Wednesday, June 12, 2019

अब विवाद फ्रेंच फ्राइ के जन्म स्थान का


अपने देश में रसगुल्ले की व्युत्पत्ति को लेकर चले विवाद से हम सब भली भांति परिचित हैं. सामान्यत: यह माना जाता रहा है कि इसका जन्म बंगाल में हुआ, और हममें से बहुत सारे लोग बंगाली मिठाईके प्रतिनिधि के तौर पर रसगुल्ले को ही जानते हैं.  लेकिन इस धारणा को चुनौती  दी उड़ीसा ने. कहते हैं कि इस मिठाई का जन्म पुरी के जगन्नाथ मंदिर में हुआ था. एक प्रचलित कहानी के मुताबिक रथयात्रा के बाद जब भगवान जगन्नाथ वापस लौटे तो उन्होंने दरवाजा बंद पाया क्योंकि देवी लक्ष्मी उनसे नाराज थीं. उनकी नाराजगी इस वजह से थी कि जगन्नाथ उन्हें अपने साथ नहीं ले गए थे. रूठी देवी को मनाने के लिए जगन्नाथ ने उन्हें रसगुल्ला पेश किया और इसे पाकर देवी प्रसन्न हो गईं. रसगुल्ला उड़ीसा में 13वीं शताब्दी से बन रहा है. अभी भी रथयात्रा के बाद जब भगवान वापस मंदिर पहुंचते हैं तो रसगुल्ले ही उन्हें देवी के क्रोध से बचाते हैं. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उड़ीसा के इन तमाम तर्कों को नकार दिया गया और पश्चिम बंगाल को जीआई टैग यानि जियोग्राफिकल इंडिकेशन दे दिया गया. यानि अब आधिकारिक रूप से यह  माना जा चुका है कि रसगुल्ले की उत्पत्ति बंगाल में हुई थी. 
हमारे रसगुल्ला विवाद का तो पटाक्षेप हो गया, लेकिन अब दुनिया के दूसरे छोर पर एक अन्य खाद्य पदार्थ को लेकर कई देश अपने-अपने दावे प्रस्तुत कर रहे हैं. यह खाद्य पदार्थ है फ्रेंच फ्राइ. जी बिल्कुल वही फ्रेंच  फ्राई जो आलू के लम्बे लम्बे टुकड़ों को तलकर तैयार की जाती है. आम तौर पर हम लोग इसे एक अमरीकी उत्पाद मानते हैं क्योंकि हमारे पास तो यह लोकप्रिय अमरीकी फास्ट फूड रेस्तराओं की श्रंखलाओं के माध्यम  से ही पहुंचा है. लेकिन इसकी वंशावली का मामला बहुत पेचीदा है. हाल में बेल्जियम ने यूनेस्को के दरबार में एक गुहार लगाई है कि फ्रेंच फ्राइ को बेल्जियन सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता प्रदान  की जाए. ज़ाहिर है कि जब गुहार लगाई है तो पर्याप्त प्रमाण और तर्क भी प्रस्तुत किए ही होंगे. इसके नाम में भले ही फ्रांस  शामिल हो, फ्राइ के इतिहास के विशेषज्ञ  बेल्जियम के एक नामी शेफ़ एल्बर्ट वर्डेयेन का कहना है कि “अमरीकी लोग इसे फ्रेंच फ्राइ कहते हैं, लेकिन यह फ्रेंच फ्राइ नहीं है. असल में तो यह फ्रेंचभाषी (बेल्जियम की) फ्राइ है.” आम धारणा भी यही है कि अपने मूल रूप में फ्राइ का जन्म फ्रेंचभाषी बेल्जियम के नामुर नगर में हुआ. असल में वहां के  निवासी तली हुई मछली के शौकीन थे. लेकिन जब 1680 की सर्दियों में वहां की मीयूज़ नामक प्रमुख नदी जम गई तो लोगों ने अपनी तली हुई मछली खाने की तलब को तले हुए आलू खाकर पूरा किया. और इस तरह इस व्यंजन का जन्म हुआ. जहां तक इसके वर्तमान नाम का सवाल है, माना जाता है कि प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ्रेंचभाषी बेल्जियम में तैनात अमरीकी सैनिकों ने इन तले हुए आलुओं को फ्रेंच फ्राइ कहना शुरु किया और अब यही  नाम सर्व स्वीकृत है.
लेकिन पाक कला के बहुत सारे इतिहासकार इस धारणा से सहमत नहीं हैं. पियरे लेकलर्क उनमें से एक हैं. वे इस धारणा को अस्वीकार करते हुए  कहते हैं कि चाहे आप यह मान भी लें कि इस व्यंजन का जन्म नामुर में हुआ, 1680 की बात गले नहीं उतरती है क्योंकि उस इलाके में आलू 1735 से पहले होते ही नहीं थे. उनकी दूसरी असहमति तलने को लेकर है. उनका तर्क है कि अठारहवीं शताब्दी में तेल वगैरह वसा पदार्थ सामान्य जन के लिए विलासिता माने जाते थे. मक्खन बहुत महंगा था, पशु वसा दुर्लभ  थी और वनस्पतिजन्य वसा भी बड़ी कंजूसी से काम में ली  जाती थी. किसान लोग इस बेशकीमती वसा को तलने जैसे काम में बर्बाद करने की बजाय ब्रेड पर लगाकर या सूप में डालकर सीधे ही खाना ज़्यादा उपयुक्त समझते थे. पियरे लेकलर्क का कहना है कि यह बात शायद ही कभी पता चल सके कि तले हुए आलू के इस व्यंजन का आविष्कार किसने और कहां किया. लेकिन इतना निश्चित है कि यह उत्पाद फेरीवालों की देन है. और शायद  इसी वजह से इसका जन्म प्रमाण पत्र हासिल कर सकना लगभग असम्भव है.
अब बहुत सारे लोग इस पचड़े में न पड़कर मात्र यह स्वीकार कर संतुष्ट  हो जाना चाहते हैं कि जन्म इसका चाहे जहां हुआ हो, आज प्रमुखत: यह एक अमरीकी व्यंजन है क्योंकि औसतन एक अमरीकी साल में 29 पाउण्ड फ्रेंच फ्राइ उदरस्थ कर लेता है. अमरीका के पड़ोसी देश कनाडा का भी  इसकी लोकप्रियता के प्रसार में बड़ा योगदान है. वहां की एक कम्पनी फ्रोज़न फ्रेंच फ्राइ की दुनिया की सबसे बड़ी निर्मात्री है. शुक्र है कि अब तक अमरीका या  कनाड़ा से इस व्यंजन पर अपनी दावेदारी नहीं ठोकी है.
वैसे, जो फ्रेंच फ्राइ के स्वाद के दीवाने हैं उन्हें इस बात से फर्क़ भी क्या पड़ने वाला है कि इसका जन्म किस देश में हुआ! 

●●●
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत बुधवार, दिनांक 12 जून, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.