Tuesday, August 29, 2017

मर कर भी चैन न पाया तो शहर-ए-खामोशां चले जाएंगे!

मृत्यु कवियों-शायरों का प्रिय विषय रहा है. हरेक ने इसे अपनी तरह से समझने और व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया है. हरेक का अपना लहज़ा और अपना रंग. कुछ ने तो मृत्यु का इतना दिलकश चित्रण किया है कि पढ़ते हुए आपको ज़िन्दगी से मौत बेहतर लगने लगती है, तो कुछ मौत के बाद की परेशानियों का ज़िक्र कर आपको और ज़्यादा डराने से भी बाज़ नहीं आते हैं.  अब हज़रत शेख  इब्राहिम ज़ौक़ साहब को ही लीजिए. फरमाते हैं, “अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे/ मर कर भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे.”  गोया मौत न हुई, गर्मी की छुट्टियों  की यात्रा हो गई, कि अगर शिमला ठण्डा न लगा तो नैनीताल चले जाएंगे! वैसे हक़ीक़त तो यह है कि न मरना अपने बस में है न ज़िन्दा रहना. ख़ुद इन्हीं ज़ौक़ साहब ने यह भी तो कहा था कि “लाई हयात आए कज़ा ले चली चले/ अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले.” मुझे तो मिर्ज़ा ग़ालिब भी बहुत अच्छे लगते हैं, जब वे आश्वस्त करते हुए कहते हैं, “मौत का एक दिन मुअय्यन है/ नींद क्यों रात भर नहीं आती.” मरने के बाद क्या होता है और हम कहां जाते हैं, इसकी भी चिंता बहुत सारे कवियों-शायरों ने की है और बहुत खूबसूरती से की है. हिज़्र नाज़िम अली ख़ान जब कहते हैं कि “ऐ हिज़्र वक़्त टल नहीं सकता है मौत का/ लेकिन ये देखना है कि मिट्टी कहां की है.” तो वे जैसे इसी बात की फ़िक्र करते हैं कि मौत के बाद कहां जाना होगा. उन्हीं की बात का एक दूसरा सिरा हमें मिलता है हिन्दी कवि राजकुमार कुम्भज के यहां जब वे कहते हैं कि “मुझे मेरी मृत्यु से डर कैसा?/मृत्यु तो मेरा एक और नया घर होगा भाई/ आओ अभी थोड़ा आराम करें यहीं इसी घर में/ फिर चलेंगे उधर कुछ देर बाद मिलने उस मिट्टी से.”

क्या पता उन्हें राजकुमार कुम्भज की इन पक्तियों से ही प्रेरणा  मिली हो, इधर  हमारे पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान में एक नया खूबसूरत और वैभव पूर्ण नया ‘घर’ बनाया गया है. हाल ही में पाकिस्तान सरकार ने वहां के सबसे अमीर और ग्यारह मिलियन की आबादी वाले शहर लाहोर के बाशिन्दों के जीवनोत्तर जीवन के लिए शहर से थोड़ा दूर एक आलीशान ठिकाना तैयार किया है जिसे हम अपनी भाषा में आदर्श कब्रस्तान कह सकते हैं. शहर-ए-खामोशां नामक इस कब्रस्तान में जर्मनी से आयातित  फ्रीज़र लगवाए गए हैं और यहां स्थापित किये गए बाईस वीडियो दूर-दराज़ के इलाकों में रह रहे रिश्तेदारों को भी अपने निकट सम्बन्धियों के अंतिम संस्कार में मौज़ूद रहने का अनुभव प्रदान कर सकेंगे. शहर-ए-खामोशां में किसी के अंतिम संस्कार में आए शोकाकुलों की सुविधा का भी पूरा खयाल रखते हुए उनके लिए खूब सारे पंखों का इंतज़ाम किया गया है ताकि उन्हें शोक की घड़ी में भी गर्मी से न जूझना पड़े. कब्रस्तान के भीतर उम्दा फुटपाथों वाली खूब चौड़ी सड़कें हैं और उनके किनारों पर भरपूर और सुकून देने वाली हरियाली है. बुज़ुर्गों के आवागमन के लिए गोल्फ कार्ट्स की व्यवस्था है और कब्र खोदने का कष्टसाध्य काम करने के लिए यांत्रिक संसाधन जुटा दिये गए हैं. पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त  में ऐसे ही तीन कब्रस्तान और बनाए जा रहे हैं और इस परियोजना के निदेशक ने देश के अन्य प्रांतों के अधिकारियों  को भी सलाह दी है कि वे अपने यहां भी ऐसे ही मॉडल कब्रस्तान बनवाएं.

लाहोर के इस आदर्श कब्रस्तान की बात करते हुए यह बात भी याद कर ली जानी चाहिए कि पाकिस्तान के अधिकांश कब्रस्तान  जगह के संकट से जूझ रहे हैं. अब तक तो यह होता रहा है कि जिन कब्रों पर लम्बे अर्से तक कोई गतिविधि नहीं होती थी  उन्हें नवागतों को आबंटित कर दिया जाता था लेकिन इधर जब से कब्र पर कीमती पत्थरों पर उत्कीर्ण महंगे स्मृति लेखों का चलन बढ़ा है, कब्रस्तानों के प्रबन्धकों  का दायित्व निर्वहन कठिन होता जा रहा है. पाकिस्तान के सबसे अधिक आबादी वाले शहर कराची में तो लम्बे समय से अधिकांश सार्वजनिक कब्रस्तानों में दफ़नाने  की मनाही है. फिर भी, अतिरिक्त धन के लालच में वहां के कारिन्दे इस मुमानियत का उल्लंघन  भी कर जाते हैं. बहुत रोचक बात है कि इस तरह के लालची कर्मचारियों   को पकड़ने के लिए वहां की पुलिस ताबूतों में छिपकर उन पर निगाह रखती है.  ऐसे हालात में, समझदार लोगों का इस तरह के वैभवपूर्ण और खूब जगह घेरने वाले वी आई पी कब्रस्तानों को आदर्श मानने पर सवाल उठाना तर्क संगत लगता है. अगर सुमित्रानंदन पंत आज होते तो शायद वे दुबारा लिखते:
हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन! 
संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन
नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन? 


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक  न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 29 अगस्त, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, August 22, 2017

बर्न आउट से मुक्ति के लिए तिब्बती बौद्ध मार्ग की शरण में


आप में  से  बहुतों को उस विज्ञापन की जरूर   याद होगी जिसमें एक थके हारे आदमी को एक बिचारा काम के  बोझ का  मारा कह कर इंगित किया जाता था.  इस  विज्ञापन के नायक की याद मुझे यह पढ़ते हुए आई  कि सन 2011 में अमरीका के मेयो क्लीनिक ने एक सर्वे कर यह जाना कि वहाँ के कम से कम आधे फिजीशियन उस बढ़ते जा रहे मर्ज़ के शिकार हैं जिसे आजकल बर्न आउट नाम से जाना जाता है। भले ही अपने देश  भारत में हममें से  ज़्यादातर  लोगों को अपने डॉक्टरों से अनगिनत शिकायतें हों, इस सर्वे के क्रम में  जाना गया कि वहाँ के ज्यादातर  डॉक्टरों का हाल यह है कि वे कम से कम चौदह घण्टे काम करते हैं और इस बीच एक वक़्त खाना खाने का समय भी मुश्किल से निकाल पाते हैं. कुछ समय तक लगातार इस तरह खटने के बाद उनकी हालत इतनी बिगड़ चुकती है कि वे बहुत गम्भीर  अवसाद  के शिकार हो जाते हैं और करीब-करीब टूट जाते हैं.  तब वे अपने इस पेशे तक को तिलांजलि देने की सोचने लगते हैं. अगर किसी वजह से नहीं दे पाते हैं और अपना यह काम  जारी रखते हैं तो वे इस बर्न आउट के  एक खास प्रकार से पीड़ित होने लगते हैं जिसे कंपैशन फ़ेटिग़  के नाम से जाना जाता है. इस कंपैशन फ़ेटिग़  में व्यक्ति में   भावनात्मक संवेदनशून्यता आने लगती है और अगर वह डॉक्टर है तो मरीजों के प्रति उसके करुणाभाव में  कमी दिखाई देने लगती है. यही नहीं  उसे यह भी एहसास होने लगता है कि चीजों पर से उसका  नियंत्रण  चुकता जा रहा है.

बहुत मुमकिन है कि अपने देश में  भी बहुत सारे डॉक्टरों और अन्य पेशेवरों  का हाल  इनसे भिन्न  न हो. इधर निजी क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवरों पर काम के लगातार बढ़ते जा रहे बोझ  और पेशेगत तनावों  की अकसर   चर्चा होती ही है. अपने देश में  भले ही इस तरह के काम के बारे में हमारी जानकारी सीमित हो, अमरीका में इस दिशा में जो  काम हुआ है उसके बारे  में काफी जानकारियाँ भी सुलभ हैं. अमरीका में इस बर्न आउट का मुकाबला करने के लिए बहुत सारे प्रयास हो रहे हैं. मसलन  वहाँ डॉक्टरों को उनके पेशे के तनावपूर्ण  माहौल का सामना करने में सक्षम बनाने के लिए उन्हें  अनेक सॉफ्ट स्किल्स  सिखाई जा रही हैं. और इस तरह के प्रयासों के सुपरिणाम भी सामने आने लगे हैं.  उदाहरण के लिए वहाँ के एक चिकित्सा संस्थान एमोरी  ने अपने स्टाफ, संकाय सदस्यों और विद्यार्थियों के लिए दस सप्ताह की अवधि का एक निशुल्क प्रशिक्षण कार्यक्रम  चला रखा है जिसका प्रमुख लक्ष्य है संवेदना का संवर्धन. इस कार्यक्रम के लोगों की दिलचस्पी  लगातार बढ़ी है. दिलचस्प बात यह है की इस कार्यक्रम की मूल प्रेरणा तिब्बती बौद्ध मानसिक क्रियाओं से ली गई है और उसके  धार्मिक पक्ष को अलग रखते हुए इसे इस तरह विकसित किया गया है कि इस कार्यक्रम को पूरा  कर  लेने के बाद  संवेदनाओं  के प्रसार का अनुभव  होने लगता है. कार्यक्रम की  शुरुआत  होती है ध्यान विषयक  उन क्रियाओं के अभ्यास से जिनके केंद्र में स्वानुभव और स्वानुभूति होते हैं. इसके बाद क्रमश: अपनी संवेदनाओं  का प्रसार अपने प्रियजन तक कराया जाता है, और फिर उन्हें अनजान लोगों तक ले जाने का अभ्यास   कराया जाता है. इस कार्यक्रम की अंतिम कड़ी वह होती है जहां उन  लोगों के प्रति संवेदनशील होना सिखाया जाता है जिन्हें  आम तौर पर इस काम के लिए कठिन माना जाता है. इसी तरह का एक कार्यक्रम स्टैनफर्ड  मेडिसिन में भी संचालित होता है. उसकी अवधि आठ  सप्ताह की है और वह कार्यक्रम  सशुल्क है. स्वाभाविक ही है कि दूसरे   बहुत सारे संस्थानों में भी ऐसे कार्यक्रम  संचालित किए जा रहे हैं.

ये कार्यक्रम एक तरफ जहां प्रशिक्षुओं  की संवेदनशीलता   में इजाफा करते हैं वहीं दूसरी तरफ ये उनके  बर्न आउट को भी नियंत्रित कर  उन्हें अधिक सामर्थ्य के साथ अपने कर्तव्य निर्वहन  में  सहायता प्रदान करते हैं.  अमरीका में बाकायदा इस  तरह के कार्यक्रमों के प्रभावों का  अध्ययन भी किया गया है और उनसे ज्ञात हुआ है कि ये कार्यक्रम अपने मकसद को पूरा करने में बहुत सफल रहे हैं. जिन्होने इनमें  भाग लिया  उनकी संवेदनशीलता तो बढ़ी हुई पाई ही गई, खुद वे भी कम अवसादग्रस्त और   मानसिक रूप से अधिक स्वस्थ और सजग पाए  गए.

यह बात निर्विवाद  है कि आज सारी दुनिया में मानसिक तनाव और अवसाद बढ़ता जा रहा है. इसके बहुत सारे कारण हैं. ऐसे में यह बात आश्वस्तिकारक लगती है  कि जागरूक समाजों में इन स्थितियों का सामना करने के लिए भी निरंतर कोशिशें हो रही हैं और वे कोशिशें काफी हद तक सफल भी साबित हो रही हैं.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक  न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 अगस्त, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, August 8, 2017

एक छोटे-से देश किर्गिस्तान के राष्ट्रपति की सबसे छोटी बेटी आलिया शागयीवा की सोशल मीडिया पर सार्वजनिक हुई एक तस्वीर से पूरी दुनिया में बहुत सारे लोग परेशान और उत्तेजित  हैं. इस तस्वीर में आलिया ने सिर्फ एक  अण्डरवियर पहन रखी है  और वे अपने बेटे को स्तनपान करा रही हैं. आलिया सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहती हैं और प्राय: अपने काम और परिवार की तस्वीरें पोस्ट करती रहती हैं. लेकिन उनकी इस तस्वीर पर इतनी अधिक प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं आईं कि उनके माता-पिता यानि राष्ट्रपति अल्माज़बेक आत्मबयेव और उनकी पत्नी राइसा तक विचलित हो गए. आलिया ने कहा कि “उन्हें यह पसंद नहीं आया. मैं यह बात समझ सकती हूं क्योंकि उनकी पीढ़ी की तुलना में युवा पीढ़ी कम रूढिवादी है.” खुद आलिया  का पक्ष यह था: “जब मैं अपने बच्चे को स्तनपान कराती हूं तो मुझे लगता है कि यह सबसे अच्छी  चीज़ है जो मैं उसे दे सकती हूं. मेरे लिए अपने बच्चे की ज़रूरतों को पूरा करना ज़्यादा ज़रूरी है ना कि लोगों की बातों पर ध्यान देना.” इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि “मुझे ईश्वर ने जो शरीर दिया है वो अश्लील नहीं है. यह  सुंदर शरीर है जो मेरे बेटे की सभी ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम है, इसे कामुकता की नज़र से नहीं देखा जाना चाहिए.” हालांकि आलिया इस तस्वीर को सोशल मीडिया से हटा चुकी हैं, एक पारम्परिक और रूढिवादी मुस्लिम बहुल देश की इस बोल्ड युवती की तस्वीर ने बहुत सारी बातों को विमर्श के केंद्र में ला दिया है. इस तस्वीर पर हुए विवाद के साथ ही अमरीकी पत्रिका टाइमके आवरण पर छपी उस चर्चित तस्वीर को भी याद कर लिया जाए जिसमें लॉस एंजिलस की रहने वाली 26 वर्षीया लाइन ग्रूमेट नामक एक मां अपने तीन बरस के बेटे को स्तनपान करा रही है, तो इस विमर्श के कुछ अन्य आयाम भी सामने आते हैं.

पहले  बात आलिया की. उनके छोटे-से मुल्क किर्गिस्तान में महिलाएं बेझिझक सार्वजनिक स्थानों पर अपने शिशुओं को स्तनपान कराती देखी जा सकती हैं, लेकिन सामान्यत: ऐसा करते वक़्त वे अपने शरीर को किसी कपड़े से ढक लेती हैं. ब्रिटेन सहित कई अन्य देशों में भी यह सामान्य कृत्य बहस का मुद्दा बनता रहा है. कुछ समय पहले जब वहां के विख्यात क्लारिज होटल के एक रेस्तरां ने शिशु को स्तनपान कराती हुई एक महिला को अपनी देह ढकने को कहा तो वहां खासा विवाद उठ खड़ा हुआ था. इसी सिलसिले में यह बात भी याद की जा सकती है कि अफगानिस्तान की बहुत सारी महिलाओं ने यह कहा है कि वे औरों के सामने अपने शिशुओं को स्तनपान  नहीं करा सकती हैं और एक अफगानी स्त्री ने तो यह भी कहा है कि जब वे अपनी ननद के साथ बाज़ार गईं और उसे अपने शिशु को दूध पिलाना था तो उन्हें विवश होकर एक दुकान में जाकर कुछ खरीददारी करनी पड़ी तब जाकर वो  वहां अपने शिशु को स्तनपान करा सकीं. वहां भी उन्हें एक बड़े-से स्कार्फ़ से खुद को ढकना पड़ा. लेकिन तुर्की की एक महिला ने सोशल मीडिया पर यह भी लिखा है कि वे अपने शिशु को फीड करते वक़्त खुद को ढक लेना पसंद करती हैं. “मैं नहीं चाहती कि मैं जबरन खुद को औरों को दिखाऊं. दुनिया में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो स्तनों को सेक्स की निगाह से देखते हैं.” इसी बात को सैद्धांतिक जामा पहनाते हुए टोरण्टो विश्वविद्यालय की वीमन एण्ड जेंडर एक्सपर्ट विक्टोरिया ताहमासेबी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है: “एक पूंजीपति की नज़र से देखें तो जब तक ब्रेस्ट को कामुक चीज़ बना कर रखा जाएगा, वो फ़ायदे की चीज़ बनी रहेगी. सार्वजनिक स्थानों में महिलाओं का स्तनपान कराना उन्हें कम सेक्सी बनाता है और इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया जाता है.”

मैंने जिस दूसरे  विवाद का ज़िक्र किया उसमें आपत्ति इस बात पर की गई कि किसी स्त्री का तीन बरस की बड़ी उम्र के बच्चे को स्तनपान कराना उचित  नहीं है. खुद उस मां लाइन ग्रूमेट का कहना है कि उनकी मां ने तो उनके छह वर्ष की होने तक उन्हें अपना दूध पिलाया था. ग्रूमेट इस कृत्य को सहज-स्वाभाविक मानती हैं और उन्होंने तो अब इस पर लोगों की आपत्तियों का जवाब तक देना बंद कर दिया है. लेकिन इस तस्वीर और इस पर हुए विवाद ने अमरीका सहित कई देशों में बच्चों के लालन-पालन के तरीकों पर सार्थक बहस भी शुरु कर दी है. आलिया की तस्वीर के संदर्भ में विचारणीय यह बात भी है कि क्या एक स्त्री का अपने शिशु को स्तनपान कराना और ऐसा करते हुए की तस्वीर को किसी सोशल साइट पर साझा करना एक ही बात है? यही सवाल लाइन ग्रूमेट के कृत्य के संदर्भ में भी उठाया जाना चाहिए. लेकिन ज़माना तो आत्म प्रचार का है ना!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक स्तम्भ कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 08 अगस्त, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.