Tuesday, December 30, 2014

नव वर्ष मंगलमय हो!

हरिवंश राय बच्चन के एक बहुत प्रसिद्ध गीत का मुखड़ा है: जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं बैठ कभी यह सोच सकूं/ जीवन में जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा-भला! बच्चन जी ने जब यह गीत लिखा होगा तब से अब तक आते-आते जीवन की आपाधापी और बढ़ गई है. ‘सुबह होती है, शाम होती है उम्र यूं ही तमाम होती है’  की ताल   पर समय मार्च पास्ट करता है और दीवारों पर लटकाया गया नया कैलेण्डर देखते ही देखते कचरे के डिब्बे में डाला जाने काबिल बन जाता है. एक और साल बीत रहा है और हम नए साल के स्वागत के लिए प्रस्तुत  हैं. पता नहीं जीवन की आपाधापी में हम कितना विचार कर पाए कि एक साल में हमने क्या खोया और क्या पाया, और अगर विचार किया तो उसका कुल जमा हासिल क्या रहा!

वैसे, मुझे लगता है कि आप जहां भी जाएं, एक गिलास कभी आपका पीछा नहीं छोड़ता है! अरे,  वही गिलास, जो किसी को आधा भरा तो किसी को आधा खाली नज़र आता है! आप पूछेंगे कि यह आधा का क्या चक्कर है भाई? और मैं फौरन अपने निदा फाज़ली साहब को ला खड़ा  करूंगा. उन्हीं ने तो कहा  था:   कभी किसी को मुकम्मिल जहां नहीं मिलता/ कभी ज़मीन तो कभी आसमां नहीं मिलता. तो शायद यह हमारी नियति ही है कि हमें मुकम्मिल जहां न मिले, और यह भी हो सकता है कि असंतोष हमारी फितरत में ही शुमार हो. ‘जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया’ कहने वाले सिर्फ फिल्मों में ही होते हों और फिल्मों से बाहर असल ज़िन्दगी में ‘और ज़रा-सी दे दे साक़ी’ कहने वाले ही रहते हों! बहरहाल. समय का चक्र हर हाल में घूमता रहता है. ‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ-शाम’. और हम चलते  चले जा रहे हैं. उस साल का आकलन तमाम अखबार और संचार साधन कर रहे हैं जो हमारी मुट्ठी से बस फिसलने ही वाला है. और अपने-अपने साल का आकलन हम अपनी-अपनी तरह से कर रहे हैं. अगर अब तक नहीं कर सके तो अब जो समय शेष बचा है उसमें ज़रूर कर लेंगे.

हम सब चाहते हैं कि जो साल बीत रहा है आने वाला साल उससे बेहतर साबित हो. ग़ालिब बहुत पहले ही  हमें एक जुमला थमा गए हैं- ‘एक बिरहमन ने कहा है कि ये  साल अच्छा है...’  और फिर उन्हीं के नक्शे क़दम पर चलते हुए उनके वंशजों यानि बाद के कवियों ने भी ऐसी ही शुभ कामनाएं की हैं. इन कामनाओं में शुभ और कामना  दोनों शामिल हैं. अब देखिये ना, रूस  में रह रहे हिन्दी कवि अनिल जनविजय ने नए साल के शुभ को किस तरह शब्दों में संजोया है: 

नया वर्ष: संगीत की बहती नदी हो 
गेहूँ की बाली दूध से भरी हो 
अमरूद की टहनी फूलों से लदी हो  
खेलते हुए बच्चों की किलकारी हो नया वर्ष.

नया वर्ष: सुबह का उगता सूरज हो
हर्षोल्लास में चहकता पाखी
नन्हे बच्चों की पाठशाला हो
निराला-नागार्जुन की कविता

नया वर्ष: चकनाचूर होता हिमखंड हो
धरती पर जीवन अनंत हो
रक्तस्नात भीषण दिनों के बाद
हर कोंपल, हर कली पर छाया वसंत हो.

भला ऐसा नया साल कौन नहीं चाहेगा? और क्या यह सपना इतना बड़ा है कि पूरा ही न हो सके? शायद सारे स्वप्नदृष्टा ऐसे ही सपने देखते हैं. दुनिया का इतिहास उठाकर देख लीजिए, राजनीतिज्ञों ने, दार्शनिकों ने, कलाकारों ने, आध्यात्मिक गुरुओं ने – सभी ने इसी तरह के सपने देखे हैं. लेकिन जैसा टी एस एलियट ने कहा है, बिटवीन द आइडिया एंड द रियलिटी.... फॉल्स द शैडो! सोच जब तक कर्म में रूपांतरित होता है, बहुत कुछ  बदल जाता है. सारी दुनिया में यही  हुआ है.  विचार बहुत अच्छा होता है, सोच जनमंगलकारी होता है, रूपरेखा आदर्श होती है लेकिन ये जब क्रियारूप में परिणत होते हैं तब हम पाते हैं कि ‘क्या से क्या हो गया...’ 

तो क्या ऐसा सपना नहीं देखा जाना चाहिए कि जो अब तक होता रहा है वो आइन्दा न हो! हिन्दी के महान कवि मुक्तिबोध ने भी तो यही कहा था, कि जो है उससे बेहतर चाहिये!  जैसी दुनिया हमें मिली है, उसे बेहतर भी तो हम ही बनायेंगे! तो आइये, वर्ष 2015 के आगाज़ पर हम संकल्प करें कि जैसी दुनिया हमें मिली है उससे बेहतर दुनिया आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ कर जाएंगे. मैंने बात बच्चन की पंक्तियों से शुरू की थी, तो उपयुक्त होगा कि उन्हीं की पंक्तियों से आपको नव वर्ष की मंगल कामनाएं भी दूं:

वर्ष नव,
हर्ष नव
,
जीवन उत्कर्ष नव।

नव उमंग
,
नव तरंग
,
जीवन का नव प्रसंग।

नवल चाह
,
नवल राह
,
जीवन का नव प्रवाह।

गीत नवल
,
प्रीत नवल
,
जीवन की रीति नवल
,
जीवन की नीति नवल
,
जीवन की जीत नवल!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 30 दिसम्बर, 2014 को वर्ष नव हर्ष नव, जीवन उत्कर्ष नव शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल  पाठ.  

Tuesday, December 23, 2014

तालाब गन्दा है या मछली?

अपने लगभग पौने चार दशकों में फैले सेवा काल में मुझे बहुत सारे जन प्रतिनिधियों के सम्पर्क में आने का अवसर मिला. 1967 से शुरु हुए मेरे सेवाकाल के प्रारम्भ में न तो मेरे काम की प्रकृति इस बात की ज़रूरत पैदा करती थी कि किसी जन प्रतिनिधि से सम्पर्क करना पड़े और न राज्य कर्मचारियों की आचार संहिता इस बात की अनुमति देती थी कि हम उनसे सम्पर्क साधें. बहुत लम्बे समय तक तबादलों वगैरह के लिए जन प्रतिनिधियों या राजनीतिक दलों से सम्पर्क करना निषिद्ध था. लेकिन धीरे-धीरे हालात बदले और आज स्थिति यह है कि बिना जन प्रतिनिधिगण की ‘डिज़ायर’ के किसी तबादले की कल्पना ही नहीं की जा सकती.

अपनी नौकरी के उत्तर काल में, जब मैं शिक्षक से पदोन्नत होकर अधिकारी बना तो जन प्रतिनिधिगण से सम्पर्क के अवसर भी बढ़े. लेकिन इनके साथ सम्पर्क के मेरे अनुभव बहुत अच्छे रहे. मैं अब भी कृतज्ञतापूर्वक इस बात को स्मरण करता हूं कि जब मैं एक कॉलेज का प्राचार्य था तो स्थानीय विधायक प्राय: मुझे किसी न किसी के प्रवेश की अनुशंसा में फोन करती थीं. लेकिन उनकी भाषा आदेशात्मक न होकर अनुरोधात्मक होती थी:  ‘देखिये, अगर ऐसा हो सके...’. एक दिन जब किसी सामाजिक आयोजन में उनसे मुलाकात हुई तो मैंने उनसे कहा कि हमारे यहां प्रवेश के नियम इतने सख़्त हैं कि प्राचार्य अपने स्तर पर कुछ भी नहीं कर सकता है. वे बोलीं, “मैं इस बात को जानती हूं. लेकिन क्या करें! हम जन प्रतिनिधियों को भी तो अपने समर्थकों के सामने अपनी छवि बनाये रखनी पड़ती है. इसीलिए मैं आपको फोन करती हूं. लेकिन आप तनिक भी फिक्र न करें, और जो आपके नियमानुसार सम्भव हो वो ही करें.” 

जिस कॉलेज का यह प्रसंग है, उसी नगर के एक अन्य कॉलेज में पदोन्नत होकर जब मैं प्राचार्य के रूप में पहुंचा तो दूसरे तीसरे दिन किसी काम से स्थानीय विधायक को फोन करना पड़ा. वे छूटते ही बोले कि “देखिये आप मेरी इच्छा के विरुद्ध इस कॉलेज में आ तो गए हैं, लेकिन मैं आपको यहां रहने नहीं दूंगा.” उनके इस कोप की पृष्ठभूमि यह थी कि जब मैंने उनसे उस कॉलेज में पदस्थापित होने की अपनी इच्छा ज़ाहिर की थी तो उन्होंने यह कहते हुए अपनी असमर्थता व्यक्त की थी कि वे पहले से किसी और से वचनबद्ध हो चुके हैं. लेकिन मैंने फिर भी प्रयास किये और संयोग से मैं अपने प्रयासों में कामयाब भी हो गया. अपने कोप को उन्होंने बहुत जल्दी साकार भी कर  दिया, लेकिन हम दोनों की पारस्परिक सद्भावना को कोई आंच नहीं आई और इस प्रसंग के लगभग पन्द्रह बरस बाद भी हमारे रिश्ते जस के तस हैं.

राज्य की राजधानी में उच्च प्रशासनिक पद पर रहते हुए तीन बरसों में तो शायद ही कोई  दिन ऐसा बीता हो जब किसी जन प्रतिनिधि से भेंट न हुई हो. विभागीय मंत्रीगण से तो खैर दिन में एकाधिक बार भी सम्पर्क होता रहा, और कभी कोई बदमज़गी नहीं हुई, हालांकि बहुत बार उनकी इच्छा के अनुरूप काम न करने की विवशता भी रही. जन प्रतिनिधिगण मेरे ऑफिस में आते या फोन करते, सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह होता, और बस. वे अपना काम लेकर आते और हम यथानियम काम करते या नहीं भी कर पाते.  बल्कि सच तो यह है कि सामान्य और हो जाने वाले काम के लिए तो शायद ही कोई आता. वे आते ही ऐसे कामों के लिए जो किसी न किसी वजह से नहीं हो पाते, और उनके आने या कहने के बाद भी नहीं ही होते. लेकिन  मज़ाल है जो  किसी ने कभी ऊंची आवाज़ में भी बात की हो. हां, इतना ज़रूर कि अगर उनका काम न होने योग्य होता तो मैं स्पष्ट रूप से अपनी मज़बूरी बता देने में कोई संकोच नहीं करता.

पीछे मुड़ कर देखता हूं तो बस एक प्रसंग याद आता है जब किसी जन प्रतिनिधि ने मेरे साथ नाराज़गी भरा बर्ताव किया. इतना लम्बा अर्सा बीत गया है लेकिन वो मंज़र अभी भी मेरी यादों में सजीव है. मैं अपने ट्रांसफर के लिए स्थानीय विधायक के पास जयपुर आया था. हम लोग सचिवालय में मिले, जो करणीय था वह किया गया और मैं उनके साथ ऑटो में सर्किट  हाउस –जहां वे ठहरे थे-  लौटा. जैसे ही हम उतरने को हुए, मैंने ऑटोवाले को पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाला. विधायक जी ने फौरन मेरा हाथ पकड़ा और गुस्से से बोले, “उतर जाइये आप. चले जाइये.” मुझे समझ में नहीं आया कि क्या ग़लती हो गई? बोले, “आप पैसे क्यों देंगे?” ओह! तो यह बात थी!  मैंने क्षमा याचना की. उन्होंने पैसे चुकाये, अपने कमरे में मुझे लेकर गये, चाय पिलाई और प्यार से विदा किया.

क्या इतनी जल्दी हालात इतने बिगड़ गये हैं? या फिर कुछ मछलियों की वजह से पूरा तालाब बदनाम हो  रहा है?

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 23 दिसम्बर, 2014 को हालात बिगड़े या कुछ की वजह से माहौल खराब हुआ शीर्षक से प्रकाशित  आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 16, 2014

हनीमून और पुरुष मानसिकता

कुछ बातें ऐसी हैं जो एकबारगी तो चौंकाती हैं लेकिन जब उन पर तसल्ली से विचार करते हैं तो आपकी प्रतिक्रिया बदल जाती है. मेरे साथ ऐसा ही हुआ. हाल ही में जब मधु चन्द्रिका यानि हनीमून के बारे में किए गए एक सर्वे के परिणामों  के बारे में पढ़ा तो बहुत अजीब लगा. सर्वे ने बताया कि ज़्यादातर भारतीय पुरुष हनीमून पर किसी या किन्हीं और युगलों के साथ जाना पसन्द करते हैं और इस दौरान ली गई अपनी अंतरंग छवियों को सोशल मीडिया पर साझा करना भी उन्हें अच्छा लगता है. ये दोनों ही बातें खासी चौंकाने वाली हैं. विवाह के बाद का यह रिवाज़, जो हमने पश्चिम से आयात किया है अब हमारे रीतिरिवाज़ों का भी उसी तरह एक अभिन्न अंग बन चुका है जैसे ‘हम आपके हैं कौन’ के बाद जूता चुराई हमारी रस्मों की लिस्ट में शामिल हो गई है. और इसमें चौंकने, दुखी होने या खुश होने जैसी कोई बात नहीं है. वो गाना है ना, ‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुब-हो  शाम...’  यानि जीवन में एक ही चीज़ स्थिर है और वो है परिवर्तन. आदि मानव के जीवन में तो विवाह  भी नहीं था, बल्कि परिवार भी नहीं था. ये सब बाद में ही तो आए. संयुक्त परिवार सिमट कर बहुत छोटे हो गए, और विवाह के रीति रिवाज़ भी काफी बदल गए. अलबत्ता, बहुत सारी चीज़ें अवशेष के रूप में बची हुई भी हैं जैसे वर का योद्धा वाला रूप, अश्वारोहण और  तलवार, कमरबन्द वगैरह और बारात के रूप में साथ चलती सेना. लेकिन इनका केवल प्रतीकात्मक रूप ही बचा है और पता नहीं कब वो भी लुप्त हो जाए. वैसे भी असल विवाह पर बहुत कम बल रह गया है, उससे ज्यादा महत्व तो वरमाला वाली रस्म का हो गया है और अधिकतर मेहमान तो उसके बाद खा-पीकर और वर वधू को आशीर्वाद देकर, जो कि एक लिफाफे के रूप में होता है, चले ही जाते हैं.

हां,  तो बात कर रहा था हनीमून की. इस प्रथा के मूल में यह भाव रहा होगा कि परिवार की भीड़-भाड़  से दूर नव युगल एक दूसरे को अच्छी तरह से जान समझ कर नव जीवन का शुभारम्भ करें. लेकिन जिस सर्वे की मैं बात कर रहा हूं वह तो इस प्रथा का यह रूप नहीं रहने दे रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि सामाजिकता की जड़ें हमारे जीवन में इतने गहरे तक उतरी हुई हैं कि हम उससे दूर जाना ही नहीं चाहते हैं, अपने बहुत अन्तरंग पलों  में भी! लेकिन तस्वीरों को साझा करने की इच्छा को आप क्या कहेंगे? कुछ समय पहले मैं ऐसे ही एक प्रकरण का एक किरदार बन गया. फेसबुक पर मेरे एक युवा मित्र ने अपने हनीमून की कुछ ऐसी तस्वीरें पोस्ट कीं, जो कुछ ज्यादा ही निजी थीं. मैंने उन्हें इनबॉक्स में एक सन्देश भेज कर बहुत विनम्रता से यह अनुरोध किया कि वे उन तस्वीरों को हटा  दें, और आपको यह जानकर  आश्चर्य  होगा कि वे मुझ पर नाराज़ हो गए  और लगे पूछने कि मैंने उन्हें ऐसी सलाह क्यों दी? ज़ाहिर है कि मैंने क्षमा याचना करते हुए अपनी सलाह वापस लेने में ही कुशल समझी. शायद बदले वक़्त और बदली पीढ़ी का यही तकाज़ा हो! कहीं  ऐसा तो नहीं है कि ये तस्वीरें साझा करके हम इस बात का विज्ञापन करते हैं कि देखो, यह मेरी ‘उपलब्धि’  है (पुरुष वर्चस्व!) या मैं इतना समृद्ध  हूं कि अमुक जगह पर हनीमून मना रहा हूं!   

लेकिन जिस सर्वे की मैं बात कर रहा हूं उसमें एक बात अवश्य ऐसी हैं जो चौंकाती हैं. यह सर्वे कहता है कि विवाह के बाद हनीमून के लिए कहां जाया जाए, इस बात का फैसला प्राय: वर ही करता है और इस फैसले में वधू की भूमिका शून्य या नगण्य होती है. यह बात मुझे चौंकाने वाली इसलिए लगी कि सारे बदलावों के बावज़ूद जिन परिवारों में हनीमून पर जाने का रिवाज़ बढ़ा है वे ऐसे हैं जहां वर और वधू खासे शिक्षित हैं, और बहुत सारी वधुएं बारोज़गार यानि आर्थिक रूप से आत्म निर्भर भी होती हैं. लेकिन जब यह सर्वे कहता है कि अधिकांश वधुएं भी इस बात को स्वीकार करती हैं कि हनीमून के लिए कहां जाना है इसका निर्णय करने का हक़ पुरुष को है क्योंकि वही पैसा खर्च कर रहा है, और रिश्तों के निर्वहन में पुरुष की ज़िम्मेदारी ज़्यादा है, तो न केवल चौंकना पड़ता है, दिल में दर्द भी होता है. इस उल्लास यात्रा की प्लानिंग में उनकी आवाज़ का न होना न सिर्फ चौंकाता है, हमारे पारम्परिक पारिवारिक ढांचे में स्त्री की हैसियत पर भी एक टिप्पणी करता है.  लेकिन इस हालत में बदलाव आएगा, यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए. 
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मंगलवार, दिनांक 16 दिसम्बर 2014 को मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में शुभचिंतक बनकर सलाह दी तो मांगनी पड़ी माफ़ी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 9, 2014

किस तरफ हो तुम

जिन्होंने कभी भी, किसी भी स्तर पर हिंदी साहित्य पढ़ा है वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के नाम से अपरिचित  नहीं हो सकते हैं. आचार्य शुक्ल बहुत बड़े निबन्धकार भी थे. आज इनकी चर्चा से अपनी बात इसलिए शुरु कर रहा हूं कि इनके एक बहुत प्रसिद्ध निबन्ध ‘कविता क्या है’ की एक बात मुझे बहुत याद आ रही है. शुक्ल जी ने कविता की ज़रूरत क्यों है यह बताने के लिए कहा है कि सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ  मनुष्य के आचरण इतने जटिल हो गए हैं कि वे सीधे-सीधे तो समझ में नहीं आते हैं. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने अनेक उदाहरण भी दिए हैं. लेकिन मैं यहां उनकी चर्चा नहीं करूंगा. असल में आचार्य शुक्ल जी की यह बात मेरे जेह्न पर इसलिए दस्तक दे रही है कि आज के समय में यह तै करना मुश्क़िल होता जा रहा है कि क्या सच है और क्या झूठ, कौन सही है और कौन ग़लत! 

वैसे यह एक शाश्वत  मुश्क़िल है. हमारे समय के एक बड़े राजनेता राममनोहर लोहिया ने यह कहने के लिए कि जीवन में तटस्थता जैसी कोई चीज़ नहीं होती है, एक प्राचीन कथन ‘देह धरे का दण्ड’ का सहारा लिया था. आप जब भी किसी चीज़ को देखते हैं, एक ख़ास कोण से ही उसे देख सकते  हैं. जब मैं आपके सामने खड़ा होकर आपको देखता हूं तो मुझे आपका चेहरा नज़र आता है, और जब मैं आपके पीछे जाकर आपको देखता हूं तो मुझे आपकी पीठ नज़र आती है. मैं पेट और पीठ दोनों को एक साथ देख ही नहीं सकता. यही तो देह धरे का दण्ड है. और यही बात हम जीवन में भी देखते हैं. मेरी सहानुभूति जिसके साथ होती है मैं उसी के नज़रिये से चीज़ों को देखता हूं, दावा भले ही तटस्थता का करूं. हो सकता है मेरा  झुकाव कभी कम और कभी ज़्यादा हो, लेकिन यह स्थिति शायद ही कभी आ पाती हो कि झुकाव हो ही नहीं. और यह झुकाव, यह अपने नज़रिये से चीज़ों को देखना इतना सहज-स्वाभाविक होता है कि हमें उसका एहसास तक नहीं होता.

ये सारी बातें मुझे उस रोहतक काण्ड के सन्दर्भ में याद आई जिस पर पिछले सप्ताह मैंने अपने इस कॉलम में चर्चा की थी. इस बीच  अलग-अलग संचार माध्यमों पर उस प्रकरण पर इतनी अधिक चर्चाएं हुई हैं और हो रही हैं कि अब यह कहना बहुत कठिन हो गया है कि असल में हुआ क्या था! कोई एक पक्ष पर आरोप लगा रहा है तो कोई दूसरे पक्ष पर. और ऐसा अन्य बहुत सारे मामलों में भी हम देखते रहते हैं. कभी यह सब इतने बेबाक तरीके से होता है कि बहुत आसानी से यह बात समझ में आ जाती है कि अगर कुछ कहा जा रहा है तो क्यों कहा जा रहा है, उससे किसको लाभ होगा और किसकी हानि होगी; और कभी यह काम इतनी बारीकी से किया जाता है कि आपको तनिक भी सन्देह नहीं होता कि सच बयान करने के आवरण में कोई खेल खेला जा रहा है. इधर के बरसों में बहुत सारे मामलों में हमने यह देखा है कि आज जिसे महान कहकर प्रचारित और स्थापित किया गया, उसकी हक़ीक़त तो कुछ और ही थी. इधर जैसे-जैसे संचार माध्यमों की संख्या और सक्रियता बढ़ी है छवि निर्माण और छवि विध्वंस ने बाकायदा एक व्यवस्थित व्यवसाय का रूप ले लिया है.  लेकिन मैं इसे पूरी तरह माध्यम का दुरुपयोग भी नहीं कह सकता. इसलिए नहीं कह सकता कि अभी कुछ क्षण पहले ही तो मैंने दृष्टिकोण की बात की है, और मैं उस बात में पूरा विश्वास रखता हूं. जब मेरा अपना कोई दृष्टिकोण होगा तो बहुत स्वाभाविक है कि मैं चीज़ों को उसी की मार्फत देखूंगा. और जब मैं किसी चीज़ को अपने कोण से देखता हूं तो फिर बस इतना-सा काम और रह जाता है कि उसका वर्णन करते हुए किसी चीज़ को थोड़ा हलका कर दूं और किसी चीज़ पर कुछ अतिरिक्त बल दे दूं. यही हम आजकल  अपने चारों तरफ घटित होते देख रहे हैं. 

एक व्यक्ति कुछ ग़लत करता है और बाद में क्षमा याचना कर लेता है. अब यह आप पर निर्भर है, यानि आपके नज़रिये पर कि आप उसके ग़लत किए पर बल देते हैं या क्षमा याचना पर! लेकिन इतना सब कह चुकने के बाद भी बात जब निष्कर्ष की आती है तो मुझे अपने समय के एक प्रखर रचनाकार बल्ली सिंह चीमा के ये शब्द  याद आ जाते हैं:   
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी   के  पक्ष  में हो  या कि आदमखोर हो ।।
क्या आपको नहीं लगता कि अगर कोई आदमी के पक्ष में है तो फिर उसकी पक्षधरता का स्वागत ही होना चाहिए?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे सात्पाहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 09 दिसम्बर 2014 को 'देह धरे का दण्ड: अपना-अपना नज़रिया'  शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, December 2, 2014

कितनी गिरहें अब बाकी हैं!

हरियाणा के सोनीपत ज़िले की दो लड़कियों की खूब चर्चा हो रही है. मैं सोच रहा हूं कि आखिर हम कैसे समय और समाज में जी रहे हैं कि लड़कियों को यह सब करना पड़ रहा है! क्या उनकी ज़िन्दगी सतत संघर्ष का ही पर्याय नहीं है? कौन ज़िम्मेदार है इसके लिए? दो लड़कियां कहीं जाने के लिए बस अड्डे पर पहुंचती हैं और तीन लड़के उनके साथ बदतमीज़ी करना शुरु कर देते हैं. लड़कियां मना करती हैं तो उनकी बदतमीज़ी और बढ़ जाती है. चलती बस में भी यह बदसुलूकी जारी रहती है. सब मूक दर्शक बने रहते हैं. बस, एक लड़की विरोध करने की कोशिश करती है तो लड़के उसके साथ भी बतदमीज़ी से पेश आते हैं. इन दोनों लड़कियों के साथ वे लड़के मारपीट भी करते हैं. लेकिन बस का कोई यात्री उन्हें नहीं रोकता! आखिर इन लड़कियों में से ही एक अपना बेल्ट खोल कर उनको मारती और अपनी रक्षा करती है.

इस प्रकरण की कोई बहुत बुरी परिणति भी हो सकती थी. निर्भया  प्रकरण अभी भी हमारी यादों में ताज़ा है. अब इन लड़कियों और इनके परिवार वालों पर दबाव पड़ रहा है कि ये उन लड़कों को ‘माफ़’ कर दें! पंचायत भी बीच में आ गई है. वही सब जीवन नष्ट हो जाने वगैरह  की बातें. जीवन लड़कों का ही तो होता है! लड़कियों का भला क्या जीवन? वे पैदा ही क्यों होती हैं? दूधों नहाओ पूतों फलो वाले देश में भला लड़कियों की क्या ज़रूरत है? ये इतने सारे सोनोग्राफी केन्द्र आखिर किस दिन काम आएंगे? लिंग परीक्षण पर सरकारी रोक है तो क्या हुआ? चांदी का जूता है न अपने पास! और सोनोग्राफी नहीं तो और बहुत सारे तरीके भी हैं... और फिर भी बेशर्म अगर इस दुनिया में आ जाए तो उसका जीना मुहाल करने के अनगिनत तरीके हैं हमारे पास. घर में उसके साथ भेद भाव, स्कूल में भेद भाव और फिर सार्वजनिक जगहों पर यह सब. शादी के लिए दहेज की लम्बी चौड़ी मांग और फिर ससुराल में प्रताड़नाओं और यातनाओं का अंतहीन सिलसिला. बेशक इनके अपवाद भी हैं, लेकिन अपवादों के बावज़ूद यह एक बड़ा यथार्थ है. ठीक ही तो लिखा था राष्ट्रकवि ने – अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी! आंचल में है दूध और आंखों में पानी! और महाकवि जयशंकर प्रसाद ने भी तो उसे ‘केवल श्रद्धा’ कहकर अलमारी में ही सजाया था, ठीक वैसे ही जैसे बहुत पहले का मनु स्मृति का एक आप्त वाक्य हमने आड़े वक्त काम आने के लिए संजो रखा है – यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते  तत्र देवता:
शायद कुछ लोगों की आत्मा को इस बात से बड़ी शांति मिले कि महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के मामले में हम अकेले नहीं हैं. हाल ही में सुदूर जर्मनी में भी एक लड़की को लड़कों की बदतमीज़ी का विरोध करने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. इस 23 साल की लड़की टुगसी अलबायर्क ने फ्रैंकफर्ट के पास ऑफनबाख में एक रेस्टोरेंट के शौचालय से लड़कियों के चिल्लाने की आवाज़ें सुनीं. उसने जाकर देखा कि वहां कुछ लोग दो लड़कियों से छेड़छाड़ कर रहे थे. टुगसी ने  इनका विरोध किया. बाद में इनमें से एक आदमी ने कार पार्किंग में टुगसी अलबायर्क के सिर पर पत्थर या बल्ले से हमला कर दिया. इस हमले के बाद वो अचेत हो गईं. डॉक्टरों ने उनके दिमाग को मृत घोषित कर दिया और कहा कि अब वो भी नहीं उठेंगी. कुछ समय उन्हें जीवन रक्षक उपकरणों पर रखा गया लेकिन फिर उनके परिवार वालों की इच्छा पर उन उपकरणों को हटा  लिया गया और अब टुगसी इस दुनिया में नहीं हैं. जर्मनी के राष्ट्रपति योआखिम गाउक ने इस छात्रा को औरों के लिए आदर्श बताया है.
इससे मेरा ध्यान इस बात की तरफ जाए बग़ैर नहीं रह रहा है कि हर छोटी बड़ी बात पर अपने मुखारविंद से कुछ न कुछ उवाचने वाले हमारे नेतागण हरियाणा की इन लड़कियों की बहादुरी पर मौन क्यों हैं? क्या इसलिए कि वे एक वर्चस्ववादी और रूढिबद्ध समाज को नाराज़ करने का ख़तरा नहीं उठाना चाहते? ये वे ही लोग हैं जो किसी न किसी बहाने से महिला आरक्षण बिल को रोके हुए हैं! ये वे ही लोग हैं जो आए दिन महिला विरोधी अटपटे बयान देते रहते हैं. कभी इन्हें उनके वस्त्रों से आपत्ति होती है कभी उनके बाहर निकलकर नौकरी करने से और कभी समानता की मांग से.

लेकिन इन सबके बावज़ूद, यह भी एक यथार्थ है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों में औरत हमारे समाज में संघर्ष करती हुई आगे बढ़ रही है. गुलज़ार ने ठीक ही तो लिखा है: कितनी गिरहें खोली हैं मैने/ कितनी गिरहें अब बाकी हैं.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़  टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 दिसम्बर, 2014 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 25, 2014

भारत में आकर बदल गया फास्ट फूड

दुनिया की और उसमें भी अमरीका की और भारत की खान-पान संस्कृतियों में सबसे बड़ा अंतर मुझे एकरूपता बनाम निजी विशेषताओं का लगता है.  जहां अमरीकी खान-पान पद्धति में सारा ज़ोर मानकीकरण और एकरूपता पर है भारत में मामला इसका उलट है. हर अमरीकी फास्ट फूड चेन भरसक यह कोशिश करती है कि दुनिया भर में उसके उत्पादों का स्वाद और उनकी प्रस्तुति एक-सी हो वहीं हमारे देश का हर छोटा से छोटा हलवाई अपने अलग स्वाद के लिए जाना जाता है. लेकिन इधर एक बड़ा चमत्कार यह हो रहा है कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश अमरीका जैसी महाशक्ति के दैत्याकार फास्ट फूड निर्माताओं को बदलने पर मज़बूर कर रहे हैं. और ऐसा केवल खान-पान के मामले में ही नहीं हो रहा है.  अन्य कई मामलों में भी हो रहा है. अपनी बात की शुरुआत एक इतर प्रसंग से करता हूं.

जब बरसों पहले रूपर्ट मर्डोक भारत में अपना स्टार चैनल लेकर आए तो उनके मन में विचार यह था कि चैनल की विषय वस्तु वही रहेगी, बस भाषा बदल जाएगी. और शुरुआत उन्होंने की  भी कुछ इसी अन्दाज़ में, लेकिन बहुत जल्दी उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हो गया और आज हम स्टार टीवी के जिन चैनलों को देखते हैं उनकी विषय वस्तु पूरी तरह से भारतीय है. अब मैं लौटता हूं खान-पान वाली बात पर.

जब पहली दफा भारत में मैक्डोनल्ड ने अपने आउटलेट खोलने की योजना बनाई तो उनके मन में एक ही बात  थी, और वह यह कि उनके दुनिया भर में विख्यात बर्गर, जिनकी टिक्की बीफ़  की होती है, भारत में स्वीकार नहीं किए जाएंगे, इसलिए बर्गर वही रहे, बस उनमें टिक्की बीफ़ की बजाय मटन की कर दी जाए, और उसका नाम भी थोड़ा-सा बदल कर महाराजा  मैक कर दिया जाए. मैक्डोनल्ड को यह सलाह दी अमित जटिया ने. बहुत मज़ेदार बात यह कि अमित जटिया खुद शाकाहारी हैं  और उन्होंने इस मुख्यत: ग़ैर शाकाहारी उत्पाद में निवेश किया. अमित ने मैक्डोनल्ड वालों को पूर्णत: शाकाहारी बर्गर के लिए भी मनाया, क्योंकि उनका विश्वास था कि आधे भारतीय शाकाहारी हैं और उनकी परवाह किए बग़ैर कोई फास्ट फूड चेन कामयाब नहीं हो सकती. और अमित की पहल पर भारत में मैक्डोनल्ड ने आलू टिक्की बर्गर पेश किया और उसका मूल्य रखा गया मात्र बीस रुपये. असल में यह भारतीय मसालों के स्वाद वाला पिसे आलू और मटर के कटलेट वाला बर्गर था और इसे अपने आप में पूरे खाने के रूप में पेश किया गया था. वैसे यह भारत में सड़क के किनारे मिलने वाले उत्पादों का ही थोड़ा परिष्कृत संस्करण था, लेकिन कम कीमत पर एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान वाले उत्पाद को भारतीय रंग में रंग कर बेचने का यह फार्मूला काम कर गया. एक बड़े बाज़ार को मद्दे नज़र रखकर एक बहुत बड़ी भोजन श्रंखला ने अपने उत्पादों को भारतीय रंग में रंग डाला.

और इसका लाभ भी उन्हें खूब मिला. यहीं यह बात बताना भी बहुत ज़रूरी लगता है कि जहां ज़्यादातर पश्चिमी देशों में कोई  भी ढंग का आदमी मैक्डोनल्ड या केएफसी जैसे फास्ट फूड ठिकानों पर जाना पसन्द नहीं करता, क्योंकि इन्हें सड़क छाप उत्पाद माना जाता है और यह माना जाता है कि केवल नीचे तबके के लोग ही इनके  उपभोक्ता हैं, वहीं भारत में ये उत्पाद  स्टेट्स सिम्बल के रूप में स्थापित हो गए हैं. स्कूल कॉलेजों के हाई फाई किशोर अगर मैक्डी में जाना गर्व की बात मानते हैं तो मध्य वर्ग के लोग अपने बच्चों के देखने दिखाने के लिए भी इन  जगहों को उपयुक्त मानते हैं.

भारत में इन फास्ट फूड श्रंखलाओं ने लोगों की और विशेष रूप से युवा पीढ़ी की खान-पान की आदतों में बहुत तेज़ी से बदलाव किया है. भले ही सेहत की परवाह करने वाले लोग और सजग मां-बाप इन उत्पादों के दुष्प्रभावों का कितना ही  रोना रोएं, युवा पीढ़ी इनसे कुछ इस तरह से जुड़ गई है कि वो किसी भी तरह की दूरी कायम करने को तैयार नहीं है.

और शायद यही वजह है कि एक के बाद एक अनेक विदेशी फास्ट फूड श्रंखलाएं  भारत को अपना अगला मुकाम बना चुकी हैं या बनाने की तैयारी में हैं. इन विदेशी श्रंखलाओं के भारत में आने का एक और रोचक परिणाम यह हुआ है कि पढ़े लिखे तबके के बहुत सारे युवा, जो शायद अन्यथा किसी भोजनालय में काम करने से गुरेज़ करते, बड़े उत्साह के साथ इनमें काम करने को लालायित नज़र आने लगे हैं. शायद  उन्हें यहां के अंग्रेज़ी तौर तरीके और अपेक्षाकृत उच्च वर्गीय माहौल अपनी तरफ खींचता  है.

इस तरह खान पान न केवल हमारी आदतें बदल रहा है, हमारी जीवन शैली पर भी असर डाल रहा है और यह करते हुए वो खुद को भी बदल रहा है. है न दिलचस्प बात!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 25 नवम्बर, 2014 को भारत में आकर बदल गया फास्ट फूड शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.         

Tuesday, November 18, 2014

कला, विवाद और तकनीक

कलाओं की दुनिया भी बड़ी मज़ेदार है. सभी कलाओं की. आए दिन कोई न कोई दंगा फसाद होता ही रहता है. वैसे यह मज़ेदारी कलाकारों के लिए नहीं हाशिये के लोगों के लिए होती है. दो प्रसंग आपके सामने रखता हूं. सर्दी का मौसम आते ही तमाम कलाकार भी जाग जाते हैं और एक के बाद एक कला-गतिविधियों का सिलसिला चल निकलता है. गोष्ठियां, प्रदर्शनियां, सम्मेलन और भी न जाने क्या-क्या! बहुत सारे कारणों से यह शहर इस तरह की गतिविधियों का बड़ा केन्द्र बनता जा रहा है. इधर शहर में जैसे ही एक बड़ी कला हलचल की सुगबुगाहट हुई, विघ्न संतोषी भी जाग उठे. किसी ने इस आयोजन में प्रदर्शित होने वाली कुछ कलाकृतियों की ऐसी व्याख्या कर दी कि लगा जैसे वे धर्म विशेष के लिए अपमानजनक हैं. बस फिर क्या था! जिन्होंने धर्म की रक्षा का सारा भार अपने कन्धों पर उठा रखा है वे दौड़े चले आए और अपने चिर परिचित तरीके से अपना दायित्व निर्वहन कर गए. जब इतना कुछ हुआ तो कलाकारों और कला में रुचि रखने वालों को भी कुछ न कुछ तो बोलना ही था. अच्छी बात यह है कि कला की दुनिया में शब्द ही चलते हैं, हाथ पांव नहीं. हाथ पांव चलाने वाले तो वे होते हैं जिनका कला से कोई लेना-देना नहीं होता. मुझे अनायास बरसों पहले का एक मंज़र याद आ रहा है. वो साइकिलों का ज़माना था. किसी की साइकिल से टकरा कर एक युवक गिर पड़ा. भीड़ इकट्ठी हो गई. तभी एक दादा किस्म का नौजवान जाने कहां से आया, भीड़ को चीर कर अन्दर  घुसा, उस युवक को, जो गिरा था, दो ज़ोरदार थप्पड रसीद किए, और फिर घूम कर वहां खड़े लोगों से पूछा, ‘क्या हुआ?’ कुछ यही हाल हमारे देश में हर विवाद में एक उत्साही वर्ग का होता है. उनका मुख्य उद्देश्य होता है अपनी ताकत का प्रदर्शन करना. सही ग़लत से न तो उन्हें कोई लेना-देना होता है और न उसकी उन्हें समझ होती है.

अब ज़रा साहित्य की तरफ़ मुड़ें. हिन्दी की एक मासिक पत्रिका ने एक लोकप्रिय मंचीय कवि का लम्बा इण्टरव्यू क्या छाप दिया, साहित्य की दुनिया में गहरी उथल पुथल मची हुई है. इधर जब से सोशल मीडिया पर साहित्यिकों की आवाजाही बढ़ी है इस तरह के हालात अक्सर बनते रहते हैं. असल में सोशल मीडिया त्वरित प्रतिक्रिया का माध्यम है और इसकी प्रकृति हमारे परम्परिक मुद्रण माध्यमों से बहुत भिन्न है, इसलिए यहां जो कुछ होता है उसका रूप,  रंग और स्वाद भी अलहदा ही होता  है. यह माध्यम आपको सोचने का अधिक वक़्त नहीं देता और उकसाता है कि आप तुरंत ही प्रतिक्रिया करें, तो बहुत स्वाभाविक है कि वे प्रतिक्रियाएं सुविचारित न होकर क्षणिक उत्तेजना या आवेग का परिणाम होती हैं. इस मंचीय कवि के इण्टरव्यू पर आने  वाली अधिकतर प्रतिक्रियाएं भी इसी किस्म की हैं और उन्हें गम्भीरता से लेने की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन जो लोग साहित्य की दुनिया से बहुत अधिक परिचित नहीं हैं वे न केवल इस कीचड़-उछाल में रस लेते हैं, वे इस तरह के विवादों को ही साहित्य का मूल स्वर भी मानने की ग़लती कर बैठते हैं. और यह बात बहुत चिंता की है. 

इधर सोशल मीडिया हमारे व्यवहार के नए प्रतिमान गढ़ रहा है. असल में, जैसा कि किसी भी नए  माध्यम के साथ होता है, हम सब भी अभी इसके साथ जीना और इसको बरतना सीख रहे हैं. और इस क्रम में हम सब से भी बहुत सारी चूकें हो रही हैं. लेकिन इसे स्वाभाविक माना जाना चाहिए. यह मीडिया हमारे लिए नई दिक्कतें भी पेश कर रहा है. इधर फेसबुक के अधिग्रहण के बाद उसी के अनुकरण पर व्हाट्सएप्प ने एक बड़ा बदलाव किया है जिससे बहुत लोग दुखी हैं. बदलाव यह कि जब आप किसी को कोई सन्देश भेजेंगे तो आपको यह भी पता चल जाएगा कि पाने वाले ने उस सन्देश को देख लिया है. यानि अगर जवाब न मिले तो आपके पास नाराज़ होने की एक वैध वजह होगी. वैसे तकनीक के उस्तादों ने इसका भी हल तलाश लिया है, लेकिन सब तो उस्ताद नहीं होते ना! और इस नई आई मुसीबत के सन्दर्भ में याद आ रहा है एक पुराना लतीफा. जब मोबाइल नया नया आया था, एक साहब ने जैसे तैसे पैसे जुटा कर खरीद लिया. एक दिन वे किसी सिनेमाघर में अपने दोस्त के साथ फिल्म देख रहे थे कि घण्टी बजी. दूसरी तरफ उनकी श्रीमतीजी थी. बात करने के बाद वे सज्जन अपने दोस्त से बोले, ‘यार, और सब तो ठीक लेकिन यह बात बड़ी गड़बड़ है कि इस मोबाइल से बीबी को यह भी मालूम हो जाता है कि हम कहां हैं. अब देखो ना, उसे पता चल गया कि हम सिनेमा देख रहे हैं, तभी तो उसने यहां फोन किया.’

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 18 नवम्बर, 2014 को कला-साहित्य में तकनीक ने बढ़ाए विवाद शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल  पाठ. 

Tuesday, November 11, 2014

बाबा मत कहो

अक्टोबर 2013 में 86 बरस की आयु में  और मार्च 2014 में  99 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए दो बड़े लेखकों राजेन्द्र यादव और खुशवंत सिंह में और कोई समानता भले ही न हो इन दोनों का नाम आते ही लोगों के चेहरों पर एक शरारत भरी हंसी ज़रूर तैर जाया करती थी. इस हंसी की वजह होती थी इनकी सार्वजनिक छवि, जिसके बारे में यह कह पाना तो बहुत कठिन है कि वो कितनी असल थी  और कितनी निर्मित, लेकिन उस छवि का सम्बन्ध महिलाओं में इनकी बहु प्रचारित दिलचस्पी से अवश्य था. यही वजह है कि लोग बहुत मज़े लेकर राजेन्द्र यादव  द्वारा सम्पादित चर्चित पत्रिका ‘हंस’ को ‘हंसिनी’ कहा करते थे और खुशवंत सिंह अपने खूब पढ़े जाने वाले कॉलमों में प्राय: किसी न किसी युवती से अपनी मुलाकात का ज़िक्र कर लोगों के दिलों में ईर्ष्या की अग्नि प्रज्ज्वलित किया करते थे. 

इन दोनों बेहद लोकप्रिय लेखकों की याद आई मुझे 1982 की बासु चटर्जी निर्देशित मज़ेदार फिल्म ‘शौकीन’ के ज़िक्र से. जी हां, किसी तेलुगु फिल्म की रीमेक वही ‘शौकीन’ फिल्म जिसमें तीन बुड्ढे अशोक कुमार, ए के हंगल और उत्पल दत्त एक युवती  (रति अग्निहोत्री) के पीछे पागल रहते हैं. इसी ‘शौकीन’ फिल्म का एक रीमेक हाल ही में रिलीज़ हुआ है  जिसका नाम समयानुसार बदल कर ‘द शौकीन्स’ कर दिया गया है और जिसमें तीन नए बुड्ढे आ गए हैं – पीयूष मिश्रा, अन्नू कपूर और अनुपम खेर. और  जब बुड्ढे बदल गए हैं तो स्वाभाविक है  कि युवती भी बदल गई है. रति की जगह लिज़ा हेडन ने ले ली है. वैसे तो यह बात भी मुझे कम दिलचस्प नहीं लग रही है  कि 42 बरसों के अंतराल ने कैसे ‘शौकीन’ का अंग्रेज़ीकरण कर उसे ‘द शौकीन्स’ बना दिया है, इस बात पर भी मेरा ध्यान गए बग़ैर नहीं रहा कि 1982 में आकर्षण का केन्द्र रति (सन्दर्भ कामदेव) थी और 2014 में उसकी जगह अंग्रेज़ी नाम वाली युवती आ गई है! देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान,  कितना बदल गया इंसान!

लेकिन क्या वाकई समय के साथ सब कुछ बदलता है? क्या स्त्री का पुरुष के प्रति और पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण पहले नहीं था और अब होने लगा है? मुझे तो ऐसा नहीं लगता है. बल्कि लगता यह है कि तमाम बदलावों के बीच भी ज़्यादा कुछ नहीं बदलता. इस सन्दर्भ में तो यह बात कुछ अधिक ही सत्य लगती है. मुझे अनायास याद आते हैं मिर्ज़ा ग़ालिब! उनका वो मशहूर शे’र है ना – आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक/ कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक. यह शे’र सीधे-सीधे उनकी बढ़ी उम्र की तरफ़ इशारा कर रहा है. न केवल उनकी बढ़ी उम्र की तरफ, दोनों की उम्र के अंतराल की तरफ़ भी. और शायद इस  शे’र के बाद वाली स्थिति इस शे’र में है – ग़ो हाथ को ज़ुम्बिश नहीं, आंखों में तो दम है/ रहने दो सागर-ओ-मीना मेरे आगे! लगता है कि यह शे’र कहते समय बड़े मियां करीब-करीब इस जहाने फानी को अलविदा कहने वाली अवस्था में पहुंच चुके थे.  वो ही स्थिति जिसे मुंह में दांत नहीं, पेट में आंत नहीं कहा जाता है! लेकिन फिर भी देखिए कि खुशनुमा मंज़र को वे अपनी आंखों के सामने रखना चाहते हैं.

और जब मैं ग़ालिब की बात कर रहा हूं तो केशवदास अपने आप मेरे सामने चले आ रहे हैं! वही केशवदास जिनको कठिन काव्य का प्रेत कहकर गरियाया जाता है, लेकिन जिनके काव्य कौशल का लोहा हर काव्य रसिक मानता है. सोलहवीं शताब्दी के इस कवि के बारे में यह जनश्रुति विख्यात है कि एक बार अपनी वृद्धावस्था में ये किसी कुएं के पास बैठे थे कि कुछ  युवतियां वहां आईं और उन्होंने इन्हें ‘बाबा’ कह कर सम्बोधित किया. तब कविवर ने यह दोहा कहा: केशव केसनि अस करी जस अरि हूं न कराहिं/ चन्द्र वदनि मृग लोचनी बाबा कहि कहि जाहिं  अर्थात केशव कहते हैं कि मेरे श्वेत केशों ने मेरे साथ जो दुर्व्यवहार किया है वैसा  दुर्व्यवहार तो भला कोई शत्रु भी नहीं करता है! और दुर्व्यवहार क्या किया? यह कि उनकी वजह से चांद जैसे मुखड़े वाली और मृग जैसे नेत्रों वाली युवतियां भी मुझे बाबा कह कर सम्बोधित कर रही हैं. 

और शायद ऐसे ही हालात में उर्दू के एक बड़े शायर हफीज़ जालन्धरी को बाआवाज़े बुलन्द यह कहना पड़ा होगा – अभी तो मैं जवान हूं! इसे मलिका  पुखराज की लरज़ती आवाज़ में सुनकर तो देखिये!  मुझे तो लगता है कि इंसान मरने से जितना नहीं डरता, उतना बूढ़ा होने से डरता है! याद है ना आपको, हमारे बिग बी ने क्या कहा था – बूढा होगा तेरा बाप! और जब हम बूढ़े हुए ही नहीं हैं तो फिर यह लाजमी है कि हम ‘शौकीन’ हो!


आपका क्या खयाल है इस बारे में -  अंकल!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार दिनांक 11 नवम्बर, 2014 को आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.              

Tuesday, October 28, 2014

त्योहार, बाज़ार और बदलाव

यह दिवाली भी हो ली! होली नहीं, हो ली! जीवन की एकरसता को तोड़ते हैं ये पर्व-त्योहार. नई ऊर्जा का संचार करते हैं. रिश्तों को मज़बूत करते हैं. आत्मीयता का विस्तार करते हैं. करने को और भी बहुत कुछ करते हैं. और शायद हममें से हरेक के लिए इन त्योहारों का मतलब अलग-अलग होता है. दिवाली आती है तो गृहिणियां घर की साफ-सफाई में जुट जाती हैं. बच्चे खरीदे जाने वाले पटाखों और नए कपड़ों की लिस्ट तैयार करने में, और जो कमाता है या कमाती है वो यह योजना बनाने में कि सबकी इच्छाएं  कैसे पूरी की जाएंगी! मध्यम वर्ग हर साल अपनी छोटी चादर से बड़ी देह को ढांपने की कोशिश करता है और चारों तरफ का परिवेश उसके एहसासे कमतरी को और बढ़ाता जाता है. 

त्योहारों के स्वरूप और उनके मनाने के तौर तरीकों में बहुत बदलाव आया है. यह कहते हुए मैं न तो नोस्टाल्जिक होना चाहता हूं और न इस स्वर में बात करना चाहता हूं कि हाय! गुज़रा हुआ ज़माना कितना अच्छा था! बल्कि मेरा तो मानना है कि परिवर्तन सृष्टि का नियम है और हर परिवर्तन में कुछ न कुछ अच्छा निहित होता है. जो भी बदलाव होते हैं उनके पीछे समय की मांग और समय के दबाव होते हैं.

इधर त्योहारों के स्वरूप में जो बदलाव हुए हैं उनमें से दो मुझे ख़ास तौर पर आकृष्ट करते हैं. अगर मैं बहुत पीछे न भी लौटूं और मात्र दस पन्द्रह बरस पहले के समय को याद  करूं तो पाता हूं कि आज करीब-करीब सारे त्योहारों के साथ बाज़ार बहुत मज़बूती और नज़दीकी से जुड़ता जा रहा है. कुछ बरस पहले जब मैं अमरीका में था तो यह देखकर चकित होता था कि चार जुलाई को,  जो वहां का स्वाधीनता  दिवस है, इन्डिपेंडेंस डे सेल की बड़ी धूम धाम होती है. अब मैं पाता हूं कि हमारा हर त्योहार हमसे ज़्यादा हमारे बाज़ार के लिए उत्सव बन कर आता है. इससे भी अधिक यह कि बाज़ार अपने लिए नए-नए उत्सव भी गढ़ने लगा है. इधर हर साल कई ऐसे मुहूर्त निकलने लगे हैं जिनमें खरीददारी करना बहुत शुभ बताया जाता है. सोचता हूं कि कुछ बरस पहले ये मुहूर्त क्यों नहीं होते थे!

कहना अनावश्यक है कि यह सब बाज़ार का खेल  है. और जब मैं बाज़ार की बात करता हूं तो अनायास मुझे प्रख्यात लेखक जैनेन्द्र कुमार का एक लेख याद आ जाता है – बाज़ार दर्शन. इस लेख में जैनेन्द्र बड़े पते की बात कहते हैं. वे कहते हैं कि बाज़ार में एक जादू है जो आंख की राह काम करता है. वह रूप का जादू है. लेकिन जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है वैसे ही इस जादू की भी एक मर्यादा है.  जेब भरी और मन खाली हो तो जादू का असर खूब होता है. जेब खाली पर मन भरा न हो तो भी जादू चल जाएगा. और इसलिए जैनेन्द्र जी इस जादू की एक काट भी बताते हैं. वे सलाह देते हैं कि बाज़ार जाओ तो मन खाली न हो. यानि मन अगर खाली हो तो बाज़ार न जाओ. समझाने के लिए वे यह उदाहरण देते हैं कि लू में बिना पानी पिए बाहर निकलने से रोका जाता है. यानि मन भरा हो तो फिर उसपर बाज़ार का जादू  नहीं चलेगा.  आदर्श स्थिति तो यही है कि बाज़ार अपना काम करे और हम उसका उतना ही प्रभाव अपने  पर होने दें जितना हमारे लिए आवश्यक है. तो क्यों न के एल सहगल साहब के गाए उस नग़्मे  को याद करें जिसमें वे कहते हैं कि  दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं....बाज़ार से गुज़रा हूं खरीददार नहीं हूं...

इधर त्योहारों को लेकर जो दूसरी बात मुझे बहुत महत्व की लगती है वो यह कि लोग इनके मनाने के तौर-तरीकों पर खुल कर विचार विमर्श करने लगे हैं. परम्परा के नाम पर होने वाले बहुत सारे रस्मो-रिवाज़ पर सवाल उठाए जाने लगे हैं और यह अनुरोध किए जाने लगे हैं कि उत्सव के नाम पर संसाधनों की बर्बादी न की जाए या औरों  को असुविधा में न डाला जाए. कुर्बानी, दिखावा, प्रदूषण, पानी की बर्बादी आदि के मुद्दे उठने लगे हैं.  यह हमारे समाज के परिपक्व होते जाने के लक्षण हैं और इनका स्वागत किया जाना चाहिए. मुझे इस बात में कोई हर्ज़ नहीं लगता कि बहुत सारे लोग परम्परा के निर्वहन के नाम पर जो चला आ रहा है उसे पुरज़ोर तरीके से उचित ठहराते हैं और उसमें किसी भी तरह के बदलाव का घोर विरोध करते हैं. जिस तरह बदलाव की चाहना करने वालों को अपनी बात कहने का हक है उसी तरह उससे असहमत होने वालों की बात भी सुनी जानी चाहिए. और सुनी भी जाती है.



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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 28 अक्टोबर, 2014 को इसी शीर्षक से प्रकाशित  आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 14, 2014

आत्म प्रचार के समय में इण्टरव्यू न देने वाला एक लेखक

कहा जाता है कि हमारा समय आत्म प्रचार का समय है. जो दिखता है वो बिकता है से भी आगे, जो बोलता है वो बिकता है के अनगिनत उदाहरण हम अपने चारों तरफ देखते  हैं. और जब आप बोलते हैं, अनवरत बोलते हैं तो भला किसे इतनी फुर्सत है कि यह जांचे कि आपके बोले में दूध कितना है और पानी कितना! आप तो बस बोलते रहिये. जीवन के तमाम क्षेत्रों में यह हो रहा है. साहित्य और कलाओं का क्षेत्र भी इस प्रवृत्ति से अछूता नहीं है. साहित्य में तो किताबों के लोकार्पण के आयोजन इस प्रवृत्ति के बेहतरीन उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं. और लोकार्पण से भी थोड़ा पीछे चलें तो आजकल तो अपने खर्चे से छपवाई गई किताबों की जैसी बाढ़ आई हुई है वह भी आत्म प्रचार की ही एक और छवि प्रस्तुत करती है. पहले आप अपनी जेब से दस-बीस हज़ार खर्च कर एक किताब छपवा लें, फिर अपनी हैसियत के अनुसार खर्चा कर भव्य या भव्यातिभव्य लोकार्पण समारोह आयोजित कर लें, जिसमें आपके दोस्त लोग आपको अपनी भाषा का न भूतो न भविष्यति लेखक साबित कर दें, और फिर जैसे-तैसे करके कुछ पत्र-पत्रिकाओं में अपनी किताब की प्रशंसा, जिसे समीक्षा कहा जाता है, प्रकाशित करवा लें. हो गए आप महान लेखक. इस पर भी मन न भरे तो प्रचार का एक और माध्यम आपके पास है – फेसबुक. हर रोज़ किसी महान लेखक के हाथ में अपनी किताब देकर फोटो पोस्ट करते रहें, लोगों को लगेगा कि सारी दुनिया सिर्फ और सिर्फ आपकी ही किताब पढ़ रही है.

पता नहीं संचार  माध्यमों को लेखक की कितनी ज़रूरत होती है, लेखकों को तो संचार माध्यमों की चिरौरी करते हमने खूब देखा है. संचार माध्यमों से जुड़े लोगों को यशाकांक्षी लेखकगण जिस तरह भाव देते हैं उससे उनकी नीयत बहुत साफ हो जाती है. और इन माध्यमों में जो लोग हैं, वे भी इस  बात को भली-भांति समझते हैं इसलिए  नाकाबिले बर्दाश्त हरकतें तक कर जाते हैं. कुछ  बरस पहले ऐसे ही एक मंज़र का प्रत्यक्षदर्शी होने का मौका मुझे अनायास मिल गया. हिन्दी के जाने-माने कथाकार राजेन्द्र यादव किसी आयोजन में भाग लेने जयपुर आए हुए थे. कार्यक्रम शुरु होने में कुछ विलम्ब था और वे पहली पंक्ति में बैठे थे. मैं उनसे कुछ गपशप कर रहा था. तभी एक सुकन्या खट-खट करती हुई आई और कॉन्वेण्टी लहज़े में अपना  परिचय देने के बाद उनसे कुछ सवाल जवाब करने की अनुमति चाही. राजेन्द्र जी ने सहर्ष अनुमति दी तो पहला सवाल उसने उनसे यह पूछा कि आपका नाम क्या है! राजेन्द्र जी ने शायद सवाल सुना नहीं, लेकिन मैंने उस कन्या से कहा कि ये राजेन्द्र  यादव हैं. मेरा खयाल था कि इस नाम को सुनकर उसे बहुत कुछ याद आ जाएगा. लेकिन मुझे उस कन्या की महानता का अन्दाज़ नहीं था. उसने दूसरा सवाल फिर राजेन्द्र जी से ही पूछा – क्या आप भी लिखते हैं? राजेन्द्र जी ने मुस्कुराते  हुए गर्दन हिलाई तो उसने तुरंत तीसरा  सवाल दागा- आप क्या लिखते हैं? मुझे लगा कि अब ज़रूर राजेन्द्र जी उखड़ जाएंगे, और शायद वे उखड़ भी गए होते, अगर उसी क्षण मंच से उन्हें बुला न लिया गया होता.

ऐसे ही एक प्रसंग का साक्षी रहने का सौभाग्य मुझे और मिला था. मैं दूरदर्शन केन्द्र पर अपनी एक रिकॉर्डिंग के लिए गया हुआ था. स्टूडियो खाली होने में कुछ देर थी तो प्रतीक्षा कक्ष में जा बैठा. एक अफसरनुमा सज्जन और एक सुमुखी वहां पहले से बिराजे हुए थे. शायद  उन्हें मेरी उपस्थिति नागवार गुज़री, लेकिन कहते भी क्या? मैं चोर आंखों-कानों  से उनकी बातचीत देख सुन रहा था. जो बात समझ में आई वो यह कि वे सज्जन किसी विभाग के उच्चाधिकारी थे और बतौर लेखक अपना साक्षात्कार रिकॉर्ड करवाने आए थे. उस भद्र महिला को उनका साक्षात्कार लेना था. जो बात सबसे रोचक थी वह यह कि वे सज्जन एक स्क्रिप्ट अपने साथ लाए थे और उस महिला को यह सिखा पढ़ा रहे थे कि वे क्या सवाल पूछेंगी और सज्जन क्या जवाब देंगे. यानि ‘ये रहे आपके सवाल और ये रहे मेरे जवाब’  वाला मामला था!


लेकिन इस सारे परिदृश्य के बीच यह जानना एक अलग तरह के गर्व की अनुभूति कराता  है कि हमारे ही समय में कम से कम एक लेखक तो ऐसा हुआ है जो न तो कभी किसी भी माध्यम को कोई इण्टरव्यू देता था और न अपने फैन्स से मिलना पसन्द करता था. अलबत्ता साधारण जन से मिलने और बतियाने में उन्हें कोई गुरेज़ नहीं था, बशर्ते वे भी बिना टेप रिकॉर्डर नोटबुक वगैरह पत्रकारी उपकरणों के उनके पास जाएं. जानते हैं कौन थे यह लेखक? आर के नारायण! वे ही आर के जिन्हें हम मालगुड़ी डे’ज़ और द गाइड के लेखक के रूप में जानते हैं!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में  मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 14 अक्टोबर, 2014 को  आत्मप्रचार के समय में भी नहीं दिया इण्टरव्यू शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.             

Tuesday, October 7, 2014

बेहतर कलाकार से पहले बेहतर इंसान

बॉलीवुड की चकाचौंध और ‘कुछ हटके  के नाम पर वही का वही करने वालों से भरी दुनिया में जो थोड़े-से नाम अपनी मौलिकता के लिए जाने जाते हैं विशाल भारद्वाज उनमें से एक है. विशाल ने अपनी दो फिल्मों ‘मक़बूल’ और ‘ओमकारा’ में अपने अनूठे अन्दाज़ में शेक्सपियर के अमर नाटकों क्रमश: मैकबेथ और ऑथेलो को भारतीय परिवेश के पैराहन में पेश कर खासी नामवरी हासिल की, और अब उन्हीं विशाल भारद्वाज ने शेक्सपियर के एक और,  और  कदाचित सर्वाधिक लोकप्रिय  नाटक हैमलेट पर एक फिल्म बनाई है – ‘हैदर’. होने और न होने के, टू बी ओर नॉट टू बी के  द्वन्द्व से जूझते नायक की इस  कालजयी महागाथा को विशाल भारद्वाज डेनमार्क से कश्मीर ले आए हैं और उसके  द्वन्द्व को आतंकवाद के साये में जी रहे 1995 के कश्मीर में कुछ इस तरह से चित्रित किया है कि सिने कला के कद्रदां उसकी तारीफ किए बग़ैर नहीं रह सके हैं.  विशाल भारद्वाज ने यह करने के लिए एक जाने-माने पत्रकार बशारत पीर की भी मदद ली है.  लेकिन  जब भी किसी जानी-मानी साहित्यिक कृति पर कोई फिल्म बनती है तो स्वाभाविक तौर पर कृति और फिल्म की तुलना होने लगती है और बहुतों को लगता है कि साहित्य के साथ न्याय नहीं हो सका है. ऐसा ‘हैदर’ के सन्दर्भ में भी है. लेकिन जो लोग किसी फिल्म को एक स्वतंत्र कृति के रूप में देखने के पक्षधर हैं वे इसे एक क्लासिक फिल्म घोषित कर रहे हैं. बहरहाल, हर कलाकृति की तरह किसी संज़ीदा फिल्म को अगर कुछ लोग पसन्द करते हैं तो कुछ नापसन्द भी करते हैं और सबके अपने-अपने तर्क भी होते हैं.

लेकिन मैं आज इस फिल्म की चर्चा नहीं करना चाह रहा हूं. विशाल भारद्वाज ने अपने कलाकारों से कितना उम्दा काम कराया है, इस बात की भी चर्चा नहीं कर रहा हूं.  मैं बात करना चाह रहा हूं विशाल भारद्वाज और उनकी गायिका पत्नी रेखा भारद्वाज की. और इनकी भी नहीं, इनकी संवेदनशीलता की. और यह बात करने के लिए मुझे विशाल और रेखा के अलावा एक और शख्स का ज़िक्र करना होगा. गुलज़ार के काम में रुचि रखने वालों के लिए पवन झा का नाम क़तई अनजाना नहीं है. पवन जयपुर में रहते हैं और सूचना प्रौद्योगिकी के माहिरों के बीच उनका नाम विशेष सम्मान के साथ लिया जाता है. इस क्षेत्र में उनके नाम के साथ जो अनेक बड़ी कामयाबियां जुड़ी हुई हैं उनका ज़िक्र करने की कोई ज़रूरत अभी नहीं है. इन्हीं पवन झा ने गुलज़ार के लिए एक वेबसाइट तब बनाई थी जब कम्प्यूटर हममें से ज़्यादातर लोगों के लिए बहुत दूर की चीज़ था. और ये ही पवन हिन्दी फिल्म संगीत में इतना गहरा दखल रखते हैं कि इस विधा के ज्ञानी  इन्हें एन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिन्दी फिल्म म्यूज़िक कहने में भी संकोच नहीं करते हैं. पवन बहुत लम्बे समय तक बीबीसी पर हिन्दी फिल्म संगीत की समीक्षा भी करते रहे हैं, यदा-कदा अब भी करते हैं. और ये ही पवन, आजकल रक्त कैंसर की चपेट में आकर अपनी गतिविधियों को सीमित  रखने को मज़बूर हैं.

तो इन्हीं पवन झा ने भी ‘हैदर’  की चर्चा पढ़ी-सुनी और हिन्दी फिल्म संगीत के एक अन्य रसिक कौस्तुभ पिंगले की फेसबुक वॉल पर किसी चर्चा के बीच यह लिख दिया कि वे भी बहुत चाहते हैं कि ‘हैदर’ देखें, लेकिन उनके चिकित्सक ने कीमोथैरेपी के बाद के दुष्प्रभावों से उन्हें बचाये रखने के लिहाज़ से सिनेमा हॉल जैसी  किसी भी सार्वजनिक जगह पर जाने की मनाही कर रखी है. वैसे स्वाभाविक रूप से पवन झा अपनी बीमारी की चर्चा से बचते हैं, लेकिन चर्चा का सिलसिला कुछ ऐसा बना कि अनायास वे यह लिख गए. इसमें कोई ख़ास बात भी नहीं थी. ऐसी चर्चाएं चलती रहती हैं.   

खास बात तो इसके बाद हुई. वह ख़ास बात जिसने मुझे भी यह लिखने के लिए मज़बूर कर दिया. संयोग से  पवन झा की यह पोस्ट विशाल भारद्वाज की निगाहों से भी गुज़री और उन्होंने और रेखा भारद्वाज ने, फौरन ही पवन के लिए जयपुर में ‘हैदर’ का एक एक्सक्लूसिव शो रखवा दिया. आज जब हम अपने चारों तरफ बड़े लोगों के छोटेपन के अनेक वृत्तांत देखते-पढ़ते-सुनते हैं, विशाल और रेखा का यह बड़प्पन मेरे दिल को छू गया. मेरे मन में तुरंत यह बात आई कि एक अच्छा इंसान ही एक अच्छा सर्जक भी हो सकता है. मैंने ‘हैदर’  फिल्म अभी  नहीं देखी है. देखने पर यह ज़रूरी नहीं है कि वह मुझे भी पसन्द आए. बहुतों को नहीं आई है. लेकिन विशाल और रेखा ने यह जो किया है उसकी वजह से मेरी निगाह में उनका क़द बहुत बड़ा  हो गया है!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में मंगलवार दिनांक 07 अक्टोबर, 2014 को एफबी पोस्ट से हुई हैदर की स्पेशल स्क्रीनिंग शीर्षक से प्रकाशित लेख का मूल पाठ. 


Tuesday, September 30, 2014

तबादलों की दुनिया का अंतरंग

राजस्थान में पिछले चौदह महीनों से तबादलों पर लगी रोक को हटा लिया गया है और अपने वर्तमान पदस्थापन से असंतुष्ट सरकारी कर्मचारियों को एक बार फिर आस बंध गई है. राज्य के ज़्यादातर सरकारी विभागों में औपचारिक रूप से कोई तबादला नीति नहीं है और बावज़ूद इस बात के कि राज्य कर्मचारियों को राजनीतिक संलग्नता की अनुमति नहीं है,  करीब-करीब सारे ही तबादले राजनीतिक आकाओं की मनमर्जी और कृपा से ही होते हैं.

अपनी लम्बी सरकारी नौकरी के आखिरी तीन सालों में मुझे सरकार के तबादला तंत्र को न केवल भीतर से देखने, उसका एक हिस्सा बनने का भी मौका मिला, और अब क्योंकि उस बात को समय बीत चुका है, कुछ अनुभव साझा करना अनुपयुक्त नहीं होगा. अपने इस कार्यकाल में मुझे दो मंत्रियों के साथ काम करने का मौका मिला, जो समान सरनेम के बावज़ूद अपने आचरण में एक दूसरे से एकदम अलहदा थे. जिन पहले वरिष्ठ मंत्री के साथ मैंने काम किया वे तबादलों में बहुत कम रुचि रखते थे और सारा दायित्व हम प्रशासनिक अधिकारियों पर छोड़ कर आश्वस्त रहते थे. अलबत्ता वे किसी भी तबादला या पदस्थापन प्रस्ताव के औचित्य के बारे में पूछ कर हमारी सदाशयता की जांच ज़रूर कर लेते थे. कम से कम तबादले हों इस बात की उनकी इच्छा का एक ही उदाहरण देना चाहूंगा. मेरे पास मुख्य मंत्री कार्यालय से कुछ तबादलों के लिए बार-बार सन्देश आ रहे थे. मैंने जब अपने मंत्री जी को इस बाबत बताया तो उन्होंने बेलौस अन्दाज़ में कहा कि अबके जब वहां से कोई सन्देश आए तो आप साफ कह दें कि मंत्री जी ने मना कर रखा है.

इनके बाद जिन दूसरे मंत्री जी के साथ काम करने का मौका मुझे मिला, उनकी रुचि सिर्फ तबादलों में थी. मंत्री जी के यहां ही सारी सूचियां बनती, बाकायदा फाइल पर हमें आदेश मिलता और यथानियम अनुपालना कर दी जाती. हमें कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं थी. यथाप्रस्तावित – सरकारी शब्दावली का यह शब्द हमारे लिए पर्याप्त था. ज़ाहिर है कि इतने सारे तबादले अपने साथ बहुत सारा अपयश भी लाते हैं. लेकिन उन दिनों अपने सुलझे हुए उच्चाधिकारी के मार्गदर्शन और निर्देशानुसार हम लोग इन तबादलों से एकदम निस्पृह थे. हमारे पास अगर कोई अनुरोध या परिवेदना लेकर आता भी तो हम स्पष्ट कह देते कि हमारे हाथ में कुछ नहीं है, जो भी करना है मंत्री जी ही करेंगे. इस तटस्थता का लाभ यह रहा कि हम अपयश से बचे रहे.   

लेकिन इन ताबड़तोड़ होने वालों तबादलों का एक मज़ेदार पहलू यह रहा कि मेरे हस्ताक्षर से किनके तबादले हो रहे हैं, कई बार यह भी देखना सम्भव नहीं हुआ. इस बात का एहसास मुझे तब हुआ जब मेरे एक बेहद करीबी मित्र ने फोन किया कि उसका तबादला हो गया है.  निश्चय ही यह बात बेहद कष्टप्रद थी. मैंने अपने उच्चाधिकारी से इस बारे में बात की और उनसे अनुमति चाही कि मैं मंत्री जी से कहकर इस तबादले को निरस्त करा दूं. उन्होंने बहुत साफ शब्दों में अपनी यह इच्छा दुहरा दी कि हमें तबादलों के इस जंजाल से दूर रहना चाहिए. जब मैंने ज़्यादा इसरार किया तो वे बोले कि जो मैं उचित समझूं  कर लूं, उनसे न पूछूं! मुझे उनकी बात समझ में तो आ रही थी लेकिन जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो आपको तर्क के खिलाफ जाने को विवश कर देते हैं. मैंने मंत्री जी को पूरी स्थिति बताई और उन्होंने बिना एक पल की भी देर किए जो करणीय था वो कर दिया. यह इकलौता उदाहरण है जब उस दौर में मैंने किसी तबादले में व्यक्तिगत रुचि ली.  

लेकिन तबादलों की इस सारी गाथा को याद करते हुए मैं एक प्रसंग को कभी नहीं भूल सकूंगा. एक दिन एक युवती एक बहुत अजीब अनुरोध लेकर मेरे पास आई. वो चाहती थी कि उसका तबादला जहां वो वर्तमान में पद स्थापित है उस जगह से जितना दूर सम्भव हो, किसी भी जगह कर दिया जाए. जब मैंने इस अजीब अनुरोध के बारे में जानना चाहा तो उसने बताया कि उसके ससुराल वालों ने उसके दाम्पत्य जीवन को नरक बना रखा है और वो चाहती है कि उनसे दूर जाकर अपने पारिवारिक जीवन के बिखरे सूत्रों को सम्हाले. व्यावहारिक रूप से मुझे इस अनुरोध को मानने में कोई दिक्कत नहीं लगी,  दिक्कत तो तब होती है जब कोई यह चाहे कि मेरा तबादला इसी जगह हो जाए और वहां पद रिक्त न हो. लेकिन अगर हर व्यावहारिक काम आसानी से हो जाए तो फिर सरकार ही क्या! इतना ही कहूं कि अपनी तमाम कोशिशों के बावज़ूद उस युवती को कोई राहत न दिला पाने का मलाल अब भी मेरे मन में है. 

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 30 सितम्बर, 2014 को तबादला महापुराण: मांगे मिलै न 'पोस्टिंग' शीर्षक से किंचित परिवर्तित रूप में प्रकाशित मेरे आलेख का मूल पाठ.         

Tuesday, September 23, 2014

कनेक्टेड या तनहा?

यूपीए सरकार के पराभव के बाद अनकही कहानियां सुनाने वाली किताबों का एक सिलसिला ही चल निकला है. इन किताबों में से एक पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह की किताब ‘वन लाइफ इज़ नोट इनफ़’  की चर्चा उसके एक कथन की वजह से इतनी ज़्यादा हुई और सारी बहस उसी कथन पर इस हद तक अटक कर रह गई  कि किताब की बाकी बातें, लेखक का व्यक्तित्व और उसकी लेखन शैली वगैरह सब नेपथ्य में चले गए. उनकी राजनीति से हटकर जब सोचता हूं तो मैं पाता हूं कि नटवर सिंह हमारे समकालीन राजनेताओं में अपने विद्या व्यसन की वजह से विलक्षण हैं. अपने समय के साहित्यकारों, कलाकारों और दुनिया भर के राजनेताओं से भी उनका जैसा घरोपा और अपनापा है उसकी तुलना शायद ही किसी और से करना मुमकिन हो. और उनका अंग्रेज़ी गद्य – उसका तो कहना ही क्या! मज़ाल है कि उनके लिखे में से एक भी शब्द को आप किसी दूसरे शब्द से बदलना मुनासिब समझें! इस बात का बहुत शिद्द्त से एहसास तब हुआ जब कुछ बरस पहले उनकी लिखी एक किताब ‘प्रोफाइल्स एण्ड लैटर्स’ का हिन्दी अनुवाद करने का अवसर मुझे मिला. नटवर सिंह जी ने अपने मित्र, प्रांत के एक अत्यंत वरिष्ठ और समादृत साहित्यकार से अपनी इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद करने के लिए किसी का नाम सुझाने को कहा, और उन्होंने मुझ पर अपने अनुराग के चलते मेरा नाम सुझा दिया. सच कहूं तो अपनी इतर व्यस्तताओं के चलते उनके स्नेह के दबाव में ही यह प्रस्ताव मैंने स्वीकार किया था, लेकिन जब अनुवाद करना शुरु किया तो मुझे समझ में आया कि मैंने खुद को किस मुश्किल में डाल लिया है!


बेशक यह किताब बहुत रोचक थी. अपने सुदीर्घ और विविधवर्णी  दायित्वों के दौरान नटवर सिंह जी जिन शख्सियतों के नज़दीकी सम्पर्क में आए उनके सजीव व्यक्तिचित्र और बेहद रोचक संस्मरण इस किताब में हैं. एक सूची पर नज़र डालते ही आप अनुमान लगा सकेंगे कि नटवर सिंह के ये अनुभव किस मैयार के होंगे. सी. राजगोपालाचारी, ई एम फॉर्स्टर, नीरद  सी चौधुरी, लॉर्ड लुई माउण्टबेटन, विजयलक्ष्मी पण्डित, आर के नारायण, हान सुयिन, इन्दिरा गांधी, ज़िया उल हक़ और नरगिस दत्त जैसे शीर्षस्थ राजनेता, लेखक, विचारक, और कलाकारों की यादों से सजी इस किताब का हर शब्द जैसे पाठक को अनुभव-समृद्ध करने वाला है. और जैसा मैंने कहा, अंग्रेज़ी गद्य को नटवर सिंह जिस कौशल से बरतते हैं वैसा इधर विरल है. किसी अनुवादक के लिए ऐसे गद्य का अनुवाद बहुत बड़ी चुनौती खड़ी करता है. बहरहाल, मैंने इस किताब का अनुवाद किया और हिन्दी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह से वह अनुवाद ‘चेहरे और चिट्ठियां’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ.


आज मुझे इस किताब की याद फेसबुक पर एक संदेश देखते हुए आई. जो लोग नटवर सिंह के बारे में ज़रा भी जानते हैं वे अंग्रेज़ी के महान कथाकार और सुपरिचित भारत मित्र (‘अ पैसेज टू इण्डिया’ वाले) ई एम फॉर्स्टर से उनके नज़दीकी रिश्तों के बारे में भी ज़रूर जानते हैं. स्वाभाविक ही है कि इस किताब में नटवर सिंह ने फॉर्स्टर को बेहद आत्मीयता के साथ याद किया है. वैसे फॉर्स्टर उम्र में नटवर सिंह से पचास बरस बड़े थे. कद तो खैर उनका बहुत बड़ा था ही. नटवर सिंह और फॉर्स्टर की दोस्ती चिट्ठियों और टेलीग्राम्स के ज़माने की थी इसलिए स्वभावत: इस लेख में चिट्ठियों के खूब सारे अंश हैं. प्रसंगवश यह बात भी कि फॉर्स्टर के 90 वें जन्म दिन पर लन्दन में उनके सम्मान में जो किताब प्रकाशित हुई नटवर सिंह उसमें एक मात्र भारतीय लेखक थे, और उनके लेख का शीर्षक था – ‘ओनली कनेक्ट!’  

मुझे लगता है कि आज का समय भी ओनली कनेक्ट का ही तो है. आप अपने चारों तरफ नज़र दौड़ाइये तो पाएंगे हरेक किसी न किसी से कनेक्टेड है – अपने मोबाइल पर. और इसी बात  की चर्चा  उस सन्देश में है जिसका ज़िक्र अभी मैंने किया है. इस मज़ेदार और साथ ही चिंतित करने वाले सन्देश में महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन को यह कहते उद्धृत किया गया है कि “मुझे भय है कि एक दिन तकनीक मानवता पर हावी हो जाएगी. इस दुनिया में सिर्फ बेवकूफों की पीढ़ी बच रहेगी.” और इसके बाद आठ तस्वीरें देकर यह टिप्पणी की गई है कि आइन्स्टाइन की आशंका कुछ जल्दी ही साकार हो गई है. तस्वीरें बड़ी रोचक हैं. मसलन एक तस्वीर में चार युवतियां एक कार में बैठी हैं और चारों ने अपनी गर्दनें अपने मोबाइलों में घुसा  रखी हैं, तीन युवतियां एक शानदार म्यूज़ियम में भव्य पेण्टिंग्स के नीचे बैठी हैं लेकिन देख वे अपने-अपने मोबाइल स्क्रीन्स को ही रही हैं, चार दोस्त एक रेस्तरां में हैं, सामने भोजन सजा है लेकिन वे चारों अपने-अपने मोबाइल्स को देख रहे हैं... और ऐसी ही दूसरी तस्वीरें हैं! यानि ‘ओनली कनेक्ट!’ और कनेक्ट होकर भी तनहा!   

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम  कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 23 सितम्बर, 2014 को नटवर की चेहरे और चिट्ठियों की दुनिया शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.