अगर आप भी यह मानते हैं कि
भारत उन देशों में प्रमुख है जहां अंध विश्वास का बोलबाला है और स्त्रियों के
प्रति गहरा भेदभाव होता है तो आपको जापान की पचपन वर्षीया सिविल इंजीनियर रीको एबे
के बारे में ज़रूर जानना चाहिए. रीको एबे ने हाल में अपनी संघर्ष गाथा उजागर की है.
अस्सी के दशक में, जब वे इंजीनियरी की पढ़ाई कर रही थी, जापान में भी महिलाओं के लिए बहुत अधिक विकल्प मौज़ूद नहीं थे. जब वे यामागुची
यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग में स्नातक होने के कगार पर थीं तब वहां की
व्यवस्थानुसार उन्हें किसी प्रोफ़ेसर को अपना मेंटर चुनना था जो उन्हें नौकरी तलाश
करने में भी सहायक होता. और तब रीको एबे को पहली दफ़ा अपने देश में विद्यमान स्त्री
विषयक प्रतिगामी सोच का सामना करना पड़ा. अधिकांश प्रोफ़ेसरों ने उनका मेंटर बनने से
ही मना कर दिया,
क्योंकि
वे जानते थे कि एक स्त्री को इंजीनियरी के क्षेत्र में नौकरी मिलना मुश्क़िल है. हां, अगर वो सिविल
सर्वेण्ट बनना चाहती तो नौकरी मिल सकती थी. लेकिन रीको निर्माण के क्षेत्र में
जाना चाहती थीं क्योंकि उनकी आकांक्षा कुछ
नया निर्माण करने की थी. आखिर एक प्रोफ़ेसर उनका मेंटर बनने को तैयार हुए. वे एक
टनल विशेषज्ञ थे और इस तरह अनायास ही रीको भी टनल इंजीनियरी के क्षेत्र में धकेल दी गई. अब पीछे मुड़कर देखती
हुई रीको कहती हैं कि मेरे पास यह चुनने का मौका था ही नहीं कि मुझे पुल बनाने हैं
या बांध. और जब वे नौकरी की तलाश में निकलीं तो एक-एक करके सारी कम्पनियों ने
उन्हें बाहर का दरवाज़ा ही दिखाया. अब उनके पास आगे पढ़ाई करने के सिवा कोई विकल्प
नहीं था. उन्होंने टनल इंजीनियरिंग में मास्टर्स की डिग्री हासिल कर ली. लेकिन यह
करके भी उनके लिए नौकरी पाने का मार्ग सुगम नहीं हुआ. ज़्यादातर कम्पनियों ने
उन्हें इण्टरव्यू के लिए बुलाने काबिल भी नहीं समझा.
लेकिन वे एकदम हताश हो
जातीं इससे पहले एक कम्पनी ने उन्हें इण्टरव्यू के लिए बुला भेजा. इस बुलावे के
मूल में यह तथ्य था कि रीको के प्रोफेसर ने अपने एक पूर्व छात्र से उनकी सिफारिश
की थी,
और
संयोगवश वो पूर्व छात्र इस कम्पनी का अध्यक्ष था. यहां उन्हें नौकरी तो मिल गई, लेकिन नब्बे के
दशक में जापान में टनल इंजीनियरी के क्षेत्र में स्त्रियों की राह बहुत आसान नहीं थी. जापान में
एक अंध विश्वास प्रचलित था और है जिसके अनुसार स्त्रियों को निर्माण स्थल से दूर ही रहना चाहिए. इस अंध विश्वास के
मूल में यह बात है कि पहाड़ों की देवी एक ईर्ष्यालु औरत है और उसे यह बात पसंद नहीं
है कि कोई अन्य औरत किसी टनल के निर्माणाधीन इलाके में प्रवेश करे. जापान में यह
मान्यता थी और है कि अगर कोई औरत किसी निर्माणाधीन टनल के भीतर प्रवेश करेगी तो अवश्य
ही कोई दुर्घटना घटित हो जाएगी. उन दिनों को याद करती हुई रीको एबे कहती हैं कि
मैंने भी इस मान्यता के बारे में सुना था, लेकिन यह नहीं सोचा था कि
इसका सीधा असर मेरे ही कैरियर पर पड़
जाएगा. जब वे नौकरी करने लगीं तो उन्हें टनल्स के भीतर नहीं जाने दिया जाता था.
उनके सहकर्मी भी उनके वहां जाने का विरोध करते. और इस तरह वे एक ऐसी टनल इंजीनियर
बन कर रह गईं जिन्हें खुद टनल्स के भीतर जाने की इजाज़त नहीं थी.
नौकरी तो ख़ैर वे करती रहीं
लेकिन उनके मन में गहरा असंतोष भी पनपता रहा. वे कुछ अलग और सार्थक करना चाहती थीं
लेकिन कर नहीं पा रही थीं. इसी छटपटाहट के
बीच उन्हें नॉर्वे में उच्च अध्ययन के लिए एक स्कॉलरशिप मिल गई. रीको एबे को लगा
कि इस अध्ययन के बाद उनके लिए अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में काम के मौके बढ़ जाएंगे
और वहां शायद उन्हें स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव का शिकार भी नहीं होना पड़ेगा. और यही हुआ भी.
नॉर्वे में की गई पढ़ाई के बाद वे जापान से बाहर निकल कर यूक्रेन, ताइवान, और इण्डोनेशिया
में टनल प्रोजेक्ट्स में उत्साहपूर्वक काम
कर सकीं.
और अब ये रीको एबे हमारे
अपने देश यानि भारत में एक जापानी कंसलटेंसी कम्पनी की मुखिया के रूप में कार्यरत
हैं. रीको का सपना है कि वे भारत में बुलेट ट्रेन की परियोजना को क्रियान्वित
करें. अपने तीन दशकों के कार्यानुभव को वे
अब नई पीढ़ी को उपहार में देना चाहती हैं. नई पीढ़ी को उनका एक ही संदेश है: अगर तुम
दिल में ठान लो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं
है. अपने अतीत पर एक नज़र डालते हुए वे कहती हैं कि मेरे जीवन में बहुत सारी रुकावटें
आईं,
लेकिन
उन्हें पार कर ही मैं यहां तक पहुंच सकी हूं. मुझे इस बात का भी गर्व है कि मेरा जन्म
एक स्त्री के रूप में हुआ. अगर ऐसा न हुआ होता तो मैं यहां तक पहुंच भी न सकी
होती.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 18 सितम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.