Tuesday, October 25, 2016

कलाकृतियों को नए आलोक में देखना सीखें

संयुक्त राज्य अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य के सान लियाण्ड्रो  कस्बे में हाल ही में एक नए तकनीकी ऑफिस कॉम्प्लेक्स में निजी ज़मीन पर स्थापित की गई एक कलाकृति को लेकर घनघोर बहस हो रही है. तेरह हज़ार पाउण्ड वज़न वाली और पचपन फुट ऊंची यह कृति एक निर्वसन  नृत्यांगना  की है. स्टील की जाली से निर्मित  इस कृति में, जो कि आकार में माइकेलएन्जिलो की विख्यात कृति डेविड से तीन गुनी है, एक स्त्री नृत्य की लालित्यपूर्ण मुद्रा में खड़ी है और उसके हाथ ऊपर की तरफ उठे हुए हैं. जिस प्लेटफॉर्म पर यह  मूर्ति स्थापित है उस पर विश्व की दस भषाओं में एक सन्देश अंकित है जिसका भाव कुछ इस तरह है कि “जिस  दुनिया में स्त्रियां सुरक्षित होंगी वो दुनिया कैसी होगी!” इस मूर्ति का शीर्षक है: ट्रुथ इज़ ब्यूटी!

इस कृति का निर्माण सन 2013 में नेवाडा के रेगिस्तान में आयोजित वार्षिक प्रतिसंस्कृति समारोह बर्निंग मैन के दौरान हुआ था. जब सान लियाण्ड्रो में सार्वजनिक स्थलों पर कलाकृतियां लगाने का फैसला किया गया तो यहां के प्रशासनिक अधिकारियों  को उस परियोजना  के लिए यह मूर्ति बहुत उपयुक्त लगी और उन्होंने इसे खरीद लिया. सान लियाण्ड्रो के मेयर अपनी इस उपलब्धि पर इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने कहा कि वे इसे पाकर गर्वित हैं. उन्होंने यह तो स्वीकार किया कि प्रारम्भ में नगर प्रशासन के कुछ अधिकारी इस मूर्ति को लेकर उल्लसित नहीं थे, लेकिन फिर उन्हें भी यह बात जंच गई कि इस मूर्ति के माध्यम से कला को लेकर एक संवाद की शुरुआत मुमकिन है.

और संवाद ही तो शुरु हुआ है इस मूर्ति को लेकर. संवाद भी और विवाद भी. कस्बे की एक सत्तावन वर्षीया नागरिक टॉनेट ने एक दिन अपने काम पर जाते वक़्त इस मूर्ति को देखा और सवाल किया कि अगर यह एक बैलेरिना है तो इसने कपड़े क्यों नहीं पहन रखे हैं? टॉनेट का कहना था कि अगर आपके भी बच्चे हों तो आप नहीं चाहेंगे कि वे ऐसी मूर्तियां देखें. और जैसे उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाते हुए वहां की एक और नागरिक कीथ पहले तो बहुत ध्यान से इस मूर्ति को देखती हैं और फिर मासूमियत से पूछती हैं, “यह इतनी विशाल क्यों है? और इसने कपड़े क्यों नहीं पहने हैं?” दुर्भाग्य की बात यह कि जो बहस कला को लेकर होनी चाहिए वह उसकी बजाय कृति के वस्त्रों (के अभाव) पर जाकर अटक गई है. और यहीं यह बात भी याद कर लेना ज़रूरी लगता है कि इस मूर्ति के शिल्पकार मार्को कोचराने ने बताया था कि बचपन में ही उनके मन पर एक पड़ोसी बालिका के साथ हुई बलात्कार की नृशंस घटना की अमिट छाप अंकित हो गई थी और बड़े होकर अपनी कला के माध्यम से वे स्त्रियों पर होने वाले यौनिक आक्रमणों और उनकी आशंकाओं को व्यक्त करते हुए यह बात कहना चाहते रहे हैं कि जब स्त्रियां भयभीत नहीं होती हैं तब वे किस तरह की सशक्तता का अनुभव करती हैं. अगर हम इस मूर्तिकार की व्याख्या के आलोक में इस शिल्प को देखें तो हमारी प्रतिक्रिया निश्चय ही अलहदा और सकारात्मक होगी. उन्होंने कहा है कि इस शिल्प में वह स्त्री खुद को सुरक्षित अनुभव कर रही है और खुद के प्यार में डूबी हुई है. मैं सोचता हूं कि देखने वाले भी इसके इस प्यार को महसूस  कर सकते हैं. मार्को ने यह भी कहा है है कि यह स्त्री बहुत खूबसूरत है, और इस शिल्प का एक मकसद यह भी है कि यह पुरुषों को अपनी तरफ खींचे. जब वे खिंच कर इसकी तरफ आएं और इसे देखें, तो उनका ध्यान इसके नीचे अंकित संदेश पर भी जाए. मैं चाहता हूं कि बार-बार ऐसा हो.

और तमाम विवाद के बावज़ूद ऐसा हो भी रहा है. जैसे-जैसे इस शिल्प पर सहमति-असहमति की चर्चा ज़ोर पकड़ रही है, इसके प्रति लोगों का आकर्षण भी बढ़ता जा रहा है. यह शिल्प वहां का लोकप्रिय सेल्फी स्थल बन गया है. हाई स्कूल की  एक शिक्षिका जो सटन इससे इतनी प्रभावित हुई है कि वह तो अपनी पूरी क्लास को इसके अवलोकन के लिए ला रही है. तिहत्तर वर्षीय एक व्यापारी माइकल फनल ने इसकी  बहुत सारी तस्वीरें ली हैं ताकि वे विदेश में रह रहे अपने बेटे को भेज सकें. फनल ने बहुत सही कहा है कि यह एक विश्व स्तरीय मूर्ति है. फनल ने इस मूर्ति की विलक्षण व्याख्या की है. उनका कहना है: “इस मूर्ति की  स्त्री यह जानते हुए भी कि दुनिया उसके खिलाफ है, खुद को ढक नहीं रही है.  यह औरत पूरे दम-खम से कह रही है कि मैं हूं और ऐसी ही रहूंगी!”

क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम भी कलाकृतियों को नए आलोक में देखना सीखें!  

▪▪▪ 
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 25 अक्टोबर, 201 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, October 18, 2016

एक सार्थक पहल ताकि ज़िन्दगी में बना रहे मक़सद

कोई बहुत गम्भीर नाटक चल रहा है. मुख्य अभिनेता पूरे मनोयोग से अपनी लम्बा भावपूर्ण संवाद अदा कर रहा है, तभी हॉल  में किसी दर्शक का मोबाइल घनघनाता है. अन्य दर्शकों के आनंद में तो ख़लल  पड़ता ही है,  वह अभिनेता भी विचलित हो जाता है. अपने बिखरे सूत्रों को सहेजने में उसे कुछ क्षण लगते हैं. जाने-माने गायक-अभिनेता शेखर सेन की लगभग हर  प्रस्तुति में ऐसा हुआ है. वे लगभग दो घण्टे की  एक पात्रीय प्रस्तुति  देते हैं और कभी तुलसी, कभी सूर, कभी कबीर और कभी स्वामी विवेकानंद का पूरा जीवन सजीव कर देते हैं. हालांकि  वे अपने कार्यक्रम की प्रस्तुति से पहले भी दर्शकों से अपने मोबाइल स्विच ऑफ करने का अनुरोध कर देते हैं, लेकिन दर्शक तो अपनी मर्ज़ी के मालिक ठहरे. वे भला ऐसे अनुरोधों को क्यों सुनें! किसी भी संवेदनशील कलाकार के लिए  यह मंज़र बहुत कष्टप्रद होता है कि वह अपनी प्रस्तुति दे रहा है और सामने बैठा  या बैठे दर्शक उस प्रस्तुति को मनोयोग से देखने की बजाय या तो उसे अपने कैमरे में कैद करने में लगे हैं या कोई संदेश टेक्स्ट कर रहे हैं या फेसबुक/व्हाट्सएप में घुसे हुए हैं. यानि वे वहां होकर भी वहां नहीं हैं. 

लेकिन कलाकारों का यह त्रास अब बहुत जल्दी अतीत हो जाने वाला है. अमरीका के ऑरेगॉन राज्य के पोर्टलेण्ड  शहर में जन्मे उनत्तीस वर्षीय डुगोनी ने एक ऐसा उपकरण बना डाला है जो कलाकारों के लिए बहुत बड़ी  राहत का कारण बनने जा रहा है. डुगोनी द्वारा निर्मित यह उपकरण असल में एक मोबाइल रखने का एक पाउच है. जैसे ही आप किसी कंसर्ट-नाटक  आदि में जाते हैं प्रवेश द्वार पर आपसे आपका मोबाइल लेकर इस पाउच में रख दिया जाता है और पाउच को सील करके आपको सौंप दिया जाता है. पाउच इस तरह से बनाया गया है कि अगर आपका कोई कॉल आता है तो अपको पता चल जाता है और अगर आप चाहें तो सभा कक्षा से बाहर जाकर, पाउच खुलवा कर उसे सुन सकते हैं. जब सभा  समाप्त होती है तो दरवाज़े पर उपस्थित कर्मचारी पाउच में से आपका फोन निकाल कर आपको सौंप देते हैं. इस सुविधा का नाम है यॉण्डर. और यह तेज़ी से लोकप्रिय होती जा रही है. डुगोनी इस सेवा के लिए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दो डॉलर शुल्क लेते हैं. अभी उन्होंने  इस तरह के पाउच बेचना शुरु नहीं किया है, लेकिन निकट भविष्य में वे ऐसा भी कर सकते हैं.

डुगोनी की इस सेवा का उपयोग करने वाले जाने-माने कॉमेडियन डेव चैपल का कहना है कि इस सुविधा के आ जाने के बाद से उन्हें अपनी प्रस्तुतियों में नया ही आनंद मिलने लगा है. लेकिन जहां कलाकार इस सुविधा से प्रसन्न हैं वहीं दर्शक इससे नाखुश भी हैं. उनमें से अनेक का कहना है कि अगर आप अपने प्रोग्राम  को रिकॉर्ड  नहीं करने देते हैं तो फिर मज़ा ही क्या है! इस तरह की प्रतिक्रिया देने वाले दर्शकों में ऐसे भी अनेक उत्साही दर्शक हैं जिनका दावा है कि पिछले बीस बरसों में वे  जितने भी कंसर्ट्स  में गए हैं, उन सबको उन्होंने रिकॉर्ड भी किया है. ज़ाहिर है कि लोग कंसर्ट्स को रिकॉर्ड कर अपने सोशल मीडिया के पन्नों पर पोस्ट भी करते हैं. इतना ही नहीं, कम प्रसिद्ध बैण्ड्स तो इस बात से  खुश भी होते हैं कि उनके उत्साही दर्शकों की वजह से उन्हें मुफ्त में प्रचार भी मिल रहा है. 

लेकिन इस सुविधा का निर्माण करने के पीछे डुगोनी का सोच यह भी रहा है कि लोगों का इस तरह से अपने मोबाइल फोनों में डूबे रहना उनके सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिकूल असर डाल रहा है. इसके अलावा उन्हें यह  भी लगा कि बहुत सारे लोग अपने मोबाइल फोनों के कैमरों  का इस्तेमाल दूसरों की निजता में अवांछित घुसपैठ करने के लिए भी करते हैं. इए प्रसंग साझा करते हुए वे बताते हैं कि किसी पार्टी में एक युवक धुत्त हो गया, और दो अन्य युवकों ने बिना उसकी जानकारी और अनुमति के उसकी हरकतों को न केवल कैमरे में कैद कर लिया, उस रिकॉर्डिंग को यू ट्यूब पर पोस्ट भी कर दिया. 

लेकिन जहां डुगोनी का यह सोच सकारात्मक है और कलाकार उसकी इस पहल का खुले मन से स्वागत कर रहे हैं, बहुत सारे दर्शक हैं जो इसके खिलाफ़ है. कुछ्के दर्शकों ने तो गेट पर अपना मोबाइल सौंपने की बजाय टिकिट के पैसे तक वापस  लौटाने की मांग कर डाली, और एक महाशय तो इतने क्रुद्ध हुए कि उन्होंने पाउच को ही चबा डाला. लेकिन डुगोनी अभी भी आश्वस्त और आशान्वित हैं. वे अपने इस काम को एक सामाजिक आन्दोलन की तरह देखते हैं और कहते हैं कि इससे लोग डिजिटल युग में कुछ इस तरह जी सकेंगे कि उनकी ज़िन्दगी बेमक़सद न हो जाए! 
▪▪▪
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 18 अक्टोबर, 2016 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 11, 2016

किस्सा पेरिस के एक अनूठे बुक स्टोर का

हाल ही में पेरिस के बांये किनारे पर स्थित किताबों की एक अनूठी दुकान की रोचक दास्तान चार सौ पृष्ठों की एक किताब का विषय बनी है. शेक्सपियर एण्ड कम्पनी नामक यह दुकान छोटी-सी और जीर्ण-शीर्ण है लेकिन इसकी अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि इसी दुकान ने उस समय जब उसे कोई छापने को तैयार नहीं था,  जेम्स जॉयस की अब अमर हो चुकी कृति यूलिसिस को प्रकाशित करने का जोखिम उठाया था. कहा जाता है कि यह दुकान आधुनिक साहित्य के कुछ सबसे प्रखर लेखकों जैसे अर्नेस्ट हेमिंग्वे, एफ स्कॉट फिट्ज़ेरल्ड, जैक कैरुआक और एलेन गिंसबर्ग का अनौपचारिक बैठक कक्ष, और कभी-कभार तो  उनका शयन कक्ष भी रही है.
इस दुकान का अतीत बड़ा दिलचस्प है. इसके मालिक थे अमरीका में जन्मे जॉर्ज  व्हिटमैन जो सन 2011 में 98 साल की उम्र में दिवंगत होने तक इसी दुकान के ऊपर एक छोटे-से कमरे में रहते थे. उनके लिए यह दुकान महज़ एक व्यापारिक स्थल न होकर और भी बहुत कुछ थी. असल में वे इसे बुकस्टोर के आवरण में एक समाजवादी सपना मानते थे जिसके दरवाज़े हरेक के लिए खुले थे. वे इसे एक सजीव कलाकृति मानते थे. उन्होंने कहा था, “मैंने इस बुकस्टोर को ठीक वैसे ही सिरजा है जैसे कोई लेखक उपन्यास लिखता है. मैंने इसके हर कक्ष को उपन्यास के एक अध्याय की तरह रचा है. मैं चाहता हूं कि लोग इसके दरवाज़ों को वैसे ही खोलें जैसे वे वे किसी किताब को खोलते हैं,  उस किताब को जो उन्हें उनकी कल्पनाओं के जादुई लोक में ले जाती है.” 
वैसे व्हिटमैन इस दुकान के मूल संस्थापक नहीं थे. इस दुकान को इसके वर्तमान ठिकाने के नज़दीक ही सिल्विया बीच नामक एक युवती ने शुरु किया था. उसने 1941 तक इसका संचालन किया. इस साल पेरिस पर नाज़ी कब्ज़े के दौरान अन्य हज़ारों लोगों के साथ सिल्विया को भी नज़रबन्द कर दिया गया. पचास के दशक के उत्तरार्ध  में सिल्विया ने अपनी इस दुकान का मालिकाना हक़  जॉर्ज व्हिटमैन को दे दिया. जॉर्ज सिल्विया से इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी इकलौती संतान के नामकरण में भी उन्हें याद रखा. वही सिल्विया बीच व्हिटमैन अब 35 बरस की हैं और अपने साथी डेविड डिलानेट के साथ मिलकर इस दुकान को चलाती हैं. डेविड से उनकी पहली मुलाकात इसी दुकान में हुई थीं. सिल्विया का कहना है, मेरा खयाल है कि डेविड जल्दी ही इस बात को समझ गया कि अगर हमें साथ रहना है तो उसे इस दुकान को भी अपनी ज़िन्दगी में शामिल करना होगा. सिल्विया के पिता जॉर्ज द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पेरिस आए थे और यहीं के होकर रह गए. उनके पास खुद की किताबों का इतना बड़ा संग्रह था कि अंतत: उन्होंने किताबों की एक दुकान ही खोल डाली. अपनी डायरी में पचास के दशक में उन्होंने लिखा है, “मेरी तमन्ना है कि मैं कोई ऐसा ठिकाना बना सकूं जहां  से मैं दुनिया के त्रास और सौन्दर्य को एक साथ निहार सकूं.”  और यही कल्पना  उन्होंने शेक्सपियर एण्ड कम्पनी के रूप में साकार की. यहां लेखक अपनी रचनाओं का पाठ करते, डिनर पार्टियां होती और बाद के बरसों में ये जॉर्ज महाशय आगंतुक विशिष्ट जन के साथ अपने पाजामे में या कि उस बेल बूटेदार ब्लेज़र में, जो शायद ही कभी  ड्राइक्लीन हुआ हो, तस्वीरें भी खिंचवाते.
और आहिस्ता-आहिस्ता जॉर्ज का यह ठिकाना दुनिया भर के घुमंतू लेखकों की शरणगाह बन गया. जॉर्ज ऐसे लेखकों को टम्बलवीड्स कहते थे. यानि वे पौधे जो पतझड़ में हवाओं के साथ इधर-उधर भटकते रहते हैं. जॉर्ज कुछ शर्तों पर इन लेखकों को यहां टिकने की इजाज़त देते थे. मसलन, हर लेखक को हर रोज़ दो घण्टे काम करना होगा, साथ ही उसे हर रोज़ कम से कम एक किताब पढ़नी होगी. इन शर्तों को पूरा करने के वादे पर कोई भी लेखक यहां मुफ्त में ठहर  सकता था, किताबों की अलमारियों के बीच फंसाई  गई खाटों में से किसी  पर सो सकता था और पास के सार्वजनिक नल पर जाकर नहा सकता था. दुकान में एक बोर्ड लगा हुआ है जिस पर अंकित है: “अजनबियों के प्रति असत्कारशील न हों, क्या पता कोई देवदूत ही उनका छद्म वेश धर कर चला आया हो.” . और हां, यह बुक स्टोर अपने यहां ठहरने  वाले लेखकों  पर एक और शर्त लागू करता है.  शर्त यह है कि यहां ठहरने के बदले में उन्हें एक पृष्ठ की आत्मकथा लिख कर देनी  होगी, जिसे वे वहां रखे हुए हल्के नीले रंग के कागज़ पर दुकान के टाइपराइटर पर टाइप करके  दे सकते हैं. कहना अनावश्यक है कि शेक्सपियर एण्ड कम्पनी के पास ऐसे हज़ारों पन्नों का विशाल संग्रह है. वस्तुत: इस संग्रह की बहुत सारी रोचक सामग्री ‘द रैग एण्ड बोन शॉप ऑफ द हार्ट’  शीर्षक वाली इस किताब में शामिल की गई है. 
▪▪▪

जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 11 अक्टोबर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 4, 2016

जापानी पुरुष भी अनुभव करने लगे हैं स्त्रियों की व्यथा!

कुछ समय पहले बॉलीवुड के स्टार सलमान खान के एक कथित बयान को लेकर काफी विवाद हुआ था. खबरें आई थीं कि उस समय कुश्ती पर आधारित उनकी तब एक आने वाली फिल्म के सन्दर्भ में उन्होंने कहा था कि जब वे रिंग से बाहर निकलते थे तो उन्हें रेप की शिकार हुई महिला जैसा महसूस होता था क्योंकि वे सीधे  नहीं चल पाते थे. सलमान खान के इस बयान को कुरुचिपूर्ण, असंवेदनशील और स्त्री विरोधी माना गया था. लेकिन अगर इस बयान से हटकर देखें और सोचें तो पाएंगे कि दूसरों की जगह खुद को रखकर देखने की प्रवृत्ति सामान्य तथा स्वाभाविक है.   हम प्राय: लोगों से यह उम्मीद करते हैं कि वे खुद को उन स्थितियों में रखकर देखें जिनमें औरों को रहना  पड़ता है. ऐसा असुविधाजनक स्थितियों के सन्दर्भ में आम तौर पर होता है. यह सारी बात मुझे याद आई है जापान से आई एक खबर के सन्दर्भ में.
एक प्रतिष्ठित संगठन इण्टरनेशनल सोशल सर्वे प्रोग्राम ने अपनी एक रिपोर्ट में जब यह बात बताई कि जापानी पति घर का कोई काम न करने और बच्चों की देखभाल के दायित्व से दूरी बरतने के मामले में दुनिया भर के पतियों की बिरादरी में अग्रणी हैं, तो खुद जापान के ही कुछ पतियों को अपनी यह ‘ख्याति’ नागवार गुज़री और उन्हें लगा कि इस छवि को  बदलने के लिए कुछ किया जाना चाहिए. इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि जापान के क्युशु और यामागुची क्षेत्र इस लिहाज़ से और भी अधिक गए गुज़रे हैं क्योंकि वहां के पतिगण तो शेष जापानी पतियों से भी गये बीते हैं. आंकड़ों की मदद से यह भी बताया गया कि वहां की बीबीयों को अपने पति देवों की तुलना में सात गुना काम करना पड़ता है. इस रिपोर्ट से लज्जित पतियों ने अब वहां एक अभियान शुरु किया है जिसका नाम है ‘क्युशु/यामागुची जीवन-कार्य संतुलन अभियान’. इस अभियान के माध्यम से इन क्षेत्रों के नागरिकगण को इस बात के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है कि वे अपने कामकाजी जीवन और घरेलू जीवन को एक दूसरे के  ज़्यादा नज़दीक लाएं और अपनी कामकाजी दुनिया को इस लिहाज़ से अधिक लचीली बनाएं कि वह कामगारों के लिए उनके बच्चों के पालन-पोषण के लिए अधिक अनुकूल बन  सके.
इसी अभियान के एक और कदम के रूप में यह प्रयास भी किया जा रहा है कि पुरुष स्वयं यह अनुभव करें कि गर्भवती महिलाओं को किन असुविधाओं से दो-चार होना पड़ता है. और  इस अनुभव-अभियान में आगे आए हैं उस इलाके के तीन वर्तमान गवर्नर्स. सागा, मियाज़ाकी और यामागुची के इन गवर्नर्स ने खुद पहल करके सात दशलव तीन किलो वज़न वाले ऐसे जाकेट पहन लिये हैं जिनसे वे सात माह की गर्भवती स्त्री जैसे दिखने और अनुभव करने लगे हैं. इन जाकेटों को पहन कर वे खुद यह महसूस कर रहे हैं उतने भारी  बोझ और उभार के साथ नौकरी करना, बाज़ार में जाकर खरीददारी करना, कपड़े धोना, बर्तन माँजना वगैरह  सारे काम करना कितना असुविधाजनक और कष्ट साध्य होता है. कहना अनावश्यक है कि अब खुद उन्हें यह महसूस हुआ है कि गर्भावस्था में स्त्रियों को किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. साहित्य में जिसे परकाया प्रवेश कहते हैं, यह वैसा ही कुछ है.
ये गवर्नर्स जाकेट पहन कर अपने रोज़मर्रा के काम निबटा रहे हैं, उनकी एक वीडियो भी बना ली गई और उसके माध्यम से वहां के पुरुषों को यह दिखाया और समझाया जा रहा है कि गर्भावस्था में सीढियां  चढ़ने-उतरने या सिंक में बर्तन रखने-निकालने या किसी सुपरमार्केट की नीचे वाली शेल्फ से कोई चीज़ निकालने जैसे सामान्य काम भी कितने मुश्क़िल  हो जाते हैं.  पूरी देह असह्य पीड़ा से भर उठती है. मोजे पहनने उतारने, या कार में घुसने-निकलने जैसे बेहद ज़रूरी रोज़मर्रा के कामों में जो असुविधा होती है उसे इस वीडियो में बखूबी प्रदर्शित किया गया है. यामागुची के गवर्नर योशिनोरी ने ठीक ही अनुभव किया है कि हालांकि गवर्नर बनने के बाद उन्हें बहुत सारे नए अनुभव प्राप्त  हुए हैं, एक गर्भवती स्त्री के ये अनुभव उनसे बहुत अलहदा हैं और इन अनुभवों का उन पर बहुत गहरा असर पड़ा है.
बहुत सुखद बात यह है कि इस ‘क्युशु/यामागुची जीवन-कार्य संतुलन अभियान’ को वहां के लोगों ने खुले मन से अपनाया है और जिन पुरुषों ने इस अभियान से जुड़कर गर्भवती स्त्रियों की अनुभूति को जिया उनमें से 96.7 प्रतिशत ने यह स्वीकार किया है कि पुरुषों को भी घर के काम-काज और बच्चों की परवरिश में भागीदारी निबाहनी चाहिए. बेशक, सिर्फ भारी जाकेट पहन लेना वो सारे अनुभव प्रदान नहीं कर सकता जो एक गर्भवती स्त्री को वास्तविक जीवन में होते हैं, लेकिन इससे एक शुरुआत तो हुई ही है. स्त्री-पुरुष में एक दूसरे की सुविधाओं-असुविधाओं को लेकर समझ का विस्तार हो, इससे बेहतर और क्या बात हो सकती है!       

▪▪▪ 
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर  कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 अक्टोबर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.