Tuesday, June 26, 2018

तय करना बहुत कठिन है कि क्या सही है और क्या ग़लत!


अगर आप याददाश्त पर थोड़ा ज़ोर डालें और किसी उम्दा वाद विवाद प्रतियोगिता के अपने अनुभवों को फिर से याद करें तो पाएंगे कि जब आप पक्ष के वक्ता को सुन रहे थे तो आपको लग रहा था कि वह एकदम सही कह रहा है, लेकिन  जब विपक्षी वक्ता बोलने को खड़ा हुआ और उसने अपने तर्कों से पिछले वक्ता के तर्कों का खण्डन किया तो आपको लगा कि अरे, सही बात तो अब यह कह रहा है! यानि दोनों के तर्क इतने वज़नदार कि उनमें से प्रत्येक को सुनते हुए  आपको लगे कि सच बात तो केवल यही कह रहा है. मेरे साथ हाल में ऐसा ही हुआ. हुआ यह कि रूस के एक स्कूल ने अपनी छब्बीस वर्षीया अध्यापिका को नौकरी से निकाल दिया. उन पर आरोप लगाया गया कि उनके एक कृत्य की वजह से स्कूल और खुद उनके पेशे को बदनामी का शिकार होना पड़ा है. कृत्य यह था कि उक्त अध्यापिका ने मॉडलिंग वाली तैराकी की पोशाक पहन कर एक फोटो खिंचवाई और उस फोटो को इंस्टाग्राम पर पोस्ट कर दिया. यह बात अलग है कि जैसे ही उस पर विवाद हुआ, उन्होंने वह फोटो वहां से हटा ली.

लेकिन जैसे ही विक्टोरिया पोपोवा नामक उस अध्यापिका को उनके स्कूल ने नौकरी से निकाला, रूस में, और दुनिया के अन्य देशों में भी उनके समर्थन में और स्कूल के इस निर्णय के विरोध में आवाज़ें उठने लगीं. अब तक कोई तीन हज़ार लोग तैराकी की पोशाक पहन कर “अध्यापक भी इंसान होते हैं” हैशटैग के साथ अपनी तस्वीरें पोस्ट कर चुके हैं. विक्टोरिया के समर्थन में टिप्पणियां थमने का नाम नहीं ले रही हैं. एक भद्र महिला  ने उन्हें नौकरी से निकालने के इस फैसले को “पाखण्ड, मूर्खता और पागलपन का  उग्र नमूना”  कहा है. उन्होंने यह भी  लिखा है कि “माना कि हम लोग अध्यापक हैं, लेकिन हम भी इंसान हैं और इसलिए हमें भी यह अधिकार है कि हम विद्यालय परिसर के बाहर और सोशल मीडिया पर अपनी तरह से जिएं.” एक और व्यक्ति ने अपनी प्रतिक्रिया में स्कूल प्रशासन के इस फैसले को “पूरी तरह मूर्खताभरा” कहा तो एक बुज़ुर्ग ने अतीत को याद करते हुए और स्कूल प्रशासन के फैसले की लानत-मलामत करते हुए लिखा कि  “एक समय ऐसा भी था जब हमें इस तरह के बेहूदा तर्कों से अपना बचाव करने की ज़रूरत नहीं पड़ा करती थी.”  एक अन्य महिला ने इंस्टाग्राम पर यह कहते हुए विक्टोरिया के साथ अपनी एकजुटता ज़ाहिर की कि “मैं अपनी अध्यापिका साथी का समर्थन करती हूं और चाहती हूं कि हमारे देश को इस तरह की बेहूदगी से निजात मिले.” इसी तरह अन्य बहुतों ने स्कूल प्रशासन के फैसले की कड़ी निंदा की और विक्टोरिया के कृत्य को एक इंसान  के तौर पर उनका स्वाभाविक अधिकार मानते हुए उचित ठहराया.

जहां आम तौर पर अधिकतर लोगों ने विक्टोरिया के समर्थन में अपनी आवाज़ बुलंद की, वहीं समाज का एक छोटा-सा हिस्सा ऐसा भी रहा जिसने विक्टोरिया के इस कृत्य को उचित नहीं समझा. विक्टोरिया के समर्थन में तैराकी की पोशाक में अपनी तस्वीरें पोस्ट करने वालों-वालियों की खबर लेते हुए एक ने लिखा है कि “इन्हें तो असल में तैराकी की पोशाक पहन  कर खुद को दिखाने के लिए किसी बहाने की तलाश थी.” एक और महिला ने इसी  तर्क को आगे बढ़ाते हुए समर्थन के रूप में तैराकी की पोशाक पहन कर अपनी तस्वीरें प्रकाशित करवाने वाली महिलाओं की आलोचना करते हुए कहा कि “खुद अपने कपड़े उतारने से बेहतर यह होता कि ये महिलाएं सीधे उन लोगों से बात करतीं जिन्होंने विक्टोरिया को नौकरी से निकाला है.” एक अध्यापिका ने लिखा कि “यह बात सामान्य नहीं है. माना कि शिक्षक भी इंसान होते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे समाज को राह दिखाते हैं.” उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि “हां, मैं मानती हूं कि हममें से हरेक का निजी जीवन भी होता है. लेकिन वह वास्तव में निजी और व्यक्तिगत ही होता है. आपको कैसा लगेगा अगर निजी जीवन के नाम पर कोई अध्यापक स्कूल के पिछवाड़े जाकर शराब पीने लगे या नशा करने लगे या फिर औरों के साथ मार-पीट करने लगे! उन्हें यह भी करने दीजिए! आखिर वे भी तो इंसान हैं!” ज़ाहिर है कि वे विक्टोरिया के समर्थकों द्वारा दिये गए तर्कों की खिल्ली उड़ा रही थीं.  

क्या आपको नहीं लगता है कि दोनों पक्षों के तर्क अपनी-अपनी जगह सही है!

आप सोचें, लेकिन यह भी जान लें कि इसी बीच सरकार ने एक बयान ज़ारी कर कहा है कि सुश्री विक्टोरिया उसी या किसी अन्य विद्यालय में पढ़ाना ज़ारी रख सकती हैं. लेकिन विक्टोरिया के लिए अब अन्य विकल्प भी खुल गए हैं. एक मॉडलिंग एजेंसी ने भी उन्हें आमंत्रित कर लिया है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 26 जून, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 12, 2018

बहुत तेज़ी से नकदी रहित होता जा रहा है स्वीडन


भारतीय अर्थव्यवस्था को नकदी विहीन बनाने के सरकारी प्रयासों पर ज़ारी बहस-मुबाहिसे के बीच यह जानना दिलचस्प होगा कि स्वीडन बहुत तेज़ी से नकदी रहित  अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रहा है और अनुमान लगाया गया है कि सन 2030 तक यह देश पूरी तरह नकदी मुक्त हो जाएगा. स्वीडन में नकदी विहीन होने की शुरुआत सन 2005 में हुई थी जब वहां की सरकार ने कुछ बैंकों को नकदी और भुगतान की व्यवस्थाओं के बारे में निर्णय करने का दायित्व सौंपा था. इसी क्रम में सन 2012 में वहां के केंद्रीय बैंक, रिक्सबैंक ने बैंकनोट्स का एक नया डिज़ाइन लागू किया लेकिन वह बहुत सारे स्वीडन वासियों को पसंद नहीं आया और उन्होंने अपने पुराने तथा चलन से बाहर हो चुके नोट तो बैंक में जमा करा दिये लेकिन उनके बदले में ये नए नोट नहीं लिये. उसी बरस दिसम्बर में वहां के छह बड़े बैंकों ने स्विश नाम से एक भुगतान व्यवस्था लागू की जिसका उपयोग कर लोग तुरंत धन का आदान प्रदान कर सकते थे. उसके बाद से वहां नकदी विहीन लेन देन में बहुत तेज़ी आई और अब  हालत यह है कि पिछले बरस स्वीडन में कुल भुगतान के मात्र एक प्रतिशत में ही नकदी का प्रयोग हुआ. वहां की बसों में कई बरस पहले से सिक्कों और नोटों का प्रयोग होना बंद हो चुका है और अब तो ऐसे बैंकों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है जिनके बाहर स्थानीय भाषा में यह अंकित होता है कि यहां नकदी उपलब्ध नहीं है. छोटी-छोटी कॉफी शॉप्स तक में यह लिखा मिलने लगा है कि हमारी दुकान नकदी मुक्त है, या यहां केवल क्रेडिट कार्ड स्वीकार किये जाते हैं. देश के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों पर भी प्रवेश शुल्क केवल कार्ड्स से ही स्वीकार किया जाने लगा है. एक व्यक्ति  ने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया है कि उसने देखा कि गुब्बारे बेचने वाला भी कार्ड से भुगतान प्राप्त कर रहा था. स्वीडन के धार्मिक स्थल भी तेज़ी से नकदी विहीन होते जा रहे हैं.

हमारे लिए यह विशेष रूप से ग़ौर तलब है कि स्वीडन के इतनी तेज़ी से नकदी विहीन होते जाने के मूल में कई बातें हैं. पहली तो यह कि उस देश का आकार बहुत छोटा और जनसंख्या बहुत कम है. इस कारण वहां कोई भी नई व्यवस्था आसानी से चलन में लाई जा सकती है. वहां का क्षेत्रफल मात्र  447,435 वर्ग किलोमीटर  और जनसंख्या लगभग 99 लाख है. देश में भ्रष्टाचार बहुत ही कम है और वहां के नागरिकों को अपनी बैंकिंग और प्रशासनिक व्यवस्था पर पूरा भरोसा है. ज़्यादातर लोगों को इस बात की भी कोई आशंका नहीं है कि उनकी सरकार उनके लेन-देन के मामले में अनावश्यक रुचि लेगी. लोगों का शैक्षिक स्तर भी अच्छा है इसलिए नई व्यवस्था उनके लिए असुविधाजनक नहीं साबित  होती है. स्वीडन तकनीकी रूप से भी काफी उन्नत है और वहां इण्टरनेट की सुलभता, पहुंच और गति बहुत उम्दा है.

लेकिन जहां स्वीडन के अधिकांश नागरिकों को इस नकदी विहीनता से कोई आपत्ति नहीं है, वहां की आबादी का एक छोटा-सा हिस्सा  विभिन्न कारणों से इस नकदी विहीनता के विरोध में आवाज़ उठाने लगा है. आश्चर्य की बात यह कि विरोध के ये स्वर लगातार तेज़ होते जा रहे हैं. स्वीडिश नेशनल पेंसनर्स असोसिएशन ऐसा ही एक समूह है जो अपने साढ़े तीन लाख सदस्यों की तरफ से इसके खिलाफ आवाज़ उठा रहा है. इस संगठन के प्रवक्ता का कहना है कि हम नकदी विहीन समाज के खिलाफ़ नहीं हैं, लेकिन जिस तेज़ गति से यह सब किया जा रहा है उस पर नियंत्रण चाहते हैं. इनका कहना है कि अगर देश में नकदी का उपयोग प्रतिबंधित नहीं किया गया है तो लोगों को उसका उपयोग करने की सुविधा भी मिलनी चाहिए. स्वीडिश समाज के बहुत सारे लोग, विशेषकर 75 वर्ष या  उससे अधिक वाले बुज़ुर्ग विभिन्न कारणों से नई भुगतान व्यवस्था को नहीं अपना पा रहे हैं. कुछ को इण्टरनेट सुलभ नहीं है, कुछ कार्ड का इस्तेमाल करने में सहज अनुभव नहीं करते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें नकदी का  प्रयोग करने में ही सुख  मिलता है. बहुतों की आपत्ति यह भी है इस नई भुगतान व्यवस्था के कारण उन्हें अनावश्यक व्यय भार वहन करना पड़ता है. जो लोग अधिक सजग हैं उनकी आपत्ति यह भी है कि सत्ता तंत्र इस नकदी विहीन व्यवस्था का दुरुपयोग भी कर सकता है और अगर वह चाहे तो किसी को भी इसके उपयोग से वंचित कर उसे पूरी तरह असहाय बना सकता है. इस व्यवस्था के कारण व्यक्ति की निजता में सेंध की बात भी बहुतों को नागवार गुज़रती है. उनका कहना है कि इस व्यवस्था से वो अनाम रहकर तो कुछ खरीद ही नहीं सकते हैं.

स्वीडन में नकदी विहीनता के खिलाफ़ जो आवाज़ें उठ रही हैं वे सितम्बर 2018 में होने वाले देश के आम चुनावों को भी प्रभावित करेंगी, ऐसा माना जा रहा है.

ये तमाम बातें हमारे लिए भी विचारणीय तो हैं ही.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक स्तम्भ कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 12 जून, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, June 5, 2018

इस तरह दिया तमिलनाडु ने अपने साहित्य को संरक्षण


मार्च 1949 में दक्षिणी भारत के राज्य तमिलनाडु में एक विलक्षण काम हुआ. इस काम का सम्बंध साहित्य को राजकीय संरक्षण प्रदान करने से है. राज्य की तत्कालीन सरकार ने विख्यात दिवंगत कवि सुब्रह्मण्यम भारती के परिजनों (उनकी पत्नी, बेटियों और सौतेले भाई) में से प्रत्येक को पांच-पांच  हज़ार रुपये देकर इस महान रचनाकार की सभी रचनाओं का कॉपीराइट प्राप्त कर लिया. कदाचित पूरी दुनिया में यह पहला मौका था जब किसी राज्य सरकार ने किसी रचनाकार के सृजन का कॉपीराइट खरीद कर उसकी रचनाओं को सार्वजनिक रूप से सुलभ कराया हो. भारत में जो कॉपीराइट नियम चलन में हैं उनके अनुसार किसी लेखक की मृत्यु के साठ बरस बाद उसकी रचनाएं कॉपीराइट मुक्त हो जाती हैं. मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में सुब्रह्मण्यम भारती का निधन 1921 में हुआ था और इस तरह उनका सृजन जनवरी 1972 में कॉपीराइट मुक्त होता. लेकिन सरकार ने इससे बहुत  पहले ही उनकी रचनाओं को आम जन को सुलभ करा दिया. सरकार के इस प्रयास का सुपरिणाम यह है कि तमिलनाडु  में आज भी इस महाकवि की कविताओं का  लगभग पांच सौ पन्नों का संग्रह  सौ रुपये से भी कम में मिल जाता  है. तमिलनाडु में और अन्यत्र भी उनकी किताबों की लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं और तमिल फिल्मों में उनके गीत खूब प्रयुक्त हुए हैं.

सुब्रह्मण्यम भारती के काव्य पर रोमाण्टिक कवियों का गहरा असर था और शायद यही वजह है कि उन्होंने अपना उपनाम विख्यात अंग्रेज़ी कवि शैली के नाम पर शैली दासन रखा था. भारती ने सभी तरह के शिल्प में काव्य सृजन किया – छंदबद्ध भी और छंद मुक्त भी. कविताओं के अलावा कहानियां भी उन्होंने लिखीं और पत्रकारी लेखन भी खूब किया. लेकिन इतना सब करने और उत्कृष्ट करने के बावज़ूद उन्हें गरीबी में ही जीवन बिताना पड़ा. उनके निधन के बाद उनकी निरक्षर पत्नी और दो बेटियों को भी अभावों से जूझना पड़ा, और इसी दौरान उनकी पत्नी ने मज़बूर होकर बहुत कम मूल्य पर महाकवि की रचनाएं उनके सौतेले भाई को बेच दी. वह समय ग्रामोफोन रिकॉर्ड्स और फिल्मों के उत्थान का भी था. महाकवि के कुछ गीत खूब लोकप्रिय हो गए थे और यही देख एक बड़े फिल्म निर्माता ने उस भाई से कवि के कृतित्व का कॉपीराइट खरीद लिया. अब हुआ यह कि उसी दौरान एक अन्य फिल्म निर्माता ने भारती का एक गीत अपनी फिल्म में इस्तेमाल कर लिया और इस पर उक्त खरीददार निर्माता ने उस पर कानूनी कार्यवाही कर दी. और यहीं से घटनाक्रम में एक ज़ोरदार  मोड़ आ गया. राज्य में इस मांग के लिए एक बड़ा आंदोलन शुरु हो गया कि राज्य सरकार इस महाकवि की रचनाओं का कॉपीराइट प्राप्त करे. शायद साहित्य के इतिहास की यह अपने तरह की इकलौती घटना है. तमिल लेखक भी इस मांग के समर्थन में मुखर हुए कि भारती के सृजन को निजी स्वामित्व की कैद  से आज़ादी दिलाई जाए. लगभग पांच बरस की जद्दोजहद के बाद अंतत: 1949 में राज्य सरकार ने इस तमिल महाकवि की रचनाओं का कॉपीराइट खरीद कर उसे सार्वजनिक रूप से सुलभ कराने का अभूतपूर्व कदम उठाया. और इसके बाद तो तमिलनाडु में ऐसा होना आम ही हो गया. सुब्रह्मण्यम भारती की मृत्यु के चालीस बरस बाद उनके शिष्य-कवि भारती दासन के कृतित्व का कॉपीराइट भी तमिलनाडु सरकार ने खरीद लिया. इसी सरकार ने 1992 में तमिलनाडु के भूतपूर्व मुख्यमंत्री सी एन अन्नादुराई के कृतित्व का कॉपीराइट सत्तर लाख से भी ज़्यादा रुपयों में खरीदा. और उसके बाद से अब तक यह सरकार करीब सौ लेखकों के कृतित्व का कॉपीराइट खरीद कर उस सृजन को सार्वजनिक रूप से सुलभ करा चुकी है.

मूलत: इस काम के पीछे लेखकों को आर्थिक मदद पहुंचाने का पवित्र भाव था. लेकिन जैसा सर्वत्र होता है, अब इसमें और बहुत सारी बातें शुमार हो गई हैं और इस कारण  खुद तमिल लेखक कहने लगे हैं कि इस तरह का संरक्षण साहित्य के हित में नहीं है. यहीं यह बात भी याद कर लेना प्रासंगिक होगा कि खुद महाकवि सुब्रह्मण्यम भारती साहित्य को राजकीय संरक्षण देने के खिलाफ थे. उन्होंने 1916 में अपने एक लेख में लिखा था कि “अब कलाओं को आम जन से ही समर्थन और सहायता प्राप्त होगी. यह कलाकारों का दायित्व  है कि वे आम जन में सुरुचि जगाएं. इसके अच्छे परिणाम सामने आएंगे.” तमिल साहित्यकार जो भी कहें और वहां का यथार्थ चाहे जो भी हो,  इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि किसी महाकवि का पांच  सौ पृष्ठों का कविता संग्रह मात्र सौ रुपये में मिलना हम हिंदी वालों के लिए अकल्पनीय बात है. कॉपीराइट मुक्त हो जाने के बाद भी हम तो प्रेमचंद और रवींद्र नाथ टैगोर की किताबों के महंगे संस्करण ही खरीदने को विवश हैं.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक स्तम्भ कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 05 जून, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Friday, June 1, 2018

भारतवंशी सुषमा ने दिया पूरी मानवता को एक संदेश


यह घटना सुदूर अमरीका में घटी, लेकिन जब इसके बारे में पढ़ा तो बरबस आंखें नम हो आईं और माथा सराहना में झुक गया. क्या ही अच्छा हो कि सारी दुनिया ऐसे ही अच्छे और संवेदनशील लोगों से भर जाए! घटना न्यूयॉर्क के एक जनाना अस्पताल की है जहां भारतीय मूल की कनाडा वासिनी और फिलहाल सपरिवार अमरीका में रह रहीं सुषमा द्विवेदी जिंदल भर्ती थीं. वे गर्भवती थीं और डॉक्टर की सलाह पर उनकी रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले वाले जोड़ के पास प्रसव पीड़ा को कम करने वाला इंजेक्शन लगाया गया था. चिकित्सकीय भाषा में इसे एपीड्यूरल एनेस्थीसिया कहा जाता है. इंजेक्शन का असर शुरु होने लगता उससे पहले ही सुषमा को पता चला कि उसी अस्पताल में प्रसव के लिए भर्ती एक स्त्री और उसके साथी  को सहायता की ज़रूरत है. असल में ब्रायना डॉयेल और उनके साथी केसी वॉको इस बात के लिए बहुत आकुल व्याकुल थे कि ब्रायना शिशु को जन्म दे उससे पहले उनका धार्मिक विधि विधान पूर्वक बाकायदा विवाह हो जाए. वैसे वे लोग एक दिन पहले अदालत में जाकर कानूनी औपचारिकताएं पूरी कर चुके थे और विवाह का कानूनी प्रमाण  पत्र भी हासिल कर चुके थे. वे धार्मिक रीति से विवाह की रस्में भी पूरी कर लेते लेकिन गर्भस्थ शिशु को शायद इस दुनिया में आने की बहुत ज़्यादा जल्दी थी, सो उन्हें बजाय चर्च जाने के भागकर अस्पताल आना पड़ गया. वैसे डॉक्टरों ने बच्चे की जन्म की जो सम्भावित तिथि बताई थी वो अभी काफी दूर थी, और अगर सब कुछ योजनानुसार चलता तो तब तक वे धार्मिक रीति से भी पति पत्नी बन चुके होते, लेकिन सब कुछ योजनानुसार हो जाता तो यह प्रसंग ही क्यों बनता? ब्रायना और वॉको की व्याकुलता को समझ संवेदनशील अस्पताल कर्मियों (वो कोई भारत का सरकारी अस्पताल थोड़े ही था!) ने अस्पताल के पादरी की तलाश की, लेकिन वे उपलब्ध नहीं हुए तो उन्होंने भी अपने हाथ खड़े कर दिए.

जब इस पूरे मामले की भनक सुषमा को लगी तो उन्होंने अस्पताल वालों से कहा कि यह पवित्र कार्य तो वे भी सम्पन्न कर सकती हैं. उन्होंने अस्पताल वालों को बताया कि कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने इस कार्य का बाकायदा ऑनलाइन  प्रशिक्षण प्राप्त किया है और वे तब से पर्पल प्रोजेक्ट नामक एक सेवा का संचालन कर रही हैं जो एलजीबीटीक्यू (LGBTQ) समुदाय के लोगों और उन हिंदू धर्मावलम्बियों के विवाह सम्पन्न करवाती हैं जिन्हें उपयुक्त पण्डित नहीं मिल पाते हैं. अस्पताल प्रशासन तेज़ी से हरकत  में आया और उसने इस अजीबोगरीब विवाह के लिए तुरत फुरत सारी सुविधाएं जुटा दीं. लेकिन तब तक सुषमा पर उस इंजेक्शन का असर होना शुरु हो गया था और उन्हें लगा कि वे चलना तो दूर शायद खड़ी भी न रह सकें. वो कहते हैं ना कि जहां चाह वहां राह. तो इस समस्या का भी हल निकाल लिया गया. बजाय इसके कि सुषमा उस युगल के पास जाकर विवाह सम्पन्न करातीं, ब्रायना और वॉको को ही उनके अस्पताली पलंग के पास ले आया गया. अस्पताल की नर्सों ने ब्रायना के केश संवार कर उसे दुल्हन बनाया तो अन्य चिकित्सा कर्मियों ने अस्पताल में उपलब्ध सामग्री का इस्तेमाल करते हुए दुल्हे मियां की समुचित साज सज्जा कर दी. कोई भाग कर फूल भी ले आया और एक बंदे ने तो अवसरानुकूल कविता भी रच डाली. और फिर नर्सों के मंगल गान के बीच यह युगल अस्पताल के गलियारों से होता हुआ बिस्तर पर लेटी पण्डितानी यानि सुषमा के सामने जा पहुंचा. सुषमा ने विवाह की रस्में पूरी कीं और बुधवार की उस आधी रात को वो अस्पताल जैसे प्रेम के जीते जागते मंदिर में तब्दील हो गया.

इसके चार घण्टे बाद इस खूबसूरत दुनिया में एक शिशु अवतरित  हुआ जिसे अब नयन जिंदल नाम से जाना जाएगा और नयन महाशय के इस दुनिया में पदार्पण के चंद घण्टों बाद ब्रायना ने जन्म दिया रिले को. और इस तरह न्यूयॉर्क के उस अस्पताल में लिखी गई  दो शिशुओं के जन्म की वो विलक्षण कथा जिसे कम से कम इन दो परिवारों में तो बार-बार सुनाया ही जाएगा. मेरे दिल को तो उस बात ने छुआ जो सुषमा ने बाद में पत्रकारों से कही. अश्विन और उनसे दो बरस छोटे नयन की मां सुषमा ने कहा कि “हमें खुशी है कि हम अपने बच्चों को यह पाठ पढ़ा पा रहे हैं. हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे सदा इस बात को याद रखें कि अगर आपको अपनी ज़िंदगी में कभी भी दयालुता दिखाने और किसी और के लिए कुछ भी अच्छा करने का मौका  मिले तो उसे हाथ से न जाने  दें. जान लें कि ऐसा करना तनिक भी मुश्क़िल नहीं है.” मुझे लगता है कि यह संदेश अश्विन और नयन के लिए ही नहीं, हम सबके लिए भी है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत (इस बार मंगलवार की बजाय) शुक्रवार, 01 जून, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.