Thursday, August 2, 2012

“संगीत सतत साधना है और यहां सफलता का कोई शॉर्ट कट नहीं है” सुविख्यात वायलिन वादिका डॉ एन. राजम से डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की बातचीत

1930 के दशक में चैन्नई में एक विख्यात सांगीतिक  परिवार में जन्मीं एन. राजम आज देश की शीर्षस्थ वायलिन वादिकाओं में से एक मानी जाती हैं. लेकिन उनकी इस प्रतिष्ठा  के पीछे है साधना और समर्पण की सुदीर्घ महागाथा.  चार वर्ष की अल्प वय में उनके पिता, सुपरिचित एवम सम्मानित वायलिन वादक विद्वान ए. नारायणन ने उन्हें वायलिन बजाना सिखाना शुरू कर दिया था. निष्णात पिता की शिक्षा और कुशाग्र-बुद्धि पुत्री-शिष्या के इस मणिकांचन  संयोग की एक परिणति तो यह हुई कि नौ बरस की होते-होते तो एन. राजम आकाशवाणी पर वायलिन बजाने लग गई और मात्र 13 वर्ष की होने पर उन्हें आकाशवाणी के ही नेशनल प्रोग्राम में श्रीमती एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी के साथ बजाने का अवसर  मिल गया. इसी दौरान उन्हें पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के कुछ रिकॉर्ड्स सुनने का अवसर मिला और वे पण्डित जी के गायन से इतनी अधिक प्रभावित हुईं कि उनकी शिष्या बनने का सपना देखने लगीं. लेकिन यह स्वप्न साकार बहुत बाद में हो सका. पण्डित जी की शिष्या बनीं वे 1954 में और फिर तो 1970 में पण्डित जी के स्वर्गवास तक वे उनकी शिष्या ही बनी रहीं.  पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह शिष्यत्व एन. राजम की संगीत साधना का अत्यधिक महत्वपूर्ण पड़ाव है.  


एन. राजम ने संगीत साधना के साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. दसवीं  तक की पढ़ाई उन्होंने चैन्नई में ही की और उसके बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राइवेट विद्यार्थी के  रूप में इण्टर, बी.ए. तथा एम. ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं. इनके अलावा उन्होंने गन्धर्व महाविद्यालय से बी.म्यूज़. तथा प्रयाग संगीत समिति से एम. म्यूज़. की उपाधियां भी अर्जित कीं. 


अपनी अकादमिक शिक्षा पूरी कर एन. राजम ने 1959 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक पद पर काम करना शुरू किया और उसी विश्वविद्यालय से हिंदुस्तानी और कर्नाटक प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन विषयक शोध-कार्य कर पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की. श्रीमती राजम ने लगभग चार दशकों तक विश्वविद्यालय की सेवा की और  अपने विश्वविद्यालय के संगीत विभाग की अध्यक्षा और संगीत नाट्य संकाय विभाग की अधिष्ठाता के पदों तक पहुंचीं. 


श्रीमती एन राजम के शिष्यों की संख्या तो इतनी है कि उसकी गिनती भी मुमकिन नहीं है, लेकिन उनकी सबसे ज़्यादा विख्यात शिष्या उनकी पुत्री संगीता शंकर ही हैं, हालांकि  उनकी भतीजी कला रामनाथ ने भी खूब नाम कमाया है. इनके अलावा रागिनी और नंदिनी शंकर, प्रणव कुमार, सत्य प्रकाश मोहंती, वी. बालाजी और स्वर्ण खूंटिया आदि का नाम भी सुपरिचित है.  श्रीमती एन राजम के भाई टी. एन कृष्णन खुद बहुत नामी वायलिन वादक हैं. 


श्रीमती एन राजम को अनगिनत पुरस्कारों  और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है और यह सिलसिला अभी भी जारी है. सुर सिंगार संसद ने उन्हें 1967 में ‘सुरमणि’ की उपाधि प्रदान की तो संगीत नाटक अकादमी ने पुरस्कृत किया और काशी हिंदू  विश्वविद्यालय ने मदनमोहन मालवीय पुरस्कार प्रदान किया. भारत सरकार ने 1984 में आपको पद्मश्री से और 2004 में पद्म भूषण से अलंकृत किया. 2004 में ही आपको पुत्ताराजा सम्मान भी प्रदान किया गया. वर्ष 2010 में आपको पुणे की आर्ट एण्ड म्यूज़िक फाउण्डेशन ने पुणे पण्डित अवार्ड से नवाज़ा. 


कई बरस पहले मुझे वाराणसी में एक शाम श्रीमती एन. राजम से  लम्बी बातचीत करने का मौका मिला. इस बातचीत का आलेख मेरे कागज़ों में कहीं दबा रह गया. प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश: 

हम अपनी बातचीत यहीं से प्रारम्भ करें कि आज़ादी के बाद से भारतीय संगीत परिदृश्य में क्या बड़े परिवर्तन आए हैं? 
सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह आया है कि जो संगीत पहले कुछ लोगों तक सीमित था, वह अब सर्व-सुलभ हो गया है. यह बात सीखने और सुनने दोनों पर समान रूप से लागू होती है. विश्वविद्यालयों में भी संगीत की शिक्षा दी जाने लगी है. इस सांस्थानिक शिक्षण की नींव पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने रखी थी.

क्या आप ऐसा मानती हैं कि संस्थाओं में दी गई शिक्षा से कलाकार तैयार हो सकते हैं? 
हां, अगर गुरुकुल परम्परा की अच्छाई संस्थागत शिक्षण में अंगीकार की जाए तो कलाकार भी तैयार हो सकते हैं. गुरुकुल में कई वर्ष तक एक ही राग सिखाया जाता था. अब पाठ्यक्रमों में विस्तार पर ज़्यादा बल होता है. इस पर पुनर्विचार आवश्यक है. फिर, यह मत भूलिये कि संस्थागत शिक्षण मात्र कुछ ही बरस पुराना तो है. लम्बे समय तक तो यह कहकर ही संगीत शिक्षा का विरोध किया जाता रहा है कि तबला वगैरह विश्वविद्यालय में क्यों ला रहे हैं!  संस्थागत शिक्षण को अभी बहुत कम समय हुआ है. अभी उसके मूल्यांकन का उपयुक्त अवसर  नहीं है.

आप दक्षिण भारत से हैं, इसलिए आपसे यह जानना चाहता हूं कि आज कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीत परिदृश्य में क्या बड़े अंतर हैं? 
मुझे तो दोनों जगह एक-सी स्थितियां लगती हैं. कोई आधारभूत अंतर दिखाई नहीं देता. दोनों ही जगह पहले संगीत का मतलब शास्त्रीय संगीत होता था, फिर सिनेमा आया और अब टीवी वगैरह, और इन्होंने क्रमश: संगीत की परिभाषा बदलने में बड़ी भूमिका अदा की.

आपने अभी कहा कि सिनेमा और टीवी ने संगीत को बदलने में बड़ी भूमिका अदा की है. किस तरह हुआ है यह?
पूरी तरह से इनकी बुराई तो मैं नहीं करना चाहती. इनके कारण शास्त्रीय आधार वाले अनेक गीत लोकप्रिय होकर जनता तक पहुंचे ही हैं, लेकिन कुल मिलाकर इनके कारण जनता का ध्यान शास्त्रीय संगीत से हटा भी है.

शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार में सरकार की भूमिका के बारे में आप क्या सोचती हैं? 
सरकार ने सांस्कृतिक छात्रवृत्तियों, सांस्कृतिक केन्द्रों आदि के माध्यम से और कलाकारों को संरक्षण देकर काफी काम किया है, पर हमारा देश इतना बड़ा है कि जो किया गया है वह दिखाई ही नहीं देता है. यानि, और भी काफी कुछ किया जाना ज़रूरी है. भारत महोत्सवों आदि में ज़्यादा ज़ोर लोक कलाओं पर ही रहा है. मैं यह कहना चाहती हूं कि सरकार को चाहिये कि वो संगीत को अनिवार्य विषय बनाए, पहली कक्षा  से ही संगीत की शिक्षा सबको दी जाए. ऐसा करने से लोग कान से तैयार होंगे. तब अपने आप संगीत  का संवर्धन होगा.

आज की युवा पीढ़ी शास्त्रीय संगीत के प्रति कैसा नज़रिया रखती है?
जहां परिवारों में शास्त्रीय संगीत के प्रति कुछ रुझान है वहां तो बच्चे भी उसमें  रुचि लेते हैं, लेकिन जहां ऐसा नहीं है वहां ज़्यादा उम्मीद नहीं रखी जा सकती. हमारे संचार माध्यम शास्त्रीय संगीत की तुलना में फिल्म संगीत को अधिक समय देते हैं, इसका भी युवा पीढ़ी  पर खासा असर पड़ता है. लेकिन इस सबके  बावज़ूद  ‘स्पिक मैके’ जैसी संस्थाओं ने बहुत बड़ा काम किया है. मैं प्रारम्भ से ही इस संस्था के साथ हूं. वैसे भी मेरे मन में विद्यार्थियों के प्रति एक सहज अनुराग का भाव है. मैं पाती हूं कि जहां भी पहले ‘स्पिक मैके’  का कोई आयोजन होता है, उपस्थिति थोड़ी कम होती है, लेकिन धीरे-धीरे वातावरण बनने लगता है.

अपने समकालीन कलाकारों के साथ जुगलबन्दी के आपके अनुभव कैसे रहे हैं? मुझे लगता है कि इस बारे में आप अधिक उत्साही नहीं रही हैं.
हां, आपका खयाल ठीक है. मैंने इस तरफ ज़्यादा रुचि नहीं दिखाई. इसका कारण यह है कि जुगलबन्दी में बहुत जल्दी अहम का टकराव होने लगता है. कलाकार एक दूसरे को नीचा दिखाने के तरीके ढूंढ़ने लगते हैं. किसी को डाउन करना बड़ी बात नहीं है, पर मैं मानती हूं कि इस दृष्टि से स्टेज पर जाना ही नहीं चाहिए. आखिर क्यों किसी से सम्बन्ध खराब किये जाएं? लेकिन ऐसा नहीं है कि हर कलाकार के साथ ऐसा ही होता हो. बिस्मिल्लाह खां साहब के साथ मेरे बहुत अच्छे अनुभव रहे हैं. इसका एक कारण यह भी रहा कि उनकी और मेरी दोनों ही की वादन शैली गायकी अंग की है.

इधर हमारे कलाकारों में प्रयोगशीलता की तरफ़ भी काफी झुकाव दिखाई देता है. कईयों ने पूर्व-पश्चिम मिलन के प्रयास भी किए हैं. क्या आपने भी ऐसा कुछ किया है?
मेरा विश्वास परम्परा की शुद्धता में है. यह कहकर मैं दूसरे कलाकारों की आलोचना नहीं कर रही हूं. हो सकता है कि उनकी प्रयोगशीलता में भी कोई अच्छी बात हो, पर मैं मानती हूं कि दो अलग-अलग संगीत धाराओं या शैलियों को मिलाने की कोशिश का कोई औचित्य नहीं है. यह मेरी अपनी पसन्द की बात है.

भारत में और विशेषत: भारतीय भाषाओं में संगीत-समीक्षा की क्या स्थिति है? 
बड़े शहरों में, ख़ास तौर पर महानगरों में तो कुछ वाकई जानकार लोग इस क्षेत्र में हैं, लेकिन छोटी जगहों में बिना जानकारी के कुछ भी लिख डालने वाले लोग अपने काम के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं. अंग्रेज़ी में मोहन नाडकर्णी, माधव मेनन और हिंदी में मदन लाल व्यास गहरी समझ के साथ लिखते हैं.

क्या आपको भी ऐसा लगता है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में महिलाओं की भागीदारी कुछ कम है? अगर ऐसा है तो इसके कारण क्या हैं? 
ऐसा तो नहीं है कि महिलाएं बहुत कम हैं, लेकिन वे कई कारणों से आगे नहीं आ पाती हैं. उचित वातावरण उन्हें नहीं मिल पाता है और इसलिए वे इतनी ख्याति भी अर्जित नहीं कर पाती हैं.

एक महिला होने की वजह से क्या आप पर भी कोई अतिरिक्त दबाव रहते हैं? 
मुझे तो एकसाथ दोहरी तिहरी ज़िम्मेदारी निबाहनी होती है. दबाव तो रहते ही हैं. फिर, अनेक त्याग करने पड़ते हैं – और यह इस बात के बावज़ूद कि मुझे मेरे ससुराल से पूरा सहयोग मिला है, पति ने हर तरह से प्रोत्साहित किया है. फिर भी, संगीत साधना करते हुए, प्रोग्राम देते हुए, घर परिवार की ज़िम्मेदारी तो पूरी ही निबाहनी होती है. इतना सब करने का लाभ क्या है?

आपने अभी घर-परिवार की बात की. आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाती रही हैं और संगीत जगत की भी एक बहुत बड़ी शख्सियत हैं. क्या इन दो भूमिकाओं में भी कभी कोई टकराव हुआ?  
जी नहीं, हालांकि ऐसा होना असम्भव भी नहीं है. टकराव तो कभी भी, कहीं भी हो सकता है. लेकिन मैंने विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए एक सबड्यूड रोल रखा, लो प्रोफाइल रखा. मैंने यह बात हमेशा ध्यान में रखी कि कलाकर तो मैं सिर्फ स्टेज पर हूं, उसके बाद तो औरों की तरह एक मामूली इंसान ही हूं.   यही कारण है कि मेरी दो या तीन भूमिकाओं में कभी कोई टकराव नहीं हुआ.  घर पर गृहिणी, विश्वविद्यालय में अध्यापिका या अधिष्ठाता, मंच पर कलाकार – मेरे मन में ये विभाजन सदैव स्पष्ट रहे.

आपने तो लगभग पूरे हिन्दुस्तान में बजाया है. कहां बजाकर आपको सबसे ज़्यादा सुख मिला? 
मुंबई और पूना में  बजाना मुझे हमेशा अच्छा  लगा है. देखिये, बात यह है कि रसिक श्रोता तो सब जगह होते हैं, असली बात होती है आयोजकीय कुशलता. जहां संगठन अच्छा होता है वहां प्रोग्राम भी अच्छा होता है. छोटे शहरों में भी कई बार बड़े समझदार श्रोता मिल जाते हैं. राजस्थान में कोटा में मुझे ऐसा ही सुखद अनुभव हुआ है.

कोई बेहद सुखद अनुभव भी तो होगा आपकी स्मृति मंजूषा में! 
हां है ना. पूना में पण्डित भीमसेन जोशी जी सवाई गन्धर्व समारोह किया करते थे. एक बार  मैं उसमें बजा रही थी. बजाते-बजाते बीच में ही अचानक लाइट चली गई. क्योंकि वहां आम तौर पर बिजली जाती नहीं थी इसलिए आयोजकों ने कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं कर रखी थी. एकदम घुप्प अन्धेरा हो गया. मैंने भी बजाना बन्द कर दिया. उस वक़्त विलम्बित खयाल बजा रही थी. आलाप पूरा किया ही था, बोल तान  बजाने थे.  थोड़ी देर बाद जब लाइट आई तो मैं दूसरी चीज़ बजाने लगी. लेकिन यह क्या! ऑडियंस चिल्लने लगी कि जहां आपने छोड़ा था वहीं से शुरू कीजिए. बीस-पच्चीस हज़ार श्रोता थी, ज़रा भी अव्यवस्था नहीं हुई, कोई शोर-शराबा नहीं हुआ. उस वक़्त मुझे जो सुख मिला उसे शब्दों में बयान नहीं कर सकती.
इसी तरह, एक बार यहीं की, यानि बी एच यू की बात है, कोई समारोह था. लड़के लोग हूटिंग पर उतारू थे और मुझे बजाना था. गुरुजी –पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर जी-  सामने बैठे थे. मुझे तो बहुत डर लग रहा था. बजाना ही नहीं चाह रही थी. चाह क्या रही थी, हिम्मत ही नहीं हो रही थी. गुरुजी ने कहा,  “मेरी शिष्या हो, जाओ, बजाओ!” अब उनके आदेश को तो भला कैसे टालती? मैंने बजाया, और उस पर जो वंस मोर की आवाज़ें उभरी कि कुछ पूछिये मत. गुरुजी मुझे अकसर संगत के लिए ले जाया करते थे. वे लोगों से कहते थे, मुझे अगर हू-ब-हू सुनना है तो इस लड़की को सुनो. उनकी तो बहुत  सारी यादें मन में संजो रखी हैं मैंने.

कुछ लोगों को लगता है कि आपकी वायलिन वादन की शैली अपने समकालीन सारे कलाकारों से अलहदा है. क्या आप भी ऐसा मानती हैं? 
बात यह है कि भारत के ज़्यादातर वादक गतकारी शैली में बजाते हैं. उनसे अलग, मैं गायकी शैली में बजाती हूं. जैसे गायक एक-एक फ्रेज़ को, एक-एक टुकड़े को अलग करके गाते हैं, वही प्रभाव मैं अपने वादन में पैदा करने की कोशिश करती हूं. आपने पूछ ही है तो यह कहने की गुस्ताखी कर रही हूं कि यह मेरी अपनी देन है.

संगीत के अतिरिक्त आपकी और भी कुछ रुचियां ज़रूर होंगी. कुछ उस बारे में भी बताएं! 
मेरे पास वक़्त ही नहीं है कि मैं कोई और शौक पालूं. अगर कोई शौक पाल लिया होता तो फिर संगीत को पूरा समय कैसे दे पाती? मेरा जो भी समय है वह सारा का सारा संगीत को समर्पित है.

अब भी, इतनी लम्बी साधना के बाद भी क्या संगीत को नियमित समय देना पड़ता है? 
हां, अगर खाना न खायें तो चल सकता है लेकिन रियाज़ किये बगैर नहीं चलता. रियाज़ तो नियमित रूप से करना ही पड़ता है. हर बार जब स्टेज पर जाते हैं तो लगता है कि एक परीक्षा दे रहे हैं, और उस परीक्षा के लिए पूरी तैयारी करनी होती है. इतना ज़रूर है कि अब और-और चीज़ों का दबाव भी समय पर बढ़ा है. यही कारण है कि पहले जहां आठ नौ घण्टे रियाज़ करती थी अब वह घट कर कम हो गया है. लेकिन रियाज़ तो करना ही होता है.

आखिरी सवाल. संगीत के क्षेत्र में आने वाली नई पीढ़ी को क्या सलाह, क्या गुरु मंत्र देना चाहेंगी?  
यही कि संगीत तो एक निरंतर साधना है, तपस्या है. यहां सफलता का कोई शॉर्ट कट नहीं है. जो लोग यह सोचते हैं कि दो-तीन साल सीख कर यश प्राप्त कर लेंगे, उन्हें तो निराश ही होना पड़ेगा. यहां सफलता के लिए कड़ी और लगातार मेहनत ज़रूरी है. आपमें अगर गुण है और मेहनत करके आपने उसे मांजा है, तराशा है, तो आपकी पूछ भी ज़रूर होगी. हीरे की चमक को कोई ताकत छिपा कर नहीं रख सकती है.

इस बातचीत के बाद भी श्रीमती राजम से काफी देर तक अनौपचारिक गपशप होती रही थी. उनसे बात करते हुए एक क्षण को भी यह नहीं लगा कि मैं एक बहुत बड़ी कलाकार से रू-ब-रू हूं. यही लगता रहा कि अपने परिवार की किसी  ऐसी बड़ी से बात कर रहा हूं जो उम्र के थोड़े-से अंतराल के बावज़ूद संवेदना के स्तर पर समान धरातल पर हैं. बरसों बीत गए हैं इस बातचीत  को लेकिन इसकी स्मृतियां अभी भी ताज़ी हैं.