Thursday, July 24, 2008

अतार्किक व्यवहार का अदम्य आकर्षण

हम सोचते हैं कि मानव अधिकांश स्थितियों में बहुत बुद्धिसंगत तरीके से सोचते हैं, खास तौर पर व्यापार के मामलों में या कामकाजी जीवन जैसे मामलों में जहां बुद्दिसंगतता आवश्यक मानी जाती है. शेयर्स के भाव गिरते हैं, फिर भी आप उन्हें बेचने से बचते हैं. लोग मृत रिश्तों को भी ढोते रहते हैं. तमाम खतरों से परिचित होते हुए भी लोग प्रेम करने का दुस्साहस करते हैं. लेकिन ओरी और रोम ब्राफमान कहते हैं कि हम प्राय: बुद्धिसंगत तरीके से नहीं सोचते. अपनी नई किताब स्वे: द इर्रेसिस्टिबल पुल ऑफ इर्रेशनल बिहेवियर में ये ब्राफमान भ्राता, एक व्यापारी और दूसरा मनोवैज्ञानिक, इसी विधा की बहुचर्चित किताबों फ्रीकोनोमिक्स और ब्लिंक (दोनों किताबों की चर्चा इस कॉलम में की जा चुकी है) के विमर्श को आगे बढाते हुए एक बार फिर से मानव मन की अतल गहराइयों में उतर कर उसकी अतार्किकता की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं. मनुष्य के इसी इर्रेशनल यानि अतार्किक व्यवहार को उन्होंने स्वे करना कहा है, यानि डिगना, झूलना, झुकना.
ब्राफमान भ्राताओं ने अपनी किताब की शुरुआत एक प्रभावशाली उदाहरण से की है. 1977 में के एल एम का एक वायुयान दुर्घटनाग्रस्त हुआ था, जिसमें उसके 584 यात्री मारे गए थे. इस दुर्घटना को उडान इतिहास की भीषणतम दुर्घटना के रूप में स्मरण किया जाता है. लेखकों ने विश्लेषण करके बताया है कि रास्ता बदले जाने के बाद पायलट अपनी मंज़िल पर पहुंचने के बारे में इतना अधिक फोकस्ड था कि वह एक नितांत बेतुके निर्णय की तरफ स्वे कर गया जिसकी परिणति इस हादसे में हुई. किताब का प्रत्येक अध्याय किसी दिलचस्प विचार से प्रारम्भ होता है, और फिर कुछ ऐसी चर्चा की जाती है जो पहली नज़र में अतार्किक लगती है, लेकिन लेखक के विश्लेषण के बाद आप खुद सोचते हैं कि बात तो ठीक है.
सामाजिक मनोविज्ञान, व्यवहारवादी अर्थशास्त्र और संगठनात्मक व्यवहार के क्षेत्र में हुई नवीनतम शोधों के आधार पर हमारे जीवन के विविध क्षेत्रों के जिन महत्वपूर्ण स्वे’ज़ की चर्चा इस किताब में की गई है वे ये हैं:
-प्राय: हम सम्भावित नुकसानों के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा रिएक्ट कर जाते हैं और दूरगामी परिणामों की बजाय निकटगामी परिणामों पर अधिक केन्द्रित रहते हैं.

-कोई नुकसान जितना ही ज़्यादा अहम होता है हम उसके प्रति उतने ही विमुख रहते हैं यानि हम यह दिखाते हैं कि वह नुकसान हमें अधिक प्रभावित नहीं कर रहा.
-हम प्रतिबद्धता के व्यापक सम्मोहन से ग्रस्त रहते हैं. जब हम किसी रिश्ते, निर्णय या जीवन की स्थिति से लगाव महसूस करते हैं तो हमारे लिए यह बहुत मुश्किल होता है कि हम बेहतर उपलब्ध विकल्पों पर नज़र भी डालें.
-मनुष्यों में एक प्रवृत्ति यह होती है कि वे किसी व्यक्ति या वस्तु पर कुछ खास गुण आरोपित कर लेते हैं और ऐसा करते हुए अक्सर तथ्यों की अनदेखी कर जाते हैं. इसी को मूल्य आरोपण कहा जाता है.
-मनुष्यों में एक और प्रवृत्ति यह होती है कि आरम्भिक राय के आधार पर व्यक्तियों, वस्तुओं या विचारों पर लेबल लगा लेते हैं और फिर उस लेबल पर पुनर्विचार नहीं करते. इसे निदान का पूर्वाग्रह कहा जाता है.
-हम लोग दूसरों को डिगाते रहते हैं और दूसरों के कारण खुद भी डिगते रहते हैं. लेखकों ने इसे गिरगिटी प्रभाव नाम दिया है.
-लोग साफ सुथरा व्यवहार करना चाहते हैं और दूसरों से भी ऐसी ही आशा रखते हैं.

- हम किसी काम को या तो स्वार्थ की निगाह से परखते हैं या परोपकार की निगाह से. लेकिन एक साथ दोनों निगाहों से कभी नहीं देखते.
-समूह हमारी तर्क क्षमता को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं.
किताब के अंत में लेखक ने ऐसी अनेक युक्तियां सुझाई हैं जिनके प्रयोग से हम अपने बेतुके व्यवहार –या स्वे- पर काबू पा सकते हैं. लेकिन ये युक्तियां प्रभावी हो सकती हैं या नहीं, यह आपके नज़रिये पर निर्भर करता है. मुझे तो लगा कि ज़्यादातर युक्तियां नितांत सरलीकृत उपदेश हैं. जैसे, लेखक कहते हैं कि अपने बिगडे सोच पर, जो कि मूल्य आरोपण की परिणति होता है, पार पाने के लिए आप चीज़ों को उस रूप में देखें जैसी कि वे असल में हैं, न कि जैसी दिखाई देती हैं. सिद्धांतत: बात ठीक है, लेकिन इस पर अमल कितना सम्भव है? फिर भी, अगर इस तरह के आदर्शीकृत सुझावों की बात अलग छोड दें तो किताब की महता असंदिग्ध है, इसलिए कि इसके माध्यम से हम मानवीय व्यवहार को और अधिक बारीकी से समझ पाते हैं, अपने तथा औरों के अतार्किक व्यवहार की तह में जा सकते हैं और उसके प्रति अधिक सदय तथा सम्वेदनशील हो सकते हैं. इतना भी कम नहीं है.

◙◙◙

Discussed book:
Sway: The Irresistible Pull of Irrational Behaviour
By Ori Brafman & Rom Brafman
Published by: Doubleday Business
Hardcover, 224 pages
US $ 21.95








Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

Thursday, July 17, 2008

कामयाबी का राज़

स्टार ट्रैक के स्क्रिप्ट लेखक और स्टीफेन हॉकिंग की बहु चर्चित पुस्तक ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ के सह लेखक के रूप में सुविख्यात लिओनार्ड म्लोदिनोव की नई किताब द ड्रंकर्ड्स वॉक: हाउ रैण्डमनेस रूल्स अवर लाइव्ज़ यह बताती है कि हमारी ज़िन्दगी में संयोगों और आकस्मिकता की क्या अहमियत है. खुद म्लोदिनोव एक विश्वविद्यालय में भावी वैज्ञानिकों को रैण्डमनेस यानि बेतरतीबी के बारे में पढाते हैं. किताब बहुत दिलचस्प तरीके से हमें इस बात का एहसास कराती है कि दुनिया किस तरह चलती है, और इस बारे में हम जो जानते हैं, वह कितना अल्प है. इस किताब में म्लोदिनोव गुज़रे समय के महानतम लोगों से लगाकर आज के मामूली लोगों तक की ज़िन्दगी और क्रिया कलाप के अनेक प्रसंग सामने लाकर हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बेतरतीबी या आकस्मिकता, संयोग और सम्भाव्यता की भूमिका को उजागर करते हैं और यह बताते हैं कि कैसे एक साधारण बातचीत या किसी बडी आर्थिक क्षति- इन सबकी अहमियत को हम ग़लत तरह से ग्रहण करते हैं.

दर असल ड्रंकर्ड्स वॉक एक गणितीय अभिव्यक्ति है जो किसी तरतीब हीन गति को अभिव्यक्त करती है. इस अभिव्यक्ति को अपनी किताब का शीर्षक बना कर लेखक म्लोदिनोव ने कहना चाहा है कि हमारी ज़िन्दगी का अधिकांश पहले से केवल उतना ही पूर्वानुमेय होता है जितना किसी मधुशाला से ताज़ा-ताज़ा निकले लडखडाते आदमी के क़दम. यानि किसी शराबी के कदमों का बहुत कम पूर्वानुमान लगाया जा सकता है.
म्लोदिनोव अपनी किशोरावस्था को याद करते हैं और कहते हैं कि वे मोमबत्तियों की पीली लौ को बेतरतीबी से हिलते-डुलते देखा करते थे. तब वे सोचते कि मोमबत्तियों की लौ की हलचल में निश्चय ही कोई तार्किक क्रम होता है और वैज्ञानिक ज़रूर ही उस क्रम को समझ सकते होंगे. लेकिन उन्हीं दिनों उनके पिता ने उनसे कहा कि ज़िन्दगी ऐसी नहीं होती. कई बार बहुत कुछ ऐसा घट जाया करता है जिसकी पहले से कल्पना नहीं की जा सकती. खुद उनकी ज़िन्दगी का एक वाकया इस बात की पुष्टि करता है.

म्लोदिनोव के पिता एक नाज़ी यातना शिविर में क़ैद थे. जब भूख असहनीय हो गई तो उन्होंने एक बेकरी से डबल रोटी चुरा ली. बेकरी के मालिक और गेस्टापो ने मिलकर सारे संदिग्धों को एक क़तार में खडा कर पूछा कि डबलरोटी किसने चुराई है. जब किसी ने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया तो उन्होंने सैनिकों को हुक्म दिया कि वे इन लोगों को एक-एक करके उस वक़्त तक शूट करते रहें जब तक कोई अपना अपराध स्वीकार न कर ले या सारे ही मर न जाएं. ऐसे में दूसरों की जान-बचाने के लिए म्लोदिनोव के पिता आगे आए. बाद में उन्होंने अपने बेटे से कहा कि उन्होंने किसी महानता की वजह से ऐसा नहीं किया. इसलिए किया कि मरना तो हर हाल में था: ज़ुर्म कुबूल करके भी, चुप रहके भी. पिता को बेकरी वाले ने एक अच्छी नौकरी पर अपने सहायक के तौर पर रख लिया. पिता ने म्लोदिनोव से कहा कि यह सब संयोग नहीं तो और क्या था? अगर ऐसा न होकर कुछ भी और हुआ होता तो तुम्हारा जन्म ही नहीं हुआ होता. यानि तुम्हारे जन्म में तुम्हारी तो कोई भूमिका नहीं थी. इसी क्रम को आगे बढाते हुए खुद म्लोदिनोव ने सोचा कि उन्हें तो अपने होने के लिए हिटलर का आभारी होना चाहिए क्योंकि जर्मनों ने उनके पिता की पत्नी और दो बच्चों को मारकर उनकी पिछली ज़िन्दगी की स्लेट को पोंछ दिया था. अगर युद्ध न हुआ होता और उनके पिता ने न्यूयॉर्क पलायन न किया होता तो म्लोदिनोव की मां से उनकी मुलाक़ात ही न हुई होती. और तब उनके दो भाइयों का जन्म ही न हुआ होता.

निजी अनुभवो से हटकर एक सार्वजनिक प्रसंग के माध्यम से भी म्लोदिनोव यही बात कहते हैं. वे कहते हैं कि आज जे के रॉलिंग की हैरी पॉटर की लोकप्रियता असन्दिग्ध है. लेकिन प्रकाशकों ने इसे एक-दो नहीं पूरे नौ बार अस्वीकृत किया था. हम हिन्दुस्तानी चाहें तो अमिताभ बच्चन के शुरुआती दौर को भी याद कर सकते हैं जब उनकी आवाज़ और कद काठी को अस्वीकार किया गया था. इसीलिए म्लोदिनोव कहते हैं कि किसी फिल्म की सफलता-असफलता ऐसे बहुत सारे तत्वों पर निर्भर करती है जिन पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं होता.

यही वजह है कि म्लोदिनोव कहते हैं कि हमारी ज़िन्दगी की रूपरेखा तो मोमबत्ती की लौ की मानिन्द होती है. बहुत सारी आकस्मिक घटनाएं, जैसे हवा के झोंके, उस लौ को अनेकानेक दिशाओं की तरफ धकेलती हैं और उनके मुक़ाबिल खुद लौ का अस्तित्व उसका भविष्य तै करता है. इसलिए न तो ज़िन्दगी की दिशा और उसकी गति की कोई व्याख्या की जा सकती है और न उसका पूर्वानुमान किया जा सकता है.

म्लोदिनोव कहते हैं कि ऐसी तमाम अनिश्चितताओं के बीच समझदारीपूर्ण निर्णय करना और सही विकल्प चुनना खास तरह की दक्षता की मांग करता है, और दूसरी सारी दक्षताओं की तरह इस दक्षता को भी अनुभव व श्रम से निरंतर विकसित किया जा सकता है. लेकिन, याद रखें, ज़िन्दगी के खेल में भले ही कुछ खिलाडी दूसरों से बेहतर हों, उनकी हार-जीत में रैण्डमनेस की भूमिका सर्वोपरि होती है.

◙◙◙

Discussed book:
The Drunkard’s Walk: How Randomness Rules Our Lives
By Leonard Mlodinow
Published by Pantheon
Hardcover, 272 pages
US $ 24.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 17 जुलाई, 2008 को प्रकाशित.








Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

Thursday, July 10, 2008

मानवीय इतिहास के सबसे खतरनाक क्षण को याद करते हुए

अब तक यह माना जाता रहा है कि 1962 के मिसाइल क्राइसिस के बारे में जितना लिखा जा सकता था, सब लिखा जा चुका है. लेकिन हाल ही में प्रकाशित वाशिंगटन पोस्ट के अनुभवी रिपोर्टर माइकेल डॉब्ब्स की किताब वन मिनट टु मिडनाइट: केनेडी, ख्रुश्चेव, एण्ड कास्त्रो ऑन द ब्रिंक ऑफ न्युक्लियर वार को पढकर लगता है कि काफी कुछ अब तक अनकहा और अनजाना ही था. बेलफास्ट, आयरलैण्ड में जन्मे माइकेल डॉब्ब्स का ज़्यादा समय साम्यवाद के पतन का अध्ययन करने में बीता है और उनकी एक किताब ‘डाउन विद बिग ब्रदर: द फॉल ऑफ सोवियत एम्पायर’ 1997 के पेन अवार्ड्स की अंतिम सूची तक पहुंच चुकी है.

अक्टूबर, 1962 में, जब शीत युद्ध अपने उफान पर था, संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ क्यूबा में मिसाइलों की तैनाती के मुद्दे पर तेज़ी से आणविक संघर्ष की दिशा में बढते प्रतीत हो रहे थे. डॉब्ब्स ने अब तक अछूते अमरीकी, सोवियत और क्यूबाई दस्तावेजों, साक्ष्यों और चित्रों को खंगाल कर क्यूबाई मिसाइल संकट पर अब तक की सर्वाधिक आधिकारिक पुस्तक की रचना की है. कुछ चौंकाने वाले नए प्रसंग उजागर कर डॉब्ब्स यह बताने में पूरी तरह सफल होते हैं कि दुनिया महायुद्ध और महाविनाश के कितना नज़दीक पहुंच गई थी.

इस किताब में पहली बार हमें गुआण्टानामो स्थित अमरीकी नौसैनिक ठिकानों को तबाह कर डालने के ख्रुश्चेव के इरादों का दिल दहला देने वाला वृत्तांत पढने को मिलता है. यह भी पढने को मिलता है कि कैसे गलती से एक अमरीकी जासूसी वायुयान सोवियत संघ के आकाश में उडान भरने लगा था. क्यूबा में सी आई ए एजेण्ट्स की गतिविधियों और एक अमरीकी टी 106 जेट वायुयान की, जिसमें आणविक हथियार भरे थे, क्रैश लैण्डिंग का ब्यौरा भी हमें पढने को मिलता है.

डॉब्ब्स हमें व्हाइट हाउस और क्रेमलिन के भीतर ले जाते हैं और हम यह जान पाते हैं कि किस तरह विचारधारात्मक सन्देहों ने केनेडी और ख्रुश्चेव जैसे विवेकी और बुद्धिमान नेताओं के बीच की दूरियां बढा दीं और कैसे वे युद्ध की आशंका से व्यथित हुए. हम देखते हैं कि ये दोनों नेता आणविक युद्ध की भयावह हक़ीक़तों को पहचानते हैं, लेकिन दूसरी तरफ कास्त्रो हैं जो वैसे तो कभी भी पारम्परिक राजनीतिक सोच के प्रवाह में नहीं बहते, लेकिन एक मसीही सपना पाले रहते हैं कि उन्हें तो इतिहास ने एक खास मिशन के लिए चुना है. जैसे-जैसे नए प्रसंग उजागर होते हैं, डॉब्ब्स हमें क्यूबा की निगरानी कर रहे अमरीकी जहाजों के डैक्स पर ले जाते हैं, मियामी की गलियों की सैर कराते हैं जहां कास्त्रो विरोधी निर्वासित उनके तख्ता पलट की योजना बनाने में जुटे हैं.
डॉब्ब्स बताते हैं कि ख्रुश्चेव कास्त्रो को ‘एक बेटे की तरह’ प्यार करते थे, लेकिन साथ ही उनकी भावनात्मक स्थिरता के बारे में आशंकित भी रहते थे. इसीलिए वे कास्त्रो के हाथों में आणविक हथियार सौंपने को तैयार नहीं थे. और जहां तक कास्त्रो का सवाल है, उनकी पूरी रणनीति ही चुनौती पर आधारित थी. वे अपने शत्रुओं के समक्ष ज़रा भी कमज़ोर नहीं पडना चाहते थे. वे किसी मक़सद के लिए अपने देशवासियों को साथ लेकर मरने को तैयार थे. अगर मौका आता, वे क्यूबा की धरती पर अमरीकी घुसपैठ रोकने के लिए आणविक युद्ध शुरू करने की अनुमति देने में क़तई नहीं हिचकिचाते.
डॉब्ब्स ने यह किताब नई पीढी के पाठकों को 27 अक्टूबर 1962 के उस स्याह शुक्रवार की तथा उसकी पूर्ववर्ती घटनाओं की जानकारी देने के लिए लिखी है, जिसे इतिहासकार आर्थर एम श्लेसिंगर ने मानवीय इतिहास का सबसे खतरनाक क्षण कह कर पुकारा था. किताब अमरीकी, रूसी और क्यूबाई तीनों पक्षों के चरित्रों के मानवीय पक्ष को बखूबी उभारती है. इससे पता चलता है कि असल संकट केनेडी और ख्रुश्चेव के सीधे टकराव का नहीं था. संकट तो पैदा हुआ एक के बाद एक अप्रत्याशित रूप से घटित होने वाली घटनाओं के कारण. और फिर जब एक बार युद्ध के नगाडे बजने ही लग गए तो उन्हें रोकना किसी के भी वश में नहीं रह गया. उस स्याह शुक्रवार को, जब दोनों ही पक्षों को महसूस हुआ कि अब स्थितियों पर उनकी पकड नहीं रह गई है तो बजाय टकराने के, वे एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में चले गए. केनेडी पर यह दबाव डाला जा रहा था कि वे प्रक्षेपास्त्रों के ठिकानों पर बमबारी करें और क्यूबा पर हमला कर दें. समझा जा सकता है कि अगर उन्होंने ऐसा कर दिया होता तो तो सोवियत संघ भी अमरीकी आक्रामक ताकतों का सामना अपने आणविक हथियारों से ज़रूर करता. फिर क्या हुआ होता, इसकी कल्पना ही हमें दहशत से भर देती है.

◙◙◙

Discussed book:
One Minute to Midnight: Kennedy, Khrushchev, and Castro on the Brink of Nuclear War
By Michael Dobbs
Published by: Knopf Publishing Group
Hardcover, 448 pages
US $ 28.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 10 जुलाई, 2008 को प्रकाशित.






मानवीय इतिहास के सबसे खतरनाक क्षण को याद करते हुए


अब तक यह माना जाता रहा है कि 1962 के मिसाइल क्राइसिस के बारे में जितना लिखा जा सकता था, सब लिखा जा चुका है. लेकिन हाल ही में प्रकाशित वाशिंगटन पोस्ट के अनुभवी रिपोर्टर माइकेल डॉब्ब्स की किताब वन मिनट टु मिडनाइट: केनेडी, ख्रुश्चेव, एण्ड कास्त्रो ऑन द ब्रिंक ऑफ न्युक्लियर वार को पढकर लगता है कि काफी कुछ अब तक अनकहा और अनजाना ही था. बेलफास्ट, आयरलैण्ड में जन्मे माइकेल डॉब्ब्स का ज़्यादा समय साम्यवाद के पतन का अध्ययन करने में बीता है और उनकी एक किताब ‘डाउन विद बिग ब्रदर: द फॉल ऑफ सोवियत एम्पायर’ 1997 के पेन अवार्ड्स की अंतिम सूची तक पहुंच चुकी है.

अक्टूबर, 1962 में, जब शीत युद्ध अपने उफान पर था, संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ क्यूबा में मिसाइलों की तैनाती के मुद्दे पर तेज़ी से आणविक संघर्ष की दिशा में बढते प्रतीत हो रहे थे. डॉब्ब्स ने अब तक अछूते अमरीकी, सोवियत और क्यूबाई दस्तावेजों, साक्ष्यों और चित्रों को खंगाल कर क्यूबाई मिसाइल संकट पर अब तक की सर्वाधिक आधिकारिक पुस्तक की रचना की है. कुछ चौंकाने वाले नए प्रसंग उजागर कर डॉब्ब्स यह बताने में पूरी तरह सफल होते हैं कि दुनिया महायुद्ध और महाविनाश के कितना नज़दीक पहुंच गई थी.

इस किताब में पहली बार हमें गुआण्टानामो स्थित अमरीकी नौसैनिक ठिकानों को तबाह कर डालने के ख्रुश्चेव के इरादों का दिल दहला देने वाला वृत्तांत पढने को मिलता है. यह भी पढने को मिलता है कि कैसे गलती से एक अमरीकी जासूसी वायुयान सोवियत संघ के आकाश में उडान भरने लगा था. क्यूबा में सी आई ए एजेण्ट्स की गतिविधियों और एक अमरीकी टी 106 जेट वायुयान की, जिसमें आणविक हथियार भरे थे, क्रैश लैण्डिंग का ब्यौरा भी हमें पढने को मिलता है.

डॉब्ब्स हमें व्हाइट हाउस और क्रेमलिन के भीतर ले जाते हैं और हम यह जान पाते हैं कि किस तरह विचारधारात्मक सन्देहों ने केनेडी और ख्रुश्चेव जैसे विवेकी और बुद्धिमान नेताओं के बीच की दूरियां बढा दीं और कैसे वे युद्ध की आशंका से व्यथित हुए. हम देखते हैं कि ये दोनों नेता आणविक युद्ध की भयावह हक़ीक़तों को पहचानते हैं, लेकिन दूसरी तरफ कास्त्रो हैं जो वैसे तो कभी भी पारम्परिक राजनीतिक सोच के प्रवाह में नहीं बहते, लेकिन एक मसीही सपना पाले रहते हैं कि उन्हें तो इतिहास ने एक खास मिशन के लिए चुना है. जैसे-जैसे नए प्रसंग उजागर होते हैं, डॉब्ब्स हमें क्यूबा की निगरानी कर रहे अमरीकी जहाजों के डैक्स पर ले जाते हैं, मियामी की गलियों की सैर कराते हैं जहां कास्त्रो विरोधी निर्वासित उनके तख्ता पलट की योजना बनाने में जुटे हैं.


डॉब्ब्स बताते हैं कि ख्रुश्चेव कास्त्रो को ‘एक बेटे की तरह’ प्यार करते थे, लेकिन साथ ही उनकी भावनात्मक स्थिरता के बारे में आशंकित भी रहते थे. इसीलिए वे कास्त्रो के हाथों में आणविक हथियार सौंपने को तैयार नहीं थे. और जहां तक कास्त्रो का सवाल है, उनकी पूरी रणनीति ही चुनौती पर आधारित थी. वे अपने शत्रुओं के समक्ष ज़रा भी कमज़ोर नहीं पडना चाहते थे. वे किसी मक़सद के लिए अपने देशवासियों को साथ लेकर मरने को तैयार थे. अगर मौका आता, वे क्यूबा की धरती पर अमरीकी घुसपैठ रोकने के लिए आणविक युद्ध शुरू करने की अनुमति देने में क़तई नहीं हिचकिचाते.

डॉब्ब्स ने यह किताब नई पीढी के पाठकों को 27 अक्टूबर 1962 के उस स्याह शुक्रवार की तथा उसकी पूर्ववर्ती घटनाओं की जानकारी देने के लिए लिखी है, जिसे इतिहासकार आर्थर एम श्लेसिंगर ने मानवीय इतिहास का सबसे खतरनाक क्षण कह कर पुकारा था. किताब अमरीकी, रूसी और क्यूबाई तीनों पक्षों के चरित्रों के मानवीय पक्ष को बखूबी उभारती है. इससे पता चलता है कि असल संकट केनेडी और ख्रुश्चेव के सीधे टकराव का नहीं था. संकट तो पैदा हुआ एक के बाद एक अप्रत्याशित रूप से घटित होने वाली घटनाओं के कारण. और फिर जब एक बार युद्ध के नगाडे बजने ही लग गए तो उन्हें रोकना किसी के भी वश में नहीं रह गया. उस स्याह शुक्रवार को, जब दोनों ही पक्षों को महसूस हुआ कि अब स्थितियों पर उनकी पकड नहीं रह गई है तो बजाय टकराने के, वे एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में चले गए. केनेडी पर यह दबाव डाला जा रहा था कि वे प्रक्षेपास्त्रों के ठिकानों पर बमबारी करें और क्यूबा पर हमला कर दें. समझा जा सकता है कि अगर उन्होंने ऐसा कर दिया होता तो तो सोवियत संघ भी अमरीकी आक्रामक ताकतों का सामना अपने आणविक हथियारों से ज़रूर करता. फिर क्या हुआ होता, इसकी कल्पना ही हमें दहशत से भर देती है.

◙◙◙

Discussed book:

One Minute to Midnight: Kennedy, Khrushchev, and Castro on the Brink of Nuclear War

By Michael Dobbs

Published by: Knopf Publishing Group

Hardcover, 448 pages

US $ 28.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अन्तर्गत 10 जुलाई, 2008 को प्रकाशित.





Hindi Blogs. Com - <span title=हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा" border="0">

Tuesday, July 8, 2008

साहित्यिक पुरस्कारों पर विवाद

राजस्थान की साहित्यिक दुनिया में इन दिनों बडा उद्वेलन है. कारण है राजस्थान साहित्य अकादमी के तीन ताज़ा निर्णय. राजस्थान साहित्य अकादमी ने हाल ही में अपने दो पुरस्कार बन्द या समाप्त करने की घोषणा की है. एक है साहित्यिक पत्रकारिता के लिए दिया जाने वाला प्रकाश जैन पुरस्कार, और दूसरा है अंतरप्रांतीय साहित्य बन्धुत्व अनुवाद पुरस्कार. कारण यह बताया गया कि विगत कुछ वर्षों से इन पुरस्कारों के लिए वांछित प्रविष्टियां प्राप्त नहीं हो रही थीं. प्रांत के साहित्यकारों की नाराज़गी इन कारणों से है. एक तो यह कि ‘लहर’ के यशस्वी सम्पादक प्रकाश जैन के नाम पर दिया जा रहा पुरस्कार बन्द कर अकादमी ने अपनी तरह से उनकी स्मृति के साथ अपमानजनक व्यवहार किया है, और दूसरे यह कि साहित्यिक पत्रकारिता और अनुवाद की महत्ता को नकारा गया है. और जहां तक अकादमी के इस विचार का प्रश्न है कि इन पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियां प्राप्त नहीं हो रही थी, तो पहले तो यह देखा जाना चाहिए कि क्या राजस्थान में साहित्यिक पत्रकारिता और अनुवाद के क्षेत्र में तालाबन्दी हो गई है? न तो कोई साहित्यिक पत्रिका निकल रही है और न अनुवाद किये जा रहे हैं? ऐसा नहीं है. तो फिर सवाल यह उठना चाहिए कि क्या कारण है कि लोग इन पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियां ही नहीं भेजते? कहीं इस बात का सम्बन्ध अकादमी की प्रतिष्ठा के क्षरण से तो नहीं है? लेकिन इस बात पर भला अकादमी के कर्ता धर्ता तो क्यों विचार करने लगे? लोग लाख कहें कि अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ का स्तर बहुत गिर गया है, इतना कि अब स्तर बचा ही नहीं है, तो भी इस पत्रिका के सम्पादक को क्यों चिंता हो? आखिर आत्ममुग्धता भी कोई चीज़ होती है!
दूसरी बात जिसने लोगों को उद्वेलित किया है वह है जीवित लेखकों द्वारा अपने नाम पर पुरस्कार घोषित करवाना. भगवान अटलानी और सरला अग्रवाल ने अकादमी को कुछ राशि दी और अकादमी ने उनके नाम पर पुरस्कार देने की घोषणा कर दी. साहित्य की दुनिया में अपने नामों पर या अपने निकट के लोगों के नाम पर पुरस्कार का सिलसिला पुराना है, और इसमें कोई बडी आपत्ति भी नज़र नहीं आती. अगर मुझे लगे कि मेरे पास काफी पैसा है और उसका सदुपयोग मैं किसी को पुरस्कृत करके करना चाहता हूं, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. इस बात से भी कोई फर्क़ नहीं पडता कि यह ‘मैं’ कोई लेखक है या व्यवसायी या राजा या तस्कर. आखिर ऐसे अनेक लोगों के नाम पर शिक्षण संस्थान भी तो हैं! किसी को इनका पुरस्कार ग्रहण करना हो, करे; न करना हो अस्वीकार कर दे. गडबड तब होती है जब निजी और सार्वजनिक का गठबन्धन होता है. भगवान अटलानी और सरला अग्रवाल अपने स्तर पर पुरस्कार देते, किसी को आपत्ति नहीं होती. आपति की बात यह है कि जनता के पैसों से संचालित एक सार्वजनिक संस्थान राजस्थान साहित्य अकादमी ने ये निजी नाम वाले पुरस्कार देने की घोषणा की है. शायद जीवन के अन्य क्षेत्रों में आ रही पी पी पी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) की अवधारणा का यह साहित्य की दुनिया में प्रवेश है. लेकिन, अगर हम इसी तर्क को थोडा आगे तक ले जाएं तो इस व्यवस्था की विसंगति सामने आ जाएगी. मान लीजिए कोई लेखक, या कोई भी अन्य व्यक्ति, जिसके पास बहुत सारा धन है, यह कहे कि मैं पूरी राजस्थान साहित्य अकादमी को ही खरीदना चाहता हूं, या कि अपने नाम पर करवा लेना चाहता हूं तो क्या होगा? कल आप घसीटामल राजस्थान साहित्य अकादमी बना देंगे? हो सकता है कुछ लोगों को इस पर कोई ऐतराज़ न हो, लेकिन अन्य बहुतों को है. जीवन में कुछ चीज़ें तो साफ-सुथरी बची रहें, यह जिनकी आकांक्षा है, उन को ऐतराज़ है.
फिर एक बात और हुई. इसी अकादमी ने दो पुरस्कार और शुरू किए. डॉ लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के नाम पर अंतरराष्ट्रीय स्तर का सर्वोच्च अकादमी पुरस्कार, और हनुमान प्रसाद पोद्दार के नाम पर राष्ट्रीय स्तर का सर्वोच्च अकादमी पुरस्कार. जिन्हें स्मरण न हो उन्हें करा दें कि सिंघवी जी एक सुविख्यात न्यायविद थे और अधिक से अधिक हिन्दी सेवी थे, तथा पोद्दार जी सुपरिचित धार्मिक (साहित्यिक नहीं) पत्रिका ‘कल्याण’ के संस्थापक-संपादक थे. अकादमी प्रांत की सीमाओं से बाहर निकल कर देश और दुनिया तक अपने पंख फैला रही है, यह अच्छा है. लेकिन अगर घर की उपेक्षा करके बाहर दिया जलाना चाहती है तो चिंत्य है. एक तरफ तो उसके पास राजस्थान में काम करने केलिए पर्याप्त संसाधन नहीं है, तभी तो लोगों के पैसों से पुरस्कार शुरू करने पड रहे हैं, और दूसरी तरफ वह अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार देना चाह रही है. यह कितना वाज़िब है? और फिर पुरस्कार किनके नाम पर? इनका साहित्यिक अवदान है ही नहीं, या बहुत अल्प है. और याद कीजिए कि जिनका है,(मेरा इशारा प्रकाश जैन की तरफ है) उनके नाम वाले पुरस्कार को साथ-साथ बन्द भी कर रही है.

तो, कोढ में खाज यह कि ये तीनों चीज़ें एक साथ हो गईं. पता नहीं यह आकस्मिक है या सुचिंतित, लेकिन एक तरफ तो प्रकाश जैन का नाम मिटाने की चेष्टा हुई और दूसरी तरफ दो लेखकों को जैसा-तैसा अमरत्व प्रदान करने की कोशिश हुई. और तीसरी तरफ दो साहित्येतर व्यक्तियों के नाम पर राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार शुरू कर उन्हें साहित्यिक अमरत्व प्रदान करने की चेष्टा की गई. तो इस कॉकटेल ने लोगों को और ज़्यादा परेशान किया है. प्रकाश जैन का साहित्यिक पत्रकारिता में जो अवदान है उसे कोई बे-पढा लिखा ही नकारेगा. उनके नाम से चल रहे पुरस्कार को बन्द करना निश्चय ही उनकी स्मृति का अपमान है. जिन लेखकों के नाम पर पुरस्कार शुरू किए जा रहे हैं, उनके महत्व पर कोई टिप्पणी गैर ज़रूरी है. इसलिए गैर ज़रूरी है ये पुरस्कार उनके साहित्यिक महत्व की वजह से नहीं, उनके धन-बल की वजह से शुरू किए जा रहे हैं, इसलिए टिपणी अनावश्यक होगी. इतना ज़रूर है कि इस सन्दर्भ में स्वयंप्रकाश की एक कहानी ‘चौथमल पुरस्कार’ बेसाख्ता याद आती है. और जहां तक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों की बात है उसमें ये दोनों बातें जुड जाती हैं: जिनके नाम पर पुरस्कार उनके साहित्यिक महत्व पर प्रशन चिह्न और इन पुरस्कारों की ज़रूरत.

राजस्थान साहित्य अकादमी के इन निर्णयों ने एक बार फिर इस संस्थान की रीति-नीति को विमर्श के दायरे में ला खडा किया है. इस संस्थान की और तमाम सार्वजनिक संस्थानों की. जिन्होंने ऐसे निर्णय किए, स्वाभाविक है कि वे इन्हें डिफेण्ड करेंगे, कर रहे हैं. लेकिन बजाय किसी ज़िद के, बेहतर हो, इस तरह के मुद्दों पर खुले मन से विचार हो. आखिर इस तरह के फैसलों के परिणाम दूरगामी हुआ करते हैं. सार्वजनिक और निजी की लक्ष्मण रेखाएं तो तै की ही जानी चाहिए.







चिट्ठों की जीवनधारा" src="http://www.filmyblogs.com/hindiblogs.jpg" border=0>

Thursday, July 3, 2008

दूसरों की नज़रों में हम

“इस बात की तो किसी ने ख्वाब में भी कल्पना नहीं की होगी कि तीन हज़ार सालों के जातिगत भेदभाव के बाद तथाकथित पिछडी जाति की एक महिला देश के सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य की मुख्यमंत्री बन जाएगी. लेकिन दो बार ऐसा हो गया. इसी तरह, 2004 में भारत में जो हुआ वह तो मानवता के इतिहास में अभूतपूर्व है. एक अरब से ज़्यादा आबादी वाले इस दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में चुनाव हुआ और एक कैथोलिक राजनीतिक नेता (सोनिया गांधी) ने एक सिख के लिए देश के प्रधानमन्त्री पद का त्याग किया. और बात यहीं खत्म नहीं होती. सिख मनमोहन सिंह को शपथ दिलाई देश के मुस्लिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने. यह याद रहे कि देश की 81 प्रतिशत आबादी हिन्दू है.:”

इस और ऐसी ही अनेक टिप्पणियों से भरी रोचक किताब इन स्पाइट ऑफ द गॉड्स: द राइज़ ऑफ मॉडर्न इण्डिया में ब्रिटिश पत्रकार एडवर्ड लूसे ने तेज़ी से उभर रही आर्थिक और भू-राजनीतिक ताकत भारत की विकास यात्रा की पडताल की है, उसके अवरोधकों को रेखांकित किया है और विकास की गति तेज़ करने के लिए सुझाव दिए हैं. एडवर्ड लूसे 2001 से 2005 तक नई दिल्ली में फाइनेंशियल टाइम्स के दक्षिणी एशिया ब्यूरो चीफ रहे है और आजकल इसी पत्र के वाशिंगटन कमेंटेटर हैं. उनकी पत्नी भारतीय है. इस किताब के लिए लूसे ने महत्वपूर्ण राजनेताओं, धर्म गुरुओं, आर्थिक विश्लेषकों से लगाकर ग्रामीण मज़दूरों तक से बात की और खूब यात्राएं की. यह किताब रिपोर्ताज और विश्लेषण का अनूठा मिश्रण है और भारतीय समाज और व्यवस्था की जटिलताओं को बखूबी उभारती है. लूसे जल्दबाजी और भावुकता में कोई टिप्पणी करने की बजाय आंकडों और तथ्यों से पुष्ट बात कहकर अपनी बात को प्रामाणिकता प्रदान करते हैं.

सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों, आर्थिक विकास और महाशक्ति बनने के दावों के बरक्स अनेक अध्ययनों ने यह बताया है कि दिया तले अन्धेरा भी घना है. एक अध्ययन के अनुसार, भारत में हज़ार लोगों के पीछे मात्र चौरासी टेलीविजन सेट्स हैं, जबकि अमरीका में नौ सौ अडतीस हैं. भारत में प्रति हज़ार 7.2 पर्सनल कम्प्यूटर हैं, ऑस्ट्रेलिया में 564.5 हैं. भारत में इण्टरनेट अभी महज़ दो प्रतिशत को सुलभ है, मलेशिया में चौंतीस प्रतिशत को. भारत की श्रम शक्ति का महज़ पांच प्रतिशत ही औपचारिक रूप से नियोजित है, यानि मात्र साढे तीन करोड लोगों को ही रोज़गार सुरक्षा सुलभ है. लगभग इतनी ही आबादी इनकम टैक्स देती है. भारत के तीस करोड लोग अडसठ लाख ऐसे गांवों में निवास करते हैं जहां शुद्ध पेय जल तक ठीक से सुलभ नहीं है. ज़्यादातर झोंपडियां गोबर से बनी हैं, चूल्हे जिस तरह जलाये जाते हैं उससे श्वास सम्बन्धी बीमारियां उग्र होती हैं. देश की पैसठ प्रतिशत जनसंख्या ही पढ सकती है. गांवों में तो साक्षरता दर मात्र तैंतीस प्रतिशत ही है. याद रखें, चीन में यह दर नब्बे प्रतिशत है. लेकिन, भारत के विकास में अवरोधक तत्वों की चर्चा करते हुए भी लूसे भारत में चीन का मॉडल अपनाने की हिमायत नहीं करते.

1991 से पहले भारत में कोटा-परमिट राज था. पी वी नरसिंहा राव ने उसे बदला. विदेशी निवेश भी बढा, और काफी कुछ बदला. टेलीविजन चैनल एक से एक सौ पचास तक पहुंचे, सडकों पर कारों के नए मॉडल्स आए, नई दुकानें और मॉल खुले और उनमें नई तरह के उत्पाद दिखाई देने लगे. फिर भी भारत के उभरते मध्यवर्ग, शिक्षित शहरी अभिजात वर्ग और गांवों में रह रहे गरीबों के बीच असमानता की खाई न केवल बनी हुई है, और गहरी हुई है. लूसे ने इसी तरह के अंतर्विरोधों से अपनी किताब का ताना-बाना बुना है. किताब का शीर्षक भी ऐसे ही एक अंतर्विरोध को उजागर करता है और बाद में एक जगह वे भारत के अभ्युदय पर अचरज करते हुए कहते हैं कि भारत एक तरफ तो एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक ताकत बनता जा रहा है और दूसरी तरफ अभी भी एक धार्मिक, आध्यात्मिक और कुछ मानों में अन्धविश्वासी समाज बना हुआ है.

आर्थिक सुधारों के बावज़ूद लाल फीताशाही में कमी नहीं आई है और व्यापक भ्रष्टाचार आर्थिक प्रगति को रोके हुए है. लूसे केरल के हाइवे विभाग के मुखिया वी जे कुरियन का हवाला देते हुए बताते हैं कि वे कुछ साल पहले कोच्चि में एक हवाई अड्डा बनाना चाहते थे. उन्हें दो लाख डॉलर की रिश्वत का प्रस्ताव दिया गया कि वे रनवे निर्माण के लिए सबसे कम दर वाली बोली को अस्वीकार कर उससे अधिक दर वाली बोली को मंज़ूरी दे दें. उन्होंने जब इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया तो उनका तबादला एक अन्य कम महत्वपूर्ण पद पर कर दिया गया. ऐसे अनेक प्रसंग इस किताब को रोचक बनाते हैं. लूसे भारत की तरक्की के लिए जिन बातों को ज़रूरी मानते हैं वे हैं – ऊर्जा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन. वे नियोजन विरोधी श्रम कानूनों को भी बदलने पर बल देते हैं

लूसे भारत की चर्चा करते हुए भारत से बाहर भी निकलते हैं. वे यह भी पडताल करते हैं कि भारत और चीन का उभरना दुनिया के भू राजनीतिक मानचित्र को कैसे प्रभावित करेगा. वे बताते हैं कि कैसे भारत और चीन के रिश्तों में बदलाव आया है और कैसे वही अमरीका जो शीत युद्ध के समय भारत को शक़ की निगाहों से देखता था, अब चीन की उभरती ताकत को संतुलित करने के लिए इसके निकट आता जा रहा है.

.

मैंने कहा था कि लूसे अपनी इस किताब के कथनों को आंकडों के ज़रिये प्रामाणिक बनाने का प्रयास करते हैं. लेकिन यहां यह समझ लेना भी ज़रूरी है कि भारत जैसे विविधता वाले देश में आंकडे कभी भी सही तस्वीर पेश नहीं कर सकते. यही इस किताब की एक बडी सीमा भी है. किताब की एक दूसरी सीमा इसका शीर्षक है, जो किताब की विषय वस्तु से मेल नहीं खाता. फिर भी, किताब दिलचस्प है और यह बताती है कि दूसरे हमें किस तरह देखते हैं.
◙◙◙

Discussed book:
In Spite of the Gods: The Rise of Modern India
By Edward Luce
Published by: Anchor
Paperback, 416 pages
US $ 14.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत 3 जुलाई 2008 को प्रकाशित.

दूसरों की नज़रों में हम



“इस बात की तो किसी ने ख्वाब में भी कल्पना नहीं की होगी कि तीन हज़ार सालों के जातिगत भेदभाव के बाद तथाकथित पिछडी जाति की एक महिला देश के सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य की मुख्यमंत्री बन जाएगी. लेकिन दो बार ऐसा हो गया. इसी तरह, 2004 में भारत में जो हुआ वह तो मानवता के इतिहास में अभूतपूर्व है. एक अरब से ज़्यादा आबादी वाले इस दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में चुनाव हुआ और एक कैथोलिक राजनीतिक नेता (सोनिया गांधी) ने एक सिख के लिए देश के प्रधानमन्त्री पद का त्याग किया. और बात यहीं खत्म नहीं होती. सिख मनमोहन सिंह को शपथ दिलाई देश के मुस्लिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने. यह याद रहे कि देश की 81 प्रतिशत आबादी हिन्दू है.:”

इस और ऐसी ही अनेक टिप्पणियों से भरी रोचक किताब इन स्पाइट ऑफ द गॉड्स: द राइज़ ऑफ मॉडर्न इण्डिया में ब्रिटिश पत्रकार एडवर्ड लूसे ने तेज़ी से उभर रही आर्थिक और भू-राजनीतिक ताकत भारत की विकास यात्रा की पडताल की है, उसके अवरोधकों को रेखांकित किया है और विकास की गति तेज़ करने के लिए सुझाव दिए हैं. एडवर्ड लूसे 2001 से 2005 तक नई दिल्ली में फाइनेंशियल टाइम्स के दक्षिणी एशिया ब्यूरो चीफ रहे है और आजकल इसी पत्र के वाशिंगटन कमेंटेटर हैं. उनकी पत्नी भारतीय है. इस किताब के लिए लूसे ने महत्वपूर्ण राजनेताओं, धर्म गुरुओं, आर्थिक विश्लेषकों से लगाकर ग्रामीण मज़दूरों तक से बात की और खूब यात्राएं की. यह किताब रिपोर्ताज और विश्लेषण का अनूठा मिश्रण है और भारतीय समाज और व्यवस्था की जटिलताओं को बखूबी उभारती है. लूसे जल्दबाजी और भावुकता में कोई टिप्पणी करने की बजाय आंकडों और तथ्यों से पुष्ट बात कहकर अपनी बात को प्रामाणिकता प्रदान करते हैं.

सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों, आर्थिक विकास और महाशक्ति बनने के दावों के बरक्स अनेक अध्ययनों ने यह बताया है कि दिया तले अन्धेरा भी घना है. एक अध्ययन के अनुसार, भारत में हज़ार लोगों के पीछे मात्र चौरासी टेलीविजन सेट्स हैं, जबकि अमरीका में नौ सौ अडतीस हैं. भारत में प्रति हज़ार 7.2 पर्सनल कम्प्यूटर हैं, ऑस्ट्रेलिया में 564.5 हैं. भारत में इण्टरनेट अभी महज़ दो प्रतिशत को सुलभ है, मलेशिया में चौंतीस प्रतिशत को. भारत की श्रम शक्ति का महज़ पांच प्रतिशत ही औपचारिक रूप से नियोजित है, यानि मात्र साढे तीन करोड लोगों को ही रोज़गार सुरक्षा सुलभ है. लगभग इतनी ही आबादी इनकम टैक्स देती है. भारत के तीस करोड लोग अडसठ लाख ऐसे गांवों में निवास करते हैं जहां शुद्ध पेय जल तक ठीक से सुलभ नहीं है. ज़्यादातर झोंपडियां गोबर से बनी हैं, चूल्हे जिस तरह जलाये जाते हैं उससे श्वास सम्बन्धी बीमारियां उग्र होती हैं. देश की पैसठ प्रतिशत जनसंख्या ही पढ सकती है. गांवों में तो साक्षरता दर मात्र तैंतीस प्रतिशत ही है. याद रखें, चीन में यह दर नब्बे प्रतिशत है. लेकिन, भारत के विकास में अवरोधक तत्वों की चर्चा करते हुए भी लूसे भारत में चीन का मॉडल अपनाने की हिमायत नहीं करते.

1991 से पहले भारत में कोटा-परमिट राज था. पी वी नरसिंहा राव ने उसे बदला. विदेशी निवेश भी बढा, और काफी कुछ बदला. टेलीविजन चैनल एक से एक सौ पचास तक पहुंचे, सडकों पर कारों के नए मॉडल्स आए, नई दुकानें और मॉल खुले और उनमें नई तरह के उत्पाद दिखाई देने लगे. फिर भी भारत के उभरते मध्यवर्ग, शिक्षित शहरी अभिजात वर्ग और गांवों में रह रहे गरीबों के बीच असमानता की खाई न केवल बनी हुई है, और गहरी हुई है. लूसे ने इसी तरह के अंतर्विरोधों से अपनी किताब का ताना-बाना बुना है. किताब का शीर्षक भी ऐसे ही एक अंतर्विरोध को उजागर करता है और बाद में एक जगह वे भारत के अभ्युदय पर अचरज करते हुए कहते हैं कि भारत एक तरफ तो एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक ताकत बनता जा रहा है और दूसरी तरफ अभी भी एक धार्मिक, आध्यात्मिक और कुछ मानों में अन्धविश्वासी समाज बना हुआ है.

आर्थिक सुधारों के बावज़ूद लाल फीताशाही में कमी नहीं आई है और व्यापक भ्रष्टाचार आर्थिक प्रगति को रोके हुए है. लूसे केरल के हाइवे विभाग के मुखिया वी जे कुरियन का हवाला देते हुए बताते हैं कि वे कुछ साल पहले कोच्चि में एक हवाई अड्डा बनाना चाहते थे. उन्हें दो लाख डॉलर की रिश्वत का प्रस्ताव दिया गया कि वे रनवे निर्माण के लिए सबसे कम दर वाली बोली को अस्वीकार कर उससे अधिक दर वाली बोली को मंज़ूरी दे दें. उन्होंने जब इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया तो उनका तबादला एक अन्य कम महत्वपूर्ण पद पर कर दिया गया. ऐसे अनेक प्रसंग इस किताब को रोचक बनाते हैं. लूसे भारत की तरक्की के लिए जिन बातों को ज़रूरी मानते हैं वे हैं – ऊर्जा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन. वे नियोजन विरोधी श्रम कानूनों को भी बदलने पर बल देते हैं

लूसे भारत की चर्चा करते हुए भारत से बाहर भी निकलते हैं. वे यह भी पडताल करते हैं कि भारत और चीन का उभरना दुनिया के भू राजनीतिक मानचित्र को कैसे प्रभावित करेगा. वे बताते हैं कि कैसे भारत और चीन के रिश्तों में बदलाव आया है और कैसे वही अमरीका जो शीत युद्ध के समय भारत को शक़ की निगाहों से देखता था, अब चीन की उभरती ताकत को संतुलित करने के लिए इसके निकट आता जा रहा है.

.

मैंने कहा था कि लूसे अपनी इस किताब के कथनों को आंकडों के ज़रिये प्रामाणिक बनाने का प्रयास करते हैं. लेकिन यहां यह समझ लेना भी ज़रूरी है कि भारत जैसे विविधता वाले देश में आंकडे कभी भी सही तस्वीर पेश नहीं कर सकते. यही इस किताब की एक बडी सीमा भी है. किताब की एक दूसरी सीमा इसका शीर्षक है, जो किताब की विषय वस्तु से मेल नहीं खाता. फिर भी, किताब दिलचस्प है और यह बताती है कि दूसरे हमें किस तरह देखते हैं.
◙◙◙

Discussed book:
In Spite of the Gods: The Rise of Modern India
By Edward Luce
Published by: Anchor
Paperback, 416 pages
US $ 14.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 3 जुलाई, 2008 को प्रकाशित.











Hindi Blogs. Com - <span title=हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा" src="http://www.filmyblogs.com/hindiblogs.jpg" border=0>

Wednesday, July 2, 2008

क्या आपके मन में खोट है?

पिछले दिनों कुछ चड्डियों के विज्ञापन (कु)चर्चा में रहे थे. कारण जाहिर है, अश्लीलता था. अब अश्लीलता का मामला ज़रा टेढा होता है. जो शुद्ध सात्विक लोग हैं वे बाबा तुलसीदास को भी याद कर सकते हैं – जाकि रही भावना जैसी! यानि अश्लीलता किसी तस्वीर या सन्देश में नहीं होती, ग्रहण करने वाले के मन में होती है. वे विज्ञापन तो बडे मासूम थे, अब अगर आपके ही मन में गन्दगी हो तो कोई क्या करे?

इधर ऐसे ही दो और विज्ञापन देखने को मिले हैं. लगता है विज्ञापन दाताओं का कौशल चड्डी से हटकर अब मोबाइल फोन तक पहुंच गया है.

पहले ज़रा विज्ञापन की बात कर लूं. पहले विज्ञापन में एक मर्द बनियान पहन कर सोया हुआ है, उसके पास एक कुछ उदास-सी लडकी बैठी है, शमीज़ जैसा कुछ पहने हुए और वह मानो कह रही है, “विश युअर बैटरी हेड मोर स्टैमिना?’ यानि काश! तुम्हारी बैटरी में और क्षमता/ताकत होती? और इस तस्वीर के पास ही विज्ञापित मोबाइल हैण्डसेट की तस्वीर है जिसके नीचे बारीक अक्षरों में, जो करीब-करीब अपठनीय हैं, इस हैण्डसेट के अन्य गुणों के अलावा ‘स्टैमिना बैटरी’ भी लिखा है. यानि इसकी बैटरी स्टैमिना वाली है. अब, विज्ञापन दाता को बैटरी का स्टैमिना बताने के लिए एक सोये हुए पुरुष और जागी हुई उदास युवती की तस्वीर देनी पडी है. क्या दोनों में कोई रिश्ता बनता है? क्या पति के फोन की बैटरी बहुत जल्दी चुक गई और इसलिए वह सो गया, और स्त्री उदास है? या यहां किसी और बैटरी की तरफ संकेत है, जो जल्दी चुक गई, मर्द सो गया, और स्त्री उदास है? निश्चय ही विज्ञापन देने वालों ने इस युगल की तस्वीर देकर मोबाइल की बैटरी जल्दी चुक जाने की पीडा व्यक्त की है. सही भी है. किसी से बात कर रहे होंगे और बैटरी खत्म हो गई. पुरुष बेचारा शर्मिन्दा होकर सो गया. लडकी उदास बैठी है. उदास न हो तो क्या करे? काश बैटरी में ज़्यादा दम होता. कहिये, आपको भी यही समझ आया न?

अब इसी श्रंखला का दूसरा विज्ञापन. दो युवतियां. आंखों में एक खास तरह की चमक, जिसे चाहें तो ‘सेक्सी’ कह सकते हैं, क्लीवेज दिखाती हुई. कह रही हैं, “कैन यू हैण्डल बोथ?’ यानि क्या तुम (हम) दोनों को सम्भाल सकते हो? अगर आप इस कथन का कोई खास मतलब निकालते हैं तो खोट आपके मन में है. इसलिए कि पास ही एक मोबाइल हैण्डसेट की तस्वीर है, और उसके नीचे, सूक्ष्म अक्षरों में बता दिया गया है कि यह ‘डुएल सिम’ वाला है, यानि यह दो सिम हैण्डल कर सकता है. अब अगर इस लिखावट को पढने में मुझे ज़ोर पड रहा है तो यह मेरी अंखों (या उम्र) का कसूर है. विज्ञापन देने वाले की नीयत तो एकदम पाक साफ है.

लेकिन क्या करूं? मेरे लिए यह समझना थोडा कठिन है कि ये उत्तेजक आंखें, युवा देह जब कह रही हैं कि ‘कैन यू हैण्डल बोथ” तो ये मोबाइल फोन की भूमिका अदा कर रही हैं. इन युवतियों को देख कर मेरे मन में तो किसी भी तरह दोहरी सिम वाली मोबाइल का खयाल नहीं आता. आपके मन में आता है? अगर आता है तो आप के मन में खोट नहीं है. मैं स्वीकार करता हूं कि मेरे मन में खोट है.

◙◙◙










Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा