Thursday, November 5, 2009

व्यथा-कथा आधे आकाश की


पुलित्ज़र पुरस्कार जीतने वाले पहले विवाहित दम्पती निकोलस डी क्रिस्टोफ और शेरिल वुडन ने अफ़्रीका और एशिया की सघन यात्राओं के बाद लिखी इस किताब में बताया है कि कैसे एक छोटी-सी सहायता भी पद दलित, पीड़ित बच्चियों और स्त्रियों की ज़िंदगी में महत्वपूर्ण बदलाव ला सकती है. इस दंपती को पत्रकारिता की दुनिया का यह बड़ा पुरस्कार न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता के रूप में इनकी चीन की कवरेज के लिए मिला था. बाद में क्रिस्टोफ को एक और पुलित्ज़र उनके कॉलम्स के लिए भी मिला.

इनकी सद्य प्रकाशित किताब हाफ़ द स्काई: टर्निंग ओप्परेसन इंटु अपोर्चुनिटी फॉर वुमन वर्ल्डवाइड विकाशशील देशों में लड़कियों और औरतों के दमन के रूप में विद्यमान हमारे समय के सबसे ज़्यादा मारक मानवाधिकार हनन के बारे में है. विवाह के बाद यह जोड़ी चीन चली गई थी और वहां जाने के सात महीने बाद ही इन्होंने खुद को थियानमेन स्क्वेयर नर संहार का साक्षी पाया. इससे अगले बरस इन्हें एक शोधपरक अध्ययन की मार्फत और भी बड़े मानवाधिकार हनन का पता चला. चीन में जहां चार से आठ सौ लोगों ने ही अपनी जान गंवाई थी, इस अध्ययन से इन्हें पता चला कि अकेले चीन में ही हर साल कम से कम 39,000 कन्याएं इसलिए काल का ग्रास बन जाती हैं कि उन्हें वह चिकित्सा सुविधा नहीं मिलती है जो लड़कों को मिलती है. एक चीनी पर्रिवार नियोजन अधिकारी ने इन्हें बताया, “अगर कोई लड़का बीमार पड़ता है तो उसके मां-बाप उसे तुरंत अस्पताल ले जाते हैं, लेकिन अगर कोई लड़की बीमार पड़ती है तो मां-बाप सोचते हैं कि देख लेते हैं अगले दिन इसकी तबियत कैसी रहती है.”

दुर्भाग्य की बात यह कि इन बेचारी चीनी लड़कियों को संचार माध्यमों में कोई उल्लेख तक नसीब नहीं होता. इस दंपती को तभी महसूस हुआ कि पत्रकारिता की दुनिया की प्राथमिकताएं कितनी विकृत हैं! और इसी बात से शुरू हुई उनकी खोज यात्रा. लेखक दंपती बहुत व्यथा के साथ कहते हैं कि अगर चीन में कोई महत्वपूर्ण विरोधी नेता गिरफ्तार भी कर लिया जाता है तो हम तुरंत एक फ्रण्ट पेज आर्टिकल लिख मारते हैं, लेकिन जब एक लाख लड़कियां अपहरण कर चकलों तक पहुंचा दी जाती हैं तो हमें लगता ही नहीं कि यह भी कोई खबर है. ऐसा शायद इसलिए भी होता है कि हम पत्रकारों का ध्यान किसी एक दिन की घटना पर तो चला जाता है लेकिन रोज़ घटने वाली घटनाएं हमें विचलित नहीं करती हैं. और ऐसा पत्रकारों के साथ ही नहीं होता. सरकारों का भी यही हाल है. अमरीका जो विदेशी सहायता देता है, उसका बमुश्क़िल 1 प्रतिशत स्त्रियों और लड़कियों के लिए होता है.

इन्हें महसूस हुआ कि कि कमोबेश दूसरे देशों में, ख़ास तौर पर दक्षिण एशियाई और मुस्लिम देशों में, भी हालात ऐसे ही हैं. इन्होंने पाया कि भारत में हर दो घण्टे में एक स्त्री कम दहेज लाने के ‘अपराध’ में या इस आस में कि उसके बाद दूसरी बहू लाई जा सकेगी, जला दी जाती है. पिछले नौ बरसों में इस्लामाबाद और रावलपिंडी में कम से कम पांच हज़ार लड़कियां और औरतें तथाकथित अवज्ञा के ज़ुर्म में केरोसिन या तेजाब से जला दी गईं.

इस किताब का महत्व इस बात में है कि यह हमें हताश-निराश-उदास नहीं छोड़ती. किताब में ऐसी अनेक स्त्रियों के वृत्तांत हैं जो तमाम अंधेरों के बीच उजाले की किरण की मानिंद चमकते हैं. अब इस पाकिस्तानी युवती को ही लीजिए जो एक ऊंची जाति के मर्द के बलात्कार की शिकार हुई. गांव में रिवाज़ तो यह था कि ऐसी युवतियां घर जाकर जान दे दिया करती थीं. लेकिन इसने न्याय की गुहार लगाई, इसकी आवाज़ तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ तक पहुंची और उन्होंने इसे मुआवज़े के रूप में 8300 डॉलर भिजवाये. इस लड़की ने इस राशि से एक स्कूल खोल लिया. इसी तरह की कहानी है इथियोपिया की एक लड़की की जो अपने पहले प्रसव के दौरान फिस्चुला से ग्रस्त हो जाती है. वह एक अस्पताल में जाकर जैसे-तैसे अपना इलाज करवाती है, और वहीं शल्य चिकित्सक की सहायिका बन जाती है, और खुद फिस्चुला का ऑपरेशन करना सीख लेती है. इसमें वह इतनी निपुण हो जाती है कि अब प्रख्यात शल्य चिकित्सक भी उससे इस काम की बारीकियां सीखने आते हैं. या उस कंबोडियाई लड़की को लीजिए जो जैसे-तैसे एक वेश्यागृह से भाग निकली और फिर एक सहायता समूह की मदद से शुरू किए गए छोटे-से व्यापार का विस्तार कर अब अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही है. या फिर ज़िम्बाब्वे की पांच बच्चों की वह मां जो किसी की प्रेरणा से स्कूल गई और अब न केवल पी-एच डी कर चुकी है, एड्स की विशेषज्ञा के रूप में भी सुपरिचित है.

लेखक दंपती की दिलचस्पी सरकारों और संस्थानों के बड़े कामों को उजागर करने की बजाय व्यक्तियों के कामों पर ध्यान केन्द्रित करने में अधिक रही है. इनको उन्होंने सामाजिक उद्यमी की संज्ञा दी है. संस्थानों को तो इन्होंने आड़े हाथों ही लिया है. अमरीकी फेमिनिस्टों की इन्होंने यह कहकर आलोचना की है कि उनकी दिलचस्पी विकासशील देशों की स्त्रियों की दशा सुधारने की बजाय टाइटल नाइन जैसे स्पोर्ट्स कार्यक्रमों के आयोजन में रहती है. बड़े समूहों पर उनकी यह टिप्पणी भी गौर तलब है कि एक तरफ तो रूढ़िवादी ईसाई हैं जो गर्भ निरोध को रोकने में जी-जान से जुटे हैं तो दूसरी तरफ सेक्युलर अभिजन हैं जो इसके प्रचार में जी-जान से जुटे हैं.

लेखक द्वय का स्पष्ट मत है कि स्त्रियों की क्षमता को मुक्त करके ही आर्थिक विकास की राह पर बढ़ा जा सकता है. अपनी बात की पुष्टि में वे चीन का उदाहरण देते हैं कि किस तरह उसने अपने देश की स्त्रियों को बंधन मुक्त किया, और उन्हें देश की मुख्य अर्थ-धारा में लाकर खुद को समृद्ध किया. किताब पाठक को उत्साहित करके ही खत्म नहीं हो जाती, यह हमारे उत्साह को एक दिशा भी देने की चेष्टा करती है. यह छोटे अस्पतालों, स्कूलों और सहायता संस्थानों की एक सूची भी देती है जहां हम अपना योगदान कर सकते हैं या जहां ज़रूरतमंदों को भेज सकते हैं.

Discussed book:
Half the Sky: Turning Oppression into Opportunity for Women Worldwide
By Nicholas D. Kristof & Sheryl WuDunn
Published by Knopf.
Hardcover, 294 pages
US $ 27.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 01 नवंबर, 2009 को प्रकाशित.








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