन्फ्रेंस  में भाग लेने के लिए स्टॉकहोम (स्वीडन) जाने का अवसर  मिला और वहां मिली जानकारियों ने उनमें नई ऊर्जा का संचार कर डाला. तब तक तो वे पैलिएटिव केयर जैसी किसी अवधारणा से ही परिचित नहीं थी. स्वीडन से लौटकर उन्होंने अपने देश के स्वास्थ्य मंत्रालय से जब अपने देश में भी ऐसी ही सुविधाएं सुलभ कराने का अनुरोध किया तो पलट कर उनसे ही पूछा गया कि जब देश में ज़िंदा लोगों के लिए ही पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं देने के संसाधनों का अभाव है तो भला मरणासन्न लोगों को कोई सुविधा देने की बात सोची भी कैसे जा सकती है!

लेकिन एक चिकित्सक होने के नाते ओदोंतुया इस बात से भली भांति परिचित थीं कि मंगोलिया में इस सुविधा की कितनी ज़रूरत है. वे जानती थीं कि उनके देश में लिवर कैंसर से मरने वालों की तादाद वैश्विक औसत से छह गुना ज़्यादा है और इसमें लगातार वृद्धि होती जा रही है. इस तरह के रोगियों का अंत बहुत कारुणिक और कष्टप्रद  होता है. ऐसे में, ओदोंतुया यह मानने लगी थीं कि मृत्यु से पहले की सुखद ज़िंदगी मनुष्य का आधारभूत अधिकार है, और वे इसे दिलाने के लिए लगातार प्रयत्न करती रहीं. देश के स्वास्थ्य मंत्रालय के सामने अपनी बात सशक्त रूप से रखने के लिए उन्होंने मरणासन्न लोगों से उनके घरों पर जाकर मुलाक़ातें की और उनके अनुभवों को फिल्मांकित किया. उन्होंने पाया कि ऐसे बहुत सारे रोगियों को अस्पताल वाले जबरन घर भेज दिया करते हैं और वे असहाय रोगी दर्द से कोई निज़ात न पाकर मृत्यु की मांग तक करने लगते हैं.

आखिर ओदोंतुया के प्रयास  सफल हुए और सन 2002 में मंगोलिया सरकार ने मरणासन्न लोगों को राहत देने के लिए एक राष्ट्रीय पैलिएटिव केयर कार्यक्रम की शुरुआत करने की घोषणा की. इसके बाद से अब तक की प्रगति यह है कि अब उस देश का हर प्रादेशिक अस्पताल यह सुविधा सुलभ कराने लगा है और देश में बहुत सारे होसपिस  केंद्र भी खुल गए हैं. सबसे बड़ी बात यह हुई है कि ऐसे रोगियों को राहत पहुंचाने के लिए मॉर्फिन की आपूर्ति बढ़ा दी गई है. डॉक्टर ओदोंतुया के प्रयासों से पहले मंगोलिया के अधिकारी मॉर्फिन के वितरण में इसलिए कृपणता बरतते थे कि उन्हें भय था कि इसकी सुलभता नशे के प्रसार में सहायक बन जाएगी. लेकिन अब वहां कैंसर के रोगियों को उनकी ज़रूरत के मुताबिक मॉर्फिन दे दी जाती है, और वो भी निशुल्क. ज़ाहिर है कि इससे उनके कष्टों में काफी कमी आई है. ओदोंतुया के प्रयासों से मंगोलिया में हज़ारों डॉक्टरों को प्रशिक्षित किया गया है ताकि वे इस तरह के रोगियों को दर्द निवारण में और सुखपूर्ण अंतिम जीवन बिताने में सहायक बन सकें. खुद डॉक्टर ओदोंतुया अब भी नियमित रूप से ऐसे रोगियों के सम्पर्क में रहती हैं और न सिर्फ उन्हें समुचित  चिकित्सकीय सहायता सुलभ कराती हैं, जब उन्हें लगता है कि अब मृत्य के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा है तो उन्हें मानसिक रूप से मृत्यु के लिए तैयार भी करती हैं.

डॉक्टर ओंदोतुया का यह वृत्तांत एक बार फिर हमें आश्वस्त करता है कि दुनिया में भले लोगों की कमी नहीं है और हमारे कवि दुष्यंत कुमार ने ठीक  ही कहा है कि “कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो.”  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 11 जुलाई, 2017 को प्रकशित आलेख का मूल पाठ.   

Tuesday, July 4, 2017

मशीनें मनुष्य की पूरक ही हैं, विकल्प नहीं!

अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटेन मे शुरु हुई औद्योगिक क्रांति ने हमारे जीवन को आधारभूत रूप से बदल कर रख दिया. जीवन का हर पहलू इससे प्रभावित हुआ. कल तक जो काम मनुष्य सिर्फ और सिर्फ अपने हाथों से करता था, वे काम आहिस्ता-आहिस्ता मशीनों की मदद से किये जाने लगे. स्वाभाविक ही है कि ऐसा होने से मनुष्य को बहुत सारे मेहनत-मज़दूरी वाले  कामों से मुक्ति मिली और उसका जीवन सुगम हुआ. औद्योगिक क्रांति का असर केवल मानवीय श्रम तक ही सीमित नहीं रहा, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तमाम क्षेत्रों को इसने प्रभावित किया. अपने श्रम और प्रयत्नों को कम कर वे तमाम काम मशीनों से करवाने के मनुष्य के प्रयास अभी भी थमे नहीं हैं. बल्कि कुछ अर्थों में तो ये प्रयास और अधिक तेज़ भी हुए हैं. कल तक जिन कामों को मशीनों से करवाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, अब वे काम भी मशीनों से करवाये जाने लगे हैं.

ऐसा करने से जहां मनुष्य के श्रम में काफी कटौती  हुई है वहीं एक नई आशंका भी उत्पन्न हो गई है. समझदार लोग इस बात से चिंतित होने लगे हैं कि अगर यही क्रम जारी रहा तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि मनुष्य द्वारा किये जाने वाले तमाम काम मशीनों से ही करवाये जाने लगें. मशीनों को इतना समर्थ बना दिया जाए कि वे उन सभी कामों को अधिक दक्षता से और अपेक्षाकृत कम खर्चे में करने लग जाएं! अगर वाकई ऐसा हो गया तो क्या सारी मानवता बेरोज़गार नहीं हो जाएगी? बहुत सारे लोग अभी से यह सोच कर आशंकित हैं कि कल को उनका काम मशीनें करने लगेंगी और उनके पास करने को कुछ रह ही नहीं जाएगा!  इसी आशंका के तहत ऑक्सफोर्ड  विश्वविद्यालय के फ्यूचर ऑफ ह्युमेनिटी (मानवता का भविष्य)  संस्थान ने दुनिया के 352 शीर्षस्थ वैज्ञानिकों से जवाब मांग कर उन जवाबों के आधार पर यह अनुमान लगाने का प्रयास किया है कि कितने बरसों में मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले सारे काम मशीनें करने लगेंगी. इस पड़ताल में पाया गया है कि फिलहाल इस बात की पचास प्रतिशत सम्भावना है कि आगामी एक सौ बीस बरसों में मशीनें  मनुष्यों द्वारा किये  जाने वाले सारे काम करने लगेंगी. इस निष्कर्ष से उन सभी को आश्चर्य हुआ है जो यह सोच कर भयभीत थे कि ऐसा निकट भविष्य में ही हो जाएगा!

वैज्ञानिकों का सोच यह है कि मशीनें मेहनत का काम तो आसानी से कर लेती हैं लेकिन जहां विवेक की आवश्यकता होती है वहां वे पिछड़ जाती हैं, हालांकि कृत्रिम बुद्धि (आर्टीफीशियल इण्टेलीजेंस) का प्रयोग बहुत तेज़ी से बढ़ता जा रहा है. अब यही बात देखें कि सन दो हज़ार दस में एक रोबोट एक साधारण तौलिये  को तह करने में उन्नीस मिनिट लगा रहा था वहीं दो बरस बाद ही वह पांच मिनिट में एक जीन्स को और छह मिनिट में एक टी शर्ट को तहाने लगा था. कृत्रिम बुद्धि का प्रयोग करते हुए सन दो हज़ार सत्ताइस तक मानव रहित ट्रक चालन की कल्पना की जा रही है.

हममें से बहुतों ने यह बात नोट की होगी कि जब हम किसी ऑनलाइन  स्टोर  पर कोई चीज़ तलाश करते हैं तो तुरंत हमें उससे मिलती-जुलती चीज़ों के लिए सुझाव मिलने लगते हैं, और यह काम मानव नहीं करता है. इसी कामयाबी से उल्लसित होकर यह कल्पना भी की जाने लगी है कि सन दो हज़ार तरेपन तक आते-आते शल्य चिकित्सक का काम रोबोट करने लगेंगे और उससे भी चार बरस पहले यानि सन उनचास तक मशीनें ही बेस्ट सेलिंग उपन्यास भी लिखने लग जाएंगी! इस काम की शुरुआत तो हो ही चुकी है. गूगल अपने यंत्रों को रोमाण्टिक उपन्यास और समाचार लेख लिखने के लिए प्रशिक्षित कर रहा है. बेंजामिन नामक उनका एक यंत्र छोटी-छोटी साइंस फिक्शन पटकथाएं लिखने भी लगा है.

लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि इस क्षेत्र में जो लोग काम कर रहे हैं वे अपने लक्ष्यों को लेकर बहुत स्पष्ट हैं. उनके मन में यह बात एकदम साफ़ है कि यह तकनीक मनुष्य के लिए पूरक बन कर आएगी, न कि उसका विकल्प बनकर. उनके मन में यह बात भी बहुत साफ़ है कि तकनीक कभी भी मनुष्य को विस्थापित नहीं कर सकती है. और यह सब तब जबकि वे यह भी जानते हैं कि जिस गति से तकनीकी विकास हो रहा है उसे देखते हुए ऐसा कोई काम नहीं बचने वाला है जो मनुष्य करता हो और जिसे मशीन न कर सके. लेकिन ये लोग मज़ाक-मज़ाक में एक गम्भीर बात कह देते हैं. इनका कहना है कि सबकुछ हो चुकने के बाद भी कुछ काम तो मनुष्य के लिए ही बच रहेंगे, जैसे गिरजाघर के पादरी का काम. खुद मनुष्य यह नहीं चाहेगा कि किसी चर्च में उसे हाड़-मांस के पादरी की बजाय रोबोट मिले!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 जुलाई, 2017 को इसी  शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.