Thursday, October 10, 2013

इधर-उधर : 1



भाभीजी – आप तो ऐसी न थीं!

भारतीय समाज में कुछ रिश्ते हंसी-मज़ाक और छेड़छाड़ के लिए भी जाने जाते हैं. जैसे देवर-भाभी का रिश्ता, या जीजा-साली का रिश्ता. कहना अनावश्यक है कि इन रिश्तों में शरारत का जो तत्व मुमकिन रहा है उसकी भी अपनी मर्यादाएं रही हैं. सब कुछ इस तरह से मुमकिन रहा कि रिश्तों की शुचिता पर कोई आंच  न आए. लेकिन बदलते वक़्त का आप क्या करेंगे? पिछले कुछ समय से एक भाभी विशेष की हमारे यहां बड़ी चर्चा रही है. और चर्चा भी कुछ ऐसी कि सरकार को उस पर रोक लगाने को भी मज़बूर होना पड़ा. जी हां, मेरा इशारा उन्हीं तीन अक्षरों के नाम वाली भाभीजी की तरफ है. नाम  इसलिए नहीं ले रहा हूं कि अगर संयोग से किन्हीं भाभीजी का भी नाम वही हो तो उन्हें बेवजह शर्मिन्दा न होना पड़े. इधर हाल ही में वे ही भाभीजी फिर से चर्चा में हैं. चर्चा की वजह यह है कि उन भाभीजी के कार्टून किरदार के रचयिता को अब अपने कार्टून के लिए मॉडल के रूप में एक सचमुच की अदाकारा मिल गई हैं, और वे इस बात को छिपा भी नहीं रही हैं कि अब उन भाभीजी के रूप में उनका ही चेहरा-मोहरा इस्तेमाल किया जाएगा. बल्कि  छिपाना तो दूर, वे तो आह्लादित हैं कि अब अनगिनत युवा अपनी फैंटेसियों में उन्हें शुमार कर सकेंगे. क्या इसे हमारे समाज में विकसित हो रही नई नैतिकता के रूप में देखा जाना चाहिए? कुछ समय पहले तक जिस बात से लोगों को लज्जा का अनुभव होता था, अब नहीं होता है. वैसे तो कला जगत में, और विशेष रूप से साहित्य और फिल्मों में यह बदलाव काफी पहले से नज़र आने लगा था! साहित्य के घनघोर पाठकों को  कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी’  ज़रूर याद होगी जो पूरी ठसक और धौंस के साथ अपने शरीर और मन की चाह की बात बहुत बिन्दास शब्दावली में करती है. यहीं यह भी याद दिलाता चलूं कि यह 1967 की रचना है. कृष्णा सोबती की यह चारित्रिक सृष्टि मित्रो अपने पति सरदारी लाल से सम्पूर्ण शारीरिक सुख न मिलने पर सिर्फ  कुढ़ती ही नहीं, अपनी कुढ़न को सास और देवरानी के सामने खुलकर व्यक्त भी करती है और पति की ग़ैर हाज़री में उसके दोस्त प्यारो से नैन मटक्का भी कर लेती है. ‘इस देह  से जितना जस-रस ले लो वही खट्टी कमाई है’ कहने वाली मित्रो जब बच्चा न होने के बारे में अपनी सास और जेठानी से ताने सुनती है पलटकर कह देती है कि तुम्हारे लाल में ही दमखम नहीं है तो मैं क्या करूं? वह तो यह सवाल तक उठा लेती है कि ‘अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो पाप!’ इस बिन्दास मित्रो के अलावा  साहित्य में भाभियां तो इतनी  मिल जाती हैं कि उनके लिए अलग से भाभीवाद नामक एक बाड़ा ही बनाया जा चुका है.  फिल्मों में तो नैतिकता के स्थापित मानों को ध्वस्त करने और नई नैतिकता गढ़ने के इतने प्रसंग मिल जाएंगे कि उनके लिए एक कॉलम तो क्या एक पोथा भी कम होगा.  लेकिन फिर भी यह कहना ज़रूरी है  कि इस अभिनेत्री द्वारा ‘उन’ भाभीजी के रूप में अपनी आकृति के इस्तेमाल की इस घोषणा को एक ऐसी घटना के रूप में देखा जाना चाहिए जिसके शायद दूरगामी परिणाम हों!


कम्प्यूटर पर पाटा संस्कृति का पुनर्जन्म 


पहले घरों के बाहर चबूतरे हुआ करते थे जहां शाम ढले दिन-भर के कामकाज से मुक्त हो बुज़ुर्ग लोग दिन भर के घटनाक्रम की जुगाली किया करते थे. बीकानेर में तो एक अलग पाटा संस्कृति ही विकसित हो गई थी. लेकिन समय के साथ काफी कुछ बदला है. चबूतरे और पाटे अब अपनी रौनक खो चुके हैं. अलबत्ता मॉर्निंग वॉक के नाम पर सुबह-सुबह पार्कों वगैरह  में मिलने वाले लोग घूमते-फिरते वही काम किसी सीमा तक कर लेते हैं. लेकिन इधर मार्क जुगकरबर्ग जी की कृपा से दुनिया भर के उन लोगों को जो कम्प्यूटर से परहेज़ नहीं बरतते हैं, एक नई पाटा संस्कृति सुलभ हो गई है. जी हां. मेरा इशारा फेसबुक की तरफ ही है. यहां लोग खुलकर अपनी कहते हैं और दूसरों की सुनते - मेरा  मतलब पढ़ते  हैं. अपना दिल टूटने से लगाकर नमो-ममो तक के हाल-चाल और उस हाल-चाल पर हर तरह की टीका-टिप्पणी का रस यहां लिया जा सकता है. कुछ लोग इस सार्वजनिक मंच पर आकर अपने गन्दे पोतड़े (डर्टी लिनेन!) धोते हैं तो कुछ इसे आत्म प्रचार का सर्वश्रेष्ट माध्यम मानकर इसका भरपूर इस्तेमाल कर दूसरों को हलकान किए रहते हैं.  फेसबुक का सबसे मज़ेदार फीचर है टैग करना! टैग करना बोले तो अपने हाथों में आपका चेहरा पकड़ कर उसे अपनी तरफ घुमा कर कहना, ज़रा सुनिए तो! किसी ने कोई कविता लिखी और कर दिया चालीस-पचास साहित्य रसिकों को टैग! किसी को किसी बाबा की कोई बात पसन्द आई तो सौ सवा सौ लोगों तक उस बात को पहुंचाना अपना पुनीत कर्तव्य और अधिकार मान बैठे. यह मर्ज़ एक महामारी का रोग ले चुका है. हमारे शहर के ही एक कवि-कथाकार-पत्रकार  मित्र तो इस रोग से इस हद तक पीड़ित हुए कि उन्होंने बाकायदा घोषणा करके टैग करने का अपराध करने वालों को अनफ्रैण्ड करने की हिंसक कार्यवाही तक कर डाली. फेसबुक की दुनिया में अगर कोई किसी को अनफ्रैण्ड करता है इस बात का बहुत बुरा माना जाता है. अनफ्रैण्ड करना एक तरह से जाति बहिष्कार का ही नया संस्करण है. अब किसी का पुनर्जन्म होगा तो इतना बदलाव तो होगा ही!



जयपुर से प्रकाशित अपराह्न-दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'इधर-उधर' में 09 अक्टोबर 2013 को किंचित संक्षिप्त रूप में प्रकाशित टिप्पणियों का मूल पाठ.