Sunday, January 24, 2010

शिक्षा और प्रलय के बीच एक रेस


अपनी मेगा बेस्टसेलर थ्री कप्स ऑफ टी (अब तक 30 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं) में ग्रेग मॉर्टेन्सन ने पाकिस्तान के दुर्गम इलाकों में लड़कियों के लिए स्कूल बनाने के अपने प्रयासों का मार्मिक वृत्तांत दिया था. उसी किताब की अगली कड़ी है स्टोन्स इण्टु स्कूल्स: प्रोमोटिंग पीस विद बुक्स, नोट बॉम्ब्स, इन अफ़गानिस्तान एण्ड पाकिस्तान. इस किताब में ग्रेग ने अफ़गानिस्तान में अपने स्त्री साक्षरता के प्रयासों का प्रेरक वृत्तांत प्रस्तुत किया है. ग्रेग मॉर्टेन्सन पिछले 16 बरसों से अपने एक ग़ैर-लाभकारी संगठन सेंट्रल एशिया इंस्टीट्यूट के माध्यम से पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के दुर्गम इलाकों में 130 से ज़्यादा स्कूल स्थापित कर अपनी तरह से शांति स्थापना के प्रयास में जुटे हैं. इन स्कूलों में से ज़्यादातर लड़कियों के लिए हैं.

ग्रेग की पिछली किताब थ्री कप्स ऑफ टी की बुनियाद पाकिस्तान में एक स्कूल खोलने का वादा थी, तो इस किताब के मूल में भी वैसा ही एक वादा है. 1999 में अफ़गानिस्तान के वाखन दर्रे से ए के-47 से सज्जित चौदह किरग़िज़ घुड़सवार पाकिस्तान आते हैं और ग्रेग से वादा लेते हैं कि वह पामीर की पहाड़ियों के एक दुर्गम स्थल बोज़ाई गुम्बद में एक स्कूल बनायेंगे. इसी स्कूल को बनाने की कहानी है यह किताब. ग्रेग को इस स्कूल को बनाने के प्रयास में कई और स्कूल भी बनाने पड़े. ग्रेग को अपनी यह विजय शांति के पथ की तरह प्रतीत होती है. एक बिलकुल नए देश अफ़गानिस्तान के सुदूर उत्तर पूर्वी एकांत इलाकों में, वाखन दर्रे में किस तरह ग्रेग और उनके निडर मैनेजर के अथक प्रयासों से पहला स्कूल बन सका, और फिर दर्जनों और स्कूल बने, यह वृत्तांत जितना रोचक है उतना ही प्रेरणास्पद भी.

एक जगह ग्रेग लिखते हैं, “हम लोग अफ़गानिस्तान के हर गांव और कस्बे में, जहां बच्चे शिक्षा के लिए तरसते हैं और मां-बाप ऐसे स्कूलों के निर्माण का सपना देखते हैं जिनके दरवाज़े न सिर्फ़ उनके बेटों बल्कि बेटियों के लिए भी खुले होंगे, आशा की एक किरण जगा सके थे. इन जगहों में वे जगहें भी ख़ास तौर पर शामिल थीं जो कलाश्निकोव धारी ऐसे मर्दों के घेरे में हैं जिनकी पूरी ताकत इस झूठ को ज़िन्दा रखने में खर्च होती है कि क़ुरान शरीफ में यह सीख दी गई है कि जो लड़की गणित पढ़ना चाहे उसके चेहरे पर तेज़ाब फेंक देना चाहिये.”

ग्रेग अपने प्रयासों के लिए अमरीकी सैन्य सेवा से भी आर्थिक सहायता प्राप्त करते हैं. सैनिक लोग निजी तौर पर भी उन्हें आर्थिक मदद देते हैं और उनके कुछ प्रोजेक्ट्स के लिए सामग्री लाने-लेजाने में भी सहायता करते हैं. लेकिन वे अमरीकी सैन्य नीतियों के प्रतिकूल टिप्पणियां करने से भी कोई परहेज़ नहीं करते. युद्ध जर्जर अफ़गानिस्तान में तीन लाख से भी ज़्यादा सैनिक भेजने वाले अमरीकी निज़ाम को वे यह कहकर चेताते हैं कि “हमें अफ़गानिस्तान के लोगों से अभी जितना सीखना है वह उससे बहुत ज़्यादा है जो हम ताज़िन्दगी उन्हें सिखाने की सोच भी सकते हैं.” इसी तरह वे एक टॉमहॉक क्रूज़ मिसाइल की लगभग साढ़े आठ लाख डॉलर की भारी कीमत पर अफ़सोस करते हुए कहते हैं, “इतनी बड़ी धन राशि से तो आप दर्ज़नों ऐसे स्कूल बना सकते हैं जो हज़ारों विद्यार्थियों को पीढ़ियों के लिए एक संतुलित, ग़ैर अतिवादी शिक्षा प्रदान करेगी.” और यह कहने के बाद वे मानो अपनी ही सरकार के सामने एक सवाल रखते हैं, “आपके विचार में इनमें से किस से हम अधिक सुरक्षित महसूस करेंगे?”

लेकिन उनका असली संबल तो स्थानीय लोग ही हैं. पूर्व कमाण्डो सरफराज़ खान ऐसे ही लोगों में से एक हैं जो अब ग्रेग के संगठन के प्रोजेक्ट डाइरेक्टर हैं. सरफराज़ जैसों के बल पर ही ग्रेग तालिबानों के गढ़ में भी शिक्षा की अलख जगा सके. तालिबानों ने उनके कई स्कूलों को नुकसान भी पहुंचाया. लेकिन इन स्थानीय लोगों से जो सहयोग ग्रेग को मिला उसी के आधार पर वे यह कह सके हैं कि वे ही लोग तालिबान को कुचल कर लड़कियों की शिक्षा के विरुद्ध प्रचलित सांस्कृतिक सोच में बदलाव ला सकते हैं.

ग्रेग मॉर्टेन्सन तांजानिया में अपने बचपन में एक अफ़्रीकी कहावत सुनते रहे हैं कि अगर आप एक लड़के को शिक्षित करते हैं तो आप महज़ एक व्यक्ति को ही शिक्षित करते हैं, लेकिन अगर आप एक लड़की को शिक्षित करते हैं तो आप पूरे समुदाय को शिक्षित करते हैं. ग्रेग ने बाद में पाया कि बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है. उन्होंने जाना कि विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार शिक्षा बाद की ज़िन्दगी में एक औरत की आय को 10 से 20 प्रतिशत तक बढ़ा देती है. कुछ दूसरे अध्ययनों से यह भी पता चला कि अगर लड़की पांचवीं तक भी पढ़ लेती है तो शिशु मृत्यु दर काफ़ी घट जाती है. ऐसी लड़कियां देर से विवाह करती हैं और उनके बच्चे भी कम होते हैं. लेकिन इसी के साथ ग्रेग मॉर्टेन्सन ने यह भी पाया कि लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा दे देना ही पर्याप्त नहीं है. विकासशील देशों में ऐसी ग्रामीण स्त्रियों के लिए करीब-करीब कोई काम सुलभ नहीं है. उन्हें कोई अर्थपूर्ण रोज़गार मिले, जैसे वे अध्यापिका, डॉक्टर, नर्स वगैरह बन सकें, इसके लिए ज़रूरी है कि उन्हें उच्च शिक्षा मिले. अपनी बात के प्रमाण के तौर पर वे 22 वर्षीया शकीला का उदाहरण देते हैं जो उनके यहां की प्रथम स्नातिका और तीन लाख की आबादी वाले इलाके की पहली महिला चिकित्सक होगी.

यह सारा काम करते हुए खुद ग्रेग ने काफी कुछ सीखा. उन्होंने पाया कि महज़ किताबी शिक्षा ही काफ़ी नहीं है. खुद उनकी बेटी ने उन्हें यह पाठ पढ़ाया कि बच्चों के लिए खेल भी ज़रूरी है. शायद इसी सीख का परिणाम यह रहा कि ग्रेग ने लड़कियों के कूदने के लिए सात हज़ार रस्सियां मंगवाईं और स्कूलों में खेल के मैदान भी बनवाए.

ग्रेग ने एक जगह एच जी वेल्स को उद्धृत किया है: “इतिहास शिक्षा और प्रलय के बीच एक रेस है.” खुद ग्रेग ने किताब में एक जगह बहुत खूबसूरत और महत्वपूर्ण बात कही है: “बस, एक बार दिल के दरवाज़े खुल जाएं और वह पढना सीख ले, फिर तो पेड़ की हर पत्ती किताब का एक पन्ना बन जाती है.”
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राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत रविवार, 24 जनवरी, 2009 को प्रकाशित.








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