Wednesday, July 22, 2020

प्राचार्य कैसे-कैसे!


सिरोही में मैंने कॉलेज में एक गतिविधि में बहुत ज़्यादा रुचि ली और वह गतिविधि थी फिल्म प्रदर्शन. कॉलेज के पास एक 16 मि. मि. फिल्म प्रोजेक्टर था. महेश कुमार भार्गव जैसे उत्साही और नवाचारी प्राचार्य का सम्बल मिला तो मैंने कॉलेज में खूब ही फिल्में दिखाईं. कुछ लोकप्रिय किस्म की हिंदी फिल्में, कुछ विषयों से जुड़ी शैक्षिक फ़िल्में और कुछ नई लहर की फिल्में, जैसे एम एस सथ्यु की गरम हवा’. इस गतिविधि में हालांकि मुझे वक़्त खूब देना पड़ा, मज़ा भी बहुत आया.
इस चर्चा को और आगे बढ़ाऊं उससे पहले प्राचार्य महेश कुमार भार्गव की संवेदनशीलता का एक प्रसंग काबिले-ज़िक्र लग रहा है. फ़िल्म प्रदर्शन के लिए हम कॉलेज के रसायन विज्ञान विभाग के प्रयोगशाला सहायक क़मरुद्दीन की सेवाएं लेते थे. क़मरुद्दीन अल्प वेतन भोगी कर्मचारी था और नौकरी के बाद के समय में रजाई गद्दे सिल कर कुछ अतिरिक्त कमाई कर लिया करता था. जब फ़िल्म शो ज़्यादा ही होने लगे तो एक दिन क़मरुद्दीन ने मुझसे कहा कि इस वजह से वह शाम को अतिरिक्त आय के लिए जो काम करता है उसे करना कठिन होता जा रहा है. मुझे भी उसकी यह व्यथा उचित लगी. मैंने भार्गव साहब से इस बात की चर्चा की. अब अगर उनकी बजाय कोई और प्राचार्य होता तो वह रौब से कहता कि सरकारी आदेश है इसलिए काम तो करना ही पड़ेगा. लेकिन भार्गव साहब अलग ही मिट्टी के बने थे. उन्होंने फौरन उस अल्प वेतनभोगी कर्मचारी की तक़लीफ़ को समझा और मुझे एक रास्ता बता कर उसकी मुश्क़िल को हल किया. रास्ता यह था कि जिस दिन फिल्म शो होता, मैं प्राचार्य जी को एक आवेदन लिखता कि आज शाम आयोज्य फिल्म शो में काम करने वाले कर्मचारियों के जलपान के लिए बीस रुपये तक व्यय करने की अनुमति प्रदान करें. प्राचार्य जी उस पर अनुमति प्रदान कर देते. मैं वह अनुमति पत्र क़मरुद्दीन को दे देता. वह उसके साथ चाय का बिल लगाकर कैशियर से भुगतान ले लेता. यह व्यवस्था जब तक भार्गव साहब प्राचार्य थे, चलती रही.
भार्गव साहब को एक और प्रसंग के कारण मैं कभी नहीं भूल सकता. कॉलेज में प्रदर्शन के लिए एम एस सथ्यु की बहु प्रशंसित फ़िल्म गरम हवाआई थी. स्टाफ के लिए और आम जन के लिए उसके प्रदर्शन हो चुके थे. उन दिनों हम कोई लोकप्रिय हिंदी फिल्म कॉलेज के लॉन पर दिखाते तो जैसे पूरा शहर ही उसे देखने उमड़ पड़ता. तभी सुमेरपुर से स्वयं प्रकाश मेरे यहां आए. जब उनसे इस फ़िल्म का ज़िक्र हुआ तो वे भी इसे देखने को लालायित हो उठे. मैंने बहुत संकोच से अपने प्राचार्य भार्गव साहब से यह कहते हुए कि प्रोजेक्टर खुद मैं ही चला लूंगा, स्टाफ रूम में स्वयं प्रकाश के लिए इस फ़िल्म का विशेष शो करने की अनुमति मांगी. भार्गव साहब एक दम गुस्से में आ गए. बोले, “आप प्रोजेक्टर क्यों चलाएंगे? क्या मुझे नज़र नहीं आता है कि आप अपना कितना समय इस गतिविधि को देते हैं? आप स्वयं प्रकाश जी को यह फ़िल्म ज़रूर दिखाइये. इसके लिए क़मरुद्दीन को बुला लीजिए.मेरी खुशनसीबी है कि मुझे इस तरह के समझदार, संवेदनशील और कद्रदां प्राचार्य मिले. उनसे मैंने बहुत सीखा, जो बाद में मेरे काम भी आया.
इस गतिविधि में मुझे तत्कालीन उपाचार्य डी.सी.कृष्णानी का जो सहयोग मिला, उसकी चर्चा अलग से करने की ज़रूरत है. तब मैंने ब्रिटिश काउंसिल से शेक्सपियर के बहुत सारे नाटकों के मंचीय प्रदर्शन की फिल्में एक-एक करके मंगवाई. अब होता यह कि जिस दिन ऐसी किसी फिल्म का प्रदर्शन होता उसके कई दिन पहले से हम तैयारी शुरु कर देते. हम लाइब्रेरी में उस नाटक की जितनी भी प्रतियां होतीं वे और अगर उस नाटक का हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध होता तो उसकी प्रतियां लाइब्रेरी के काउण्टर पर रखवा देते और विद्यार्थियों को यह सूचना दे देते ताकि रुचि हो तो वे फिल्म देखने से पहले उसे पढ़ भी लें. फिर कृष्णानी साहब हर क्लास में जाकर उस फिल्म के प्रदर्शन की भूमिका तैयार करते. वे शेक्सपियर के महत्त्व और उस नाटक की विषय वस्तु का परिचय देते. इसके बाद जिस दिन फिल्म का प्रदर्शन होता, खुद कृष्णानी साहब माइक हाथ में लेकर खड़े होते और जैसे जैसे फिल्म चलती, वे उसके संवादों को म्यूट करके हिंदी में संक्षिप्त जानकारी देकर उस फिल्म को बोधगम्य बनाते. फिल्मों के इस शौक ने मुझे शहर में सिरोही फिल्म सोसाइटी जैसी गतिविधि के संचालन के लिए भी प्रेरित किया. जोधपुर के प्रो (अब दिवंगत) मोहन स्वरूप माहेश्वरी से प्रेरणा व सहयोग लेकर हमने कई बरस सिरोही में यह गतिविधि चलाई और न्यू वेव और समांतर फिल्म आंदोलन की करीब-करीब सारी फिल्में सिरोही की जनता को दिखाई. स्वाभाविक है कि ऐसा करके खुद मेरी कलारुचि तृप्त हुई.
कई बरस यह गतिविधि चली और फिर अचानक एक प्रसंग ऐसा आया कि मेरा मन उससे उचट गया और सिरोही सोसाइटी बंद हो गई. हुआ यह कि एक दिन एक फिल्म का शो शहर में किसी सार्वजनिक नोहरे में आयोजित था. उन्हीं दिनों हमारे कॉलेज में एच. बी. सक्सेना प्राचार्य होकर आए थे. उन्हें किसी ने इस गतिविधि के बारे में बता दिया तो उन्होंने मुझे तलब किया और किंचित नाराज़गी से यह कहा कि मैं यह कर रहा हूं इसकी जानकारी मैंने उन्हें क्यों नहीं दी? ख़ैर, मैंने उन्हें शाम के शो के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने घुमा फिराकर यह इच्छा व्यक्त की कि कोई उन्हें लेने आए, और ऐसा करना मेरे लिए शो की तैयारियों में व्यस्त होने के कारण सम्भव नहीं था. मैंने उन्हें यह कह दिया कि कृपया ठीक समय पर आ जाएं क्योंकि हम अपना शो एकदम ठीक समय पर शुरु कर देते हैं, लेकिन उन्होंने घुमा फिराकर यह जता दिया कि अगर उनके पहुंचने से पहले हमने शो शुरु कर दिया तो ठीक नहीं होगा.उस दिन तो जैसे तैसे वह शो हुआ, लेकिन उसके बाद मुझे लगा कि बेहतर यही होगा कि मैं इस गतिविधि से खुद को अलग कर लूं.
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जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे


मैं सन 1968 से 1974 तक राजकीय महाविद्यालय, चितौड़गढ़ में हिंदी प्राध्यापक रहा. वहीं की एक स्मृति आज साझा कर रहा हूं. 

चित्तौड़ कॉलेज में हमारे साथियों में एक युगल भी था जिसकी चर्चा का संकेत मैंने ऊपर किया था. ये थे विक्रम सिंह और निर्मला कुमारी शक्तावत. विक्रम सिंह जी कदाचित सोशल स्टडीज़ के और निर्मला जी समाज  शास्त्र की व्याख्याता थीं. विक्रम सिंह जी चित्तौड़ के पास के ओछड़ी गांव के ठिकानेदार थे और बहुत बार हम लोगों को अपने फार्म पर ले जाकर दावतें किया करते थे. ऑमलेट का स्वाद मैंने उन्हीं के यहां चखा. एक दौर ऐसा आया जब विक्रम सिंह जी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने ज़ोर मारा और वे विधायक पद के लिए कॉंग्रेस का टिकिट पाने के लिए जी-जान से जुट गए. हुआ कुछ ऐसा कि उन्हें टिकिट नहीं मिला लेकिन महिला कोटे के नाम पर हमारी भाभीजी यानी निर्मला जी को टिकिट मिल गया. निर्मला जी शुद्ध  गृहस्थिन किस्म की महिला थीं और इस तरह का सार्वजनिक जीवन उनके स्वभाव के अनुरूप नहीं था, लेकिन अपने पति की महत्वाकांक्षा के दबाव में वे राजनीति में कूद पड़ीं. उनके शुरुआती दौर में मैंने न केवल उनके लिए बहुत सारे भाषण लिखे, उन्हें भाषण देने के तौर तरीके भी सिखाए. एक समय ऐसा था जब किसी सार्वजनिक सभा में जाने से पहले वे मेरा लिखा भाषण कई कई बार मुझे सुनातीं, और फिर यह चाहतीं कि जब वे वाकई भाषण दें  तो मैं वहां मौज़ूद रहूं और फिर घर आकर उस भाषण का ईमानदार विश्लेषण कर उन्हें आगे के लिए मार्ग दर्शन दूं. उनकी राजनीति के शुरुआती दौर में कई बार मैंने सहर्ष यह दायित्व निर्वहन किया भी. उन्होंने शायद अपना पहला भाषण चित्तौड़ के गांधी चौक में दिया था और उसे सुनकर घर लौटने पर मैंने उन्हें उस मेडन स्पीच की कमियों से अवगत कराया था. वो दौर इंदिरा गांधी की लहर का था और उस लहर में निर्मला जी विधायक चुन भी ली गईं. 


इससे आगे का किस्सा बड़ा रोचक है. उनके विधायक चुन लिये जाने के कुछ ही समय बाद मेरा तबादला चित्तौड़ से सिरोही हो गया. मैं चित्तौड़ में बड़ा सुखी और आश्वस्त था. तबादला मेरे लिए बहुत गहरा आघात था. स्वाभाविक रूप से इस तबादले से बचने के लिए मैं उन्हीं भाभीजी के पास गया. विक्रम सिंह जी और भाभीजी ने मुझे मदद का आश्वासन दिया, और साथ ही यह भी कहा कि अमुक दिन उनके यहां खेत सिंह जी (उस समय के एक प्रतापी मंत्री) खाने पर आने वाले हैं, तो मैं भी ‘सहयोग’ करने आ जाऊं. इसी बीच कॉलेज शिक्षा निदेशक उदयपुर से जयपुर जा रहे थे तो वडैहरा साहब मुझे उनसे मिलवाने (और मेरी सिफारिश करने) स्टेशन पर ले गए. वडैहरा साहब ने जब निदेशक जी से कहा कि स्थानीय विधायक भी इनके पक्ष में हैं,  तो वे बहुत ज़ोर से हंसे. बोले,  “ उनके कहने पर ही तो मैंने यह ट्रांसफर किया है.” तस्वीर साफ़ हो चुकी थी. अगले दिन मैंने कॉलेज से ही भाभीजी को फोन किया. कहा, “आपके अब तक के सहयोग और सद्भाव के लिए कृतज्ञ हूं. अनुरोध है कि आप मेरे ट्रांसफर को कैंसल करवाने के लिए कोई प्रयत्न न करें. मैं यहां से रिलीव हो रहा हूं.” वैसे उस समय तबादलों की एक लम्बी श्रंखला बनी थी और कदाचित सारे ही तबादले इसी तरह राजनीतिक दबाव में हुए थे. मेरी जगह नीम का थाना से हेतु भारद्वाज चित्तौड़ आए थे, और मैं जब सिरोही गया तो वहां से इसी तरह जीवन सिंह को अन्यत्र जाना पड़ा था. बाद में मेरे इस प्रसंग का मज़ा लेते हुए हेतु जी ने बारहा साक़िब लखनवी का यह शे’र गुनगुनाया: बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे/ जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे. 

आहिस्ता-आहिस्ता तस्वीर पर से धुंध भी हटी. हुआ यह था कि चित्तौड़ में मुझे एक बहुत अच्छा परिवार मिला – ब्रज रतन भार्गव और उनकी पत्नी लक्ष्मी भार्गव का. भार्गव साहब एस.बी.बी.जे के मैनेजर थे और तीन छोटे बच्चों की युवा मां लक्ष्मी भाभीजी कुछ नया और सार्थक करने को लालायित गृहिणी. बहुत जल्दी हम लोगों का तालमेल बैठा और हमने बहुत सारे नए और सार्थक काम वहां किये. मसलन, हमने एक मैगज़ीन क्लब शुरु किया जिसमें हम सदस्यों से नियमित मासिक शुल्क (उस समय पांच रुपया) लेते और हम उनके घर पत्रिकाओं का एक बड़ा बस्ता भेजते जिसमें से कोई दो पत्रिकाएं वे दो दिन के लिए ले सकते थे. दूसरे दिन फिर हमारा बंदा जाता और उनसे वे पत्रिकाएं लेकर उन्हें नई पत्रिकाएं दे आता. यह व्यवस्था खासी लोकप्रिय हुई और एक समय इसकी सदस्य संख्या सौ तक जा पहुंची. कई पत्रिकाओं की तो हम पांच-पांच प्रतियां मंगवाने लगे थे. कहना अनावश्यक है कि इस मैगज़ीन क्लब का केंद्रीय कार्यालय मेरा घर था. इसी तरह भार्गव भाभीजी के मन में विचार आया कि चित्तौड़ में कोई अच्छा प्री-स्कूल नहीं है, तो क्यों न हम शुरु कर दें? और इस तरह शुरु हुआ एक स्कूल बाल भारती. कुछ समय हमने इसे इधर उधर चलाया और फिर ज़िला प्रशासन के सहयोग के कारण हम इसे डिस्ट्रिक्ट क्लब के भवन में चलाने  लगे. इस स्कूल के लिए मुझे अपनी बहन इंदु (कोचर) का भी बड़ा सहयोग मिला. बल्कि वह इस स्कूल की सर्वाधिक लोकप्रिय शिक्षिका बनी रहीं. अब इस स्कूल की सफलता और लोकप्रियता के कारण जो थोड़ी बहुत प्रशंसा मेरी भी हुई वह विधायक भाभीजी और उनके पति देव को नागवार गुज़री, और इसी वजह से उन्होंने मेरे स्थानांतरण की सिफारिश कर दी. 

बहुत बरसों बाद एक दिन अचानक जयपुर के सर्किट हाउस में निर्मला भाभीजी (तब तक वे सांसद भी रह चुकी थीं) से मेरा आमना-सामना हो गया. मैं क्योंकि सिरोही में था, चित्तौड़ की हलचलों से पूरी तरह अनभिज्ञ था. यह सोचकर कि शायद निर्मला जी ने मुझे देखा नहीं है, मैंने पूर्ववत आत्मीयता से उन्हें कहा- “भाभीजी, नमस्कार.”  और जैसे एक विस्फोट हुआ. वे फट पड़ी. “कौन भाभीजी? किसकी भाभीजी? मैं आपकी भाभीजी नहीं हूं.” मैं तो हतप्रभ था. भाभीजी कहकर मैंने क्या ग़लती कर दी? तभी वे फूट फूटकर रोने लगीं. जैसे तैसे मैं उन्हें अपने कमरे में ले गया, बिठाया, पानी पिलाया. तब जाकर वे कुछ स्वस्थ हुईं. और तब कहीं जाकर मुझे उनके इस तरह फट पड़ने का रहस्य समझ में आया. असल में वे आहिस्ता-आहिस्ता राजनीति में व्यस्त होती गईं, और इसी बीच उनके पति देव अपनी एक युवा  भानजी के मोह पाश में ऐसे फंसे कि उसे अपनी पत्नी की हैसियत ही दे बैठे. यह बात चित्तौड़ के अखबारों में तो खूब उछली थी लेकिन मैं इससे एकदम अनजान था. भाभीजी का कहना यह था कि जिस व्यक्ति (विक्रम सिंह) के रिश्ते से आप मुझे भाभीजी कह कर सम्बोधित कर रहे हैं, जब उसने ही इस रिश्ते को तोड़ दिया तो मैं आपकी भाभीजी कैसे रही? अब तो ख़ैर  वे दोनों ही तस्वीरों और स्मृतियों में रह गए हैं.  
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