Friday, August 23, 2019

रोबोट दे रहा बौद्ध धर्म की शिक्षा


क्योटो (जापान) से ख़बर आई है कि वहां के कोडाइजी नामक लगभग चार सौ साल पुराने नामी बौद्ध उपासना गृह में एक नया पुजारी प्रकट हुआ है. यह पुजारी एक रोबोट है जो कृत्रिम बुद्धि से चालित है. इस साल के प्रारम्भ में प्रकट हुआ यह यंत्र पुजारी अपने धड़, भुजाओं और हाथों को हिला‌ डुला सकता है. इसके हाथों, चेहरे और  कंधों पर त्वचा का आभास देने वाली सिलिकॉन की परत चढ़ाई गई है. अपने हाथों को उपासना की मुद्रा में जोडे हुए यह रोबोट बड़े शांत  स्वर में करुणा की महत्ता समझाता है और लालसा, क्रोध और अहं के ख़तरों के प्रति चेतना जगाता है.  यह जापानी भाषा में हृदय सूत्र के उपदेशों के माध्यम से बौद्ध  दर्शन समझाता है. विदेशी पर्यटकों की सुविधा के लिए इन उपदेशों के अंग्रेज़ी और चीनी अनुवाद स्क्रीन पर प्रदर्शित किये जाते हैं.  इस रोबोट का विकास ज़ेन टेम्पल और ओसाका विश्वविद्यालय के रोबोटिक्स विभाग के सुविख्यात प्रोफ़ेसर हिरोशी इशिगुरो की एक संयुक्त परियोजना के तहत लगभग दस लाख डॉलर के व्यय से किया गया है.

उपासना गृह के प्रमुख तेन्शो गोटो का कहना है कि यह नया पुजारी न केवल कभी मरेगा नहीं, यह अपने ज्ञान और बुद्धि को भी निरंतर विकसित करता रहेगा. यह असीमित ज्ञान  को सदा सर्वदा के लिए सहेज कर रख सकता है. इसकी कृत्रिम बुद्धि के कारण हम  यह भी उम्मीद कर सकते हैं कि इसकी बुद्धि निरंतर विकसित होती रहेगी और इस कारण यह लोगों को उनके कठिनतम समय में मार्गदर्शन  प्रदान कर  सकेगा. इस तरह  यह रोबोट बौद्ध  दर्शन को नया आकार दे रहा है. यहीं यह बात  भी स्मरणीय है कि आज के जापान में लोगों के दैनिक जीवन पर से धार्मिक प्रभाव कम होता जा रहा है. युवा पीढ़ी यह मानने लगी है कि उपासना गृह या तो अंतिम संस्कार के लिए हैं या फिर विवाह के लिए.  ऐसे में तेन्शो गोटो का यह उम्मीद करना उचित ही प्रतीत होता है कि इस रोबोट का नयापन युवा पीढ़ी को फिर से धार्मिक सोच की तरफ आकर्षित कर  सकेगा. वे यही चाहते हैं कि लोग रोबोट के माध्यम से ही सही, बौद्ध दर्शन के सार तत्व को समझें तो सही. तेन्शो गोटो बलपूर्वक इस आरोप को नकारते हैं कि यह रोबोट पर्यटकों से होने वाली आय को ध्यान में रखकर लाया गया है. 

इस रोबोट पुजारी को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. हाल में ओसाका विश्वविद्यालय द्वारा किये गए एक सर्वे के जवाब में बहुतों ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि यह रोबोट कितना ज़्यादा मनुष्य जैसा लगता है. एक ने तो यहां तक कह दिया उसे इस रोबोट से जैसी गर्मजोशी का अनुभव हुआ वैसी गर्मजोशी तो आम तौर पर इंसानों से भी हासिल नहीं होती है. एक अन्य भक्त का कहना था कि पहली नज़र में तो मुझे यह अस्वाभाविक लगा लेकिन जल्दी ही मैं इसके प्रति सहज हो गया हो और फिर तो इसके द्वारा दिये गए उपदेश मेरे भीतर उतरने लगे. लेकिन सारे ही लोग इस रोबोट के प्रति इतने सकारात्मक भी नहीं हैं. कुछ ने मात्र इतना कहा कि उन्हें यह नकली लगता है, तो कुछ ने अपनी बात  को स्पष्ट करते हुए कहा कि इसके मुंह से झरते हुए उपदेश उन्हें असहज करते हैं और इसके हाव-भाव बहुत मशीनी लगते हैं.

सबसे ज़्यादा दिलचस्प बात तो यह है कि इस रोबोट की ज़्यादा आलोचना विदेशी कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि यह रोबोट बनाकर धर्म की पवित्रता के साथ छेड़छाड़ की गई है. खुद तेन्शो गोटो ने भी यह बात स्वीकार की है कि विदेशी इस रोबोट को न केवल स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, वे इसे एक अंग्रेज़ लेखक मैरी शैली की विख्यात रचना द मॉडर्न प्रोमिथियस के एक किरदार फ्रैंकनस्टाइन की तरह का दैत्य  तक कह डालते हैं. हालांकि तेन्शो गोटो इस बात को नकारते हैं लेकिन बहुत लोग यह कह रहे हैं कि फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों तक ने इस रोबोट को पवित्र वस्तुओं का अनादर करने वाला बताया है. विदेशियों की प्रतिक्रियाओं से जापानियों की प्रतिक्रियाएं अलग हैं. उन्हें रोबोट पुजारी से कोई दिक्कत नहीं है. शायद ऐसा इसलिए है कि जापान में बहुत सारे लोग  जिन कॉमिक्स  को  पढ़कर बड़े हुए हैं उनमें रोबोट्स को मनुष्य का दोस्त ही बताया जाता रहा है. तेन्शो इस बात को स्वीकार करते हुए कि रोबोट जैसे यंत्र के भीतर कोई हृदय नहीं होता है, कहते हैं कि “बौद्ध धर्म भी यह नहीं कहता  है कि आप भगवान में विश्वास करें. वह तो आपको बुद्ध के बताये मार्ग पर चलने की सीख देता है. इसलिए इस बात से क्या फर्क़ पड़ता है कि यह सीख कोई मनुष्य दे रहा है या यंत्र, या लोहे का टुकड़ा, या फिर कोई पेड़.”

उनकी बात में दम तो लगता है!  
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत शुक्रवार, 23 अगस्त, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, August 13, 2019

रिश्तों की मज़बूती के लिए अच्छी नींद भी बहुत ज़रूरी !


यह बात सन 2012 में ही सामने आ चुकी थी. एक संस्था बेटर स्लीप काउंसिल ने अपने सर्वे में पाया था कि हर चार में से एक दम्पती रात को बेहतर और अबाधित निद्रा लेने के लिए अलग-अलग सोते हैं. इसी बात को आगे बढ़ाया पिछले बरस एक रिसर्च कम्पनी वन पोल ने. उसने एक शैया निर्माता कम्पनी के  लिए किये गए सर्वे में पाया कि अमरीका के कुल दो हज़ार  उत्तरदाताओं में से छियालीस प्रतिशत की आकांक्षा अपने जीवन साथियों से अलग शयन करने की थी. असल में आहिस्ता-आहिस्ता  पूरी दुनिया में यह हो रहा है कि दम्पती अलग-अलग कमरों में या फिर कम से कम अलग अलग पलंगों पर सोना पसंद करने लगे हैं. और जैसे हमें चौंकाने के लिए इतना ही पर्याप्त न हो, न्यूयॉर्क शहर की एक जानी-मानी मनश्चिकित्सक ने तो यह तक कह दिया था कि “कुछ दम्पतियों का तो यह खयाल भी है कि अलग-अलग सोने से उनके रिश्ते और मज़बूत हो गए हैं.” अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि ऐसे दम्पतियों का कहना था कि एक दूसरे की भिन्न भिन्न आदतों के कारण नींद में आने वाले ख़लल से मुक्ति की कल्पना ही उनके लिए इतनी सुकून दायक थी कि वे लोग अतीत में एक दूसरे की जिन बातों से क्षुब्ध होते थे उनको भुलाकर  अपने रिश्तों की अन्य सुखद बातों पर ध्यान केंद्रित कर पा रहे थे. 

इस सारी बात के मूल में यह हक़ीक़त है कि एक ही शयन कक्ष में सोने वाले युगल अपने साथी की बहुत सारी बातों, जैसे खर्राटे भरना, मुंह से बदबू आना, नींद में करवटें बदलना या हाथ-पांव चलाना, उजाले में नींद आने का अभ्यास  वगैरह के कारण परेशान होते हैं. यह परेशानी जब अधिक बढ़ जाती है तो इससे स्वास्थ्य  विषयक अनेक दिक्कतें तो पैदा होती ही हैं, चिड़चिड़ाहट भी बढ़ने लगती है और इन सबकी परिणति वैवाहिक सम्बंधों के बिगड़ने में होती है. सन 2016 में जर्मनी की न्यूरेम्बर्ग यूनिवर्सिटी में हुए एक शोध कार्य से पता चला कि नींद में ख़लल और रिश्तों में तनाव इन दोनों में चोली-दामन का साथ है. वैसे, सन 2013 में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी,  बर्कले में हुए एक शोध में यह बात पहले ही कही जा चुकी थी कि पति पत्नी में से किसी एक की नींद विषयक आदतों की वजह से जब दूसरे की नींद खराब होती है तो उसका सीधा असर उनके वैवाहिक सम्बंधों पर पड़ता है. और इसलिए समझदार दम्पती  एक दूसरे की सुविधा-असुविधा का खयाल कर सप्ताह में कुछ दिन अलग-अलग कमरों में सोने लगे हैं. वे कहते हैं कि यह चुनाव से ज़्यादा किसी समस्या के व्यावहारिक समाधान  का मामला है.

इस समाधान के अनेक रूप हैं. कमरे अलग हो सकते हैं, या फिर एक ही कमरे में बिस्तर अलग-अलग हो सकते हैं. वैसे इस समस्या पर अधिक विचार पश्चिम में हुआ है और या फिर हमारे यहां सुविधा सम्पन्न लोगों में, क्योंकि शेष के पास तो वैसे ही कोई विकल्प नहीं होता है. उन्हें तो जो है और जैसा  है में ही ज़िंदगी बितानी होती है.  वैसे भी पश्चिम में व्यक्तिवाद,  निजी स्पेस और अपनी शर्तों पर जीवन जीने का का आग्रह हमारे यहां की तुलना में बहुत ज़्यादा है. अब देखिये ना, बाल्टीमोर की 45 वर्षीया टीना कूपर की शिकायत है कि उन्हें देर रात तक जगे रहना अच्छा लगता है जबकि उनके जीवन साथी की आदत सुबह सबेरे जल्दी उठ जाने की है. उन्हें उठते ही सूरज की रोशनी को देखना पसंद है जबकि टीना जी को यह सुखद नहीं लगता. वे घुप्प अंधेरा पसंद करती हैं. उन्हें कुछ आवाज़ों में नींद आती है जबकि उनके साथी को नींद में डूबने के लिए गहरे सन्नाटे की तलब होती है. उनके साथी को कठोर गद्दे पर नींद आती है जबकि खुद उन्हें मुलायम और तकियों से भरा गद्दा अच्छा लगता है. अब आप ही सोचिये कि जिनकी आदतों और रुचियों में इतना ज़्यादा फ़र्क़ हो वे भला एक बिस्तर तो क्या एक कमरे में भी कैसे सो सकते हैं?

इस सारी चर्चा का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि बहुत सारी शोधों और अध्ययनों से यह बात  पता चली है कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियां अपने जीवन साथी की अनुचित हरकतों और आदतों से अधिक प्रभावित होती हैं और इसलिए वे ही समस्या के इस समाधान का अधिक पक्ष भी लेती हैं. सन 2007 में एक जर्नल स्लीप एण्ड बायोलॉजिकल रिद्म्स में इस तरह का अध्ययन प्रकाशित हो चुका है और उसे प्राय: उद्धृत किया जाता है.

भले ही हम लोग यह मानने के अभ्यस्त रहे हैं कि दम्पती की रात एक कमरे में बीतनी चाहिए, न्यूयॉर्क के एक बड़े मनोवैज्ञानिक की यह बात भी ग़ौर तलब तो है ही: “जो युगल अलग-अलग कमरों में सोते हैं वे एक दूसरे के साहचर्य को मिस भी करते हैं और यह बात उनके दाम्पत्य जीवन को अधिक उत्तेजक और दिलकश बना देती है.”

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 अगस्त, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, August 6, 2019

कदम गिनें नहीं, चलने का आनंद लें!


हम बचपन से सुनते आए हैं कि घूमना सेहत के लिए फायदेमंद होता है, और इसलिए भरसक यह कोशिश करते हैं कि जितना सम्भव हो पैदल चल लें. कुछ बरस पहले तक हम सुबह या शाम घूम लिया करते थे और यह सोच कर संतुष्ट हो जाते थे कि आज हम दो किलोमीटर घूमे या तीन किलोमीटर. फिर आहिस्ता आहिस्ता हमारे घूमने की नाप जोख करने वाले उपकरण आ गए तो उनकी मदद से हम अपने घूमने का हिसाब-किताब रखने लगे. पीडोमीटर, स्मार्ट वॉचेज़ या स्मार्ट फोन के  विभिन्न एप्स – जिसको जो सुविधाजनक और अपनी पहुंच के भीतर लगे वो उसी की मदद से आजकल अपने पैदल चलने का लेखा-जोखा  रख लेता है. वैसे बहुत लोग अब भी इन सबसे मुक्त रहकर ही घूमते हैं.

जो लोग किसी आधुनिक उपकरण की सहायता से अपने घूमने का रिकॉर्ड रखते हैं उनके लिए  घूमने का आदर्श पैमाना है दस हज़ार कदम. यानि अगर आप हर रोज़ दस हज़ार कदम चल लिये हैं तो मान लें कि आपने अपनी घूमने की दैनिक ज़रूरत पूरी कर ली है. जैसे ही आप दस हज़ार कदम चल लेते हैं, आपके स्मार्ट फोन में स्थापित एप हरे रंग की पट्टियों से बना एक गुलदस्ता नुमा उपहार आपको प्रदान कर आपका हौंसला बढ़ाता है. हर एप में इस उपहार की आकृति अलग-अलग होती है, लेकिन दस हज़ार कदम पूरे करते ही आपकी पीठ थपथपाई ज़रूर जाती है. क्या आपने कभी जानने का प्रयास किया है कि यह दस हज़ार कदम का पैमाना बना कैसे? मैं तो यही सोचता था कि बड़े बड़े विशेषज्ञों ने बरसों शोध और परीक्षण कर यह जाना होगा कि हमें स्वस्थ रहने के लिए हर दिन कम से कम दस हज़ार कदम चलना चाहिए.

लेकिन आप भी यह जानकर चौंक उठेंगे कि ऐसा नहीं है. अगर अनुमति दें तो इस रहस्य पर से पर्दा हटा ही दूं! हुआ यह कि जब 1964 में जापान की राजधानी टोकियो में ओलम्पिक खेल होने वाले थे तो वहां की पीडोमीटर बनाने वाली एक कम्पनी ने अपना उपकरण बेचने के लिए एक ज़ोरदार विज्ञापन अभियान चलाया. पीडोमीटर यानि आपके कदमों की गणना करने वाला उपकरण. उस कम्पनी ने अपने पीडोमीटर का नाम रखा था – मेन पो काई. जापानी भाषा में इन तीन शब्दों के अर्थ ये हैं: मेन = दस हज़ार, पो = कदम, और काई = मीटर या गणना यंत्र. अब इसे संयोग कहें या कुछ और, कि यह उपकरण बेहद कामयाब साबित हुआ. कम्पनी ने तो भारी मुनाफा कमाया ही, यह दस हज़ार की संख्या भी लोगों की स्मृति में अड्डा जमा कर बैठ गई. बाद में कुछ छोटे-मोटे शोध भी हुए जिनमें पांच हज़ार कदम चलने से होने वाले फायदों की तुलना दस हज़ार कदम चलने से होने वाले फायदों से की गई, और तब यह निष्कर्ष तो निकलना ही था कि जितना ज़्यादा चलोगे उतना फायदे में रहोगे. लेकिन यह एक तथ्य है कि दस हज़ार कदमों को लेकर अब तक बाकायदा कहीं कोई शोध नहीं हुई है. अलबत्ता हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में मेडिसिन की प्रोफ़ेसर आई मीन ली और उनकी टीम ने सत्तर पार की सोलह हज़ार स्त्रियों पर एक शोध कर यह जानने का प्रयास अवश्य किया है कि उनके चलने और उनकी मृत्यु के बीच क्या सम्बंध है. उन्होंने भी यह पाया कि जो स्त्री जितना ज़्यादा चलती थी वो उतने ही ज़्यादा समय तक जीवित रही. लेकिन इस शोध में यह भी पता चला कि ज़्यादा चलने का लाभ केवल साढ़े सात हज़ार कदमों तक ही सीमित रहा, इससे ज़्यादा चलने पर या तो कोई अतिरिक्त लाभ नहीं हुआ या लाभ कम हो गया.  वैसे  इस शोध  के परिणामों पर विश्वास करते समय इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि यह सत्तर पार की स्त्रियों तक ही सीमित था.

कदमों की यांत्रिक गणना की अपनी सीमाएं हैं, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता. पहली बात तो यह कि यंत्र के लिए बहुत तेज़ गति से चलना और एकदम धीमी गति से टहलना दोनों एक ही बात हैं. ये भी चार कदम और वो भी चार कदम. जबकि हर कोई जानता है कि धीमे और तेज़ चलने के प्रभाव व परिणाम एक से नहीं हो सकते. इसलिए कदमों की इस गणना को एक स्थूल आकलन ही माना जाना चाहिए. दूसरी ख़ास बात जिसकी तरफ ध्यान जाना ज़रूरी है वह यह है कि कदमों की यह यांत्रिक गणना आपका ध्यान उस आनंद से भटका देती है जो पैदल चलने से आपको मिलता है. यह बात ड्यूक विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के एक प्रोफ़ेसर जॉर्डन एटकिन  ने कही है. उन्होंने एक अध्ययन कर यह बताया है कि भले ही अपने कदमों की यांत्रिक गणना करने वाले लोग चले ज़्यादा हों, उन्हें ऐसा करके आनंद कम मिला.

हमने तो सारी बातें आपके सामने रख दी हैं. अब आप खुद तै कर लें कि आपको कितने कदम चलना है, और कदम गिनकर चलना है या चलने का सच्चा आनंद लेकर चलना है!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 06 अगस्त, 2019 को  पैदल चलने की यांत्रिक गणना की सीमाएंशीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.