Tuesday, January 29, 2019

अपने वृद्धजन को सम्मानप्रद जीवन सुलभ कराता है जापान !


तमाम विकसित देशों में से जापान की एक अलग पहचान यह भी है कि वहां वृद्धों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. माना जाता है कि अभी वहां पैंसठ पार के लोग कुल आबादी का 26.7 प्रतिशत हैं. वैसे, इस मामले में अन्य अनेक एशियाई देश भी जापान से बहुत पीछे तो नहीं हैं. सिंगापुर में जहां 2015 में वरिष्ठ नागरिक कुल जनसंख्या का मात्र 13.7 प्रतिशत थे, अनुमान किया जा रहा है कि सन 2020 तक वे 17.7 प्रतिशत और 2030 तक 27 प्रतिशत हो जाएंगे.  मलेशिया में वहां की कुल जनसंख्या के लगभग 9.8 प्रतिशत लोग साठ पार के हैं और यह संख्या वहां की आबादी की 9.8 प्रतिशत है. हमारे अपने देश भारत में भी वरिष्ठ  नागरिकों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है. असल में इस सब के पीछे जनसंख्या नियंत्रण और बेहतर जीवन स्थितियों, उन्नत स्वास्थ्य सुविधाओं और सेहत के लिए बढ़ती जा रही जागरूकता का मिला जुला योगदान है. लोगों की औसत उम्र में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है. चीन जैसे देश में लम्बे समय तक एक संतान उत्पन्न करने की नीति का चलन हो  या हमारे अपने भारत में हम दो हमारे दोके नारे पर अमल का असर हो, विभिन्न देशों की जनसंख्या में युवा और वृद्ध का अनुपात बहुत तेज़ी से बदल रहा है. इसीलिए यह भी कहा जाने लगा है कि बहुत सारे एशियाई देशों में तो भविष्य का रंग श्वेत (केशों के संदर्भ में!) होने जा रहा है.

भले ही एशियाई देशों में उम्र का सम्मान होता हो, व्यावहारिक धरातल पर यह बढ़ती उम्र वाली जनसंख्या अनेक समस्याएं भी पैदा करती हैं. उम्र के संतुलन में आए इस बदलाव का असर यह हो रहा है कि काम करने और कमाने वाले युवाओं की तुलना में काम न कर  सकने वाले और अधिक सुविधाओं की ज़रूरत वाले वृद्धों की संख्या बढ़ने से सरकारों की ज़िम्मेदारियां भी बढ़ती जा रही हैं. तीसरी दुनिया के बहुत सारे देश जहां इन समस्याओं का सामना करने के बारे में अभी सोच ही रहे हैं, यह जानना बहुत सुखद है कि जापान अपने वरिष्ठ जन की सुख सुविधाओं का कितना ज़्यादा  और किस सूझ बूझ के साथ खयाल रखता है. असल में खयाल रखने का यह भाव वहां की जीवन शैली में इस तरह से घुला मिला है कि इसे पूरी तरह सरकारी प्रयास भी नहीं कहा जा सकता है. दुनिया के और बहुत सारे देशों की तरह जापान में भी गांवों और छोटे कस्बों से लोग काम धंधे के लिए बड़े शहरों का रुख करते रहे हैं. लेकिन वहां फुरुसालो नामक एक व्यवस्था अभी भी चलन में है जिसकी वजह से अपनी पूरी कामकाजी ज़िंदगी शहरों में बिताने के बाद लोग अपने अपने मूल स्थानों को लौट आते हैं और वहां अपने जाने-पहचाने परिवेश में अपने बचपन और किशोरावस्था के साथियों के साथ बाकी ज़िंदगी सुकून के साथ बिता पाते हैं. इस व्यवस्था के तहत वे अपने-अपने घरों में सुख और स्वतंत्रता के साथ रहते हैं लेकिन उन्हें यह आश्वस्ति भी रहती है कि अगर कोई ज़रूरत  पड़ी तो उनके बचपन के संगी साथी उनकी मदद के लिए दौड़े आएंगे. ये लोग वहां रहकर किसी न किसी काम  में व्यस्त  भी रहते हैं. देखा गया है कि अस्सी बल्कि नब्बे साल की उम्र वाले लोग भी बड़े सहज भाव से खेती बाड़ी का काम करते हैं. वे अपनी दिनचर्या भी अपने दम पर संचालित करते हैं. इस सबके पीछे सोच यह है कि जब तक व्यक्ति सक्रिय रहता है, उसकी ज़िंदगी की गाड़ी चलती रहती है. जैसे ही वह निष्क्रिय होता है, गाड़ी के पुर्ज़ों में जंग लगने लगता है और यमराज के कदमों की आहट सुनाई देने लगती है. इस तरह यह फुरुसालो व्यवस्था अपने वरिष्ठ नागरिकों के लिए सम्मान के साथ सक्रिय और संतोषप्रद जीवन यापन  में मददगार साबित होती है.

इनका जीवन सुगम हो और सहजता से चलता रहे इसके लिए सरकार भी बहुत समझदारी भरा सहयोग देती है. मसलन मोबाइल के इस काल में इन गांवों और कस्बों में पारम्परिक लैण्डलाइन फोन बरकरार रखे गए हैं ताकि ये वृद्धजन  मोबाइल को रोज़-रोज़ चार्ज करने जैसे झंझटों और नई तकनीक से जूझने की उलझनों से बचे रहकर अपने परिवारजन के सम्पर्क में रह सकें. इसी तरह जिन गांवों में पर्याप्त चिकित्सा सुविधा नहीं है वहां भी सरकार निकटवर्ती कस्बों या शहरों से सप्ताह में कम से कम दो दफा डॉक्टर भेज कर इन्हें पर्याप्त चिकित्सा सम्बल सुलभ कराती है. जो  लोग इतने ज़्यादा अशक्त या असमर्थ हो गए हैं कि अपना खना खुद नहीं बना सकते उन्हें तैयार भोजन सुलभ करा दिया जाता है. ऐसे अनेक प्रयास बिना किसी शोरगुल के करके जापान अपने वृद्धजन को सम्मानप्रद जीवन जीने का जो सुख प्रदान कर रहा है, वह शेष दुनिया के लिए भी अनुकरणीय है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक स्तम्भ कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 29 जनवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, January 22, 2019

उसने फ्रांस के राष्ट्रपति से सार्वजनिक क्षमा याचना करवा ली!


जॉसेट ऑडिन की उम्र अब 87 वर्ष है लेकिन उन्हें पचास के दशक की वे तमाम घटनाएं जस की तस याद हैं. एक लम्बी लड़ाई लड़ी है उन्होंने, और अब जब वह लड़ाई एक सार्थक परिणति तक पहुंच गई है तो उन्हें गहरा संतोष है कि उनके प्रयत्न व्यर्थ नहीं गए. क्या और क्यों थी उनकी लड़ाई? पचास के दशक में जॉसेट  अल्जीयर्स विश्वविद्यालय में गणित की पढ़ाई कर रही थीं. एक लेक्चर के दौरान उनकी नज़रें मॉरिस से मिलीं, पहली नज़र में प्यार हुआ और अंतत: उन्होंने शादी कर ली. उनकी खुशियों भरी  ज़िंदगी में तीन नन्हें  फूल खिले और सब कुछ बहुत खुशनुमा था. यह वह समय था जब उनका देश अल्जीरिया फ्रांसिसी शासन से  अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था. जॉसेट और मॉरिस  भी अपनी तरह से इस संघर्ष में योग दे रहे थे. लेकिन इनका योगदान सशस्त्र संघर्ष के रूप में  न होकर वैचारिक और प्रचार के स्तर तक सीमित था. ये दोनों ही कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े थे. 1957 में मॉरिस विश्वविद्यालय में गणित पढ़ा रहा था और जॉसेट घर पर रहकर बच्चों का लालन-पालन कर रही थी. तभी स्थानीय पुलिस को पता चला कि ऑडिन दम्पती  ने अपने घर में एक ऐसे कम्युनिस्ट नेता को शरण दे रखी है जिसकी पुलिस को तलाश है.

एक रात पुलिस ने ऑडिन दम्पती के घर का दरवाज़ा खटखटाया और मॉरिस को, जिनकी उम्र तब मात्र पच्चीस बरस थी, अपने साथ ले गई. उनकी पत्नी ने जब यह पूछा कि मॉरिस को कब तक छोड़ दिया जाएगा, तो उन्हें बताया गया कि अगर सब कुछ ठीक पाया गया तो उन्हें  आधे घण्टे में मुक्त कर दिया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. करीब दो या तीन सप्ताहों के बाद जॉसेट को सूचित किया गया कि उनके पति फरार हो गए हैं. विडम्बना यह कि उन्हें यह सूचना अच्छी ख़बरकहकर दी गई. जॉसेट भी समझ गई थी कि इस ख़बर का असल अर्थ क्या है. बाद में उन्हें एक नज़दीकी दोस्त से, जो कि मॉरिस से अगले दिन गिरफ्तार किया गया था पता चला कि मॉरिस को एक टेबल पर बांधकर भयंकर  यंत्रणा दी गई थी. जॉसेट जानती थी कि उनका मॉरिस अब कभी नहीं लौटेगा, लेकिन वे यह बात आधिकारिक रूप से जानना चाहती थीं. यही उनका संघर्ष था.

जॉसेट के पास न धन बल था, न और कोई ताकत. उनके पास बस थी कलम और लड़ते रहने का जज़्बा. जिस किसी को वे लिख सकती थीं, उसे उन्होंने लिखकर गुहार की. पत्रकारों को, राजनेताओं को सबको उन्होंने लिखा, लिखती रहीं. इसी बीच 1962 में अल्जीरिया को फ्रांसिसी दासता  से मुक्ति भी मिल गई. कुछ बरसों बाद जॉसेट भी अपने बच्चों को लेकर पेरिस चली गईं. लेकिन उन्होंने अपना संघर्ष ज़ारी  रखा. इसी बीच उन्हें टुकड़ों टुकड़ों में यह जानकारी मिली कि किस तरह मॉरिस को यातनाएं दी गईं. एक वरिष्ठ गुप्तचर अधिकारी ने तो यहां तक स्वीकार कर लिया कि उन्होंने ही मॉरिस को मारने का आदेश दिया था. लेकिन जॉसेट तो इस बात की आधिकारिक स्वीकृति की तलबगार थीं. उनकी बेटी मिशेल ने कहा, “मेरी मां किसी से यह नहीं चाह रही थी कि वो क्षमा याचना करे. वे तो बस सच्चाई जानना और इस बात को स्वीकार करवाना चाहती थी कि इस सबके लिए फ्रांसिसी निज़ाम उत्तरदायी था.” जॉसेट का पत्र लिखना ज़ारी रहा. अधिकांश पत्र अनुत्तरित रहे, बहुत कम का उन्हें जवाब मिला. लेकिन आखिरकार उनके प्रयत्नों की जीत हुई. सन 2014 में फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ होलांद ने पहली बार आधिकारिक रूप से इस बात को स्वीकार किया कि मॉरिस की  मृत्यु हिरासत में हुई थी.

लेकिन होलांद के बाद राष्ट्रपति बने इमैनुएल मैक्रों ने तो कमाल ही  कर दिया. मॉरिस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा होगा. जॉसेट उन्हें कोई पत्र लिखती उससे पहले ही उन्होंने खुद पहल करते हुए जॉसेट से सम्पर्क किया और उसे एक पत्र लिखा. बात यहीं ख़त्म नहीं हो गई. कुछ समय बाद बाकायदा एक सरकारी घोषणा पत्र ज़ारी किया गया जिसमें मॉरिस की मृत्यु के लिए फ्रांसिसी सरकार के उत्तरदायित्व को स्वीकार किया गया. उन्होने कहा कि एक ऐसी व्यवस्था बना ली गई थी जिसमें किसी भी संदिग्ध घोषित किये गए व्यक्ति को पकड़ कर उससे पूछताछ करने के नाम पर उसे भयंकर यातनाएं दी जाती थीं. राष्ट्रपति  खुद जॉसेट के घर गए और उन्होंने यह कहते हुए कि मॉरिस को यातनाएं देने के बाद मारा गया अथवा  उन्हें इतनी यातनाएं दी गईं  कि उनकी मृत्य हो गई, जॉसेट व उनके परिवार के लोगों से माफ़ी मांगी.

बेशक जॉसेट ने जीवन में जो खोया वह उन्हें नहीं मिला, लेकिन यह बात भी कम महत्व की नहीं है कि उनका अनवरत संघर्ष अकारथ नहीं गया और एक शक्तिशाली राष्ट्र के मुखिया ने उनसे सार्वजनिक क्षमा याचना की.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 जनवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 15, 2019

जीत की कोई उम्मीद नहीं फिर भी लड़ रही है वो!


बहुत बार ऐसा कुछ जानने को मिलता है कि मन गहरे अवसाद में डूब जाता है. इण्डोनेशिया की चालीस वर्षीया नूरिल मकनून के बारे में जानकर ऐसा ही हुआ. वे तीन बच्चों की मां है और बाली के पूर्व में अवस्थित द्वीप की रहने वाली हैं. सन 2010 में उन्हें एक स्कूल में लेखा सहायक की अस्थायी नौकरी मिली तो जीवन की गाड़ी कुछ आराम से चलने लगी. लेकिन यह आराम बहुत समय नहीं रहा. तीन बरस बाद उनके स्कूल में एक नया प्रिंसिपल आया और उसने उनका सुख चैन सब छीन लिया. प्रिंसिपल साहब जब चाहते नूरिल को अपने चैम्बर में बुला भेजते और उससे खुलकर अपने अंतरंग जीवन  की बातें करने लगते. स्कूल के समय के बाद वे उसे वक़्त बेवक़्त फोन करके भी यही सब करते. और जैसे इतना ही पर्याप्त न हो, एक तरफ तो वे नूरिल से कहते कि वो भी उनके साथ अंतरंगता कायम करे और दूसरी तरफ स्कूल के कर्मचारियों के सामने इस बात की डींग हांकते कि नूरिल से उनका अफेयर चल रहा है. बेचारी नूरिल बहुत भारी मन से उनकी ये फूहड़ और अश्लील हरकतें सहती रहने को विवश थी. इसलिए विवश थी कि उसकी नौकरी अस्थायी थी और वह जानती थी कि शिकायत करने का मतलब होगा अपनी नौकरी से हाथ धो बैठना.

लेकिन परेशानी के इसी दौर में एक दिन उसे न जाने क्या सूझा कि प्रिंसिपल ने जब उसे फोन किया और हमेशा की तरह गंदी बातें करने लगा तो उसने उन बातों को रिकॉर्ड कर लिया. यह रिकॉर्डिंग उसने अपने पति को तो सुनाई ही उसके साथ-साथ अपनी एक सहकर्मी को भी सुनाई, और उसी सहकर्मी ने यह बात स्टाफ के कुछ और लोगों को बता दी. अब हुआ यह कि नूरिल की ग़ैर मौज़ूदगी में उसके स्टाफ के कुछ लोगों ने उसके फोन से इस रिकॉर्डिंग की कॉपी बना ली अपने कुछ साथियों को भी सुना दी. उड़ते उड़ते यह बात प्रिंसिपल तक भी जा पहुंची. उसे तो आग-बबूला होना ही था. प्रिंसिपल ने नूरिल को बुला कर धमकाया और कहा कि जब तक वो उस रिकॉर्डिंग को डिलीट नहीं कर देती, उसके अनुबंध को विस्तार नहीं दिया जाएगा. नूरिल के मना कर देने पर उसे नौकरी से निकाल दिया गया.

असल दुखदायी प्रकरण इसके बाद शुरु हुआ. नूरिल को नौकरी से निकाल देने के बाद प्रिंसिपल ने पुलिस में शिकायत दर्ज़ कराई कि नूरिल ने उसके विरुद्ध मानहानि का आपराधिक काम किया है. पुलिस ने कोई दस-बारह बार नूरिल को तफ़्तीश के लिए बुलाया और अंतत: उसे गिरफ़्तार  कर लिया. अभियोग पक्ष ने उस पर अश्लील सामग्री के वितरण का, न कि मानहानि का,  आरोप लगाया. नूरिल को दो महीने ज़ेल में गुज़ारने पड़े, हालांकि इस बीच उसके स्कूल की सहकर्मियों ने अपने ये बयान भी दर्ज़ कराए कि उस रिकॉर्डिंग  का वितरण नूरिल ने नहीं किया था अपितु उन्होंने ही उसके फोन से उसे लेकर वितरित किया था. नूरिल के वकील ने भी यह तर्क दिया कि नूरिल ने यह रिकॉर्डिंग अपने बचाव के लिए की थी और इसे अपने ही पास रखा था, उसने इसका वितरण भी नहीं किया था. उधर प्रिंसिपल ने अपने बचाव में यह कहा कि फोन पर सुनाई दे रहे वार्तालाप का नूरिल से कोई सम्बंध नहीं है. इस वार्तालाप में वे तो एक अमरीकी पोर्न अभिनेत्री को सम्बोधित कर ये बातें कह रहे हैं. अंतत:  अदालत ने भी पाया कि इस मामले में नूरिल दोषी नहीं है.

लेकिन किस्सा यहां ख़त्म नहीं हुआ. प्रिंसिपल  के वकील इसके बाद इस मामले को इण्डोनेशिया के कानूनी प्रावधानों के तहत सुप्रीम कोर्ट ले गए और वहां बग़ैर नूरिल को अपनी बात कहने का कोई मौका दिये, निचली अदालत के फैसले को उलटते हुए नूरिल को अश्लील सामग्री के वितरण का दोषी करार दे दिया गया.  उसे छह माह के कारावास और पैंतीस हज़ार डॉलर के जुर्माने की सज़ा सुना दी गई.  अगर वो यह राशि जमा न  करा सके तो उसे तीन माह का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा. इस सारे मामले का एक दुखद पहलू यह और है कि प्रिंसिपल को वहां के स्थानीय प्रशासन में और बड़े तथा महत्वपूर्ण पद पर भेज दिया गया.

असल में इण्डोनेशिया के कानून अभी भी बहुत हद तक स्त्री विरोधी हैं. किसी स्त्री के विरुद्ध अश्लील बातें करना अपराध नहीं माना जाता है. औरतों से अपेक्षा की जाती है कि वे न केवल पुरुषों की इस तरह की अभद्रताओं  को सहती रहेंगी,  अपनी नौकरी की खातिर उच्चाधिकारियों को ‘खुश’ भी करेंगी.  स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराधों की पड़ताल के लिए वहां महिला पुलिस की भारी कमी है, और इसके मूल में वहां प्रचलित वर्जिनिटी टेस्ट की शर्मनाक व्यवस्था भी है. इस सबके बावज़ूद नूरिल अपनी लड़ाई ज़ारी रखे है. वह वहां प्रतिरोध की एक प्रतीक बन कर उभरी है, हालांकि इस लड़ाई में उसकी जीत की उम्मीद शायद ही किसी को हो.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 15 जनवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 8, 2019

है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?


हरिवंश राय बच्चनके एक बेहद लोकप्रिय गीत की कुछ पंक्तियां हैं: जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से/ पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है/ है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।  ये पंक्तियां मुझे याद आईं एक साहसी महिला शबीना मुस्तफ़ा  की संघर्ष  गाथा को जानते  हुए. इस बात से किसी को कोई अंतर नहीं पड़ना चाहिए कि वे किस देश की नागरिक हैं. उनकी शादी को महज़ अठारह महीने हुए थे और दो माह का बेटा उनकी गोद में था, तभी एक दिन उन्हें यह मनहूस ख़बर मिली कि उनके पति फ्लाइट लेफ़्टिनेण्ट सईद सफी मुस्तफ़ा  लापता हैं! तब वे विश्वविद्यालय में पढ़ रही थीं. ज़िंदगी जैसे थम-सी गईं. बहुत सारे सपने देखे थे शबीना  ने, वे सब तहस-नहस हो गए. बहुत सारे सपने उनके पति ने भी देखे थे. एक सपना वे यह भी देखा करते थे कि ज़िंदगी में कभी आगे चलकर वे समाज के वंचित तबकों के बच्चों के लिए एक स्कूल खोलेंगे. लेकिन जब सपने देखने वाली आंखें ही नहीं रहीं तो सपनों की बात ही क्या  की जाए!

लेकिन सबकुछ के बावज़ूद ज़िंदगी तो चलती ही है. उसे चलाना ही पड़ता है. शबीना ने भी अपनी सारी हिम्मत बटोरी और ज़िंदगी को पटरी पर लाने में जुट गई. अगले दसेक बरस भारी संघर्ष के रहे. लेकिन वो जूझती रही. तभी अनायास उसकी ज़िंदगी में एक ऐसा पल आया कि काफी कुछ बदल गया. हुआ यह कि जान-पहचान की एक औरत अपनी बेटी को लेकर उसके पास आई. वो अपनी बेटी को सिलाई की क्लास में दाखिला दिलवाना चाहती थी लेकिन उसे यह कहकर वहां से भगा दिया गया था कि उस लड़की को पढ़ना लिखना नहीं आता है इसलिए उसे वहां भर्ती नहीं किया जा सकता है.  अब मां यह गुज़ारिश कर रही थी कि शबीना उस बच्ची को पढ़ा दिया करे, और अगर मुमकिन हो तो पास-पड़ोस की कुछ और बच्चियों को भी वह पढ़ा दे. पढ़ाने के लिए जो जगह सोची गई वह थी शबीना के घर का खाली पड़ा गैरेज. शबीना ने उस पल को याद करते हुए बाद में बताया, “जैसे ही मैंने उन बच्चियों की चेहरों की तरफ देखा, मैं उन्हें मना करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी.” और इस तरह महज़ चौदह बच्चियों से उस परियोजना की शुरुआत हुई जो आज गैरेज स्कूल के नाम से विख्यात  है. शुरुआती समय अभावों से भरा था. न फर्नीचर था, न ब्लैकबोर्ड, न अभ्यास पुस्तिकाएं और न लेखन सामग्री. लेकिन वो किसी ने कहा है न कि लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया, तो दोस्तों ने मदद की, और काम चल निकला. किसी ने लकड़ी दी,किसी ने पत्थर, किसी ने ब्लैकबोर्ड भेंट  किये तो किसी ने लेखन सामग्री. खुद शबीना सुबह नौकरी पर जाती और दोपहर बाद जब लौटती  तो उसके पास अपने दफ्तर के सहकर्मियों  द्वारा दिये गए ऑफिस के बचे खुचे कागज़ होते, और होतीं छोटी-बड़ी पेंसिलें. वो खुद कागज़ पर लाइनें खींच कर अभ्यास पुस्तिकाएं तैयार करती और बच्चों को पढ़ाती.

आहिस्ता आहिस्ता शबीना को प्रायोजक मिले, उसने स्कूल के लिए बेहतर जगह किराये पर ली और बच्चों को ज़रूरी सामान्य शिक्षा देने के काम को विस्तार देते हुए चिकित्सा सहायता, प्रौढ़ शिक्षा,  पोषण कार्यक्रम, शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम, बचत कार्यक्रम वगैरह भी संचालित करने शुरु किए. लेकिन इन सबको करते हुए शबीना अपने मूल काम को नहीं भूली. उसने अपने यहां आने वाली बच्चियों के आत्म विश्वास को बढ़ाने और उनके नज़रिये को व्यापक बनाने के लिए बहुत सारे कार्यक्रम चलाए. परिणाम यह हुआ कि उस शहर के कुछ सबसे निर्धन बच्चों ने जब अपनी नाट्य प्रस्तुतियां दीं तो शहर के सबसे धनी लोग उनके लिए तालियां बजा रहे थे. जो बच्चे कभी अपने मुहल्ले की परिधि को नहीं लांघ सके थे वे शैक्षिक भ्रमण पर दूसरे शहरों और प्रांतों में जाने लगे थे. अब उनके पास स्कूल यूनिफॉर्म भी थी और साफ़ सुथरी किताबें-कॉपियां  और आकर्षक बस्ते भी.

शबीना जो कर रही थी और कर रही है, उसमें रुकावटें भी कम नहीं आईं. लेकिन हर संकट ने उसका हौंसला और बुलंद किया और वो नई ऊर्जा से अपना काम करती रही. आज उसका गैरेज स्कूल पांच सौ बच्चियों के जीवन में शिक्षा का उजाला फैला रहा है. अब स्कूल के पास तमाम ज़रूरी संसाधन हैं और सबसे बड़ी बात यह कि उस स्कूल से  पढ़कर निकलने वाली बहुत सारी बच्चियां अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाने में कामयाब हुई  हैं. शबीना अब पहले से ज़्यादा सुखी और संतुष्ट हैं. लेकिन बीते दिन अब भी उनकी यादों में जस के तस हैं. भावुक होते हुए वे बताती हैं, “मेरे  पति की मौत के कुछ ही दिनों बाद कुछ बच्चे मेरे पास आए और बोले कि आपके स्वर्गीय पति ने हमें अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए आर्थिक सहायता दी थी.” जो काम उनके पति ने शुरु किया था, उसे आगे बढ़ाने का सुख अब उनके सारे निजी दुखों पर हावी हो चुका है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 08 जनवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 1, 2019

क्या इंसानी जीवन का कोई मूल्य नहीं है?

नाइजीरिया का वो सरकारी अस्पताल हमारे देश के आम सरकारी अस्पतालों जैसा ही है. कहीं टाइल उखड़ा हुआ है तो कहीं प्लास्टर. गद्दे मैले हैं और हर तरफ़ बदइंतज़ामी का आलम है.  मरीज़ों की भीड़ है. तभी जाने कहां से एक चुस्त-दुरुस्त, चालीसेक बरस का अमीर-सा लगने वाला शख़्स अपनी काले रंग  की शानदार मर्सीडीज़ से निकल कर अस्पताल के वार्ड में दाखिल होता है. उसके साथ चल रहे अमले में से एक आदमी उसके हाथ में कुछ कागज़ थमा देता है और उन कागज़ों पर सरसरी  नज़र डालते हुए वो अपने साथियों से कुछ पूछताछ करता है. उस आदमी का नाम है ज़ील अकाराइवाय और उसके साथियों ने उसे जो  कागज़ थमाये हैं उनमें अस्पताल के उन रोगियों का विवरण है जो ठीक हो चुके हैं और घर जा सकते हैं लेकिन क्योंकि वे अस्पताल का बिल चुकाने में असमर्थ हैं, मज़बूरन वहां पड़े हुए हैं. वैसे नाइजीरिया के कुछ अस्पताल अपने रोगियों को यह सुविधा भी प्रदान करते हैं कि वे अपने बिल का भुगतान किश्तों में कर दें, लेकिन बहुत सारे रोगियों के लिए ऐसा भी करना सम्भव नहीं होता है. ज़ील अकाराइवाय  ऐसे ही एक मरीज़ के पास जाता है, उससे उसके रोग के बारे में पूछता है और  फिर यह जानना चाहता है कि वो अपने अस्पताल के बिल का भुगतान कैसे  करेगा? रोगी हताशा भरी आवाज़ में बस यह कह पाता है:  “मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा हूं!” ज़ील उसे कुछ नहीं कहता है, लेकिन आगे बढ़ते  हुए अपने साथियों में से एक को कुछ इशारा करता है, जिसका आशय यह है कि उसके बिल का भुगतान कर दिया जाए. और इस तरह वह पूरे वार्ड का चक्कर लगाता है, कई रोगियों के बिल का भुगतान करने के निर्देश देता है और अस्पताल से बाहर निकल जाता है. 

ज़ील ने, जो एक फाइनेंसियल कंसलटेण्ट है अपने साथियों को स्पष्ट निर्देश दे रखे हैं कि किसी भी रोगी को यह पता नहीं चलना चाहिए कि उसके अस्पताल के बिल का भुगतान किसने किया है. वह यह भी नहीं चाहता कि जिन लोगों की उसने मदद की है उनमें से कोई उसके प्रति कृतज्ञ हो. लेकिन हां, वह यह ज़रूर चाहता है कि बाद में कभी कोई इस बात का ज़िक्र ज़रूर करे कि जब वो अस्पताल में भर्ती  था और ज़रूरतमंद था तो कोई आसमानी फरिश्ता आया था और उसने आकर उसके बिल का भुगतान कर दिया था. फरिश्ते वाली बात को ध्यान में रखकर ही ज़ील ने अपने प्रोजेक्ट को नाम दिया है – ‘एंजल प्रोजेक्ट’  यानि फरिश्ता परियोजना. ज़ील ईसाई धर्मावलम्बी है और उसका कहना है कि उसके  धर्म ने ही उसे यह सिखाया है कि हममें से हरेक किसी न किसी की मदद कर सकता है. उसका सोच यह है कि आप जिस आसमानी फरिश्ते का तसव्वुर करते हैं वह तो आपमें ही मौज़ूद होता है. इस एंजल  प्रोजेक्ट के लिए ज़ील के दोस्त और परिवार जन भी उसे आर्थिक सहयोग देते हैं और वह पाई पाई का हिसाब रखता है और उन्हें बताता है कि उनकी दी हुई राशि से उसने किस-किसके कितने बिल का भुगतान किया है. 

ज़ील ने अपने इस प्रोजेक्ट के लिए एक नियम यह बना रखा है कि वह केवल उन रोगियों के बिलों का भुगतान करेगा जो ठीक हो चुके हैं और बिल का भुगतान न कर सकने की वजह से अस्पताल में फंसे हुए हैं. यानि एंजल प्रोजेक्ट रोगियों के इलाज़ के लिए पैसा नहीं देता है. लेकिन बहुत बार ऐसा भी होता है वार्ड का दौरा करते हुए उसे किसी रोगी की करुण कथा कुछ इस तरह मज़बूर कर देती है कि वो खुद अपने बनाये नियम को तोड़कर उसकी मदद करने को विवश  हो उठता है. लेकिन अपनी हर मदद के बाद, चाहे वो ठीक हो चुके रोगी के अस्पताल का बिल चुकाना हो या किसी गम्भीर रोगी के उपचार का खर्चा उठाना हो, ज़ील पहले से ज़्यादा उदास हो जाता है. उदास भी और अपनी सरकार से नाराज़ भी. वो कहता है कि “मात्र यह बात कि मुझ जैसे किसी शख़्स को अस्पताल में बिल का भुगतान न कर पाने की वजह से फंसे पड़े रोगी  की मदद के लिए आगे आना पड़ता है, इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि हमारी व्यवस्था में कितनी नाइंसाफ़ी है. आखिर हम एक मुकम्मिल  स्वास्थ्य बीमा योजना क्यों नहीं लागू कर सकते हैं?” यहीं यह भी जान लेना उपयुक्त होगा  कि नाइजीरिया में मात्र पांच प्रतिशत लोगों को स्वास्थ्य बीमा सुलभ है. कुछ गुस्से और क्षोभ के मिले-जुले स्वरों में ज़ील पूछता है: “हर सप्ताह मैं अनिवार्य स्वास्थ्य बीमा योजना लागू न होने की वजह  से लोगों को कष्ट  पाते और अपनी जान गंवाते देखता हूं. क्या इंसानी जीवन का कोई मूल्य नहीं है?”   
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न  दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 01 जनवरी, 2019 को इसी  शीर्षक से प्रकाशित आलेेेख का मूल पाठ.    

चार्ल्स डिकेंस का किरदार, क्रिसमस और ब्रेक अप!




बड़ा दिन यानि क्रिसमस पश्चिमी दुनिया के सबसे बड़े त्योहारों में से एक है. लेकिन इसे तो विडम्बना ही कहेंगे कि अब इंग्लैण्ड में यही उल्लास पर्व कुछ लोगों और विशेष रूप से युवाओं के लिए अवसाद के अवसर  के रूप में उभर रहा है. हाल में वहां की एक डेटिंग साइट ने एक अनौपचारिक सर्वे में  यह पाया  है कि हर  दस में से एक ब्रिटिश अपने साथी से इसलिए ब्रेक अप कर रहा है ताकि वह क्रिसमस पर अपने साथी को उपहार देने के खर्चे से बच सके. बावज़ूद इस बात के कि  यह जानकारी एक डेटिंग साइट ने दी है, इस आशंका को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि डेटिंग साइट का फायदा लोगों के एकल होने में  ही है, लेकिन अन्य अनेक स्रोतों से भी इस बात की पुष्टि होने से लगता है कि इस बात में सच्चाई है.  

रोचक बात यह है कि इस प्रवृत्ति ने अंग्रेज़ी शब्दकोश में एक नया शब्द भी जोड़ दिया है: स्क्रूजिंग. यहीं यह याद दिलाता चलूं कि एबेनेज़र स्क्रूज चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ए क्रिसमस कैरोल’ (1843) के नायक का नाम है और यह एक कंजूस किरदार है. इसी के नाम पर स्क्रूज शब्द अंग्रेज़ी में कंजूसी से सम्बद्ध हो गया और अब यह स्क्रूजिंग शब्द अपने साथी से उन्हें क्रिसमस पर उपहार देने के खर्चे से बचना चाहने के कारण  ब्रेक अप कर लेने की प्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त होने लग गया है. आंकड़ा विशेषज्ञ द्वय  डेविड मैक केण्डलेस और ली ब्रायन ने लगभग दस हज़ार फ़ेसबुक स्टेटसों का अध्ययन कर यह बताया है कि साल के किसी भी अन्य दिन की तुलना में ग्यारह दिसम्बर  को  सबसे ज़्यादा ब्रेक अप होते हैं. इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि क्रिसमस से पहले बहुत सारे जोड़ों में ब्रेक अप हो जाता है. यहीं यह भी जान लेना उपयुक्त होगा कि इंग्लैण्ड में यह त्योहारी मौसम ख़ासा खर्चीला  होता है. खाना पीना नए कपड़े, सजावट, पटाखे, रोशनी और उपहार – इन सबमें जेबें बहुत ढीली हो जाती हैं. अगर बैंक ऑफ  इंग्लैण्ड की बात मानें तो एक औसत ब्रिटिश परिवार दिसम्बर माह में करीब पांच  सौ पाउण्ड अधिक खर्च करता है. ऐसे में यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि प्रेम करने वाले युगल उपहार देने के खर्च को लेकर कितने गहरे दबाव और तनाव में रहते होंगे! और यही वजह है कि एक अध्ययन के अनुसार 18 से 34 के आयु वर्ग वाले लोग इस मौसम में अपने रिश्ते तोड़ने के मामले में औरों से आगे पाए जाते हैं. और हां, यह भी जान लीजिए  कि रिश्ते तोड़ने के मामले में लड़के लड़कियों से कहीं आगे रहते हैं. ऐसा करने वाले ग्यारह प्रतिशत लड़कों का मुक़ाबला सात प्रतिशत लड़कियां ही करती हैं. 

एक लड़के ने बड़ी दिलचस्प बात कही. उसने कहा कि मैंने दिसम्बर के शुरु में अपनी गर्ल फ्रैण्ड को छोड़ दिया और फिर जनवरी में वापस उससे रिश्ता बना लिया. इस तरह मैं उसे क्रिसमस पर उपहार देने से बच गया. हो सकता है यह एक अतिवादी प्रसंग हो, लेकिन तलाक मामलों की विशेषज्ञ वकील शीला मैकिण्टोश स्टेवर्ड का यह कथन भी ग़ौर तलब है कि अब नई तकनीक के आ जाने की वजह से रिश्ते तोड़ना पहले से ज़्यादा सुगम हो गया है. अब यह बात कहने के लिए दोनों पक्षों को आमने-सामने होने की शर्मिन्दगी नहीं झेलनी पड़ती है और वे तकनीक के माध्यम से ही यह काम कर लेते हैं. शीला एक और ख़ास बात कहती हैं. वे कहती हैं कि इसी तकनीक ने  और विशेष रूप से सोशल  मीडिया ने युवाओं के सामने बहुत सारी चुनौतियां, तनाव और आकर्षण भी कड़े कर दिये हैं जिनकी वजह से उनके लिए अपने रिश्तों को बनाये रखना पहले से ज़्यादा कठिन होता जा रहा है. अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहती हैं कि यह क्रिसमस स्क्रूजिंग भी उनमें से बहुतों के लिए अपने रिश्तों को तोड़ने का एक सुविधाजनक बहाना बन गया है. रिश्ते के न चलने की वजह तो कोई और होती है लेकिन नाम  वे इसका ले  लेते हैं.  

ऐसे में कुछ लोग मज़ाक-मज़ाक में यह भी कहने लगे हैं कि अगर आपका रिश्ता महज़ टूटा है, स्क्रूज नहीं हुआ है तो आप किस्मत वाले हैं. कम से कम आपको उपहार तो मिल ही गया है! एक 29 वर्षीया युवती क्लैरिसा ऐसी ही किस्मत वाली है जिसे उसके मित्र ने पहले उपहार दिया और फिर ब्रेक अप किया. यह अलग बात है कि क्लैरिसा ने वो उपहार अपने पास न रखकर अपने मित्र को लौटा दिया, क्योंकि वो उसकी कोई स्मृतियां भी अपने पास नहीं रखना चाहती थी. और यहीं अंत में यह जानकारी भी कि भले ही स्क्रूजिंग के साथ क्रिसमस जुड़ा हुआ है, साल में सबसे कम ब्रेक अप क्रिसमस वाले दिन ही होते हैं.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 25 दिसम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.