Tuesday, February 25, 2014

हम किधर जा रहे हैं?

शादियों का सीज़न है. लोग आपस में बातें करते हैं तो हरेक की यही कोशिश होती है कि कैसे खुद को दूसरों से सवाया सिद्ध किया जाए! एक कहता है कि यार, मेरे पास पंद्रह शादियों  के निमंत्रण हैं, क्या करूं, कैसे सब में  जाऊं, तो दूसरा नहले पर दहला मारता हुआ कहता है कि बस, पंद्रह ही? मेरे पास तो पूरे बत्तीस निमंत्रण पत्र पड़े हैं! और इन दोनों की बातें सुनते हुए मैं सोचता हूं कि मैं बड़ा खुशनसीब हूं कि मेरे पास मात्र एक निमंत्रण है और मैं उस शादी का भरपूर लुत्फ ले रहा हूं.

वैसे शादियों की दुनिया में काफी सारे बदलाव हुए हैं. ख़ास बात तो यह कि पहले जो शुद्ध पारिवारिक उत्सव हुआ करता था वो अब एक जन सम्पर्क गतिविधि में रूपांतरित हो चुका है. अब शादी में अपने परिवार की खुशी अपने निकट के लोगों से बांटने की बजाय यह दर्शाने की भावना अधिक आ गई है कि आप कितने  साधन सम्पन्न हैं और आपका सामाजिक घेरा कितना बड़ा है. मुझे नहीं लगता कि किसी भी शादी में आए हज़ार दो हज़ार पांच हज़ार लोगों को बेटे/बेटी के मां-बाप या खुद वर-वधू व्यक्तिश: जानते होंगे. और यही बात उन अतिथियों की तरफ से भी कही जा सकती है.

शादी के पहले वाले विशुद्ध पारिवारिक आयोजनों को भी शादी जितना ही भव्य बनाया जा रहा है और सज्जा, आवभगत, जलपान, भोजन  आदि पर खर्च बढ़ाने के अजीबो-गरीब तरीके तलाश किए जा रहे हैं. हाल ही में एक सेलेब्रिटी से मुलाक़ात हुई जो किसी शादी में पंद्रह मिनिट की अपनी उपस्थिति के लिए मायानगरी से उड़कर आए थे. एक मोटे अंदाज़ के अनुसार उनकी पंद्रह  मिनिट की उपस्थिति का व्यय चार  लाख था. और उस शादी में उन जैसे तीन-चार सेलेब्रिटी बुलवाए गए थे. कहना अनावश्यक है कि जिस परिवार में शादी थी उससे उनका कोई लेना-देना नहीं था. पिछले दिनों हमने अखबारों में पढ़ा ही है कि लोग अपनी शादियों की शोभा बढ़ाने के लिए किन-किन को और कहां-कहां से बुलाते हैं!

और शादी का खाना! कल तक जिन व्यंजनों से शादी की पहचान बनती थी वे कभी के रिटायर हो चुके हैं और उनकी जगह ऐसे-ऐसे व्यंजन ले चुके हैं जो कल्पना से भी परे हैं. व्यंजनों की गिनती करने बैठेंगे तो कैलक्युलेटर की ज़रूरत  महसूस होगी. हम जैसे मध्यमवर्गीय लोग अक्सर शादियों में यह शिकायत करते सुने जाते हैं कि अरे वहां तो इतनी चीज़ें थीं कि उन्हें चखना भी मुमकिन नहीं था! मुझे लगता है कि बात इससे भी आगे बढ़ चुकी है. अब चखना तो छोड़िये, देखना भी मुमकिन नहीं रह गया है. अक्सर ही यह होता है कि एक कहता है कि अमुक व्यंजन बहुत उम्दा था, तो दूसरा कहता है कि अच्छाहमने तो  देखा ही नहीं. खाने का बाड़ा इतना बड़ा होता है कि कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव की वो बात याद आ जाती है कि भैया इतना खर्चा किया तो कुछ रिक्शा भी चलवा दिये होते!

अब जहां इतने व्यंजन होंगे वहां खाने की बर्बादी तो होनी ही है. ऐसा तो नहीं है कि होस्ट को यह बात मालूम न हो! मुझे अक्सर अपने एक मित्र की बात याद आती है. उनके साथ ऐसी ही एक भव्य शादी में जाना हुआ, तो देखता क्या हूं कि वे किसी स्टॉल पर जाते हैं, वहां से एक प्लेट लेते  हैं और फिर  उसमें से ज़रा-सा चख कर उस प्लेट को डस्टबिन में डालकर दूसरी स्टॉल की तरफ बढ़ जाते हैं. मुझसे खाने की यह बर्बादी सहन नहीं हुई तो मैंने उन्हें टोक दिया. लेकिन उनपर मेरी बात का कोई असर नहीं हुआ. बड़े सहज और लापरवाह भाव से बोले, “जिसने हमें बुलाया है, वो भी तो यही चाहता है! क्या उसे नहीं मालूम कि इतनी सारी चीज़ें हम खा नहीं सकते हैं! ससुरे ने रखी ही इसलिए है कि हम चख लें और आगे बढ़ जाएं!” बात तो ठीक थी.

और इस सब के बीच असल शादी तो नेपथ्य में चली जाती है. ताम-झाम उसके लिए चाहे जितना जुटाया जाए, उसमें दिलचस्पी किसी की नहीं होती. शायद खुद वर-वधू की भी नहीं. पण्डितजी से आग्रह किया जाता है, और आग्रह भी क्या, उन्हें तो डांट कर कहा जाता है कि जल्दी से यह सब निबटा दो.

और यह सारा तमाशा हमारी आंखों के सामने हो रहा है.  हो क्या रहा है, हम खुद इसमें शामिल हैं! मौका मिलता है तो हम भी यही सब करते हैं. अपने साधनों की सीमितता की वजह से कर नहीं पाते हैं तो करने वालों की तरफ़ हसरत भरी निगाहों से ताकते हैं और सोचते हैं कि काश! हम  भी वैसा ही कर पाते!

यारों, कभी तो रुक कर सोचो कि हम किस तरफ़ जा रहे हैं? इस दौड़  का अंत कहां होगा? क्या शादियों की पारिवारिक आत्मीयता वापस नहीं लौटनी चाहिए?  

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 25 फरवरी, 2014 को आखिर इस दौड़ का अंत क्या होगा शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, February 18, 2014

किताबें और हम

किताबों के साथ हमारा रिश्ता बहुत अजीब है. चाहते हैं कि हमारे चारों तरफ किताबें ही किताबें हों. बस उन्हें छूते, सूंघते, देखते और पढ़ते हुए ज़िंदगी कट जाए! लेकिन जब किताबें इकट्ठी हो जाती हैं तो दूसरी तरह की बेचैनी घेरने लगती है! अरे! वक़्त इतना कम है और कितना कुछ पढ़ने को शेष है! मुझ जैसे मध्यवर्गीय लोगों का एक संकट और है और वह यह कि किताबें इकट्ठी  करने वाले मन का मकान की सीमित जगह से कोई तालमेल नहीं बैठ पाता है. और अगर पत्नी सुरुचि सम्पन्न हो तो यह कष्ट और कि किताबें उनकी आंखों में रड़कती हैं. ख़ास तौर पर पुरानी और जीर्ण-शीर्ण किताबें! मेरी पीढ़ी के लोगों की एक और बहुत बड़ी चिंता यह भी है कि हमारे बाद इन किताबों का क्या होगा? अपने अनेक दिवंगत आत्मीय साहित्य रसिकों के परिवार जन को उनकी बड़े जतन से संजोई लाइब्रेरियों के लिए फिक्र करते मैंने देखा है.

बहरहाल, आज तो मुझे किताबों से जुड़ी एक मज़ेदार घटना की याद आ रही है, उसी को आपसे साझा कर रहा  हूं. इस घटना को साझा करने से पहले यह कह दूं कि जिन मित्र से इस घटना का ताल्लुक है, उनके प्रति अवज्ञा या अवमानना का लेश मात्र भी भाव मेरे मन में नहीं है और उनकी मज़बूरी को अच्छी तरह समझता हूं.  महज़ अपने पाठकों के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए इसे साझा कर रहा  हूं.

दिवाली से पहले के दिन थे. ये दिन कबाड़ियों के लिए ख़ास होते हैं. लोग अपने घरों की सफाई करते हैं, अनुपयोगी सामान निकालते हैं और इस वजह से कबाड़ी लोगों का कारोबार उन दिनों अपने यौवन पर होता है. वो एक छोटा-सा कस्बा था जहां हम रहते थे. कुछेक कबाड़ी जो ठेलों पर अपना धंधा चलाते थे, मुझे भी जानते थे. जानने की वजह यह थी जब भी उनके ठेलों पर किताबें नज़र आतीं, मैं उन्हें रोकता और उनमें से अपने काम की किताबें छांट कर बिना मोलभाव किए खरीद लिया करता था. वे कबाड़ी कोई खास पढ़े लिखे तो थे नहीं, पर उन्हें यह ज़रूर समझ में आता था  कि  यह आदमी वो किताबें खरीदता है जिन्हें कोई दूसरा छूता तक नहीं है. मुझे इन कबाड़ियों से कई दफा बेशकीमती साहित्यिक सामग्री मिल चुकी थी, इसलिए मैं भी उनकी  तलाश में रहता था.

तो उस दिन जब मैं अपने कॉलेज जा रहा था, ऐसे ही एक परिचित कबाड़ी ने मुझे आवाज़ दी, और कहा कि साहब आज तो आपके काम का बहुत सारा माल मेरे पास आया है. मैं रुका, उसने अपना ठेला सड़क के किनारे खड़ा किया और किताबों के एक बड़े ढेर की तरफ इशारा कर मुझे अपने पसंद की किताबें चुन लेने को आमंत्रित किया. वाकई वे उम्दा साहित्यिक किताबें थीं. कविताओं की, कहानियों  की, लेखों की, आलोचना की. शीर्षक देख कर एक किताब हाथ में ली, उसे खोला तो देखा भीतरी पन्ने पर लिखा था – आदरणीय अमुक जी को सादर भेंट! और नीचे लेखक के हस्ताक्षर थे. मेरी दिलचस्पी जागी. दूसरी किताब देखी, वही बात. तीसरी, चौथी, पांचवीं....यानि ये सारी किताबें मेरे मित्र और सहकर्मी के यहां से आई थीं. बात मुझे समझ में आ गई. रचनाकार, विशेष रूप से युवा और उभरते हुए रचनाकार अपनी  नव प्रकाशित किताबें  सम्मति और  आशीर्वाद के लिए अपने वरिष्ठ रचनाकार सथियों को भेंट करते हैं. मेरे उन  मित्र को भी स्वभावत: ऐसी बहुत सारी किताबें  भेंट  में प्राप्त हुई थीं, और उन्होंने दिवाली की सफाई के दौरान उन किताबों से इस तरह निज़ात पाई थी. जैसा मैंने कहा, हम मध्यवर्गीय  लोगों के घरों में इतनी जगह नहीं होती कि जितनी किताबें हम चाहते हैं उन सबको सहेज कर रख सकें, ऐसे में किताबों की छंटनी एक मज़बूरी के रूप में सामने आती है.

ख़ैर! मुझे मज़ाक सूझा. दोस्तों में यह आम बात है. मैंने कोई बीसेक किताबें उस ठेले से खरीदीं. तब वो पचास पैसे में एक किताब देता था. दस रुपये बहुत ज़्यादा नहीं थे मज़ाक के नाम पर. किताबें घर लाया, और जहां-जहां उनके लेखकों ने मेरे परम मित्र का नाम लिखकर अपने दस्तखत कर रखे थे, उनके ठीक नीचे लिखा, आदरणीय अमुक जी को पुन: सादर भेंट! और अपने हस्ताक्षर कर दिए. शाम को उनके घर गया, और पूरी गम्भीरता और विनम्रता से उनसे कहा कि आपके लिए एक छोटी-सी भेंट लेकर हाज़िर हुआ हूं. और यह कहकर उन किताबों का ठीक से बनाया हुआ पैकेट उनके सामने रख दिया. उन्होंने बड़ी उत्सुकता से उस बण्डल को खोला......

और फिर?

बस! फिर क्या हुआ यह मत पूछिये!

इतना कह दूं कि बरसों बीत जाने के बाद अब भी हमारी दोस्ती उतनी ही प्रगाढ़ है! 

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लोकप्रिय दैनिक न्यूज़ टुडै  में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में 18 फरवरी, 2014 को सप्रेम मिली किताबें कबाड़ी को चढ़ी भेंट शीर्षक से प्रकाशित संस्मरण का मूल आलेख. 

Tuesday, February 11, 2014

यादें सांस्कृतिक कार्यक्रमों की

पिछले कुछ बरसों से जनवरी-फरवरी के महीने अपने प्रांत में शिक्षण संस्थाओं में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए आरक्षित हो गए हैं. अगस्त में छात्र संघों के चुनाव होते हैं, फिर नेताओं की उपलब्धता के अनुसार उनका उद्घाटन होता है (आजकल तो छात्र संघ कार्यालयों का उद्घाटन अलग से होने लगा है) और फिर साल बदलते-बदलते सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मूड बनने लगता है. अपनी पैंतीस से भी ज़्यादा  सालों की नौकरी के दौरान मुझे सांस्कृतिक कार्यक्रमों  के अनगिनत रोचक और मज़ेदार अनुभव हुए हैं. आज उन्हीं  में  से कुछ आपसे साझा कर रहा हूं.

जिस  ज़माने की मैं बात कर रहा हूं उस ज़माने में मेरे उस कॉलेज में विद्यार्थियों को नाटक करने का बड़ा शौक था. एक पूरी सांझ नाट्य संध्या के नाम से आयोजित की जाती थी और कम से कम दस-बारह एकांकी मंचित किए जाते थे. कलाकारों का उत्साह अपनी जगह और दर्शकों की हिम्मत अपनी जगह. दोनों में जैसे रस्साकसी चलती थी. उस रात नाट्य संध्या का संयोजन मैं कर रहा था. तेज़ सर्दी थी. कोई छठा या सातवां नाटक ख़त्म हुआ था, मैंने अगले नाटक की उद्घोषणा की और नेपथ्य में अपनी कुर्सी पर आ बैठा. कोई चार-पांच मिनिट हुए होंगे कि उस नाटक के कलाकार भी स्टेज छोड़ वहीं आने लगे. मुझे ताज्ज्जुब हुआ. पूछा क्या हुआ? तो बजाय कुछ बोलने के उन्होंने मुझे मंच की तरफ जाने का इशारा कर दिया.  जाकर  देखा तो ऐसी तनहाई का जवाब नहींवाला आलम था. पूरा पाण्डाल खाली पड़ा था. बेचारे किसके लिए नाटक करते?

थोड़ा और पीछे की तरफ लौटता हूं तो याद आता है कि उस छोटे कस्बे में सहशिक्षा का कॉलेज होने के बावज़ूद लड़कियां मंच पर आने में झिझकती थीं. लड़कियों की भूमिकाएं लड़कों को ही निबाहनी पड़ती थीं. हम लोग एक साहित्यिक नाटक कर रहे थे और सभी चाहते थे कि उसमें नायिका का रोल कोई लड़की ही करे. कई छात्राओं से बात की लेकिन सभी ने अपने मां-बाप की मनाही की दुहाई देते हुए मना कर दिया. अंतत: एक साथी प्राध्यापिका ने मां बाप को मनाने की ठानी और वे बड़े उत्साह के साथ एक लड़की के घर जा पहुंची. अभिभावकों ने भी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया, चाय-पानी करवाया. लेकिन जैसे ही उन्होंने यह अनुरोध किया कि वे अपनी बेटी को नाटक में अभिनय करने की अनुमति दें, मां-बाप के तेवर एकदम से बदल गए. दोनों एक स्वर में बोले: “देखो मैडम जी, नौकरी आप करती हो. आपको जो करना है कर लो. हमारी बेटी तो स्टेज पर न आज जाएगी और न कल!” कहना गैर ज़रूरी है कि उस साल वो  नाटक नहीं हुआ.

एक साल तो और भी मज़ेदार वाकया हुआ. मैं नृत्य प्रतियोगिता का प्रभारी था. प्रभारी के नाते मेरी सबसे बड़ी फिक्र यह थी कि कोई अशालीन प्रस्तुति न हो जाए. एक शाम मैं नृत्य प्रस्तुतियों की स्क्रीनिंग कर रहा था. उन दिनों कैसेट पर संगीत बजाकर नृत्य किए जाते थे. ज़्यादातर विद्यार्थी फिल्मी और राजस्थानी गाने बजाकर उनपर नृत्य करने के इच्छुक थे. तभी एक सीनियर छात्र काफी बड़ा कैसेट प्लेयर लेकर आया. मैंने उससे पूछा कि वो किस गाने पर नृत्य करेगा, तो उसने कुछ लापरवाही के भाव से कहा, सर! मैं इंगलिश गाने पर डांस करूंगा.  मैंने उससे गाने का नाम जानना चाहा तो उसने फिर वही जवाब दुहरा दिया. शायद  उसे लगा होगा कि ये हिंदी के प्रोफेसर साहब भला अंग्रेज़ी गाने की अदरक का स्वाद क्या जानते होंगे! ख़ैर! उसने अपना कैसेट प्लेयर सेट किया, अपना हुलिया दुरुस्त किया और अपने एक साथी को इशारा किया तो उसने प्लेयर का प्ले बटन दबा दिया और इसने थिरकना-मटकना शुरु कर दिया. तीन-चार सैकण्ड बीते होंगे कि मुझे समझ में आ गया कि जिस इंगलिशगाने पर वो डांस  करना चाहता है वो फ्रेंच संगीतकार शेरोने का उन दिनों कुख्यात नम्बर लव इन सी-माइनर था  जिसमें  शारीरिक सम्बंधों के  संकेत देने वाले ड्रम और  कामोत्तेजक ध्वनियां थीं. ज़ाहिर है कि मैं उस नम्बर से भली  भांति परिचित था (अखिर हम भी तो जवान थे) और उस पर डांस करने की अनुमति देने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था. मैंने फौरन संगीत बंद करने का इशारा किया, और कहा कि वह अपने डांस के लिए कोई और गाना चुन ले. वह विद्यार्थी बार-बार कह रहा था कि सर यह अंग्रेज़ी गाना है, और मैं इसी पर डांस करना चाहता हूं,  और मैं था कि बार-बार उससे कह रहा  था कि वो कोई और गाना चुने. उसे लग रहा था कि मुझे अंग्रेज़ी गाना समझ में नहीं आ रहा है जबकि  मुझे वो नम्बर  कुछ ज़्यादा ही समझ में आ रहा था. चचा ग़ालिब ने शायद  ऐसी ही किसी स्थिति में कहा  होगा: 
यारब न  वो समझे  हैं  न समझेंगे  मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दें मुझको ज़ुबाँ और.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 11 फरवरी, 2014 को जब हिंदी के प्राध्यापक ने जाना अंग्रेज़ी गाना शीर्षक से प्रकाशित टिप्पणी का मूल आलेख. 

Wednesday, February 5, 2014

जब ज्योतिष में मेरे अविश्वास को चुनौती मिली

आप इसे मात्र एक तथ्य कथन के  रूप में लें  कि ज्योतिष  में मेरा तनिक भी विश्वास  नहीं है. कृपया इसे इस शास्त्र अथवा विज्ञान अथवा विद्या – यह जो भी हो, पर मेरी किसी टिप्पणी के रूप में न पढ़ें. हर इंसान की कुछ कमज़ोरियां और कुछ ज़िदें होती हैं, तो मेरी भी है, बस! मां-बाप ने मेरी जन्म पत्री बनवा दी, तो बनी हुई रखी है. मेरे परिवार वालों ने मेरे बच्चों की जन्म पत्रियां बनवा दीं, वो हमने अपने बच्चों को दे दीं. यदा-कदा बच्चे चाहते हैं तो उनकी इच्छानुसार उनकी जन्म पत्रियां दिखाकर जो बताया जाता है वो उन तक पहुंचा भी देते हैं. यानि ज्योतिष  को लेकर किसी तरह की नकारात्मक कट्टरता का भाव भी मन में नहीं है.  लेकिन जैसा मैंने कहा, मैंने कभी किसी ज्योतिषी को अपना हाथ नहीं दिखाया, और न कभी किसी पण्डित से अपना भविष्य पूछा.

बहुत मज़े की बात यह कि यह सब मैं इसलिए लिख रहा हूं कि जीवन में कम से कम एक अनुभव मुझे ऐसा हुआ जिसने मेरे इस अविश्वास को हिला डाला. 

बात करीब ढाई दशक पुरानी है. मेरा  ट्रांसफर एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज में हो गया था और मैं उसे निरस्त कराने के लिए बार-बार राजधानी के चक्कर लगा रहा था. ऐसे ही एक चक्कर के दौरान तीन-चार दिन जयपुर में टिकना पड़ा. तब संयोग से मेरे साथ मेरे ही  कॉलेज के भौतिक शास्त्र के एक प्रोफेसर मित्र भी समान कष्ट के निवारण के लिए ठहरे हुए थे. ज्योतिष में उनकी बहुत अच्छी गति थी. अगर कोई पूछता तो वे  तर्क संगत व वैज्ञानिक तरह से गणना आदि करके भविष्य बता दिया करते थे. परेशानी के उस आलम में मैं भी उनसे पूछ बैठा कि मेरा ट्रांसफर कब तक निरस्त हो जाएगा! उन्होंने बाकायदा लम्बी चौड़ी गणना करके मुझे एक तारीख बताई, कि इस तारीख को, मान लीजिए बारह तारीख को,  मेरा काम हो जाएगा.

घटनाक्रम कुछ इस तरह चला कि दस तारीख को, यानि उनकी बताई तिथि से दो दिन  पहले मुझे मेरा इच्छित आदेश मिल गया. अपना मनचाहा हो जाने की खुशी के साथ-साथ मेरे मन में एक दुष्टतापूर्ण  खुशी यह भी थी कि ज्योतिष ग़लत साबित हो गया. मैं बड़ी खुशी-खुशी वो आदेश लेकर जब उस कॉलेज में पहुंचा जहां से रिलीव होकर मुझे फिर से अपने पसन्दीदा कॉलेज में पद भार ग्रहण करना था तो वहां के प्राचार्य ने उस आदेश को पढ़कर कहा कि उस आदेश के आधार पर तो वे मुझे रिलीव नहीं कर सकते. मैंने भी आदेश को ध्यान  से पढा  तो पाया कि एक  क्लर्कीय ग़लती की वजह से उसमें कॉलेजों के नाम में उलटफेर हो गई है और जहां से मुझे रिलीव होना है उस  कॉलेज की बजाय जहां मुझे ज्वाइन करना है उस कॉलेज का नाम लिख दिया गया है. मैंने प्राचार्य जी को समझाने की बहुत  कोशिश की कि यह महज़ एक क्लैरिकल मिस्टेक है, और इस आदेश का  कोई अन्य अर्थ निकल ही नहीं सकता है,  लेकिन वे मेरी बात से सहमत होकर भी उस आदेश को स्वीकार करने का ख़तरा  उठाने को  तैयार नहीं हुए. अब मेरे पास इस बात के सिवा कोई चारा नहीं था कि मैं उस आदेश को लेकर फिर से पाँच  सौ किलोमीटर दूर राजधानी जाऊं और आदेश को संशोधित करवा कर लाऊं. तब तक इण्टरनेट आदि हमारी ज़िन्दगी में नहीं आए थे, और आज जब आ गए हैं तब भी सरकारी काम तो अपनी ही तरह से होते हैं.

रात भर की यात्रा कर जयपुर आया, सम्बद्ध अधिकारी के सम्मुख उपस्थित हुआ, उनसे अपनी पीड़ा बयान की, उस आदेश में संशोधन करवाया, उसे लेकर फिर पाँच  सौ किलोमीटर की यात्रा कर अपने अनचाहे कार्यस्थल पर पहुंचा, प्राचार्य जी के समक्ष वो नया आदेश पेश किया, उसके आधार पर वहां से अपने इच्छित कॉलेज में ज्वाइन करने के लिए रिलीव हुआ और वहां से रिलीव होते ही अस्सी किलोमेटर की यात्रा कर अपने इच्छित कॉलेज में पहुंचकर फिर से ज्वाइन किया. कहना अनावश्यक है कि यह काम उसी बारह तारीख को हुआ जिसकी भविष्यवाणी मेरे उक्त प्रोफेसर मित्र ने की थी.

अगर इस एक घटना को प्रमाण माना जा सके तो मैं मानने को विवश हो गया कि ज्योतिष एक विश्वसनीय शास्त्र है, बशर्ते कोई उसको बरतने की योग्यता रखता हो. क्योंकि इस घटना के बाद मेरे जीवन में ऐसा कोई मौका नहीं आया जब मुझे  किसी भविष्यवक्ता की शरण में जाना पड़ा हो, इसलिए मैं यह नहीं कह सकता कि  मेरा उक्त अनुभव संयोग था या कुछ और!      

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' के अन्तर्गत दिनांक 4 फरवरी, 2014 को 'क्लर्क की भूल ने करा दिया ज्योतिष पर यकीन' शीर्षक से प्रकाशित मेरे आलेख का मूल पाठ.