Tuesday, January 29, 2019

अपने वृद्धजन को सम्मानप्रद जीवन सुलभ कराता है जापान !


तमाम विकसित देशों में से जापान की एक अलग पहचान यह भी है कि वहां वृद्धों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. माना जाता है कि अभी वहां पैंसठ पार के लोग कुल आबादी का 26.7 प्रतिशत हैं. वैसे, इस मामले में अन्य अनेक एशियाई देश भी जापान से बहुत पीछे तो नहीं हैं. सिंगापुर में जहां 2015 में वरिष्ठ नागरिक कुल जनसंख्या का मात्र 13.7 प्रतिशत थे, अनुमान किया जा रहा है कि सन 2020 तक वे 17.7 प्रतिशत और 2030 तक 27 प्रतिशत हो जाएंगे.  मलेशिया में वहां की कुल जनसंख्या के लगभग 9.8 प्रतिशत लोग साठ पार के हैं और यह संख्या वहां की आबादी की 9.8 प्रतिशत है. हमारे अपने देश भारत में भी वरिष्ठ  नागरिकों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है. असल में इस सब के पीछे जनसंख्या नियंत्रण और बेहतर जीवन स्थितियों, उन्नत स्वास्थ्य सुविधाओं और सेहत के लिए बढ़ती जा रही जागरूकता का मिला जुला योगदान है. लोगों की औसत उम्र में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है. चीन जैसे देश में लम्बे समय तक एक संतान उत्पन्न करने की नीति का चलन हो  या हमारे अपने भारत में हम दो हमारे दोके नारे पर अमल का असर हो, विभिन्न देशों की जनसंख्या में युवा और वृद्ध का अनुपात बहुत तेज़ी से बदल रहा है. इसीलिए यह भी कहा जाने लगा है कि बहुत सारे एशियाई देशों में तो भविष्य का रंग श्वेत (केशों के संदर्भ में!) होने जा रहा है.

भले ही एशियाई देशों में उम्र का सम्मान होता हो, व्यावहारिक धरातल पर यह बढ़ती उम्र वाली जनसंख्या अनेक समस्याएं भी पैदा करती हैं. उम्र के संतुलन में आए इस बदलाव का असर यह हो रहा है कि काम करने और कमाने वाले युवाओं की तुलना में काम न कर  सकने वाले और अधिक सुविधाओं की ज़रूरत वाले वृद्धों की संख्या बढ़ने से सरकारों की ज़िम्मेदारियां भी बढ़ती जा रही हैं. तीसरी दुनिया के बहुत सारे देश जहां इन समस्याओं का सामना करने के बारे में अभी सोच ही रहे हैं, यह जानना बहुत सुखद है कि जापान अपने वरिष्ठ जन की सुख सुविधाओं का कितना ज़्यादा  और किस सूझ बूझ के साथ खयाल रखता है. असल में खयाल रखने का यह भाव वहां की जीवन शैली में इस तरह से घुला मिला है कि इसे पूरी तरह सरकारी प्रयास भी नहीं कहा जा सकता है. दुनिया के और बहुत सारे देशों की तरह जापान में भी गांवों और छोटे कस्बों से लोग काम धंधे के लिए बड़े शहरों का रुख करते रहे हैं. लेकिन वहां फुरुसालो नामक एक व्यवस्था अभी भी चलन में है जिसकी वजह से अपनी पूरी कामकाजी ज़िंदगी शहरों में बिताने के बाद लोग अपने अपने मूल स्थानों को लौट आते हैं और वहां अपने जाने-पहचाने परिवेश में अपने बचपन और किशोरावस्था के साथियों के साथ बाकी ज़िंदगी सुकून के साथ बिता पाते हैं. इस व्यवस्था के तहत वे अपने-अपने घरों में सुख और स्वतंत्रता के साथ रहते हैं लेकिन उन्हें यह आश्वस्ति भी रहती है कि अगर कोई ज़रूरत  पड़ी तो उनके बचपन के संगी साथी उनकी मदद के लिए दौड़े आएंगे. ये लोग वहां रहकर किसी न किसी काम  में व्यस्त  भी रहते हैं. देखा गया है कि अस्सी बल्कि नब्बे साल की उम्र वाले लोग भी बड़े सहज भाव से खेती बाड़ी का काम करते हैं. वे अपनी दिनचर्या भी अपने दम पर संचालित करते हैं. इस सबके पीछे सोच यह है कि जब तक व्यक्ति सक्रिय रहता है, उसकी ज़िंदगी की गाड़ी चलती रहती है. जैसे ही वह निष्क्रिय होता है, गाड़ी के पुर्ज़ों में जंग लगने लगता है और यमराज के कदमों की आहट सुनाई देने लगती है. इस तरह यह फुरुसालो व्यवस्था अपने वरिष्ठ नागरिकों के लिए सम्मान के साथ सक्रिय और संतोषप्रद जीवन यापन  में मददगार साबित होती है.

इनका जीवन सुगम हो और सहजता से चलता रहे इसके लिए सरकार भी बहुत समझदारी भरा सहयोग देती है. मसलन मोबाइल के इस काल में इन गांवों और कस्बों में पारम्परिक लैण्डलाइन फोन बरकरार रखे गए हैं ताकि ये वृद्धजन  मोबाइल को रोज़-रोज़ चार्ज करने जैसे झंझटों और नई तकनीक से जूझने की उलझनों से बचे रहकर अपने परिवारजन के सम्पर्क में रह सकें. इसी तरह जिन गांवों में पर्याप्त चिकित्सा सुविधा नहीं है वहां भी सरकार निकटवर्ती कस्बों या शहरों से सप्ताह में कम से कम दो दफा डॉक्टर भेज कर इन्हें पर्याप्त चिकित्सा सम्बल सुलभ कराती है. जो  लोग इतने ज़्यादा अशक्त या असमर्थ हो गए हैं कि अपना खना खुद नहीं बना सकते उन्हें तैयार भोजन सुलभ करा दिया जाता है. ऐसे अनेक प्रयास बिना किसी शोरगुल के करके जापान अपने वृद्धजन को सम्मानप्रद जीवन जीने का जो सुख प्रदान कर रहा है, वह शेष दुनिया के लिए भी अनुकरणीय है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक स्तम्भ कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 29 जनवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


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