Tuesday, January 27, 2015

जयपुर साहित्य उत्सव: बात निकली है तो.........

साल 2015 के  जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का भी समापन हो गया. यह आयोजन हमारे समय की सबसे बड़ी सफलताओं की गाथा है. सन 2005 में मात्र चौदह अतिथियों की उपस्थिति में प्रारम्भ हुआ यह आयोजन इतने कम समय में दुनिया का सबसे बड़ा निशुल्क साहित्यिक उत्सव  बन जाएगा – यह कल्पना तो इसके आयोजकों ने भी नहीं की होगी. एक मोटे अनुमान के अनुसार इस बरस भी इस उत्सव में कुल उपस्थिति ढाई  लाख के  करीब रही.  यह आयोजन एक तरफ जहां जयपुर और भारत को विश्व के मानचित्र पर प्रभावशाली तरीके से रेखांकित करता है, पर्यटन  और अन्य सम्बद्ध व्यवसायों की उन्नति में योगदान करता है वहीं साहित्य, कलाओं और विचारों पर मुक्त चिंतन का विरल अवसर भी प्रदान करता है. इस आयोजन  की सराहना इस बात के लिए भी की जानी चाहिए कि इसकी सफलता से प्रेरित होकर पूरे देश में साहित्य उत्सवों का सिलसिला चल निकला है. हमारे अपने प्रांत में भी अनेक नए साहित्य और कला उत्सव होने लगे हैं.

लेकिन गम्भीर साहित्य के कद्रदां इस आयोजन  से तनिक भी प्रभावित नहीं हैं. बल्कि वे तो इससे बहुत नाराज़ हैं. उन्हें न तो साहित्य का उत्सवीकरण पसन्द आता है न साहित्य की परिधि का इतना विस्तार कि उसमें सब कुछ समा जाए. उन्हें लगता है कि राजनीति, खेल, फिल्म, फैशन,  ग्लैमर आदि की चर्चाएं लोगों को भ्रमित और साहित्य  से विमुख करती हैं. हमारे समय के बेस्ट सेलर लेखकों की उपस्थिति  भी उन्हें पसन्द नहीं आती है, क्योंकि वे तो उन्हें लेखक ही नहीं मानते हैं. गम्भीर साहित्यिक बिरादरी को इस आयोजन से एक बड़ी शिकायत इसके अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत की तरफ झुकाव से भी है. वे इसे भारतीय भाषाओं के प्रति आक्रामक षड़यंत्र के रूप में भी देखते हैं. शुरु-शुरु में राजस्थानी साहित्यकार भी अपनी अवहेलना से नाराज़ थे लेकिन आयोजकों ने उनकी सहभागिता बढ़ाकर उन्हें तो एक सीमा तक संतुष्ट कर दिया है.

इन सब बातों के बावज़ूद, दुनिया भर के लेखकों और साहित्य  प्रेमियों का इतनी बड़ी तादाद में इस आयोजन में शरीक होना एक ऐसी परिघटना है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. पूरे पांच दिन तक हर रोज़ छह स्थानों पर छह सत्रों का एकदम समय की पाबन्दी के साथ होना और उनमें बहुत बड़े जन समूह का शिरकत करना साधारण बात नहीं है. इस साल सारे ही सत्र हाउस फुल से कम नहीं थे और चर्चा के विषय या चर्चा करने वालों के बारे में उपस्थित जन की जानकारियां चकित कर डालने वाली थी. उन्हें तमाशबीन कहना उनके असम्मान से अधिक अपने पूर्वाग्रह  का प्रदर्शन होगा. हां, इतने बड़े आयोजन में तमाशबीनों या मौज मज़े के लिए आने वालों की तादाद भी कम नहीं रही. और इसे अस्वाभाविक भी नहीं माना जाना चाहिए और न इस बात को भूला जाना चाहिए कि यह है तो उत्सव ही.

हममें से जितना ताल्लुक साहित्य से है वे प्राय: साहित्य में लोगों की घटती रुचि की शिकायत करते पाए जाते हैं. हम हिन्दी भाषी लेखकों (और हिन्दी शिक्षकों)  की शिकायत समाज अंग्रेज़ी के बढ़ते जा रहे प्रचलन और प्रभाव को लेकर भी होती है. किसी खासे बड़े शहर में भी आपको किताब की दुकान ढूंढनी पड़ती है और अगर दुकान मिल जाए तो वहां जाकर हिन्दी की किताब ढूंढनी पड़ती है. हिन्दी प्रकाशक की आम शिकायत यह होती है कि लोग हिन्दी की किताबें खरीदते ही नहीं हैं. और इसी के समानांतर हमारे ही समय और समाज में अंग्रेज़ी की किताबें धड़ल्ले से बिक रही हैं और उनके लेखक अमीर और स्टार बनते जा रहे हैं. यानि लोग किताबें तो खरीदते हैं मगर हिन्दी की नहीं, अंग्रेज़ी की.

क्या इस बात पर कोई विचार सम्भव है कि क्यों हिन्दी की किताबें कम और अंग्रेज़ी की किताबें अधिक बिकती हैं? और यह भी कि क्या वाकई  हिन्दी की किताबें कम बिकती हैं? पुस्तक मेलों और प्रकाशकों की हालत को देखकर तो यह भी नहीं लगता. तो क्या गम्भीर और साहित्यिक पुस्तकें कम बिकती हैं, और इतर किस्म की किताबें धड़ाधड़ बिक जाती हैं? और क्या यह बात भी है कि हिन्दी में लोकप्रिय लेखन का अभाव है? या इस बात के सूत्र प्रकाशकों के अपने गणित से जुड़ते हैं?  

मुझे लगता है कि जयपुर साहित्य उत्सव हमें बहुत सारी बातों पर गम्भीर विमर्श के लिए  भी प्रेरित करता है. इस उत्सव की सार्थकता, प्रासंगिकता, इसकी उपलब्धियों, इसकी खामियों इन सब पर विचार करते हुए क्या हर्ज़ है अगर हम इस बात  पर भी विचार करें कि कैसे लोगों को पुस्तकों की तरफ आकृष्ट किया जा सकता है और कैसे लेखक-पाठक के बीच की खाई को छोटा किया जा सकता है? इधर साहित्य उत्सवों के कारण पूरे देश में जो माहौल  बना है उसका अपनी भाषा के बेहतर और गम्भीर साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए भी किया जाना चाहिए.  
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगल्वार, 27 जनवरी, 2015 को जयपुर साहित्य उत्सव: बात निकली है तो दूर तक जाएगी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, January 20, 2015

सेल्फी वेल्फी मैं क्या जानूं रे.....

दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही है. जीवन पहले की तुलना में निरंतर अधिक सुगम होता जा रहा है. यह बात अलग है कि उसे सुगम करने वाले साधनों को जुटाने के लिए हमें अधिक श्रम और प्रयास करने पड़ रहे हैं जिनकी वजह से सुगमता का आनंद लेने के अवकाश में कटौती भी होती जा रही है. कुछ समय पहले तक जिन चीज़ों और कामों के लिए हमें खूब पापड़ बेलने पड़ते थे वे या उनमें से अधिकांश अब हमारे एक हल्के-से इशारे पर होने लगे हैं. इन सब बातों के उदाहरण देकर मैं आपका कीमती वक़्त बर्बाद नहीं करना चाहता. मैं तो आपके सोच को दूसरी तरफ ले जाना चाहता हूं.

हमारे सुख सुविधाओं को  बढ़ाने वाले इन साधनों के विस्तार में बाज़ार की बहुत बड़ी भूमिका है. असल में पूरा का पूरा बाज़ार इसी मूल मंत्र पर फल फूल रहा है कि वो अपने उपभोक्ताओं के जीवन को कैसे और अधिक सुगम बनाए. और इसी मूल मंत्र के इर्द गिर्द और बहुत सारी चीज़ें बड़े नामालूम तरीकों से बहुत कुशलता के साथ बुन दी जाती हैं. मसलन सुविधा को बड़े सुनियोजित लेकिन अदृश्य तरीकों से आपके स्टेटस के साथ जोड़ दिया जाता है. यह सब करने में विज्ञापन की भूमिका तो होती ही है, आजकल अन्य अनेक माध्यम भी यह सब करने में  जुटे नज़र आते हैं. बड़े और प्रभावी लोगों की जीवन शैली की चर्चा करके बहुत सारे उत्पादों और ब्राण्डों की ज़रूरत कब और कैसे आपके मन में जगा दी जाती है, आप खुद नहीं जान-समझ पाते हैं. अब उत्पाद ही नहीं बेचे जाते, जीवन-शैली भी बेची जाती है और  बेचने से पहले उसे खरीदने की चाह भी आपके मन में उगाई जाती है.

इस सारे खेल में रोचक बात यह रहती है कि कैसे किसी चीज़ को पहले बेकार या अनुपयोगी घोषित  किया  जाता है और फिर उसी को विण्टेज या दुर्लभ के नाम पर महंगे मोल में बेच दिया जाता है. और इसी तरह जिसकी आपको ज़रूरत न हो उसे भी आपकी ज़रूरत के रूप में स्थापित कर आपके मन में कृत्रिम अतृप्ति जगाकर एक अनुपयोगी उत्पाद को भी मनचाहे दामों पर आपको बेच दिया जाता है. अगर कभी शांत चित्त से आप इस सारे कारोबार को देखें तो बहुत रोचक चीज़ों की तरफ आपका ध्यान जाएगा.

बहुत पुरानी बात नहीं है जब लोग लम्बी चिट्ठियां लिखकर अपनी भावनाओं का इज़हार  किया करते थे. फिर टेलीफोन आया और आते ही उसने सुविधा का विस्तार करने के साथ-साथ पूरे मोहल्ले में आपकी इज़्ज़त में भी चार चांद लगा दिये. और फिर आया मोबाइल, यानि  पूरी दुनिया आपकी मुट्ठी में. लेकिन मोबाइल अपने साथ एक ब्राण्ड वैल्यू भी लेकर आया. आप किसी से बात कर पा रहे हैं, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो गया कि आपके हाथ में जो हैण्ड सेट है वह किस ब्राण्ड का और  कितना महंगा है. और इसी के साथ आहिस्ता-आहिस्ता उस हैण्ड सेट में और सुविधाएं भी जुड़ने लगीं और अब तो हाल यह है कि मनुष्य से अधिक उसका मोबाइल स्मार्ट हो गया है. मोबाइल आया तो कुछ समय बाद  एक कैमरा भी उसमें घुस गया. यहां तक तो ठीक. अब शुरु होता है वो मज़ेदार खेल  जिसकी बात मैं करना चाहता हूं. मोबाइल में पीछे की तरफ वाला एक कैमरा अपर्याप्त  लगा तो आगे भी एक कैमरा जोड़ दिया गया. और इसी के बाद एक नई चीज़ हमारे जीवन में घुसी – सेल्फी! घुसी नहीं, घुसाई गई. अपने कैमरे से अपना फोटो आप पहले भी ले  सकते थे, लेकिन बाकायदा विज्ञापन करके सेल्फी समर्थ मोबाइल बेचे जाने लगे. और जब सेल्फी आ गई तो भला वेल्फी को आने से कौन रोक सकता था? वेल्फी यानि  स्व-वीडियो. और जब सेल्फी-वेल्फी  आई तो  उनमें मददगार बहुत सारे एप्स भी आए और एक डण्डी भी आ गई – सेफी स्टिक.

लेकिन हाल ही में इस सेल्फी-वेल्फी परिवार में जिस नए सदस्य का आगमन हुआ है वो सबसे अधिक हास्यास्पद  है. इस सदस्य का नाम है बेल्फी. बेल्फी यानि अपनी खींची हुई अपने नितम्बों की छवि! कहा जाता है कि किम कार्दाशियां, जिन्हें अपनी देह के इस भाग के प्रदर्शन में विशेष रुचि रहती हैं इस नई प्रवृत्ति की मुख्य प्रेरिका  हैं. इस बेल्फी के लिए अलग से डण्डियां  भी बाज़ार में आने को हैं  और उनकी खूब बिक्री की सम्भावनाएं हैं. मैं बस यह सोच रहा हूं कि सेल्फी-वेल्फी-बेल्फी के बाद कौन-सी ‘–फी’   की बारी है?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 20 जनवरी, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित  आलेख का मूल पाठ.      

Tuesday, January 13, 2015

कला को कला ही रहने दो

सारी दुनिया में हंसने-हंसाने की और उसे लिपिबद्ध  कर बाद की पीढ़ियों के लिए सुलभ करा देने की  एक लम्बी  परम्परा रही है. बहुत पीछे न भी जाएं तो मुल्ला नसरुद्दीन और अकबर बीरबल के किस्सों को याद किया जा सकता है. अपने समय के एक मशहूर अंग्रेज़ी लेखक ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी, कि अगर आप लोगों को सच बताना चाहते हैं तो उन्हें हंसाओ, वर्ना वे तुम्हें मार देंगे! पता नहीं, वे ऑस्कर वाइल्ड अगर आज होते तो इसी बात को फिर से कहते या नहीं! बड़ी अजब दुनिया है. कार्टून जिसे हास्य और कला का ही एक रूप माना-बताया जाता है एकाधिक बार दुनिया में नृशंस  कृत्यों के कारण  बने हैं. पिछले दिनों फ्रांस में जो हुआ, और जिसकी पुरज़ोर निंदा सारी दुनिया में हो रही है उसके मूल में भी वहां की एक कार्टून पत्रिका शार्ली एब्डो में छपे कार्टून ही हैं. कहा गया कि फ्रांस का यह काण्ड इस लिए हुआ कि इस पत्रिका में छपे कुछ कार्टूनों से कुछ लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई थीं.

अभी हाल ही में गुलाबी नगरी में एक भव्य आयोजन सम्पन्न हुआ, नाम था जयपुर लाफ्टर फेस्टिवल. देश भर के कॉमेडियन एकत्रित हुए और उन्होंने अपने लतीफों से, अपनी मिमिक्री से, और भी कई तरह से उपस्थित भारी जन समूह को खूब गुदगुदाया-हंसाया. जैसा कि   हम सब जानते हैं, मंच पर हास्य प्रस्तुत करने वालों के कुछ प्रिय विषय होते हैं और उनके अधिकतर प्रसंग इन्हीं के इर्द गिर्द बुने हुए होते हैं. इन प्रसंगों में पत्नी से सम्बद्ध प्रसंग शायद सबसे ज़्यादा होते हैं जिनका सार यह होता है कि पत्नियां दुनिया की सबसे क्रूर प्राणी होती हैं और दुनिया का हर पति उनसे  त्रस्त होता है. इसी तरह मारवाड़ियों, बनियों, पंजाबियों, बिहारियों, मद्रासियों (हमारे लिए तो हर दक्षिण भारतीय मद्रासी ही होता है ना!)  को लेकर खूब लतीफे सुनाए जाते हैं. लोगों की शारीरिक अक्षमताओं को, जैसे किसी के हकलाने को लेकर या किसी के एक नेत्र वाला होने पर या किसी के आंखे मिचमिचाने पर खूब चुटकियां ली जाती हैं. और नेताओं की तो बात ही मत कीजिए. कल्पना कीजिए कि अगर किसी तरह नेताओं को लेकर हंसी मज़ाक करने पर रोक लगा दी जाए तो शायद हमारे अधिकांश हास्य कलाकार बेरोज़गार हो जाएं. स्वाभाविक ही है कि जयपुर लाफ्टर फेस्टिवल में भी दो दिनों तक इन कलाकारों ने इन सब को जम कर उड़ाया. लेकिन मज़ाल है कि किसी की भावनाएं आहत हुई हों! यहां तक कि पत्नियों के बारे में किए गए हंसी मज़ाक का पत्नियों ने भी उतना ही आनंद लिया जितना उनसे पीड़ित बताए गए पतियों ने लिया.


तो, सोचने की बात यह है कि  एक तरफ ये सब हैं जो सर्व शक्तिमान भगवान की तुलना में बहुत कमज़ोर हैं, लेकिन ये अपने बारे में की गई मज़ाक से, जिसमें कई बार आलोचना भी शामिल होती है, आहत नहीं होते हैं. इनके समर्थक भी आहत नहीं होते हैं. लेकिन सर्व शक्तिमान भगवान के बन्दे उनके बारे में की गई टिप्पणी, उनके चित्रण, उनसे असहमति अदि से इतने क्रुद्ध हो जाते हैं कि वे अकल्पनीय और अस्वीकार्य हरकत तक कर बैठते हैं. ऐसा क्यों होता है? और जब-जब ऐसा होता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुदा ज़रूर उठता है. कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा, क्योंकि सृजन प्राय: कलाकार का ही होता है.

मुझे लगता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर मोटे तौर पर दो राय हैं. एक उन लोगों की राय है जो निर्बाध और शर्त विहीन स्वतंत्रता के पक्षधर हैं. वे मानते  हैं कि कलाकार जैसा चाहे वैसा रचने के लिए स्वतंत्र है. अगर उसका रचा किसी को पसन्द न हो तो वह उसे अनदेखा कर दे. दुनिया के अनेक समाज या देश  जिनमें से अधिकांश पश्चिमी प्रबोधन (एनलाइटमेंट) का हिस्सा रहे हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शायद ही कोई पाबंदी लगाते हैं, अगर लगाते भी हैं तो बहुत ही मामूली. फ्रांसीसी क्रांति के दौरान 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के अधिकार को 'मनुष्य के अधिकारों की घोषणा' के 'सबसे महत्वपूर्ण अधिकारों' में एक माना गया था. यह माना जा सकता है कि फ्रांस की हाल की घटना  का जो लोग मुखर विरोध कर रहे हैं उनका सोच भी यही है. और इनके बरक्स भारत जैसे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निर्बाध और निरपेक्ष नहीं माना जाता है. यही वजह है कि हमारे यहां समय समय पर बहुत सारी पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं.

मेरा मानना है कि अगर कोई आपकी आलोचना करता है तो भी आपको यह अधिकार तो नहीं है कि आप उसको मार ही डालें, लेकिन कला को भी कला तो रहना ही होगा, और अगर वो कला रहेगी तो वो किसी को ठेस पहुंचा ही नहीं सकती है. ठेस पहुंचाने का काम तो हथियार करते हैं.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय  अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 जनवरी, 2015 को कला को कला ही रहने दो, मारो मत शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.       

Tuesday, January 6, 2015

पड़िये ग़र बीमार तो....

अगर आप बीमार हो जाएं तो क्या करेंगे?
अजीब सवाल है!  डॉक्टर के पास जाएंगे, और क्या करेंगे?
सही भी है. जिन लोगों में मेरा उठना बैठना है वे किसी पीर-ओझा-बाबा के पास तो जाने से रहे. बेशक समाज का एक वर्ग है जो बीमार होने पर जादू-टोने-टोटकों वगैरह की शरण लेता है, लेकिन बहुत बड़ा वर्ग वह है जो बीमार होने पर अस्पताल भागता है और रोग की गम्भीरता तथा अपनी हैसियत के अनुरूप छोटे या बड़े डॉक्टर की सलाह लेता है. इसी वर्ग में वे लोग भी शामिल हैं जो अपने-अपने विश्वासों के अनुरूप एलोपैथिक से इतर किसी चिकित्सा पद्धति की शरण में जाते हैं.  वैसे यह बात आम तौर पर मान ली गई है कि किसी को तुरंत राहत चाहिये तो उसे एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति की शरण में ही जाना होगा.

एलोपैथिक चिकित्सक आपकी बात सुनेगा, अगर उसे ज़रूरी लगा तो कुछ परीक्षण करवाएगा और फिर कुछ दवाइयां  लिख देगा. सरकार लाख कहे कि जेनेरिक दवाइयां लिखी जाएं, डॉक्टर आम तौर पर आपको ब्राण्डेड दवाइयां ही देगा. लेकिन अगर आपका रोग गम्भीर हुआ तो बहुत मुमकिन है कि डॉक्टर आपको शल्य चिकित्सा की सलाह दे. तब आप क्या करेंगे? डॉक्टर भगवान है, उसकी सलाह मानेंगे. ठीक  है ना?

लेकिन अभी हाल में नवी मुम्बई के एक सेकण्ड ओपिनियन सेण्टर की जो रिपोर्ट सामने आई है, उसे पढ़ने के बाद शायद आप भी अपने इस जवाब पर पुनर्विचार करना चाहें! यह सेकण्ड ओपिनियन सेण्टर दरअसल एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान है जो अपने आप को ई-  हॉस्पिटल कहता है और आप द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट्स आदि के आधार पर कुछ शुल्क लेकर आपको दुनिया भर में अवस्थित अपने विशेषज्ञ चिकित्सकों की सलाह उपलब्ध कराता है. इस सेण्टर ने हाल में साढे बारह हज़ार ऐसे रोगियों का विश्लेषण कर एक रिपोर्ट जारी की है जिन्हें शल्य चिकित्सा की सलाह दी गई थी. सेण्टर का कहना है कि इनमें से 44% को असल में शल्य चिकित्सा की ज़रूरत थी ही नहीं. अब ज़रा इसी बात को अगर अलग-अलग रोगों के सन्दर्भ में देखिये. जिन हृदय रोगियों को सलाह दी गई उनमें से पचपन प्रतिशत को स्टेण्ट  लगवाने की, सैंतालिस प्रतिशत कैंसर रोगियों को शल्य क्रिया की, और अड़तालीस प्रतिशत को घुटनों के प्रत्यारोपण की ज़रूरत नहीं थी. सोचिये, अगर आपकी जेब और आपकी देह दोनों ने ग़ैर ज़रूरी शल्य चिकित्सा का अत्याचार सहन किया होता तो?

वैसे यह जानकर आपको थोड़ी राहत महसूस हो सकती है कि सिर्फ अपने देश में ही ऐसा नहीं होता है. पिछले  दिनों हम लोग यह भी पढ़ चुके हैं कि अमरीका में किए गए घुटना प्रत्यारोपण के ऑपरेशनों में भी एक तिहाई अनावश्यक थे. अपने देश में भी, और अन्य देशों में भी, प्रसव के लिए सिज़ेरियन ऑपरेशनों की अधिकता और अनावश्यकता पर अक्सर सवाल उठाये जाते रहे हैं.

जानकार लोग अनावश्यक शल्य चिकित्सा के मूल में यह बात  देखते हैं कि निजी अस्पतालों में डॉक्टरों को मिलने वाली तनख्वाह का सीधा सम्बन्ध इस बात से होता है कि वे अपने अस्पताल को कितना ‘बिज़नेस’ देते हैं.  और कमोबेश यही बात हमें दी जाने वाली ग़ैर ज़रूरी दवाइयों के बारे में भी सच है. फर्क बस इतना है कि यहां डॉक्टर और अस्पताल की बजाय डॉक्टर और दवा कम्पनी का समीकरण काम करता है. दवा कम्पनियों द्वारा डॉक्टरों को उनके लिखे प्रेस्क्रिपशंस के अनुरूप ‘उपहार’ प्रदान करने की चर्चाओं से शायद ही कोई नावाक़िफ हो.

इस सारे खेल में एक और पक्ष अब तेज़ी से जुड़ता जा रहा है और वह है बीमा कम्पनियां. भारत में भी सरकारी अस्पतालों की बदहाली से तंग आए लोग निजी अस्पतालों का रुख करने और उन्हें बहुत ज़्यादा महंगा पाकर मेडिकल इंश्योरेंस में अपना संकट मोचक तलाश करने लगे हैं. निजी अस्पतालों और बीमा कम्पनियों की साठ गांठ इलाज का खर्चा दिन दूना रात चौगुना बढ़ाने में कोई कसर नहीं रख रही है. शायद इसी की परिणति इस बात में भी हुई है कि हाल ही में बीमा कम्पनियों ने कुछ महत्वपूर्ण रोगों के लिए शुल्क निर्धारित कर दिया जिसे ये अस्पताल मानने को तैयार नहीं हैं और परिणामत: अस्पतालों ने कैश लैस सुविधा को स्थगित कर रखा है.

लेकिन इस सारी चर्चा से यह न मान लिया जाए सारा दोष डॉक्टरों और अस्पतालों का ही है. इस चर्चा के शुरु में मैंने सेकण्ड ओपिनियन सेण्टर की जिस रिपोर्ट का ज़िक्र किया, उसके सन्दर्भ में यह जान लेना भी ज़रूरी होगा कि दो डॉक्टरों की राय में अंतर सदा सम्भव है. इसलिए यह मान लेना भी उचित नहीं होगा कि हर मामले में पहली राय ग़लत और दूसरी राय ही सही होगी. दूसरी राय से भी असहमत होने की सम्भावनाओं को स्वीकार किया जाना चाहिए. लेकिन ये तमाम बातें  हमारी चिंताओं को घटाते नहीं, बढ़ाते हैं, यह बात निर्विवाद है.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़  टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 06 जनवरी, 2015 को आगे कुंआ, पीछे खाई, कोई राह न दे सुझाई शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.