Tuesday, May 15, 2018

मशीन, कृत्रिम बुद्धि और मानवीय विवेक


हमारे समय का एक बड़ा यथार्थ यह भी है कि मनुष्य मनुष्य के बीच सम्पर्क घटता जा रहा है और मनुष्य की यंत्रों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है. पहले हम टेलीफोन का चोंगा उठाकर ऑपरेटर से नम्बर मांगते थे,  बैंक जाकर पैसे निकालते-जमा कराते थे, रेल्वे स्टेशन जाकर टिकिट खरीदते थे, बाज़ार में जाकर अपनी ज़रूरत का सामान देखते-परखते और फिर खरीदते थे.  अब इन सबका स्थान यांत्रिकता ने ले लिया है. हम स्मार्ट होते जा रहे हैं. पता नहीं स्मार्ट हम हो रहे हैं या स्मार्ट यंत्र हम पर हावी हो रहे हैं. लेकिन सारी दुनिया में स्मार्ट होने की जैसे होड़ मची हुई है. अमरीका के बारे में तो यह अनुमान लगाया गया है कि सन 2021 तक आते-आते वहां स्मार्ट उपकरणों की संख्या वहां के मनुष्यों से ज़्यादा हो जाएगी. अनुमान यह भी है कि उस समय तक कम से कम आधे अमरीकी घरों में एक स्मार्ट स्पीकर तो होगा ही जो घर वालों की आवाज़ सुनकर उसके अनुरूप संचालित होगा या घर को संचालित करेगा.


विभिन्न कम्पनियों द्वारा निर्मित इस तरह के स्मार्ट स्पीकर इन दिनों सारी दुनिया में लोकप्रिय होते जा रहे हैं. ऐसा ही एक स्मार्ट स्पीकर मेरे पास भी है जिसे मैं कहता हूं कि मेरे  लिए पण्डित भीमसेन जोशी का जो भजे हरि को सदा बजाओ’,  तो मेरा वाक्य ख़त्म  होते-होते वह उसे बजाना शुरु कर देता है. मेरा यह स्पीकर और बहुत सारे काम करता है, जैसे वो मेरे बहुत सारे सवालों  के जवाब दे देता है, मुझे यह बता देता है कि मेरे शहर का तापमान क्या है या भूटान की आबादी कितनी है, वगैरह. वह ऐसे बहुत सारे अन्य काम भी  कर सकता है, जो फिलहाल मैंने उससे लेने शुरु नहीं किए हैं. जैसे वो मेरे कमरे की बत्तियां जला-बुझा सकता है, मेरे कहने पर किसी को फोन लगा सकता है, मेरे घर की सिक्योरिटी को बंद या चालू कर सकता है, वगैरह. इस स्पीकर की कीमत भी बहुत ज़्यादा नहीं है, इसलिए बहुत जल्दी यह हर घर में नज़र आने लगेगा, यह कल्पना की जा सकती है. इस तरह के उपकरण हमारी आवाज़ सुनकर उसके अनुसार संचालित होते हैं. कृत्रिम बुद्धि इनके मूल में होती है.

इधर पिछले दो बरसों से अमरीका और चीन में ज़ारी शोधों के जो परिणाम सामने आए हैं वे इस तरह के उपकरणों में निहित ख़तरों के प्रति हमें सावचेत करते हैं. इन शोधकर्ताओं ने यह बताया  है कि इन उपकरणों  को मूर्ख बनाकर इनका दुरुपयोग भी किया जा सकता है. क्योंकि ये उपकरण आवाज़ से संचालित होते हैं, शोधकर्ताओं ने किया यह कि आम गानों वगैरह के बीच कुछ अवांछित ध्वनि निर्देश डाल दिये. ये ध्वनि निर्देश ऐसे थे जिन्हें हम अपने कानों से सामान्यत: नहीं सुन पाते थे, लेकिन उपकरण न केवल उन्हें सुन पाए, उनके अनुसार संचालित भी हो गए. कल्पना कीजिए कि आप अपने उपकरण को किशोर कुमार का कोई गाना बजाने का निर्देश दें, और उस गाने के भीतर आपके घर का दरवाज़ा खोलने का निर्देश भी छिपा हो और गाना बजते समय वह दरवाज़ा खुल जाए तो? प्रयोग ये भी किए गए कि सामान्य संगीत के भीतर इस तरह के निर्देश डाल दिये गए कि वह गाना बजते ही प्रयोगकर्ता के कम्प्यूटर पर कोई अश्लील साइट खुल गई, या उसके फोन से किसी को अनुचित कॉल कर दिया गया. इस तरह के ख़तरों को इन शोधकर्ताओं ने डॉल्फिन अटैक का नाम दिया है. अमरीका में ऐसे भी प्रयोग किये गए जिनमें छिपे हुए संदेश वाला कोई गाना बजने पर उपयोगकर्ता की शॉपिंग लिस्ट में किसी ख़ास कम्पनी के कोई उत्पाद अपने आप जुड़ गए.

दरअसल इस तरह के उपकरणों की एक बड़ी सीमा यह है कि इनकी अधिकाधिक स्वीकार्यता के लिए इनकी निर्माता कम्पनियों के लिए यह बात बहुत ज़रूरी होती है कि इन्हें बहुत जटिल न बनाया जाए ताकि ये अधिकाधिक उपयोगकर्ताओं के लिए प्रयोग-सुलभ हों. और यही प्रयोग-सुलभता इन्हें असुरक्षित भी बना देती हैं. एक उदाहरण देखें. इन उपकरणों को इस तरह तैयार किया जाता है कि ये भिन्न-भिन्न उतार-चढ़ाव वाले ध्वनि  संकेतों को भी ग्रहण कर लें. शोधकर्ताओं ने इनके सामने एक वाक्य बोला: कोकेन नूडल्स. और जैसा उन्हें भय था, उपकरण ने समझा कि उसे कहा गया है – ओके गूगल. यह बात सर्वविदित  है कि यह वाक्य इस तरह की उपकरण व्यवस्था को जगाकर सक्रिय करने के लिए काम में लिया जाता है. बहुत स्वाभाविक है कि इनकी निर्माता कम्पनियां भी इस तरह के ख़तरों के प्रति पूरी तरह सजग हैं और वे हर सम्भव प्रयास कर रही हैं कि उनके बनाए उपकरणों का कोई ग़लत इस्तेमाल न कर सके. लेकिन हमें लगता है कि जहां तक विवेक का प्रश्न है, मशीन मनुष्य की बराबरी कभी नहीं कर पाएगी.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 15 मई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.